रविवार, 23 अक्टूबर 2022

व्योमवार्ता/ अबकी बार....(भरत मिलाप 23अक्टूबर 2015 की रचना)

आज शहर  में एक  अद्भुत घटना  घट गयी 
बीच  चौराहे पर रावण  ने हड़ताल  कर दी 
इस बार मैं नहीँ जलूँगा,चर्चा खुलेआम कर दी
एक पाप  के लिए  मुझे हर  साल जलाते  है 
पर आजकल  तो ये पाप  सरे-आम होता  है 
फिर  क्यों नही  उन  पापियों का दहन करते
मैंने तो  केवल  सीता  का हरण  किया  था 
अब तो  सीता  का  दामन  तार-तार  होता है 
सीता हरण तो मैंने स्वपन में भी नही सोचा था
बहन के प्रेम में पड़  कर ये अपराध  किया था 
पर अब ये अपराध तो बिलकुल आम हुआ है 
लंका में  रहकर भी सीता  दामन-ए-पाक थी 
अब तो घर में भी नारी का  चिर-हरण हुआ है 
हरण के बाद भी मैंने सीता का सम्मान किया था 
सम्मान तो  क्या, अब तो वह  सुरक्षित भी नही 
सदियों से,  युगों-युगों से  मेरा दहन होता रहा है 
दहन  तो  इस बार  भी  तुम  मेरा करना '
पर दहन सिर्फ राम करे,कोई दूसरा रावण नहीं

चौदह बरसों बाद भरत के राम आज अपनी नगरी वापस लौटेगें।
पर
 अपनी अयोध्या मे उजाला कब होगा ? 
मन की अयोध्या मे सीता रूपी आाशा और राम रूपी विश्वास के आगमन की शुभकामनाओं के साथ भरत मिलाप की ढेरों बधाईयॉ ।
(काशी,23अक्टूबर2015)

🙏🙏🙏🙏

शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

व्योमवार्ता/एक बाप का फैसला

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं.....

*एक बाप का फैसला*

"क्या बताऊँ मम्मी, आजकल तो , बासी कढ़ी में भी उबाल आया हुआ है| 
जबसे पापा जी रिटायर हुए है , दोनों लोग फिल्मी हीरो हीरोइन की तरह दिन भर अपने बगीचे में ही झूले पर विराजमान रहते हैं| 
न अपने बालों की सफेदी का लिहाज है न बहू बेटे का इस उम्र में दोनों मेरी और नवीन की बराबरी कर रहे हैं|
ठीक है मां मैं आपसे बाद में बात करती हूं शायद सासुमा आ रही हैं।"

  सासु मां ने बहू की बातें कमरे के बाहर सुन ली थी, 
पर नज़रअंदाज़ करते हुए खामोशी से चाय सोनम को दे दी| 

 सासू मां बहू सोनम को चाई देने के पश्चात पति देव अशोक जी के लिए चाय ले जाने लगी, 
ऐसा देखकर बहू सोनम के चेहरे पर व्यंगात्मक मुस्कान तैर गयी| 
पर सासू मां, समझदारी दिखाते हुए बहू की इस नाजायज हरकत को नज़र अंदाज़ करते हुए सिर झुकाए वन्हा से निकल गईं| 

पति के रिटायर होने के बाद कुछ दिन से उनकी यही दिनचर्या हो गयी थी|  
आजकल सासुमा प्रभा जी अपने पति देव अशोक जी को उनकी इच्छानुसार अच्छे से तैयार होकर अपने घर के सबसे खूबसूरत हिस्से में अपने पति देव के साथ झूले में बैठ कर उनको कंपनी देती थी।
 
प्रभाजी ने सारी उम्र तो उनकी बच्चों के लिए लगा दी थी|  

 कोठीनुमा घर अशोक और प्रभा का जीवन भर का सपना था, जो उन्होंने बड़ी मेहनत से साकार किया था।

 
ऐसे मनमोहक वातावरण में वहां पर लगा झूला मन को असीम शांति प्रदान करता।

पहले वह और अशोक इस मनमोहक जगह में कम समय के लिए ही बैठ पाते थे।
प्रभा अनमनी होतीं तो अशोक बड़े ज़िंदादिल शब्दों में कहते, 
"पार्टनर रिटायरमेंट के बाद दोनों इसी झूले पर साथ बैठेंगे और खाना भी साथ में ही खायेंगे| 
आपकी हर शिकायत हम दूर कर देँगे| 
फ़िलहाल हमें बच्चों के लिये जीना है| 
बच्चों के कैरियर पर बहुत कुछ बलिदान करना पड़ा, 
खेर अब बेटा अच्छी नौकरी में था और बेटी भी अपने घर की हो चुकी थी | 

रिटायरमेंट के बाद घर में थोड़ी रौनक रहने लगी थी,
अशोक जी को भी घर में रहना अच्छा लग रहा था| 
पहले तो बड़े पद पर थे तो कभी उनके कदम घर में टिकते ही नहीँ थे|  

लेकिन उनकी बहू सोनम अपने पति नवीन को उसके माता पिता के लिये ताने देने का कोई मौका न छोड़ती| 

उसने उस कोने के बागीचे से छुटकारा पाने के लिये नवीन को एक रास्ता सुझाते हुए कहा,"क्योँ न हम बड़ी कार खरीद लें...नवीन"| 
 "आईडिया तो अच्छा है पर रखेंगे कहाँ एक कार रखने की ही तो जगह है घर में",नवीन थोड़ा चिंतित स्वर में बोला|

"जगह तो है न, वो गार्डन तुम्हारा..जहाँ आजकल दोनों लव बर्ड्स बैठते हैं।"
सोनम व्यागतमक स्वर में बोली|  

"थोड़ा तमीज़ से बात करो,"
नवीन क्रोध से बोला।
लेकिन फिर भी सोनम ने अपने पति को पापा जी से बात करने का मन बना लिया।  

अगले दिन नवीन कुछ कार की तस्वीरों के साथ शाम को अपने पिता के पास गया और बोला,
" पापा !मैं और सोनम एक बड़ी गाड़ी खरीदना चाहते हैं "  

"पर बेटा एक बड़ी गाड़ी तो घर में पहले ही है, फिर उस नई गाड़ी की रखेंगे भी कहाँ?"
अशोक जी ने प्रश्न किया|  
"ये जो बगीचा है यहीँ गैराज बनवा लेंगे वैसे भी सोनम से तो इसकी देखभाल होने से रही और मम्मी कब तक देखभाल करेंगी? 
इन पेड़ों को कटवाना ही ठीक रहेगा| 
वैसे भी ये सब जड़े मज़बूत कर घर की दीवारें कमज़ोर कर रहें है|" 

यह सुनकर प्रभा तो वहीँ कुर्सी पर सीना पकड़ कर बैठ गईं,
अशोक जी ने क्रोध को काबू में करते हुए कहा, 
मुझे तुम्हारी माँ से भी बात करके थोड़ा सोचने का मौका दो|  
क्या पापा... मम्मी से क्या पूछना ..वैसे भी इस जगह का इस्तेमाल भी क्या है नवीन थोड़ा चिड़चिड़ा कर बोला|  
"आप दोनों दिन भर इस जगह बगैर कुछ सोचे समझे,चार लोगों का लिहाज किये बग़ैर साथ में बैठे रहते हैं|
अब आप दोनों कोई बच्चे तो नहीं हो |  
लेकिन आप दोनों ने दिन भर झूले पर साथ बैठे रहने का रिवाज बना लिया है और ये भी नहीँ सोचते कि चार लोग क्या कहेंगे|  
इस उम्र में मम्मी के साथ बैठने की बजाय आप अपनी उम्र के लोगों में उठा बैठी करेंगे तो वो ज़्यादा अच्छा लगेगा न कि ये सब।"
 और वह दनदनाते हुए अंदर चला गया| अंदर सोनम की बड़बड़ाहट भी ज़ारी थी।

अशोक जी कड़वी सच्चाई का एहसास कर रहे थे।

पर आज की बात से तो उनके साथ प्रभा जी भी सन्न रह गईं,
अपने बेटे के मुँह से ऐसी बातें सुनकर दोनों को दिल भर आया था और टूट भी चुका था।
 रिटायरमेंट को अभी कुछ ही समय हुआ जो थोड़ा सकून से गुजरा था।
पहले की ज़िन्दगी तो भागमभाग में ही निकल गयी थी, बच्चों के लिए सुख साधन जुटाने में|  
अशोक जी आज पूरी रात ऊहापोह में लगे रहे,
 कुछ सोचते रहे, कुछ समझते रहे और कुछ योजना बनाते रहे ।
लेकिन सुबह जब वे उठे तब बड़े शांत और प्रसन्न थे।

वे रसोई में गये और खुद चाय बनाई | 
कमरे में आकर पहला कप प्रभा को उठा कर पकड़ाया और दूसरा खुद पीने लगे|  
आपने क्या सोचा?प्रभा ने रोआंसे लहज़े में पूछा| 
 मैं सब ठीक कर दूँगा बस तुम धीरज रखो,अशोक बोले| पर हद से ज़्यादा निराश प्रभा उस दिन पौधों में पानी देने भी न निकलीं,और न ही किसी से कोई बात की|  

दिन भर सब सामान्य रहा,लेकिन शाम को अपने घर के बाहर To Let का बोर्ड टँगा देख नवीन ने भौंचक्के स्वर में अशोक से प्रश्न किया,"पापा माना कि घर बड़ा है पर ये To Let का बोर्ड किसलिए"? 
 " अगले महीने मेरे स्टाफ के मिस्टर गुप्ता रिटायर हो रहें है,तो वो इसी घर में रहेँगे",
उन्होंने शान्ति पूर्ण तरीके से उत्तर दिया| हैरान नवीन बोला,
"पर कहाँ?" "तुम्हारे पोर्शन में",अशोक जी ने सामान्य स्वर में उत्तर दिया|  
नवीन का स्वर अब हकलाने लगा था,"और हम लोग " "तुम्हे इस लायक बना दिया है दो तीन महीने में कोई फ्लैट देख लेना या कम्पनी के फ्लैट में रह लेना,अपनी उम्र के लोगों के साथ | 
"अशोक एक- एक शब्द चबाते हुए बोल रहे थे|  
हम दोनों भी अपनी उम्र के लोगों में उठे बैठेंगे।
 तुम्हारी माँ की सारी उम्र सबका लिहाज़ करने में निकल गयी| 
कभी बुजुर्ग तो कभी बच्चे| 
अब लिहाज़ की सीख तुम सबसे लेना बाकी रह गया थी| "पापा मेरा वो मतलब नहीँ था",नवीन सिर झुकाकर बोला|  

नही बेटा तुम्हारी पीढ़ी ने हमें भी प्रैक्टिकल बनने का सबक दे दिया,
जब हम तुम दोनों को साथ देखकर खुश हो सकते है तो तुम लोगों को हम लोगों से दिक्कत क्योँ है| "?  
इस मकान को घर तुम्हारी माँ ने बनाया, ये पेड़ और इनके फूल तुम्हारे लिए माँगी गयी न जाने कितनी मनौतियों के साक्षी हैं,
तो यह अनोखा कोना छीनने का अधिकार में किसी को भी नहीं दूँगा|  
पापा आप तो सीरियस हो गये, नवीन के स्वर अब नम्र हो चले थे|  
न बेटा... तुम्हारी मां ने जाने कितने कष्ट सहकर, कितने त्याग कर के मेरा साथ दिया आज इसी के सहयोग से मेरे सिर पर कोई कर्ज़ नहीँ है|
 इसलिये सिर्फ ये कोना ही नहीं पूरा घर तुम्हारी माँ का ऋणी है| ।
घर तुम दोनों से पहले उसका है, क्योंकि जीभ पहले आती है, न कि दाँत|  
जब मंदिर में ईश्वर जोड़े में अच्छा लगता है तो मां बाप साथ में बुरे क्योँ लगते हैं? 
ज़िन्दगी हमें भी तो एक ही बार मिली है|
इसलिए हम इसे अपने हिसाब से एंजॉय करना चाहते हैं।
  #व्योमवार्ता

व्योमवार्ता/सिखाता नही कर के दिखाता हूं

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं......

#सिखाता_नही_कर_के_दिखाता_हूं...
'सर! मुझे चार दिनों की छुट्टी चाहिए, गांव जाना है!'-बॉस के सामने अपना आवेदन रखते हुऐ संदीप  ने कहा

'चार दिन! इकट्ठे! कोई खास बात है क्या?'--बॉस ने उत्सुकता वश पूछा।

'जी सर! पितृपक्ष चल रहा है ना, पिता को पिंडदान करना है!'

'क्या संदीप! कॉरपोरेट वर्ल्ड में काम करते हुए भी तुम्हारी सोच पिछड़ी की पिछड़ी रह गयी!'

'मैं समझा नहीं सर!'

'कहाँ पड़े हो इन झमेलों में! जानता हूँ, जीते जी खूब सेवा की है पिता की, माँ की सेवा के लिए अब तक बीवी-बच्चों को गांव में रख छोड़ा है! आखिर हासिल क्या होगा इनसे जीवन में!'

'एक पुत्र का जीवन उसके माँ-बाप का ही तो दिया होता है सर, उनकी सेवा में कुछ हासिल होने का कैसा लोभ!'

'मतलब नि:स्वार्थ!'

'पुत्रधर्म के पालन करने का आत्मसंतोष सर!'

चलो मान लिया! पर जो तुम ये इतना सब करते हो, क्या गारंटी है कि तुम्हारे बच्चे भी तुम्हारे लिए करेंगे!'

'गारंटी भौतिक चीजों के मामले में देखी जाती है सर! मैं स्वयं के धर्म के प्रति उत्तरदायी हूँ, उनका उन पर ही छोड़ देता हूँ! वैसे मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे नहीं भटकेंगे!'

'इस विश्वास की वजह! ये चीजें सिखाते हो क्या उनको?'

'सिखाता नहीं, कर के दिखाता हूँ सर, इसलिए विश्वास है!'

'फिर भी मान लो, वो तुम्हारी तरह ना निकलें, जमाने की हवा लग जाय! फिर...!'

'ये भी स्वीकार है सर! ना मान से आह्लादित होना है और ना अपमान से दु:खी! जीवन की झोली में नियति जो डाल देगी, खुशी से स्वीकार कर लूंगा!'

'कहना आसान है, पर जीवन में ये उतरता कहाँ है!'

'उतरता है सर, अगर हम सच में प्रयास करें! जीवन में ढेर सारी चाह होती है, थोड़ा सा उन्हें त्याग दें तो राह सूझ जाती है! जीवन को बुलबुले की तरह मानकर जीना शुरु कर दीजिये, बनने-बिगड़ने के डर से मुक्त हो जायेंगे।"
#व्योमवार्ता
#पिततृपक्ष

व्योमवार्ता/हमारा भी एक जमाना था....

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं ....
#हमारा_भी_एक_जमाना_था...
*हमें खुद ही स्कूल जाना पड़ता था क्योंकि साइकिल, बस आदि से भेजने की रीत नहीं थी, स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा बुरा होगा ऐसा हमारे मां-बाप कभी सोचते भी नहीं थे उनको किसी बात का डर भी नहीं होता था।
*पास/ फैल यानि नापास यही हमको मालूम था... *परसेंटेज % से हमारा कभी संबंध ही नहीं रहा।
 *ट्यूशन लगाई है ऐसा बताने में भी शर्म आती थी क्योंकि हमको ढपोर शंख समझा जा सकता था।
*किताबों में पीपल के पत्ते, विद्या के पत्ते, मोर पंख रखकर हम होशियार हो सकते हैं, ऐसी हमारी धारणाएं थी।
 *कपड़े की थैली में बस्तों में और बाद में एल्यूमीनियम की पेटियों में किताब, कॉपियां बेहतरीन तरीके से जमा कर रखने में हमें महारत हासिल थी।
*हर साल जब नई क्लास का बस्ता जमाते थे उसके पहले किताब कापी के ऊपर रद्दी पेपर की जिल्द चढ़ाते थे और यह काम लगभग एक वार्षिक उत्सव या त्योहार की तरह होता था। 
*साल खत्म होने के बाद किताबें बेचना और अगले साल की पुरानी किताबें खरीदने में हमें किसी प्रकार की शर्म नहीं होती थी क्योंकि तब हर साल न किताब बदलती थी और न ही पाठ्यक्रम।
*हमारे माताजी/ पिताजी को हमारी पढ़ाई का बोझ है ऐसा कभी लगा ही नहीं। 
*किसी दोस्त के साइकिल के अगले डंडे पर और दूसरे दोस्त को पीछे कैरियर पर बिठाकर गली-गली में घूमना हमारी दिनचर्या थी।इस तरह हम ना जाने कितना घूमे होंगे।
** स्कूल में मास्टर जी के हाथ से मार खाना,पैर के अंगूठे पकड़ कर खड़े रहना,और कान लाल होने तक मरोड़े जाते वक्त हमारा ईगो कभी आड़े नहीं आता था सही बोले तो ईगो क्या होता है यह हमें मालूम ही नहीं था।
**घर और स्कूल में मार खाना भी हमारे दैनिक जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया थी।
*मारने वाला और मार खाने वाला दोनों ही खुश रहते थे। मार खाने वाला इसलिए क्योंकि कल से आज कम पिटे हैं और मारने वाला है इसलिए कि आज फिर हाथ धो लिये।

*बिना चप्पल जूते के और किसी भी गेंद के साथ लकड़ी के पटियों से कहीं पर भी नंगे पैर क्रिकेट खेलने में क्या सुख था वह हमको ही पता है।

*हमने पॉकेट मनी कभी भी मांगी ही नहीं और पिताजी ने भी दी नहीं.....इसलिए हमारी आवश्यकता भी छोटी छोटी सी ही थीं। साल में कभी-कभार एक आद बार मैले में जलेबी खाने को मिल जाती थी तो बहुत होता था उसमें भी हम बहुत खुश हो लेते थे।
*छोटी मोटी जरूरतें तो घर में ही कोई भी पूरी कर देता था क्योंकि परिवार संयुक्त होते थे।
*दिवाली में लिए गये पटाखों की लड़ को छुट्टा करके एक एक पटाखा फोड़ते रहने में हमको कभी अपमान नहीं लगा।

*हम....हमारे मां बाप को कभी बता ही नहीं पाए कि हम आपको कितना प्रेम करते हैं क्योंकि हमको आई लव यू कहना ही नहीं आता था।
*आज हम दुनिया के असंख्य धक्के और टाॅन्ट खाते हुए और संघर्ष करती हुई दुनिया का एक हिस्सा है किसी को जो चाहिए था वह मिला और किसी को कुछ मिला कि नहीं क्या पता
*स्कूल की डबल ट्रिपल सीट पर घूमने वाले हम और स्कूल के बाहर उस हाफ पेंट मैं रहकर गोली टाॅफी बेचने वाले की दुकान पर दोस्तों द्वारा खिलाए पिलाए जाने की कृपा हमें याद है।वह दोस्त कहां खो गए वह बेर वाली कहां खो गई....वह चूरन बेचने वाला कहां खो गया...पता नहीं।

* हम दुनिया में कहीं भी रहे पर यह सत्य है कि हम वास्तविक दुनिया में बड़े हुए हैं हमारा वास्तविकता से सामना वास्तव में ही हुआ है।

*कपड़ों में सिलवटें ना पड़ने देना और रिश्तों में औपचारिकता का पालन करना हमें जमा ही नहीं......सुबह का खाना और रात का खाना इसके सिवा टिफिन क्या था हमें अच्छे से मालूम ही नहीं...हम अपने नसीब को दोष नहीं देते जो जी रहे हैं वह आनंद से जी रहे हैं और यही सोचते हैं और यही सोच हमें जीने में मदद कर रही है जो जीवन हमने जिया उसकी वर्तमान से तुलना हो ही नहीं सकती।

** हम अच्छे थे या बुरे थे नहीं मालूम पर हमारा भी एक जमाना था। वो बचपन हर गम से बेगाना था।
#व्योमवार्ता
#भूली_बिसरी_यादें

रविवार, 11 सितंबर 2022

#व्योमवार्ता : पिता का समाज व पुत्रों के नाम पत्र

#समाज_जिसमे_हम_रहते_हैं.....
😢😢
पिता का समाज व पुत्रों के नाम पत्र

लखनऊ के एक उच्चवर्गीय बूढ़े पिता ने अपने पुत्रों के नाम एक चिट्ठी लिखकर खुद को गोली मार ली। 
चिट्टी क्यों लिखी और क्या लिखा। यह जानने से पहले संक्षेप में चिट्टी लिखने की पृष्ठभूमि जान लेना जरूरी है।
पिता सेना में कर्नल के पद से रिटार्यड हुए । वे लखनऊ के एक पॉश कॉलोनी में अपनी पत्नी के साथ रहते थे। उनके दो बेटे थे। जो सुदूर अमेरिका में रहते थे। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि माता-पिता ने अपने लाड़लों को पालने में कोई कोर कसर नहीं रखी। बच्चे सफलता की सीढ़िंया चढते गए। पढ़-लिखकर इतने योग्य हो गए कि दुनिया की सबसे नामी-गिरामी कार्पोरेट कंपनी में उनको नौकरी मिल गई। संयोग से दोनों भाई एक ही देश में,लेकिन अलग-अलग अपने परिवार के साथ रहते थे। 
एक दिन अचानक पिता ने रूंआसे गले से बेटों को खबर दी। बेटे! तुम्हारी मां अब इस दुनिया में नहीं रही । पिता अपनी पत्नी की मिट्टी के साथ बेटों के आने का इंतजार करते रहे। एक दिन बाद छोटा बेटा आया, जिसका घर का नाम चिंटू था। 
पिता ने पूछा चिंटू! मुन्ना क्यों नहीं आया। मुन्ना यानी बड़ा बेटा।पिता ने कहा कि उसे फोन मिला, पहली उडान से आये। 
धर्मानुसार बडे बेटे का आना सोच वृद्व फौजी ने जिद सी पकड़ ली। 
छोटे बेटे के मुंह से एक सच निकल पड़ा। उसने पिता से कहा कि मुन्ना भईया ने कहा कि, "मां की मौत में तुम चले जाओ। पिता जी मरेंगे, तो मैं चला जाऊंगा।"
कर्नल साहब (पिता) कमरे के अंदर गए। खुद को कई बार संभाला फिर उन्होंने चंद पंक्तियो का एक पत्र लिखा। जो इस प्रकार था- 
प्रिय बेटो
          मैंने और तुम्हारी मां ने बहुत सारे अरमानों के साथ तुम लोगों को पाला-पोसा। दुनिया के सारे सुख दिए। देश-दुनिया के बेहतरीन जगहों पर शिक्षा दी। जब तुम्हारी मां अंतिम सांस ले रही थी, तो मैं उसके पास था।वह मरते समय तुम दोनों का चेहरा एक बार देखना चाहती थी और तुम दोनों को बाहों में भर कर चूमना चाहती थी। तुम लोग उसके लिए वही मासूम मुन्ना और चिंटू थे। उसकी मौत के बात उसकी लाश के पास तुम लोगों का इंतजार करने लिए मैं था। मेरा मन कर रहा था कि काश तुम लोग मुझे ढांढस बधाने के लिए मेरे पास होते। मेरी मौत के बाद मेरी लाश के पास तुम लोगों का इंतजार करने के लिए कोई नहीं होगा। सबसे बड़ी बात यह कि मैं नहीं चाहता कि मेरी लाश निपटाने के लिए तुम्हारे बड़े भाई को आना पड़े। इसलिए सबसे अच्छा यह है कि अपनी मां के साथ मुझे भी निपटाकर ही जाओ। मुझे जीने का कोई हक नहीं क्योंकि जिस समाज ने मुझे जीवन भर धन के साथ सम्मान भी दिया, मैंने समाज को असभ्य नागरिक दिये। हाँ अच्छा रहा कि हम अमरीका जाकर नहीं बसे, सच्चाई दब जाती। 
मेरी अंतिम इच्छा है कि मेरे मैडल तथा फोटो बटालियन को लौटाए जाए तथा घर का पैसा नौकरों में बाटा जाऐ। जमापूँजी आधी वृद्ध सेवा केन्द्र में तथा आधी सैनिक कल्याण में दी जाऐ। तुम्हारा पिता                               

कमरे से ठांय की आवाज आई। कर्नल साहब ने खुद को गोली मार ली।
यह क्यों हुआ, किस कारण हुआ? कोई दोषी है या नहीं। मुझे इसके बारे में कुछ नहीं कहना। 
हाँ यह काल्पनिक कहानी नहीं। पूरी तरह सत्य घटना है।
#व्योमवार्ता

रविवार, 7 अगस्त 2022

व्योमवार्ता/महान भारत के महान राष्ट्रपति डॉ0ए0पी0जे0अब्दुलकलाम

#समाज_जिसमे_हम_रहते_हैं.....

(श्री अब्दुल कलाम से महान राष्ट्रपति ना हुआ है,ना ही भविष्य में हो सकता है,उनकी सज्जनता एवम् महानता से जुड़ा एक संस्मरण भारत के राष्ट्रपति के पूर्व एडीसी ले0कर्नल अशोक_किनी के शब्दों मे)

राष्ट्रपति भवन में शंकराचार्य जी

राष्ट्रपति भवन में शंकराचार्य जी की यह पहली यात्रा थी। राष्ट्रपति डॉ अब्दुल कलाम शंकराचार्य जी को उचित सम्मान देना चाहते थे। उन्होंने मुझे (मैं राष्ट्रपति जी का ADC था) अपने कार्यालय में बुलाया और मुझसे पारंपरिक प्रोटोकॉल के बारे में पूछा। मैंने उनसे कहा, "मैं राष्ट्रपति भवन के द्वार पर शंकराचार्य जी का स्वागत करूंगा और उन्हें अंदर लाऊंगा।"

           कुछ मिनटों के गहन सोच के बाद उन्होंने मुझसे पूछा, "क्या होगा यदि मैं स्वागत करूं? तो मैंने कहा, "श्रीमान, आप संत के सम्मान को राष्ट्रपति के #सम्मान से ऊपर कर देंगे।
  वो मुस्कराए। उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा। फिर मैंने ऑफिस के अंदर उन्हें बताया, "सर, मैं उन्हें यहां लाऊंगा। उनकी मृगछाल इस सोफे पर बिछाऊंगा और उनसे बैठने का अनुरोध करूंगा। आप राष्ट्रपति जी अपने सोफे कुर्सी पर बैठे रहेंगे।"
उन्होंने फिर मुझसे दूसरी बार पूछा, "क्या होगा यदि मैं उन्हें अपने सोफे की सीट पर बैठा दूं?"
   मैंने फिर कहा, "सर, आप संत को राष्ट्रपति से अधिक सम्मान देंगे।"
वह फिर मुस्कुराए और मुझे कोई आदेश नहीं दिया। तीस मिनट के बाद जब शंकराचार्य जी आने वाले थे तो कुछ सेकंड पहले मुझे घोर आश्चर्य हुआ जब मैंने डॉ अब्दुल कलाम को गेट पर अपने पीछे खड़ा देखा। मैं तुरंत पीछे गया और डॉ. अब्दुल कलाम के पीछे खड़ा हो गया। वह वहां व्यक्तिगत रूप से एक माला और फूलों के साथ शंकराचार्य जी का #स्वागत करने के लिए खड़े थे। हमने शंकराचार्य जी का स्वागत किया। राष्ट्रपति भवन के गलियारों से गुजरते हुए हम सीधे कार्यालय में गए।
             मैं आगंतुकों के लिए निश्चित सोफे पर शंकराचार्य जी की मृगछाल बिछा रहा था तो जिसकी हमने पहले चर्चा की थी। डॉ अब्दुल कलाम ने मुझे मृगछाल को अपने सोफे की कुर्सी पर बिछाने का निर्देश दिया। इस सरल, विनम्र और महान भाव से मैं स्तब्ध रह गया। हमने शंकराचार्य जी को फल और फूलों की टोकरी भेंट की।
          भेंट के बाद मैंने उनसे ऐसा करने का कारण पूछा तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, "मैं चाहता था कि भारत के राष्ट्रपति की सोफा सीट को संत की आध्यात्मिक शक्ति का आशीर्वाद मिले ताकि जो कोई भी राष्ट्रपति बाद में यहां बैठे, उन्हें भी संतों का आशीर्वाद प्राप्त हो।"
     मैंने अपने आध्यात्मिक गुरु राष्ट्रपति कलाम के इन विचारों की प्रशंसा की और कहा
"सर, आप न केवल एक महान वैज्ञानिक हैं बल्कि इस वेष में एक संत भी हैं।"
हमेशा की तरह उन्होंने अपनी एक सार्थक मुस्कान दी।

       क्या आप एक महान देश के राष्ट्रपति की इस तरह की सज्जनता की कल्पना कर सकते है,क्या सभी महान पुरषों में एवम् देश के बड़े लोगो में भी इतनी सज्जनता नहीं होनी चाहिए......शायद ऐसा नहीं है, हम सब को ही इस प्रकरण से कुछ ना कुछ अवश्य सीखना ही चाहिए!
(काशी,7अगस्त 2022,रविवार)
#व्योमवार्ता
#डा0ए0पी0जे0अब्दुलकलाम  http://chitravansh.blogspot.com

शनिवार, 6 अगस्त 2022

व्योमवार्ता/यह भी जाने.......

समाज जिसमे हम रहते हैं.....
यह भी जाने......

स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस में झंडा फहराने में क्या अंतर है ?
15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर झंडे को नीचे से रस्सी द्वारा खींच कर ऊपर ले जाया जाता है, फिर खोल कर फहराया जाता है, जिसे *ध्वजारोहण कहा जाता है क्योंकि यह 15 अगस्त 1947 की ऐतिहासिक घटना को सम्मान देने हेतु किया जाता है जब प्रधानमंत्री जी ने ऐसा किया था। संविधान में इसे अंग्रेजी में Flag Hoisting (ध्वजारोहण) कहा जाता है।
जबकि
 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर झंडा ऊपर ही बंधा रहता है, जिसे खोल कर फहराया जाता है, संविधान में इसे Flag Unfurling (झंडा फहराना) कहा जाता है।

15 अगस्त के दिन प्रधानमंत्री जो कि केंद्र सरकार के प्रमुख होते हैं वो ध्वजारोहण करते हैं, क्योंकि स्वतंत्रता के दिन भारत का संविधान लागू नहीं हुआ था और राष्ट्रपति जो कि राष्ट्र के संवैधानिक प्रमुख होते है, उन्होंने पदभार ग्रहण नहीं किया था। इस दिन शाम को राष्ट्रपति अपना सन्देश राष्ट्र के नाम देते हैं।
जबकि
 26 जनवरी जो कि देश में संविधान लागू होने के उपलक्ष्य में मनाया जाता है, इस दिन संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति झंडा फहराते हैं

स्वतंत्रता दिवस के दिन लाल किले से ध्वजारोहण किया जाता है।
जबकि
गणतंत्र दिवस के दिन राजपथ पर झंडा फहराया जाता है।
(काशी,6अगस्त 2022,शनिवार)
#व्योमवार्ता

गुरुवार, 4 अगस्त 2022

व्योमवार्ता/ भूली हुई यादें....

व्योमवार्ता / भूली हुई यादें.......

           रिजल्ट तो हमारे जमाने में आते थे, जब पूरे बोर्ड का रिजल्ट 17 ℅ हो, और उसमें भी आप ने वैतरणी तर ली हो (डिवीजन मायने नहीं, परसेंटेज कौन पूँछे) तो पूरे कुनबे का सीना चौड़ा हो जाता था।
दसवीं का बोर्ड...बचपन से ही इसके नाम से ऐसा डराया जाता था कि आधे तो वहाँ पहुँचने तक ही पढ़ाई से सन्यास ले लेते थे। जो हिम्मत करके पहुँचते, उनकी हिम्मत गुरुजन और परिजन पूरे साल ये कहकर बढ़ाते,"अब पता चलेगा बेटा, कितने होशियार हो, नवीं तक तो गधे भी पास हो जाते हैं" !!
रही-सही कसर हाईस्कूल में पंचवर्षीय योजना बना चुके साथी पूरी कर देते..." भाई, खाली पढ़ने से कुछ नहीं होगा, इसे पास करना हर किसी के लक में नहीं होता, हमें ही देख लो...
और फिर , जब रिजल्ट का दिन आता। ऑनलाइन का जमाना तो था नहीं,सो एक दिन पहले ही शहर के दो- तीन हीरो (ये अक्सर दो पंच वर्षीय योजना वाले होते थे) अपनी हीरो स्प्लेंडर या यामहा में शहर चले जाते। फिर आधी रात को आवाज सुनाई देती..."रिजल्ट-रिजल्ट"
पूरा का पूरा मुहल्ला उन पर टूट पड़ता। रिजल्ट वाले #अखबार को कमर में खोंसकर उनमें से एक किसी ऊँची जगह पर चढ़ जाता। फिर वहीं से नम्बर पूछा जाता और रिजल्ट सुनाया जाता...पाँच हजार एक सौ तिरासी ...फेल, चौरासी..फेल, पिचासी..फेल, छियासी..सप्लीमेंट्री !!
कोई मुरव्वत नहीं..पूरे मुहल्ले के सामने बेइज्जती।
रिजल्ट दिखाने की फीस भी डिवीजन से तय होती थी,लेकिन फेल होने वालों के लिए ये सेवा पूर्णतया निशुल्क होती।
जो पास हो जाता, उसे ऊपर जाकर अपना नम्बर देखने की अनुमति होती। टोर्च की लाइट में प्रवेश-पत्र से मिलाकर नम्बर पक्का किया जाता, और फिर 10, 20 या 50 रुपये का पेमेंट कर पिता-पुत्र एवरेस्ट शिखर आरोहण करने के गर्व के साथ नीचे उतरते।
जिनका नम्बर अखबार में नहीं होता उनके परिजन अपने बच्चे को कुछ ऐसे ढाँढस बँधाते... अरे, कुम्भ का मेला जो क्या है, जो बारह साल में आएगा, अगले साल फिर दे देना एग्जाम...
पूरे मोहल्ले में रतजगा होता।चाय के दौर के साथ चर्चाएं चलती, अरे ... फलाने के लड़के ने तो पहली बार में ही ...
आजकल बच्चों के मार्क्स भी तो #फारेनहाइट में आते हैं।
99.2, 98.6, 98.8.......
और हमारे जमाने में मार्क्स #सेंटीग्रेड में आते थे....37.1, 38.5, 39, 
हाँ यदि किसी के मार्क्स 50 या उसके ऊपर आ जाते तो लोगों की खुसर -फुसर .....
नकल की होगी ,मेहनत से कहाँ इत्ते मार्क्स आते हैं।
वैसे भी इत्ता पढ़ते तो कभी देखा नहीं । (भले ही बच्चे ने रात रात जगकर आँखें फोड़ी हों)
सच में, रिजल्ट तो हमारे जमाने में ही आता था
(काशी,4अगस्त2022,गुरूवार)
#भूली_हुई_यादें
#हमारे_जमाने_के_रिजल्ट
#व्योमवार्ता

व्योमवार्ता/ भूली हुई यादें.....

व्योमवार्ता/ भूली हुई यादें.....

जब हम स्कूल में पढ़ते थे ( 😳 ) उस स्कूली दौर में निब पैन का चलन जोरों पर था..!

तब कैमलिन की स्याही प्रायः हर घर में मिल ही जाती थी, कोई कोई टिकिया से स्याही बनाकर भी उपयोग करते थे और बुक स्टाल पर शीशी में स्याही भर कर रखी होती थी 5 पैसा दो और ड्रापर से खुद ही डाल लो ये भी सिस्टम था ...जिन्होंने भी पैन में स्याही डाली होगी वो ड्रॉपर के महत्व से भली भांति परिचित होंगे ! 

कुछ लोग ड्रापर का उपयोग कान में तेल डालने में भी करते थे...😜

महीने में दो-तीन बार निब पैन को खोलकर उसे गरम पानी में डालकर उसकी सर्विसिंग भी की जाती थी और लगभग सभी को लगता था की निब को उल्टा कर के लिखने से हैंडराइटिंग बड़ी सुन्दर बनती है। 

सामने के जेब मे पेन टांगते थे और कभी कभी स्याही लीक होकर सामने शर्ट नीली कर देती थी जिसे हम लोग सामान्य भाषा मे पेन का पोंक देना कहते थे...पोंकना अर्थात लूज मोशन...😧

हर क्लास में एक ऐसा एक्सपर्ट होता था जो पैन ठीक से नहीं चलने पर ब्लेड लेकर निब के बीच वाले हिस्से में बारिकी से कचरा निकालने का दावा कर लेता था !!

नीचे के हड्डा को घिस कर परफेक्ट करना भी एक आर्ट था !!

हाथ से निब नहीं निकलती थी तो दांतों के उपयोग से भी निब निकालते थे...दांत , जीभ औऱ होंठ भी नीला होकर भगवान महादेव की तरह हलाहल पिये सा दिखाई पड़ता था 😜

दुकान में नयी निब खरीदने से पहले उसे पैन में लगाकर सेट करना फिर कागज़ में स्याही की कुछ बूंदे छिड़क कर निब उन गिरी हुयी स्याही की बूंदो पर लगाकर निब की स्याही सोखने की क्षमता नापना ही किसी बड़े साइंटिस्ट वाली फीलिंग दे जाता था..!

निब पैन कभी ना चले तो हम सभी ने हाथ से झटका देने के चक्कर में आजू बाजू वालों पर स्याही जरूर छिड़कायी होगी!!

कुछ बच्चे ऐसे भी होते ( मेरे जैसे ) थे जो पढ़ते लिखते तो कुछ नहीं थे लेकिन घर जाने से पहले उंगलियो में स्याही जरूर लगा लेते थे, बल्कि पैंट पर भी छिड़क लेते थे ताकि घरवालों को देख के लगे कि बच्चा स्कूल में बहुत मेहनत करता है!!
#भूली_हुइ_यादें....  
(काशी,4अगस्त2022,गुरूवार)
#व्योमवार्ता
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रविवार, 24 जुलाई 2022

व्योमवार्ता / समाज जिसमें हम रहते है......

#समाज_जिसमे_हम_रहते_हैं.....


       आज कल #सोशल_मीडिया पर #जीएसटी लगाने के समर्थन में एक पोस्ट चल रही है।

*जीएसटी से कैसे बचें

*सरकार को मत कोसिये.. बल्कि दिमाग से काम करिये और जीएसटी से बचिये।*

१.जब भी बाहर जाओ पानी की बोतल अपने साथ घर से लेकर जाओ... बाहर की शॉप से पैक बोतल नहीं खरीदों।

२.यात्रा के समय अपने साथ चावल या पुलाव ले जाओ, बाहर होटल या माल से खाना खाना बंद कीजिए।

३.जो भी घर की किचन का समान, सब्जी -भाजी खरीदनी हो घर के पास के छोटे दुकान वालों या रेहड़ी वालो से खरीदें,, सुपर मार्केट में जाना बंद कीजिए।

४.शनिवार-इतवार को बड़े मॉल में जाना बंद कीजिए, इसके बजाय अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के घर जाईये, आपसी सम्बन्ध मजबूत कीजिये।

५.बड़े बड़े मल्टीप्लेक्स inox, pvr जैसे सिनेमाघर के बजाए सिंगल स्क्रीन सिनेमा पर जाकर पिक्चर देखिए..उनपर GST नही है।

६.सुबह-शाम को व्यायाम के बाद घर पर आकर चाय-कॉफ़ी पीजिए..hotels पर नही।

७.अगर कही बाहर घूमने जाते भी है तो किसी दोस्त या रिश्तेदार के घर ठहरिये... रिसॉर्ट्स/ होटल/लॉज में मत ठहरिए।

8- पैक दुध दही, छाँछ, खरीदने के वजाय तबैले से दुध ख़रीदे उसी से घर मे ही दही और छाछ बनाये!

9-कोई भी पैक अनाज न ख़रीदे अनाज खुल्ले भी मिलते है वो यूज़ करें!

*Government ने ये इसलिए किया है कि हम सब अपने पड़ोसियों, दोस्तों और रिश्तेदारों को महत्व ज्यादा दे सकें!*                  

*सकारात्मक सोचिए, सकारात्मक सोच से आप कुछ भी बदल सकते हैं! जन हित में जारी!!*

              कुछ लोग इसे #मोदी समर्थकों व #भाजपा #आईटी_सेल का पैंतरा बता रहे है तो कुछ लोग मुखर #आलोचना कर रहे हैं। परंतु आलोचना व #समर्थन से परे हो कर इस पोस्ट के #तर्कों से होने वाले प्रभाव को देखा जाये तो कहीं न कहीं वह #भारतीय #अर्थव्यवस्था के #सादे_जीवन_उच्च_विचार के निकट ले जाता है।
आज के #भौतिकवादी व्यवस्था मे #बाजार के हमारे जीवन के प्रत्येक क्षणों मे #घुसपैठ को देखते हुये निश्चित ही इसे पूर्णत: व्यवहारिक होने की कल्पना करना भी बेमानी है पर अगर इन तर्कों को व्यवहारिक जीवन मे अपना कर जीवन मे थोड़ा सा ही सही पर संतोष और सुख पाया जा सकता है तो अपनाने में क्या बुराई है?
(काशी, 24जुलाई 2022, रविवार)
#व्योमवार्ता
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मंगलवार, 19 जुलाई 2022

व्योमवार्ता/ समाज जिसमें हम रहते है.....

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं........

बात उन दिनों की है जब मंगल बाज़ार में छोले भटूरे 5 रु के दो होते थे। मकान छोटे मगर दिल बड़े होते थे। यह Space/Privacy जैसे शब्दों के तो माने भी नहीं पता थे क्योंकि छतें पड़ोसियों से जुड़ी होती थी और टायलेट तक सांझा होते थे। दूर के रिश्तेदारों के नाम तक पड़ोसियों को रटे होते थे। डेढ़ दर्जन के परिवार का 3 कमरों में ठाठ से बसर होता था। छुट्टियों में रिश्तेदारों का परिवार भी साथ होता था। काली दाल को घी में सूखे धनिए का छौंक लगा छक कर खाते थे, फिर आम और ठंडे दूध पीते छत पर बिस्तर बच्चे मिनटों में लगाते थे। सूर्य उदय से पहले उठ भी जाते थे। पैसे कम पर खुशियां बहुत थी। देव आनंद के डायलॉग से शामें कटती थी। ईगो,अहम् या नखरे कहांँ किसी में होते थे? VCR किराये पर लेकर रात भर पड़ोसियों के साथ मिल कर फिल्मे देखते थे, तेरा मेरा नहीं, सबकुछ हमारा कहलाता था। भाई की शादी में आया सामान, ननद की शादी में ही जाता था। शादी ब्याह अपने आप में त्योहार होते थे, बाहर से आए संबंधी पड़ोसियों के घर ही सोते थे। मांगे हुए गद्दे, मटर छीलते परिवार, कढ़ाई में पकती सब्ज़ियों ओर, पनीर और आइसक्रीम पर नज़र रखे फूफा जी, वाह क्या नज़ारे होते थे। घंटे भर की कुट्टी और मिनटों में अब्बा होते थे। बुआ मामा, चाचा और मासी के बच्चे सब भाई बहन कहलाते थे, उनके आगे की रिश्तेदार भी पूरी डिटेल से गिनवाते थे। सब बड़े भाई बहनों के कपड़े बिना शर्म के पहनते थे, बताया था ना कि ईगो और अहम् पास भी ना मंडराते थे। आज दौर बदल गया। छोले भटूरे खाने मंगल बाज़ार नहीं हल्दीराम जाने लगे हैं, पांच सौ का नोट बेफिक्र थमाने लगे हैं। मकान आलीशान, मन परेशान हो रहे हैं, कमरों से जुड़े टायलेट हैं फिर भी प्राइवेसी को रो रहे हैं। बच्चों से बड़ों तक को स्पेस चाहिए, बगल वाले घर में कौन रहता है, नाम तो बताइए? आज सबको अलग कमरा चाहिए, बीबी को पंखा पति को AC चाहिए। अब कौन गर्मी की छुट्टियों में किसी के घर बिताता है? अपने कहाँ vacation पर हैं, Facebook बताता है। फिक्र और वज़न बढ़ रहे हैं, आज पैसा और कैसे बढ़ाएं इसी फिक्र में घुल रहे हैं। आज 56 भोग खाते हैं, फिर पचाने बेमन से Gym जाते हैं। घर, गाड़ी, बैंक में जमा धन, खुशियों के सामान सब हैं, खुशियाँ बांटने वाले नहीं हैं। मामा चाचा के बच्चे अब Cousins और उनके आगे के Distant relatives हो गए हैं। Social media पर कई बहनें और Bro ज़रूर हो गए हैं, अब लोग समय बिताने के लिए Mall जाते हैं और Mall में shopping करने के लिए कपड़े खरीदते हैं। अब बच्चों को कोई cousin कपड़े नहीं देता क्योंकि लेने वाले का ईगो और अहम् पीछा नहीं छोड़ता। एक बार पहन कर Maid को zara के टापॅ देते हैं फिर उसीको “बड़ी Happening” कहकर ताना भी देते हैं। अब शादियों में भी रिश्तेदार बस मूंह दिखाने आते हैं, घर में नहीं उन्हें अब होटल में ठहराते हैं। सारे परिवार वाले अब मेकअप करवा,खुद मेहमानों की तरह जाते हैं। अब फूफा जी नहीं, खाने का ज़िम्मा Caterer उठाते हैं। दिखावे की दुनिया में रिश्ते नाते छूट गए, मेरे बचपन के साथी कहांँ गुम गए? अगर ज़िन्दगी से ब्लाक सभी रिश्ते अनब्लाक कर दें, तो खुशियों के पल मिल सकते हैं। पर बनावटी दुनिया मे बनावटी रिश्तों के बीच बनावटी ज़िन्दगी जी रहे है ... 
बस यही सच है ...
#व्योमवार्ता
#शोभितश्रीवास्तव की वाल से
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व्योमवार्ता/ समाज जिसमे हम रहते है....

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं 

                     लखनऊ के कैसरबाग की रहनेवाली 80 वर्षीया सुशीला त्रिपाठी जी को उनके तीन साल से पाले हुए खतरनाक नस्ल के पिटबुल कुत्ते ने अचानक हमला कर चीरफाड़ कर जीवित ही खा डाला। सुबह छैः बजे जब सुशीला जी का बेटा अंदर से दरवाजा बंद करवाकर जिम गया हुआ था और वे अपने दोनों कुत्तों पिटबुल व लैब्राडोर को छत पर टहला रहीं थीं उसी समय अचानक पिटबुल प्रजाति के कुख्यात कुत्ते ने उन पर प्राणघातक हमला कर दिया। इस परिवार में माँ बेटा सिर्फ यही दोनों लोग रहते थे एवं अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण पड़ोसी उन्हें बचाने के लिए कुत्ते को पत्थर मारने के सिवा और कुछ नहीं कर सके और करीब डेढ़ घंटे तक यानि सुबह छैः बजे से साढ़े सात बजे तक कुत्ता जीवित महिला को नोच नोचकर खाता रहा। पड़ोसियों के बार बार कॉल करने पर भी जब बेटे ने कॉल रिसीव नहीं की तो पड़ोसियों ने स्वयं उसके जिम जाकर उसे सूचना दी। बेटे के आने पर उसका लाड़ला कुत्ता अपनी शरारत पर शरमाकर एक कमरे में छुप गया और काफी देर तक नहीं निकला । अस्पताल ले जाए जाने पर महिला को मृत घोषित कर दिया गया।

इस घटना में मुझे सबसे अजीब बात यह लगी कि बेटे द्वारा लाया गया यह कुत्ता इससे पहले भी सुशीला जी पर हमला कर चुका था पर फिर भी उन्होंने इसे घर में रखना जारी रखा। कुत्ता पाला भले ही बेटे ने था पर उसकी देखभाल माताजी ही करतीं थीं व भोजन आदि भी स्वयं खिलाती थीं। तब भी इस राक्षसी प्रवृत्ति के प्राणी ने उनका यह हाल किया। शिक्षा- वहशी से मोह ममता की आशा करना व्यर्थ है।

एक और चौंकानेवाली बात। बेटे ने इस पूरी घटना में कुत्ते को निर्दोष ठहराया है । यानि जिस कुत्ते ने जन्म देनेवाली माँ को ऐसी भयावह मौत दी उससे उनके सपूत को कोई शिकायत नहीं है। बल्कि माँ की मौत पर अफसोस करने की बजाय वह कुत्ते को ही दुलारता पुचकारता रहा । ये देखकर लोग हैरान रह गए। अपने दोषी से प्रेम करने की इसी बीमारी को 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' कहते हैं। हमारे समाज के ज्यादातर लोग अपने रिश्तों में आजकल इसी बीमारी के शिकार हैं। खुद को तकलीफ देनेवाले,धोखा देनेवाले से प्रेम करना,उन पर विश्वास करना लोगों को एक अलग तरह की सैडिस्टिक किक देती है। "यह घटना उन सभी लोगों के लिए एक सबक है जो ऐसे खतरनाक लोगों पर निरंतर विश्वास कर अपनी और अपने लोगों की जिंदगी खतरे में डाल रहे हैं जिनकी गद्दारी और नृशंसता की घटनाओं से संपूर्ण सभ्यता का इतिहास रक्तरंजित हुआ पड़ा है।"

वृद्धा माताजी की इस निर्मम हत्या का बहुत दुख है पर एक बात समझ नहीं आती। गाय के गोबर से घर लीपने पर घिन माननेवाले लोगों को दोनों टाइम कुत्ते को मल विसर्जित कराने के लिए कुत्ते की जंजीर पकड़कर स्वयं कुत्ते की तरह यहाँ वहाँ टहलने पर घिन क्यों नहीं आती? गाय को एक रोटी प्रतिदिन खिलाने से महँगे आशीर्वाद आटा वाले जिन घरों का बजट वेंटिलेटर पर चला जाता है वे इन राक्षसी कुत्तों को प्रतिदिन आधा किलो माँस कैसे उपलब्ध कराते हैं? जिम में पसीना बहाकर कमाया हुआ पैसा इस हैवान को रोजाना माँस खिलाने में लगा रहे थे पर गौसेवा की हरी घास के लिए अगर महीने में एक बार भी पाँच सौ रुपए माँग लिए जाते तो यही सुपुत्र पूरी लेजर खुलवा लेते। और इतना सब होने पर भी कुत्ते को निर्दोष ही ठहरा रहे हैं। शायद लखनऊ नगर निगम इन्हें लाइसेंस जारी कर दे तो ये अब भी इसी राक्षस को साथ ही रखना चाहेंगे। धन्य हैं ऐसी कलयुग की संतानें।
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व्योमवार्ता/ समाज जिसमे हम रहते है....

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं

*रिटायरमेंट के बाद का दर्द*

छत्तीसगढ़ के शहर कोरबा में बसे नेहरू नगर में एक आईएएस अफसर रहने के लिए आए जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे।‌ ये बड़े वाले रिटायर्ड आईएएस अफसर हैरान-परेशान से रोज शाम को पास के पार्क में टहलते हुए अन्य लोगों को तिरस्कार भरी नज़रों से देखते और किसी से भी बात नहीं करते थे। *एक दिन एक बुज़ुर्ग के पास शाम को गुफ़्तगू के लिए बैठे और फिर लगातार उनके पास बैठने लगे लेकिन उनकी वार्ता का विषय एक ही होता था - मैं  रायपुर में इतना बड़ा आईएएस अफ़सर था कि पूछो मत, यहां तो मैं मजबूरी में आ गया हूं। मुझे तो बिलासपुर में बसना चाहिए था- और वो बुजुर्ग प्रतिदिन शांतिपूर्वक उनकी बातें सुना करते थे। परेशान होकर एक दिन जब बुजुर्ग ने उनको समझाया* - आपने कभी *फ्यूज बल्ब* देखे हैं? बल्ब के *फ्यूज हो जाने के बाद क्या कोई देखता है‌ कि‌ बल्ब‌ किस कम्पनी का बना‌ हुआ था या कितने वाट का था या उससे कितनी रोशनी या जगमगाहट होती थी?* बल्ब के‌ फ्यूज़ होने के बाद इनमें‌‌ से कोई भी‌ बात बिलकुल ही मायने नहीं रखती है। लोग ऐसे‌ *बल्ब को‌ कबाड़‌ में डाल देते‌ हैं है‌ कि नहीं! फिर जब उन रिटायर्ड‌ आईएएस अधिकारी महोदय ने सहमति‌ में सिर‌ हिलाया* तो‌ बुजुर्ग फिर बोले‌ - रिटायरमेंट के बाद हम सब की स्थिति भी फ्यूज बल्ब जैसी हो‌ जाती है‌। हम‌ कहां‌ काम करते थे‌, कितने‌ बड़े‌/छोटे पद पर थे‌, हमारा क्या रुतबा‌ था,‌ यह‌ सब‌ कुछ भी कोई मायने‌ नहीं‌ रखता‌। मैं सोसाइटी में पिछले कई वर्षों से रहता हूं और आज तक किसी को यह नहीं बताया कि मैं दो बार संसद सदस्य रह चुका हूं। वो जो सामने  ठाकुर जी बैठे हैं, एस .सी .सी.एल .के महाप्रबंधक थे। वे सामने से आ रहे मरकाम साहब सेना में ब्रिगेडियर थे। वो देवांगन.. जी इसरो में चीफ थे। *ये बात भी उन्होंने किसी को नहीं बताई है, मुझे भी नहीं पर मैं जानता हूं सारे फ्यूज़ बल्ब करीब - करीब एक जैसे ही हो जाते हैं*, चाहे जीरो वाट का हो या 50 या 100 वाट हो। कोई रोशनी नहीं‌ तो कोई उपयोगिता नहीं। *उगते सूर्य को जल चढ़ा कर सभी पूजा करते हैं। पर डूबते सूरज की कोई पूजा नहीं‌ करता‌।* कुछ लोग अपने पद को लेकर इतने वहम में होते‌ हैं‌ कि‌ *रिटायरमेंट के बाद भी‌ उनसे‌ अपने अच्छे‌ दिन भुलाए नहीं भूलते। वे अपने घर के आगे‌ नेम प्लेट लगाते‌ हैं - रिटायर्ड आइएएस‌/रिटायर्ड आईपीएस/रिटायर्ड पीसीएस/ रिटायर्ड जज‌ आदि - आदि। अब ये‌ रिटायर्ड IAS/IPS/PCS/तहसीलदार/ पटवारी/ बाबू/ प्रोफेसर/ प्रिंसिपल/डाक्टर / अध्यापक.. कौन.. कौन-सी पोस्ट होती है भाई?माना‌ कि‌ आप बहुत बड़े‌ आफिसर थे‌, *बहुत काबिल भी थे‌, पूरे महकमे में आपकी तूती बोलती‌ थी‌ पर अब क्या? अब यह बात मायने नहीं रखती है बल्कि मायने‌ रखती है‌ कि पद पर रहते समय आप इंसान कैसे‌ थे...आपने‌ कितनी जिन्दगी‌ को छुआ... *आपने आम लोगों को कितनी तवज्जो दी...समाज को क्या दिया,जाति बन्धुओं के कितने काम आएं* लोगों की मदद की..या सिर्फ घमंड मे ही सूजे हुए रहे. .पद पर रहते हुए कभी घमंड आये तो बस याद कर लीजिए कि एक दिन

..............सबको फ्यूज होना है।

(काशी 19जुलाई 2022, मंगलवार)
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गुरुवार, 7 जुलाई 2022

जरा याद करो कुर्बानी......

#अमर_बलिदानी

बाईस साल पहले हिमाचल प्रदेश के एक गाँव से एक पत्र रक्षा मंत्रालय के पास पहुँचा। 
 
पत्र लिखने वाले एक स्कूल के शिक्षक थे। उन्होंने अनुरोध किया था कि यदि संभव हो तो क्या उन्हें और उनकी पत्नी को उस स्थान को देखने की अनुमति दी जा सकती है ? जहाँ कारगिल युद्ध में उनके इकलौते पुत्र की मृत्यु हुई थी ।

उनकी पहली मृत्यु की बरसी  07/07/2000 को थी! उनका कहना था कि यदि यह राष्ट्रीय सुरक्षा के विरुद्ध है तो उस स्थिति में वे अपना आवेदन वापस ले लेंगे।

पत्र पढ़ने वाले विभाग के अधिकारी ने सोचा कि उस शहीद के माता पिता के दौरे को प्रोयोजित करने में काफी रकम का खर्च आयेगा। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके दौरे की कीमत क्या है!

पत्र पाने वाले उस अधिकारी ने सोचा कि अगर विभाग तैयार नहीं होता तो इस दौरे के खर्च को वह अपने वेतन से भुगतान कर देगा।

उसने एक आदेश जारी किया कि उस शिक्षक और उनकी पत्नी को उस स्थान पर ले जाया जाए जहाँ उनका इकलौता बेटा शहीद हुए था।

अतः उस दिवंगत नायक के स्मरण दिवस पर बुजुर्ग दंपत्ति को सम्मान के साथ रिज पर लाया गया।

जब उन्हें उस स्थान पर ले जाया गया जहाँ उनका पुत्र शहीद हुए था तो ड्यूटी पर मौजूद सभी लोगों ने खड़े होकर सलामी दी। लेकिन एक सिपाही ने उन्हें फूलों का गुच्छा दिया और झुककर उनके पैर छुए। दोनों माँ-बाप की आँखें पोंछीं और उन्हें प्रणाम किया।

शिक्षक ने कहा: आप एक वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप मेरे पैर क्यों छूते हो?

"ठीक है, सर!" 
उस अधिकारी ने कहा!
"मैं यहाँ अकेला हूँ जो उस समय आपके बेटे के साथ था,  जिसने आपके बेटे की वीरता को मैदान पर देखा था। 
पाकिस्तानी अपने एच.एम.जी. से प्रति मिनट सैकड़ों गोलियां दाग रहे थे। 
हम में से पाँच जवान तीस फीट की दूरी तक आगे बढ़े। 
हम एक चट्टान के पीछे छिपे हुए थे।

मैंने कहा: " सर, मैं 'डेथ चार्ज' के लिए उनकी गोलियों के सामने जा रहा हूँ।मैं उनके बंकर में जाकर ग्रेनेड फेंकूँगा। उसके बाद आप सब उनके बंकर पर कब्जा कर सकते हैं।"

मैं उनके बंकर की ओर भागने ही वाला था, लेकिन.......

 आपके बेटे ने कहा:

"क्या तुम पागल हो ?"

"तुम्हारी पत्नी और बच्चे हैं।"

"मैं  अविवाहित हूँ,"

"मैं जाता हूँ।"

"आई विल डू द 'डेथ चार्ज' एंड यू डू द कवरिंग!"

बिना किसी हिचकिचाहट के उसने मुझसे ग्रेनेड छीन लिया और #डेथ_चार्ज के लिए भागे।

पाकिस्तान की ओर से
एच.एम.जी. की  गोलियां बारिश हो रही थीं........

आपका बेटा उन्हें चकमा देते हुए गोलियों को अपनी छाती पर झेलते हुए पाकिस्तानी बंकर के पास पहुंचा, ग्रेनेड से पिन निकाला और उसे ठीक बंकर में फेंक दिया।

तेरह पाकिस्तानियों को मौत के घाट उतार दिया गया। 
उनका हमला समाप्त हो गया और क्षेत्र हमारे नियंत्रण में आ गया।

 मैंने आपके बेटे का शव उठा लिया सर!
 उसे बयालीस गोलियां लगी थीं।
 मैंने उसका सिर अपने हाथों में लिया।

 उसी वक्त पेट के बल उठकर उसने अपनी आखिरी साँस के साथ कहा; "जय हिंद!"

मैंने अपने सिनीयर से कहा कि वह आपके बेटे के ताबूत को आपके गाँव लाने की अनुमति दे! लेकिन उसने मना कर दिया।

मुझे इन फूलों को उनके चरणों में रखने का सौभाग्य कभी नहीं मिला!

लेकिन मुझे उन्हें आपके चरणों में रखने का सौभाग्य मिला रहा है, श्रीमान.....!

शिक्षक की पत्नी अपने पल्लू के कोने में धीरे से रो रही थी, लेकिन शिक्षक नहीं रोया.......।

उस शिक्षक ने जवान से कहा कि मैंने अपने बेटे के छुट्टी पर आने पर पहनने के लिए एक शर्ट खरीदी थी !
लेकिन वो कभी घर नहीं आया और  कभी आएगा भी नहीं।

सो मैं वो शर्ट वहीं रखने को ले आया हूं जहाँ पर वो शहीद हुए था।

 पर अब आप इसे क्यों नहीं पहन लेते बेटा......

 कारगिल के इस नायक का नाम था #कैप्टन_विक्रम_बत्रा।

 उनके शिक्षक पिता का नाम गिरधारी लाल बत्रा है

 उनकी माता का नाम कमल कांता है।

 मेरे प्यारे दोस्तों।, यही हमारे असली हीरो हैं...........
 
 आज 07/07/2022 है ।
साभार
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मंगलवार, 28 जून 2022

व्योम वार्ता / वे चिट्ठीयां.........

वे चिट्ठियाँ.......

वो चिट्ठियाँ कहाँ खो गईं,
जिनमें लिखने के सलीके छुपे होते थे,
कुशलता की कामना से शुरू होते थे,
बड़ों के चरणस्पर्श पर ख़त्म होते थे…
और बीच में लिखी होती थी जिन्दगी..
नन्हें के आने की खबर,
माँ की तबीयत का दर्दं,
और पैसे भेजने का अनुनय,
अपनी गाय गौरी व कुत्ते शेरू के हाल
फसलों के खराब होने की वजह।
कितना कुछ सिमट जाता था,
एक नीले से कागज में,
जिसे नवयौवना भाग कर सीने से लगाती,
और अकेले में आँखों से आँसू बहाती।
माँ की आस थीं ये चिट्ठियाँ,
पिता का सम्बल थीं ये चिट्ठियाँ,
बच्चों का भविष्य थीं ये चिट्ठियाँ,
और गाँव का गौरव थीं ये चिट्ठियाँ…
डाकिया चिट्ठी लाएगा
कोई बाँच कर सुनाएगा
देख-देख कर चिट्ठी को,
कई-कई बार छू कर चिठ्ठी को,
अनपढ़ भी अपनों के
एहसासों को पढ़ लेते थे
अब नही आती वे चिट्ठीयां,
न ही रहता है डाकिये भैया का इंतजार
जो सिर्फ चिट्ढी ही नही लाते थे 
बल्कि ले आते थे रिश्तों की गरमाहट
मन की ढेरों संवेदनायें
और चिट्ठियों के संग ढेर सारी खुशियाँ
अपनों संग बीतने वाली सुख दुख की आशंकायें

अब तो स्क्रीन पर अँगूठा दौड़ता है,
और अक्सर ही दिल तोड़ता है,
मोबाइल का स्पेस भर जाए तो,
सब कुछ दो मिनिट में डिलीट होता है,
सब कुछ सिमट गया छै इंच में,
जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में,
जज्बात सिमट गए मैसेजों में,
चूल्हे सिमट गए गैसों में,
और इंसान सिमट गया पैसों में...!!
(वाराणसी,28जून2022,मंगलवार)
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गुरुवार, 16 जून 2022

व्योमवार्ता/ आखिर अंतर फिर भी रह ही गया....

*आखिर अंतर  फिर भी रह ही गया! 😊

1) *बचपन में जब हम रेल की यात्रा करते थे, माँ घर से खाना बनाकर  साथ ले जाती थी, पर रेल में कुछ लोगों को जब खाना खरीद कर खाते देखते, तब बड़ा मन करता था कि हम भी खरीद कर खाएँ !* 
पिताजी ने समझाया- ये हमारे बस का नहीं ! ये तो  बड़े व अमीर लोग हैं जो इस तरह पैसे खर्च कर सकते हैं, हम नहीं ! 
      बड़े होकर देखा, अब जब हम खाना खरीद कर खा रहे हैं, तो "स्वास्थ्य सचेतन के लिए", वो बड़े लोग घर का भोजन ले जा रहे हैं...आखिर अंतर रह ही गया !

🧐🧐🧐🧐🧐🧐🧐🧐

2) *बचपन में जब हम सूती कपड़े पहनते थे, तब वो लोग टेरीलीन पहनते थे ! बड़ा मन करता था, पर पिताजी कहते- हम इतना खर्च नहीं कर सकते !*   
       बड़े होकर जब हम टेरीलीन पहने लगे, तब वो लोग सूती कपड़े पहनने लगे !  अब सूती कपड़े महँगे हो गए ! हम अब उतने खर्च नहीं कर सकते थे !
 
आखिर अंतर रह ही गया...😒🤔

⚖⚖⚖⚖⚖⚖⚖

3) *बचपन में जब खेलते-खेलते हमारा पतलून घुटनों के पास से फट जाता, माँ बड़ी कारीगरी से उसे रफू कर देती, और हम खुश हो जाते थे। बस उठते-बैठते अपने हाथों से घुटनों के पास का वो रफू वाला हिस्सा जरूर ढँक लेते थे !* 
          बड़े होकर देखा वो लोग घुटनों के पास फटे पतलून महँगे दामों में बड़े दुकानों से खरीद कर पहन रहे हैं !
आखिर अंतर रह ही गया...🤔😒

⚖⚖⚖⚖⚖⚖⚖⚖

4) *बचपन में हम साईकिल बड़ी मुश्किल से  खरीद पाते, तब वे स्कूटर पर जाते ! जब हम स्कूटर खरीदे, वो कार की सवारी करने लगे और जब तक हम मारुति खरीदे, वो बीएमडब्लू पर जाते दिखे !*
और हम जब रिटायरमेन्ट का पैसा लगाकर BMW खरीदे, अंतर को मिटाने के लिए, तो वो साईकिलिंग करते नज़र आए, स्वास्थ्य के लिए।

 *आखिर अंतर फिर भी  रह ही गया...🤔😒*

हर हाल में हर समय दो  विभिन्न लोगों में "अंतर" रह ही जाता है। 
"अंतर" सतत है, सनातन है, 
अतः सदा सर्वदा रहेगा। 
कभी भी दो भिन्न व्यक्ति और दो विभिन्न  परिस्थितियां एक जैसी नहीं होतीं।  
कहीं ऐसा न हो  कि कल की सोचते-सोचते  हम आज को ही खो दें और फिर कल इसी को आज को याद करें।
*इसलिए जिस हाल में हैं... जैसे हैं... प्रसन्न रहें।*

*आप मुस्कुराइए, जिंदगी मुस्कुराएगी*
😚🙂😚🙂😚
कभी कभी सोशल मीडिया भी मजेदार वाकये  याद दिला देता है।

गुरुवार, 21 अप्रैल 2022

व्योमवार्ता/कायस्थों का खान-पान : व्योमेश चित्रवंश की डायरी

कायस्थों के खान पान के बारे मे बहुत से किस्से कहानियां है। आज सोशल मीडिया पर यह पोस्ट पढ़ा। बिरादरी के बारे विशेष तरह की जानकारी लगी तो मैने भी इसे अपनी डायरी का हिस्सा बना लिया। जिस भी बंधु ने यह पोस्ट लिखी उनसे कापी पेस्ट करने के लिये साभार अनुमति सहित।
 
     *कायस्थों का खाना-पीना* 
बनारस के अर्दली बाजार में काफी बड़ी संख्या में कायस्थ रहते हैं. अगर आप रविवार को यहां के मोहल्लों से दोपहर में निकलें तो हर घर के बाहर आती खाने की गंध बता देगी कि अंदर क्या पक रहा है. ये हालत पूर्वी उत्तर प्रदेश के तकरीबन उन सभी जगहों की है, जहां कायस्थ अच्छी खासी तादाद में रहते हैं. बात कुछ पुरानी है. अर्दली बाजार में एक दोस्त के साथ घूम रहा था. पकते लजीज मीट की खुशबू बाहर तक आ रही थी. दोस्त ने मेरी ओर देखा, तपाक से कहा, "ललवन के मुहल्लवां से जब इतवार में निकलबा त पता लग जाई कि हर घर में मटन पकत बा." 
हकीकत यही है. उत्तर भारत में अब भी अगर आप किसी कायस्थ के घर संडे में जाएं तो किचन में मीट जरूर पकता मिलेगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कायस्थों को लाला भी बोला जाता है. देशभर में फैले कायस्थों की खास पहचान का एक हिस्सा उनका खान-पान है. संडे में जब कायस्थों के घर जब मीट बनता है तो अमूमन बनाने का जिम्मा पुरुष ज्यादा संभालते हैं.
पिछले शनिवार और रविवार जब मैं किताबों और कागजों से कबाड़ हल्का कर रहा था, तब फ्रंटलाइन में छपा एक रिव्यू हाथ आ गया. जो काफी समय पहले पढ़ने के लिए रखा था. शायद इसलिए, क्योंकि वो उस किताब का रिव्यू था जो कायस्थों के खानपान पर आधारित है. इस की काफी तारीफ तब अखबारों और पत्रिकाओं में आई थी. किताब का नाम है "मिसेज एलसीज टेबल". इसकी लेखिका हैं अनूठी विशाल. मिसेज एलसी मतलब मिसेज लक्ष्मी चंद्र माथुर. और टेबल यानि उनके लजीज पाकशाला से सजी टेबल. 
माना जाता है कि भारत में लजीज खानों की खास परंपरा कायस्थों के किचन से निकली है. कायस्थों में तमाम तरह सरनेम हैं. *कहा जाता है कि खान-पान असली परंपरा और रवायतों में माथुर कायस्थों की देन ज्यादा है*. खाने को लेकर उन्होंने खूब इनोवेशन किया. कायस्थों की रसोई के खाने अगर मुगल दस्तरख्वान का फ्यूजन हैं तो बाद में ब्रिटिश राज में उनकी अंग्रेजों के साथ शोहबत भी.

*हालांकि पूर्वी उत्तर प्रदेश खासकर इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, जौनपुर में रहने वाले श्रीवास्तव भी खुद को कुछ कम नहीं मानते*

कहा जाता है कि कायस्थों की जमात तब उभर कर आई, जब मुगल भारत आए. फारसी में लिखा-पढ़ी, चकबंदी और अदालती कामकाज के नए तौरतरीके शुरू हुए. कायस्थों ने फटाफट फारसी सीखी और मुगल बादशाहों के प्रशासन, वित्त महकमों और अदालतों में मुलाजिम और अधिकारी बन गए. कायस्थ हमारी पुरातन सामाजिक जाति व्यवस्था में क्यों नहीं हैं, ये अलग चर्चा का विषय है. इसके बारे में भी कई मत हैं. कोई उन्होंने शुद्रों से ताल्लुक रखने वाला तो कोई ब्राह्मणों तो कुछ ग्रंथ क्षत्रियों से निकली एक ब्रांच मानते हैं. 
*लेखक अशोक कुमार वर्मा की एक किताब है, "कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि"*. वो कहती है, *"जब मुगल भारत आए तो कायस्थ मुस्लिमों की तरह रहने लगे. उनके खाने के तौरतरीके भी मुस्लिमों की तरह हो गए. वो बीफ छोड़कर सबकुछ खाते थे* 
मुगलों के भोजन का आनंद लेते थे. मदिरासेवी थे."
14वीं सदी में भारत आए मोरक्कन यात्री इब्न बबूता ने अपने यात्रा वृत्तांत यानि रिह्‌ला में लिखा, "मुगलों में वाइन को लेकर खास आकर्षण था. अकबर के बारे में भी कहा जाता है कि वो शाकाहारी और शराब से दूर रहने वाला शासक था. कभी-कभार ही मीट का सेवन करता था. औरंगजेब ने तो शराब सेवन के खिलाफ कानून ही पास कर दिया था. अलबत्ता उसकी कुंवारी बहन जहांआरा बेगम खूब वाइन पीती थी. जो विदेशों से भी उसके पास पहुंचता था. हालांकि अब मदिरा सेवन में कायस्थ बहुत पीछे छूट चुके हैं. लेकिन एक जमाना था जबकि कायस्थों के मदिरा सेवन के कारण उन्हे ये लेकर ये बात खूब कही जाती थी. 
*"लिखना, पढ़ना जैसा वैसा*
*दारू नहीं पिये तो कायस्थ कैसा"*
वैसे पहले ही जिक्र कर चुका हूं. जमाना बदल गया है. खानपान और पीने-पिलाने की रवायतें बदल रही हैं. *हरिवंशराय बच्चन* दशद्वार से सोपान तक में लिख गए *मेरे खून में तो मेरी सात पुश्तों के कारण हाला भरी पड़ी है, बेशक मैने कभी हाथ तक नहीं लगाया*

              कायस्थ हमेशा से खाने-पीने के शौकीन रहे हैं. लेकिन ये सब भी उन्होंने एक स्टाइल के साथ किया. आज भी अगर पुराने कायस्थ परिवारों से बात करिए या उन परिवारों से ताल्लुक रखने वालों से बात करिए तो वो बताएंगे कि किस तरह कायस्थों की कोठियों में बेहतरीन खानपान, गीत-संगीत और शास्त्रीय सुरों की महफिलें सजा करती थीं. जिस तरह बंगालियों के बारे में माना जाता है कि हर बंगाली घर में आपको अच्छा खाने-पीने, गाने और पढ़ने वाले लोग जरूर मिल जाएंगे, कुछ वैसा ही कायस्थों को लेकर कहा जाता रहा है. 
जिस किताब का जिक्र मैने आपसे पहली कड़ी में किया, उसका नाम है मिसेज एलसीज टेबल. अनूठी विशाल की ये किताब तमाम ऐसे व्यंजनों की बात करती है, जिसका इनोवेशन केवल कायस्थों के किचन में हुआ. 
मसलन देश में भरवों और तमाम तरह के पराठों का जो अंदाज आप अब खानपान में देखते हैं, वो मुगलों की पाकशाला से जरूर निकले लेकिन उसका असली भारतीयकरण कायस्थों ने किया. मुगल जब भारत आए तो उन्हें भारत में जो यहां की मूल सब्जियां मिलीं, उसमें करेला, लौकी, तोरई, परवल और बैंगन जैसी सब्जियां थीं. उनके मुख्य खानसामा ने करेला और परवल को दस्तरख्वान के लिए चुना, क्योंकि उन्हें लगा कि ये मुगल बादशाह और उनके परिवार को पसंद आएगी. लेकिन उन्होंने एक काम और किया. इन दोनों सब्जियों के ऊपर चीरा लगाकर उन्होंने इसे अंदर से खाली किया और भुना हुआ मीट कीमा डालकर इसे तंदूर में पकाया. बेशक ये जायका लाजवाब था. कायस्थों ने इसे अपने तरीके से पकाया. उन्होंने करेला, बैंगन, परवल में सौंफ, लौंग, इलायची, आजवाइन, जीरे और धनिया जैसे मसालों और प्याज का मिश्रण भरा.
 कुछ दशक पहले तक किसी और घर में पूरे खड़े मसालें मिलें या नहीं मिलें लेकिन कायस्थों के घरों में ये अलग-अलग बरनियों या छोटे डिब्बों में मौजूद रहते थे. उन्हें हर मसाले की खासियतों का अंदाज था. खैर बात भरवों की हो रही है. खड़े मसालों को प्याज और लहसुन के साथ सिलबट्टे पर पीसा जाता था. बने हुए पेस्ट को कढ़ाई पर भुना जाता था. फिर इसे करेला, बैंगन, परवल, आलू, मिर्च आदि में अंदर भरकर कड़ाही में तेल के साथ देर तक फ्राई किया जाता था. कड़ाही इस तरह ढकी होती थी कि भुनी हुई सब्जियों से निकल रही फ्यूम्स उन्हीं में जज्ब होती रहे. आंच मध्यम होती थी कि वो जले भी. बीच-बीच में इतनी मुलायमित के साथ उस पर कलछुल चलाया जाता था कि हर ओर आंच बराबर लगती रहे.  
*दरअसल देश में पहली बार भरवों की शुरुआत इसी अंदाज में कायस्थों के किचन में हुई* 
हर मसाले के अपने चिकित्सीय मायने भी होते थे. यहां तक मुगलों के बारे में भी कहा गया है कि मुगल पाकशाला का मुख्य खानसामा हमेशा अगर किसी नए व्यंजन की तैयारी करता था तो शाही वैद्य से मसालों के बारे में हमेशा राय-मश्विरा जरूर कर लेता था. 
चूंकि कायस्थ दरबारों में बड़े और अहम पदों पर थे लिहाजा मुगलिया दावत में आमंत्रित भी रहते थे. 1526 में बाबर ने जब भारत में मुगल वंश की नींव रखी तो अपने साथ मुगल दस्तख्वान भी भारत ले आया. तकरीबन सभी मुगलिया शासक खाने के बहुत शौकीन थे. जहांगीर तो अपनी डायरियों तक में खानपान का जिक्र करता था. अकबर के समय में उनके इतिहासकार अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी और अकबरनामा में उस दौर के खानपान का भरपूर जिक्र किया है. इब्नबबूता ने भी अपने यात्रा वृतांत में भी इसका जिक्र किया है. ये वो दौर था जब मुगल खानपान में ड्रायफ्रुट्स, किशमिश, मसालों और घी का भरपूर प्रयोग होता था. इसे वो अपने साथ यहां भी लाए थे. यानि कहा जा सकता है कि मुगल पाकशाला के साथ खानों की नई शैली और स्वाद भी आया था. ऐसा नहीं है कि भारत में ये सब चीजें होती नहीं थीं या इनका इस्तेमाल नहीं होता था लेकिन इन सारी ही खाद्य सामग्रियों को लेकर तमाम पाबंदियां और बातें थीं.
कायस्थ मुगल दस्तरख्वान के ज्यादातर व्यंजनों को अपनी रसोई तक ले गए लेकिन अपने अंदाज और प्रयोगों के साथ. फर्क ये था कि कायस्थों ने शाकाहार का भी बखूबी फ्यूजन किया. मांसाहार के साथ भी कायस्थों ने ये काम किया. कवाब से लेकर मीट और बिरयानी तक का बखूबी नया अंदाज कायस्थों की रसोई में मिलता रहा. 
बिरयानी की भी एक रोचक कहानी है. कहा जाता है कि एक बार मुमताज सेना की बैरक का दौरा करने गईं. वहां उन्होंने मुगल सैनिकों को कुछ कमजोर पाया. उन्होंने खानसामा से कहा कि ऐसी कोई स्पेशल डिश तैयार करें, जो चावल और मीट से मिलकर बनी हो, जिससे पर्याप्त पोषण मिले. जो डिश सामने आई, वो बिरयानी के रूप में थी. बिरयानी में अगर मुगल दस्तरख्वान ने नए नए प्रयोग किए तो कायस्थों ने बिरयानी के इस रूप को सब्जियों, मसालों के साथ शाकाहारी अंदाज में भी बदला. चावल को घी के साथ भुना गया. सब्जियों को फ्राई किया गया. फिर इन दोनों को मसाले के साथ मिलाकर पकाया गया, बस शानदार तहरी या पुलाव तैयार. 
अपने घरों में आप चाव से जो पराठे खाते हैं. वो बेशक मुगल ही भारत लेकर आए थे. दरअसल मुगलों की दावत में कायस्थों ने देखा कि फूली हुई रोटी की तरह मुगलिया दावत में एक ऐसी डिश पेश की गई, जिसमें अंदर मसालों में भुना मीट भरा था. इन फूली हुई रोटियों को घी से सेंका गया था. खाने में इसका स्वाद गजब का था. कायस्थों ने इस डिश को रसोई में जब आजमाया तो इसके अंदर आलू, मटर आदि भरा. ये कायस्थ ही थे. जिन्होंने उबले आलू, उबली हुई चने की दाल, पिसी हरी मटर को आटे की लोइयों के अंदर भरकर इसे बेला और सरसों तेल में सेंका तो लज्जतदार पराठा तैयार था. जब अगली बार आप अगर पराठे वाली गली में कोई पराठा खा रहे हों या घर में इसे तैयार कर रहे हों और ये मानें कि ये पंजाबियों की देन हैं तो पक्का मानिए कि आप गलत हैं. असलियत में ये कायस्थों की रसोई का फ्यूजन है. 
बात सरसो तेल और घी की चली है, तो ये भी बताता चलता हूं कि इन दोनों का इस्तेमाल भारतीय खाने में बेशक होता था लेकिन बहुत सीमित रूप मे .
मशहूर खानपान विशेषज्ञ केटी आचार्य की किताब ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड में कहा गया है कि चरक संहिता के अनुसार, बरसात के मौसम में वेजिटेबल तेल का इस्तेमाल किया जाए तो वसंत में जानवरों की चर्बी से मिलने वाले घी का. हालांकि इन दोनों के ही खानपान में बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी. प्राचीन भारत में तिल का तेल फ्राई और कुकिंग में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था. उस दौर में कहा जाता था कि गैर आर्य राजा जमकर घी-तेल का इस्तेमाल करके ताकत हासिल करते हैं. प्राचीन काल में सुश्रुत मानते थे ज्यादा घी-तेल का इस्तेमाल पाचन में गड़बड़ी पैदा करता है. सुश्रुत ने जिन 16 खाद्य तेलों को इस्तेमाल के लिए चुना था, उसमें सरसों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था. इसके चिकित्सीय उपयोग भी बहुत थे.(सोशल मीडिया से)
काशी,21अप्रैल 2022,गुरूवार
#व्योमवार्ता
http://chitravansh.blogspot.comकायस्थों के खान पान के बारे मे बहुत से किस्से कहानियां है। आज सोशल मीडिया पर यह पोस्ट पढ़ा। बिरादरी के बारे विशेष तरह की जानकारी लगी तो मैने भी इसे अपनी डायरी का हिस्सा बना लिया। जिस भी बंधु ने यह पोस्ट लिखी उनसे कापी पेस्ट करने के लिये साभार अनुमति सहित।
 
     *कायस्थों का खाना-पीना* 
बनारस के अर्दली बाजार में काफी बड़ी संख्या में कायस्थ रहते हैं. अगर आप रविवार को यहां के मोहल्लों से दोपहर में निकलें तो हर घर के बाहर आती खाने की गंध बता देगी कि अंदर क्या पक रहा है. ये हालत पूर्वी उत्तर प्रदेश के तकरीबन उन सभी जगहों की है, जहां कायस्थ अच्छी खासी तादाद में रहते हैं. बात कुछ पुरानी है. अर्दली बाजार में एक दोस्त के साथ घूम रहा था. पकते लजीज मीट की खुशबू बाहर तक आ रही थी. दोस्त ने मेरी ओर देखा, तपाक से कहा, "ललवन के मुहल्लवां से जब इतवार में निकलबा त पता लग जाई कि हर घर में मटन पकत बा." 
हकीकत यही है. उत्तर भारत में अब भी अगर आप किसी कायस्थ के घर संडे में जाएं तो किचन में मीट जरूर पकता मिलेगा. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कायस्थों को लाला भी बोला जाता है. देशभर में फैले कायस्थों की खास पहचान का एक हिस्सा उनका खान-पान है. संडे में जब कायस्थों के घर जब मीट बनता है तो अमूमन बनाने का जिम्मा पुरुष ज्यादा संभालते हैं.
पिछले शनिवार और रविवार जब मैं किताबों और कागजों से कबाड़ हल्का कर रहा था, तब फ्रंटलाइन में छपा एक रिव्यू हाथ आ गया. जो काफी समय पहले पढ़ने के लिए रखा था. शायद इसलिए, क्योंकि वो उस किताब का रिव्यू था जो कायस्थों के खानपान पर आधारित है. इस की काफी तारीफ तब अखबारों और पत्रिकाओं में आई थी. किताब का नाम है "मिसेज एलसीज टेबल". इसकी लेखिका हैं अनूठी विशाल. मिसेज एलसी मतलब मिसेज लक्ष्मी चंद्र माथुर. और टेबल यानि उनके लजीज पाकशाला से सजी टेबल. 
माना जाता है कि भारत में लजीज खानों की खास परंपरा कायस्थों के किचन से निकली है. कायस्थों में तमाम तरह सरनेम हैं. *कहा जाता है कि खान-पान असली परंपरा और रवायतों में माथुर कायस्थों की देन ज्यादा है*. खाने को लेकर उन्होंने खूब इनोवेशन किया. कायस्थों की रसोई के खाने अगर मुगल दस्तरख्वान का फ्यूजन हैं तो बाद में ब्रिटिश राज में उनकी अंग्रेजों के साथ शोहबत भी.

*हालांकि पूर्वी उत्तर प्रदेश खासकर इलाहाबाद, लखनऊ, बनारस, जौनपुर में रहने वाले श्रीवास्तव भी खुद को कुछ कम नहीं मानते*

कहा जाता है कि कायस्थों की जमात तब उभर कर आई, जब मुगल भारत आए. फारसी में लिखा-पढ़ी, चकबंदी और अदालती कामकाज के नए तौरतरीके शुरू हुए. कायस्थों ने फटाफट फारसी सीखी और मुगल बादशाहों के प्रशासन, वित्त महकमों और अदालतों में मुलाजिम और अधिकारी बन गए. कायस्थ हमारी पुरातन सामाजिक जाति व्यवस्था में क्यों नहीं हैं, ये अलग चर्चा का विषय है. इसके बारे में भी कई मत हैं. कोई उन्होंने शुद्रों से ताल्लुक रखने वाला तो कोई ब्राह्मणों तो कुछ ग्रंथ क्षत्रियों से निकली एक ब्रांच मानते हैं. 
*लेखक अशोक कुमार वर्मा की एक किताब है, "कायस्थों की सामाजिक पृष्ठभूमि"*. वो कहती है, *"जब मुगल भारत आए तो कायस्थ मुस्लिमों की तरह रहने लगे. उनके खाने के तौरतरीके भी मुस्लिमों की तरह हो गए. वो बीफ छोड़कर सबकुछ खाते थे* 
मुगलों के भोजन का आनंद लेते थे. मदिरासेवी थे."
14वीं सदी में भारत आए मोरक्कन यात्री इब्न बबूता ने अपने यात्रा वृत्तांत यानि रिह्‌ला में लिखा, "मुगलों में वाइन को लेकर खास आकर्षण था. अकबर के बारे में भी कहा जाता है कि वो शाकाहारी और शराब से दूर रहने वाला शासक था. कभी-कभार ही मीट का सेवन करता था. औरंगजेब ने तो शराब सेवन के खिलाफ कानून ही पास कर दिया था. अलबत्ता उसकी कुंवारी बहन जहांआरा बेगम खूब वाइन पीती थी. जो विदेशों से भी उसके पास पहुंचता था. हालांकि अब मदिरा सेवन में कायस्थ बहुत पीछे छूट चुके हैं. लेकिन एक जमाना था जबकि कायस्थों के मदिरा सेवन के कारण उन्हे ये लेकर ये बात खूब कही जाती थी. 
*"लिखना, पढ़ना जैसा वैसा*
*दारू नहीं पिये तो कायस्थ कैसा"*
वैसे पहले ही जिक्र कर चुका हूं. जमाना बदल गया है. खानपान और पीने-पिलाने की रवायतें बदल रही हैं. *हरिवंशराय बच्चन* दशद्वार से सोपान तक में लिख गए *मेरे खून में तो मेरी सात पुश्तों के कारण हाला भरी पड़ी है, बेशक मैने कभी हाथ तक नहीं लगाया*

              कायस्थ हमेशा से खाने-पीने के शौकीन रहे हैं. लेकिन ये सब भी उन्होंने एक स्टाइल के साथ किया. आज भी अगर पुराने कायस्थ परिवारों से बात करिए या उन परिवारों से ताल्लुक रखने वालों से बात करिए तो वो बताएंगे कि किस तरह कायस्थों की कोठियों में बेहतरीन खानपान, गीत-संगीत और शास्त्रीय सुरों की महफिलें सजा करती थीं. जिस तरह बंगालियों के बारे में माना जाता है कि हर बंगाली घर में आपको अच्छा खाने-पीने, गाने और पढ़ने वाले लोग जरूर मिल जाएंगे, कुछ वैसा ही कायस्थों को लेकर कहा जाता रहा है. 
जिस किताब का जिक्र मैने आपसे पहली कड़ी में किया, उसका नाम है मिसेज एलसीज टेबल. अनूठी विशाल की ये किताब तमाम ऐसे व्यंजनों की बात करती है, जिसका इनोवेशन केवल कायस्थों के किचन में हुआ. 
मसलन देश में भरवों और तमाम तरह के पराठों का जो अंदाज आप अब खानपान में देखते हैं, वो मुगलों की पाकशाला से जरूर निकले लेकिन उसका असली भारतीयकरण कायस्थों ने किया. मुगल जब भारत आए तो उन्हें भारत में जो यहां की मूल सब्जियां मिलीं, उसमें करेला, लौकी, तोरई, परवल और बैंगन जैसी सब्जियां थीं. उनके मुख्य खानसामा ने करेला और परवल को दस्तरख्वान के लिए चुना, क्योंकि उन्हें लगा कि ये मुगल बादशाह और उनके परिवार को पसंद आएगी. लेकिन उन्होंने एक काम और किया. इन दोनों सब्जियों के ऊपर चीरा लगाकर उन्होंने इसे अंदर से खाली किया और भुना हुआ मीट कीमा डालकर इसे तंदूर में पकाया. बेशक ये जायका लाजवाब था. कायस्थों ने इसे अपने तरीके से पकाया. उन्होंने करेला, बैंगन, परवल में सौंफ, लौंग, इलायची, आजवाइन, जीरे और धनिया जैसे मसालों और प्याज का मिश्रण भरा.
 कुछ दशक पहले तक किसी और घर में पूरे खड़े मसालें मिलें या नहीं मिलें लेकिन कायस्थों के घरों में ये अलग-अलग बरनियों या छोटे डिब्बों में मौजूद रहते थे. उन्हें हर मसाले की खासियतों का अंदाज था. खैर बात भरवों की हो रही है. खड़े मसालों को प्याज और लहसुन के साथ सिलबट्टे पर पीसा जाता था. बने हुए पेस्ट को कढ़ाई पर भुना जाता था. फिर इसे करेला, बैंगन, परवल, आलू, मिर्च आदि में अंदर भरकर कड़ाही में तेल के साथ देर तक फ्राई किया जाता था. कड़ाही इस तरह ढकी होती थी कि भुनी हुई सब्जियों से निकल रही फ्यूम्स उन्हीं में जज्ब होती रहे. आंच मध्यम होती थी कि वो जले भी. बीच-बीच में इतनी मुलायमित के साथ उस पर कलछुल चलाया जाता था कि हर ओर आंच बराबर लगती रहे.  
*दरअसल देश में पहली बार भरवों की शुरुआत इसी अंदाज में कायस्थों के किचन में हुई* 
हर मसाले के अपने चिकित्सीय मायने भी होते थे. यहां तक मुगलों के बारे में भी कहा गया है कि मुगल पाकशाला का मुख्य खानसामा हमेशा अगर किसी नए व्यंजन की तैयारी करता था तो शाही वैद्य से मसालों के बारे में हमेशा राय-मश्विरा जरूर कर लेता था. 
चूंकि कायस्थ दरबारों में बड़े और अहम पदों पर थे लिहाजा मुगलिया दावत में आमंत्रित भी रहते थे. 1526 में बाबर ने जब भारत में मुगल वंश की नींव रखी तो अपने साथ मुगल दस्तख्वान भी भारत ले आया. तकरीबन सभी मुगलिया शासक खाने के बहुत शौकीन थे. जहांगीर तो अपनी डायरियों तक में खानपान का जिक्र करता था. अकबर के समय में उनके इतिहासकार अबुल फजल ने आइन-ए-अकबरी और अकबरनामा में उस दौर के खानपान का भरपूर जिक्र किया है. इब्नबबूता ने भी अपने यात्रा वृतांत में भी इसका जिक्र किया है. ये वो दौर था जब मुगल खानपान में ड्रायफ्रुट्स, किशमिश, मसालों और घी का भरपूर प्रयोग होता था. इसे वो अपने साथ यहां भी लाए थे. यानि कहा जा सकता है कि मुगल पाकशाला के साथ खानों की नई शैली और स्वाद भी आया था. ऐसा नहीं है कि भारत में ये सब चीजें होती नहीं थीं या इनका इस्तेमाल नहीं होता था लेकिन इन सारी ही खाद्य सामग्रियों को लेकर तमाम पाबंदियां और बातें थीं.
कायस्थ मुगल दस्तरख्वान के ज्यादातर व्यंजनों को अपनी रसोई तक ले गए लेकिन अपने अंदाज और प्रयोगों के साथ. फर्क ये था कि कायस्थों ने शाकाहार का भी बखूबी फ्यूजन किया. मांसाहार के साथ भी कायस्थों ने ये काम किया. कवाब से लेकर मीट और बिरयानी तक का बखूबी नया अंदाज कायस्थों की रसोई में मिलता रहा. 
बिरयानी की भी एक रोचक कहानी है. कहा जाता है कि एक बार मुमताज सेना की बैरक का दौरा करने गईं. वहां उन्होंने मुगल सैनिकों को कुछ कमजोर पाया. उन्होंने खानसामा से कहा कि ऐसी कोई स्पेशल डिश तैयार करें, जो चावल और मीट से मिलकर बनी हो, जिससे पर्याप्त पोषण मिले. जो डिश सामने आई, वो बिरयानी के रूप में थी. बिरयानी में अगर मुगल दस्तरख्वान ने नए नए प्रयोग किए तो कायस्थों ने बिरयानी के इस रूप को सब्जियों, मसालों के साथ शाकाहारी अंदाज में भी बदला. चावल को घी के साथ भुना गया. सब्जियों को फ्राई किया गया. फिर इन दोनों को मसाले के साथ मिलाकर पकाया गया, बस शानदार तहरी या पुलाव तैयार. 
अपने घरों में आप चाव से जो पराठे खाते हैं. वो बेशक मुगल ही भारत लेकर आए थे. दरअसल मुगलों की दावत में कायस्थों ने देखा कि फूली हुई रोटी की तरह मुगलिया दावत में एक ऐसी डिश पेश की गई, जिसमें अंदर मसालों में भुना मीट भरा था. इन फूली हुई रोटियों को घी से सेंका गया था. खाने में इसका स्वाद गजब का था. कायस्थों ने इस डिश को रसोई में जब आजमाया तो इसके अंदर आलू, मटर आदि भरा. ये कायस्थ ही थे. जिन्होंने उबले आलू, उबली हुई चने की दाल, पिसी हरी मटर को आटे की लोइयों के अंदर भरकर इसे बेला और सरसों तेल में सेंका तो लज्जतदार पराठा तैयार था. जब अगली बार आप अगर पराठे वाली गली में कोई पराठा खा रहे हों या घर में इसे तैयार कर रहे हों और ये मानें कि ये पंजाबियों की देन हैं तो पक्का मानिए कि आप गलत हैं. असलियत में ये कायस्थों की रसोई का फ्यूजन है. 
बात सरसो तेल और घी की चली है, तो ये भी बताता चलता हूं कि इन दोनों का इस्तेमाल भारतीय खाने में बेशक होता था लेकिन बहुत सीमित रूप मे .
मशहूर खानपान विशेषज्ञ केटी आचार्य की किताब ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड में कहा गया है कि चरक संहिता के अनुसार, बरसात के मौसम में वेजिटेबल तेल का इस्तेमाल किया जाए तो वसंत में जानवरों की चर्बी से मिलने वाले घी का. हालांकि इन दोनों के ही खानपान में बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी. प्राचीन भारत में तिल का तेल फ्राई और कुकिंग में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था. उस दौर में कहा जाता था कि गैर आर्य राजा जमकर घी-तेल का इस्तेमाल करके ताकत हासिल करते हैं. प्राचीन काल में सुश्रुत मानते थे ज्यादा घी-तेल का इस्तेमाल पाचन में गड़बड़ी पैदा करता है. सुश्रुत ने जिन 16 खाद्य तेलों को इस्तेमाल के लिए चुना था, उसमें सरसों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था. इसके चिकित्सीय उपयोग भी बहुत थे.(सोशल मीडिया से)
काशी,21अप्रैल 2022,गुरूवार
#व्योमवार्ता
http://chitravansh.blogspot.com

शनिवार, 19 मार्च 2022

चटगांव बंगाल हिंदू एनक्लेव : एक संभावना.......(कैप्टन आर विक्रम सिंह के कलम से)

हमारे अति सम्माननीय लोकप्रिय प्रशासनिक अधिकारियों मे रहे बड़े भैया कैप्टन आर विक्रम सिंह के लेख बहुत ही समीचीन व तथ्यपरक रहते हैं। विशेषकर भारतवर्ष के पड़ोसी देशों पर उनका शोधपरक अध्ययन हम जैसों के लिये रोचक व ज्ञानवर्द्धक रहता है। उनके लेख बहुत ही से शब्दों मे समस्या के कारण व समाधान के साथ ही वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे अति प्रासंगिक है।
आज अखण्ड भारत के हिस्सा रहे बांग्ला देश पर उनका यह सारगर्भित लेख।

चटगांव बंगाल हिंदू एनक्लेव : एक संभावना------- 

                    यह कोई सामान्य विचार नहीं है. नया इतिहास लिखना, समाजों का भाग्य बदलना यथास्थितिवादी सत्ता आकांक्षियों के बस का नहीं होता. बात यहां बंगाल के असहाय हिंदुओं की है जिन्हें हमारी आजादी के कथित नायकों ने 1947 में जेहादी भेड़ियों का ग्रास बनने के लिए लावारिस छोड़ दिया था. यह विचार जो अंतिम पैरे में है, 1947-48 में कश्मीर युद्ध के समय भी हमारी बुद्धि में आ सकता था. लेकिन नहीं हमारे नेहरू जैसे नेता तो स्वयं ही पाकिस्तान के विचार के सबसे बड़े संरक्षक थे. 1950 के ढाका के भीषण दंगों के बाद जिसमें न्यूनतम 10,000 हिंदुओं की हत्या हुई थी, सरदार पटेल ने उद्वेलित होकर कहा था कि यही हाल रहा तो हमें शरणार्थियों के लिए जमीन पाकिस्तान से लेनी पड़ेगी. जिसपर नेहरू ने घबरा कर बड़ी सफाई दी कि सरकार का ऐसा कोई विचार नहीं है. यहां यह अवगत कराना चाहूंगा कि चंटगांव से लगी हुई पहाड़ियों का विस्तृत इलाका बौद्ध धर्म को मानने वाली चकमा जनजाति का मूल क्षेत्र रहा है. 1947 में अंग्रेजों के रिकार्ड में था कि इन पर्वतों में मुस्लिम आबादी मात्र 3% है फिर भी इसे पाकिस्तान में शामिल कर चकमा समाज को भूखे भेड़ियों के हवाले कर दिया गया. कांग्रेसियों में से कोई नहीं बोला. वो तो गोपीनाथ बारदोलाई जैसा नेता था वरना नेहरू तो असम को भी पाकिस्तान को देने का मन बना चुके थे. आज चकमा भारत में राज्यविहीन शरणार्थी हैं. कांग्रेस और नेहरू के पाप कहां तक गिनाए जाये. बल्कि नेहरू ने लियाकत अली के साथ मिलकर एक निकृष्ट सोच का ऐसा समझौता कर लिया जो पाकिस्तान के हिंदुओं को पाकिस्तान में ही रहने को बाध्य करता था. हमारे इतिहास में अपने को कश्मीरी ब्राह्मण कहने वाले नेहरू से अधिक हिंदूद्रोही चरित्र खोजना मुश्किल है. चटगांव हिंदू एनक्लेव स्थापित करने का कार्य सन् 1965 के युद्ध के समय भी हो सकता था. लेकिन तब तक तो न रणनीति, न कूटनीति, न राष्ट्रहित की कोई समझ ही विकसित हो सकी थी. हम उन तुरंत आजाद किये गये गुलामों की तरह थे जिनकी गुलामी की आदतें गहरे पैंठी हुई थीं. गुलामी के मानस से आजाद हो जाना, शक्ति की भाषा बोलने लगना आसान न था. अंग्रेजों की गुलामी से छूटे तो नेहरू की बदौलत वामपंथ की वैचारिक गुलामी का दौर आ गया था. एक आकलन के मुताबिक 2013 के बाद से बांग्ला देश में अब तक हिंदुओं पर 3600 हमले किये जाने का रिकार्ड उपलब्ध हैं और कितने ही तो रोज होते हैं जो अनरिपोर्टेड रहते हैंं. मात्र मानवीय आधार पर ही देखें तो इसकी गंभीरता अत्यंत चिंताजनक है. जिस बंगाल की सरकार व मुख्यमंत्री को बंगाली हिंदुओं संस्कृति और भाषा के हित में सीमापार के ये मुद्दे मजबूती से उठाने चाहिए थे वे तो भारत के बंगाल में उसी बांगला देशी जेहादी साम्प्रदायिक मशीन के बेशर्म हिस्से बन चुके हैं. वे भी अपने मजहबी एजेंटों के माध्यम से हिंदू समाज पर अत्याचार करने में कहीं से पीछे नहीं हैं. यह एक अलग विमर्श है कि ये सरकार अभिजात भद्रलोक हिंदू व दलित नमोशूद्र हिंदुओं में भेद करते हुए दलित हिंदू समाज की जेहादी प्रताड़ना से आंखें बंद रखती है. चूंकि मामला दलित बंगाली हिंदूओं का है इसलिए मीडिया वगैरह का शोर भी एक सीमा से आगे नहीं बढ़ा. ये लोकतंत्र के सबक हैं. बंगाल में संभवतः एक छोटे से वर्ग को छोड़ कर सब ने इसे अपनी नियति मान लिया है कि राजनैतिक हित साधने वाले इस प्रायोजित जेहादी विस्तार व वर्चस्व को रोक सकना संभव नहीं है. बांग्ला देश की कुल 17 करोड़ आबादी में हिंदू लगभग 1.5 करोड़ के आसपास हैं. अभी हमने दुर्गा पूजा पंडालों पर हुए जेहादी आक्रमणों को देखा है जिसमें इस्कॉन के पुजारियों समेत दर्जन भर हिंदुओं की वीभत्स हत्या हुई. संभवतः यह पहली बार है कि बांगलादेश का साम्प्रदायिक मुद्दा विश्व स्तर पर उठाया गया और दुनिया ने इनका जेहादी चेहरा देखा. नान रेजिडेंट बंगाली-बांग्ला देशी हिंदुओं में इसके प्रति चिंताएं देखी गयीं कि यह सब आखिर कब तक चलेगा. बांग्ला देश, बताते हैं कि भारत की बदौलत आजाद हुआ है. इतिहास में तो यही लिखा है. हमारी अपनी फौजी रेजिमेंट भी 1971 में ढाका की लड़ाई में थी लेकिन अब भरोसा नहीं होता. हमारी बदौलत आजाद हुए इस देश की साम्प्रदायिकता जेहादियों की सहयोगी बनी हुई हिंदुओं से शत्रुता में किसी से पीछे नहीं है. हमारा दिमाग ही नहीं चलता कि आखिर हमारे देश की भूमिका, हमारा दायित्व और भविष्य की दिशा क्या है. क्या सिर्फ बच्चे पालना, मुफ्तखोरी करना, जब मौका लगे तो जाकर किसी को वोट दे देना ही हमारे भाग्य में है ? मरने के करीब पहुंचे लोगों ने संविधान रच दिया अब वह देश के मरने तक क्या ऐसे ही चलेगा ? जेहादी समाज तो इस देश के मरने के इंतजार में हैं. जेहादी ही नहीं, जातिवादी, भाषावादी, क्षेत्रीय क्षत्रप, मिशनरी, माओवादी, खालिस्तानी और भी बहुत से देश के मरने की प्रतीक्षा में हैं. आपने झंडे पर लिटा कर जेहादियों द्वारा काटी जा रही गाय का तड़पता वीडियो देखा होगा. वह एक सिंबल है कि समाज को काटने वाले सशक्त बेधड़क हो रहे हैं. वे भारत का यही हस्र देखना चाहते हैं. यहां सवाल वैचारिक विमर्शों से बाहर आकर कार्ययोजना पर चलने का है. खालिस सोचना, सिर्फ आलोचक बने रहना, कोई समाधान नहीं है. मैंने खोजने का प्रयास किया कि क्या बांग्ला देश के प्रताड़ित हिंदू समाज ने इस अत्याचारों का प्रतिवाद करने के लिए व अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कोई ऐसा सशक्त संगठन बनाया है जो आवश्यकता पड़ने पर सशस्त्र प्रतिवाद से भी पीछे न हटे. अभी तक ऐसा कोई दिखा नहीं है. बंगाली हिंदू एनआरआई वर्ग इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. 1.5 करोड़ एक सशक्त आबादी है. चटगांव क्षेत्र में हिंदू आबादी 15 लाख के लगभग है. सशक्त राजनैतिक प्रतिक्रियाओं के मद्देनजर अन्य क्षेत्रों से चटगांव की ओर हिंदुओं के माइग्रेशन से यह आबादी बढ़ती जाएगी. इतिहास की गलतियों को सुधारने के ऐसे कई उदाहरण अभी के इतिहास में मौजूद हैं. अभी अभी यूक्रेन के पूर्वी रूसी आबादी बहुल इलाके डोनबास के दो राज्यों को रूस ने अलग मान्यता दी है. इससे पहले यूगोस्लाविया के टूटने से नाटो द्वारा बनाया गया कोसोवो एक अलग मुस्लिम बहुल योरोपीय देश अस्तित्व में आया है. तो बांग्ला देशी हिंदुओं के लिए चटगांव हिंदू राष्ट्र या 'बंगभूमि' नामक देश क्यों नहीं बन सकता. राजस्थान के अरावली की पहाड़ियों की तरह चकमा हिल्स, चटगांव की पहाड़ियां हैं जो क्रांतिकारियों को शरण देकर हिंदू बंगाल की आधारशिला बन सकती हैं. सशक्त प्रयास होगा तो चटगांव हिंदू बहुल भी हो सकता है. सम्बंधित मानचित्र को ध्यान से देखें, गहन अध्ययन करें. चटगांव के पूर्व में भारत, पश्चिम में समुद्र, दक्षिण में म्यांमार और उत्तर में त्रिपुरा का भारतीय क्षेत्र है इसके पश्चिम से होकर फेनी इलाके की एक छोटी जमीनी पट्टी से बांग्ला देश मुख्यभूमि से यह चटगांव प्रायद्वीप जुड़ता है. यहां का भूगोल एक सशस्त्र क्रांति के लिए आदर्श है. बंगाल ने पहले भी देश को रास्ता दिखाया है. अधिक नहीं यदि जमीन से जुड़े मात्र एक लाख बंगाली युवक ही यह प्रतिज्ञा कर लें तो सहयोगी शक्तियां अपने आप साथ आने लगेगी. अगले दस वर्षों से पहले ही चंटगांव प्रायद्वीप में हिंदू राष्ट्र बंगाल का स्वप्न साकार हो सकता है. यदि ऐसा हो सका तो यह हमारे मानस को आमूल बदल देने वाली एक हिंदू क्रांति का सूत्रपात होगा ...
   
-कैप्टन राघवेन्द्र विक्रम सिंह (पूर्व आईएएस अधिकारी)

(काशी,19मार्च 2022,शनिवार)
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शुक्रवार, 18 मार्च 2022

व्योमवार्ता /काँन्वेंट शब्द पर गर्व न करें सच समझे..

कान्वेंट शब्द के मायने.

                सोशल मीडिया भी अकसर महत्वपूर्ण जानकारियां व सूचनायें दे जाता है। आज ऐसे ही यह छोटा सा लेख फेसबुक पर किसी ने लगाया था। पढ़ कर जिज्ञासा हुई तो गुगल बाबा और विकीपिडिया से तथ्यों का सत्यापन किया। मेरा यह दावा नही है कि गुगल और विकिपीडिया पर तथ्य प्रामाणिक ही होगें पर तथ्यों के ऐतिहासिक संदर्भ उन्हे गलत भी नही सिद्ध करते। बहरहाल फेसबुक पर मिली पोस्ट ज्यों की त्यों रख रहा हूं  इसमे कोई तथ्यपरक जानकारी द्वारा सार्थक परिमार्जन, परिवर्द्धन, संशोधन होने पर संभवतः तथ्यों मे ज्ञानवृद्धि ही होगी।
    ‘काँन्वेंट’ सबसे पहले तो यह जानना आवश्यक है कि ये शब्द आखिर आया कहाँ से है, तो आइये प्रकाश डालते हैं।
ब्रिटेन में एक कानून था *लिव इन रिलेशनशिप* बिना किसी वैवाहिक संबंध के एक लड़का और एक लड़की का साथ में रहना। जब साथ में रहते थे तो शारीरिक संबंध भी बन जाते थे, तो इस प्रक्रिया के अनुसार संतान भी पैदा हो जाती थी तो उन संतानों को किसी चर्च में छोड़ दिया जाता था।
अब ब्रिटेन की सरकार के सामने यह गम्भीर समस्या हुई कि इन बच्चों का क्या किया जाए तब वहाँ की सरकार ने काँन्वेंट खोले अर्थात् जो बच्चे अनाथ होने के साथ-साथ नाजायज _अवैध हैं उनके लिए काँन्वेंट बने।
                     उन अनाथ और नाजायज बच्चों को रिश्तों का एहसास कराने के लिए उन्होंने अनाथालयों में एक फादर एक मदर एक सिस्टर की नियुक्ति कर दी क्योंकि ना तो उन बच्चों का कोई जायज बाप है ना ही माँ है। तो काँन्वेन्ट बना नाजायज बच्चों के लिए जायज। इंग्लैंड में पहला काँन्वेंट स्कूल सन् 1609 के आसपास एक चर्च में खोला गया था जिसके ऐतिहासिक तथ्य भी मौजूद हैं और भारत में पहला काँन्वेंट स्कूल कलकत्ता में सन् 1842 में खोला गया था। परंतु तब हम गुलाम थे और आज तो लाखों की संख्या में काँन्वेंट स्कूल चल रहे हैं।
जब कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’ कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने की यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं।
मैकाले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है। उसमें वो लिखता है कि:
“इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे। इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा। इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा। इनको अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा।
इनको अपने मुहावरे नहीं मालुम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी।” उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रुवाब पड़ेगा। अरे ! हम तो खुद में हीन हो गए हैं। जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा?
लोगों का तर्क है कि “अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है”। दुनियाँ में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में ही बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है? शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है। इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईसा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे। ईसा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी। समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी।
भारत देश में अब भारतीयों की मूर्खता देखिए जिनके जायज माँ बाप भाई बहन सब हैं, वो काँन्वेन्ट में जाते है तो क्या हुआ एक बाप घर पर है और दूसरा काँन्वेन्ट में जिसे फादर कहते हैं। आज जिसे देखो काँन्वेंट खोल रहा है जैसे बजरंग बली काँन्वेन्ट स्कूल, माँ भगवती काँन्वेन्ट स्कूल। अब इन मूर्खो को कौन समझाए कि भईया माँ भगवती या बजरंग बली का काँन्वेन्ट से क्या लेना देना?
दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन चीजो का हमने त्याग किया अंग्रेजो ने वो सभी चीजो को पोषित और संचित किया। और हम सबने उनकी त्यागी हुई गुलामी सोच को आत्मसात कर गर्वित होने का दुस्साहस किया।
(काशी,18मार्च2022,होली)
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बुधवार, 16 मार्च 2022

व्योमवार्ता : काश्मीर फाईल्स के बहाने.......

सोशल मीडिया पर विजय मनोहर तिवारी जी का लेख

आखिर अब रुख से नकाब सरक रहा है...!!!

आज मैं "द कश्मीर फाइल्स" की बात कर रहा हूँ, जो मैंने अभी तक देखी नहीं है। मैं पिछले छः दिन से सिर्फ देखने वालों को देख रहा हूँ, गौर से सुन रहा हूँ। मगर फिल्म देखने की हिम्मत अभी तक जुटा नहीं पाया हूँ।

निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री यह फिल्म लेकर आये हैं। मगर विवेक रंजन के नाम के आगे न चोपड़ा लगा है, न कपूर। वे न जाैहर हैं, न रामसे। वे न भंसाली हैं, न बड़जात्या। वे न सिप्पी हैं, न देसाई। यह बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी का जमाना भी नहीं है। कथा-पटकथा लिखने वाले न सलीम हैं, न जावेद। डायलॉग लिखने वाले कादर खान भी नहीं हैं। कौमी एकता के तराने किसी कैफी आजमी या कैफ भोपाली ने भी नहीं लिखे हैं। न ही ए आर रहमान ने बाजे बजाये हैं। वे सिर्फ विवेक रंजन अग्निहोत्री हैं, अग्निहोत्री। वे कोई शोमैन नहीं हैं, वे एक अग्निहोत्री हैं। उन्होंने एक आहुति दी है। अपनी कला से बस एक अग्निहोत्र ही किया है और पवित्र अग्नि से निकला यज्ञ का यह प्रचंड धुआं समस्त वायुमंडल में व्याप्त हो गया है। 

कपिल शर्मा छाप विदूषकों की मंडली को पता चल गया है कि बड़े सितारे वे नहीं होते, जो परदे पर चमकते हैं। बड़े सितारे वे हैं, जो उन सितारों को सितारा हैसियत में लेकर आते हैं। सिनेमा के आम और अनाम दर्शक। किंग नहीं, किंग मेकर ही बड़ा होता है। सियासत हो या साहित्य या फिर सिनेमा। नेताओं, लेखकों और अदाकारों को बड़ा बनाने वाला होता है उनका वोटर, उनका पाठक और उनका दर्शक। हाँ, वे जरूर इस वहम में हाे सकते हैं कि वे अपने बूते पर बड़े बने हैं। आज उनका ये वहम टूट गया है, चूर-चूर हो गया है। उन्हें यह भी ज्ञात हो चुका है कि फिल्म को हिट करने के लिये उनके एक घंटे की फूहड़ बकवास नहीं, ट्विटर पर दिल्ली से आयी एक तश्वीर ही काफी है। यह सच्चाई की ताकत है, एक्टिंग की नहीं।

अभी तक तो भारत की सेक्युलर सियासत बुरी तरह बेपर्दा हुई थी। अब एक झटके में बॉलीवुड बेनकाब हो गया है। भारत का सबसे मालदार सिनेमा उद्योग अनगिनत धुरंधर लेखकों और रचनाकारों के होते हुये भी इतना दरिद्र रहा कि सवा सौ साल में अपने लिये एक मौलिक नाम तक नहीं खोज पाया। हॉलीवुड की भोंडी नकल में बॉलीवुड ही बना बैठा है, आज उसके सारे हिजाब हट गये हैं। वह एक गैंग की तरह ही सामने आ गया है। जँहा हैं ऐसी बेजान और बिकाऊ कठपुतलियां, जिनकी डोर किसी और के ही हाथों में रही थी। उनके असल निर्णायक कोई और हैं। मगर आज इस समय सबके चेहरे उतरे हुये हैं।

अभिनय जगत के सफलतम कारोबारी अमिताभ बच्चन किस प्रतीक्षा और किस जलसे में हैं, जिन्हें शब्दों की फिजूलखर्ची करने में माहिर मूर्ख भारतीय मीडिया ने सदी के महानायक के तमगे दिये..?? किस मन्नत में हैं दोयम दरजे के अदाकार शाहरुख, जिन्हें किंग खान के तख्त पर बैठा दिया गया..?? खान तिकड़ी के बाकी बेहूदा चेहरे आखिर आज किधर सरक गये हैं..?। कपूर खानदान के चमकदार सितारे भी कंही दूर ओझल हो गये हैं। इन सबकी चमक बीते शुक्रवार को फीकी पड़ गयी है। हिंदी में बनी एक फिल्म, इन सबके बिना भी दुनिया भर में करोड़ों लोगों के दिलों को छू सकती है। सिर्फ सच की बदौलत। उसे न धर्मा की जरूरत है, न कर्मा की। सब धरे के धरे रह गये हैं।

अक्षय कुमार और अजय देवगन चाहें तो बॉलीवुड का व्याकरण बदल सकते हैं। वे अपने हिस्से की दौलत और शोहरत अपनी उम्मीदों से अधिक प्राप्त कर चुके हैं। परदे की परछाइयों में उन्हें पाने को अब बहुत कुछ शेष है नहीं। मनोज मुंतशिर जैसे हिम्मतवर नौजवान उसी सच से ताकत पाते हैं, जिस पर सिनेमा में एक साजिश के तहत अब तक पूरी तरह परदा डालकर रखा गया था।

प्रतिभा और कला, केवल और सदा अपने ही अभिषेक के लिए नहीं होनी चाहिए। देश को न इस नरेशन की जरूरत है, न उस नरेशन की। नरेशन जो भी हो, राष्ट्र का हित दायें-बायें न हो। अभी तो पेंडुलम पूरा ही एक तरफ सरका हुआ है।

सलीम-जावेद के संयुक्त सौजन्य से सिनेमाई कहानियों में जो रहीम और रहमत चचा, खान और पठान जरूरत के वक्त हीरो के मददगार के रूप में चित्रित किये गये थे, वे चित्र से बाहर कश्मीर में कुछ और ही करते हुये नजर आ गये। वर्ना एक लड़की के साथ सामूहिक रेप के बाद आरे से चीरने वाले कौन थे..?? चावल के ड्रम में अपनी जान बचाने के लिये छिपे निहत्थे आदमी को गोलियों से किसने भून डाला था..?? वो कौन थे, जिन्होंने खून से सने चावल को घर की औरतों और बच्चों के सामने परोस दिया था..?? वो कौन थे, जिन्होंने इशारे में बताया था कि निहत्था आदमी छत पर कँहा छुपा हुआ है..?? वो कौन थे, जो लाउड स्पीकरों पर खुलेआम धमका रहे थे..?? उनके नाम क्या हैं, जो भीड़ में तकबीर के नारे बुलंद कर रहे थे..??

कश्मीर कब तक जन्नत था और कब से जहन्नुम हो गया..?? इसे जहन्नुम बनाने में किन-किन के हाथ लगे..?? चलो मान भी लिया कि आतंक का तो कोई मजहब नहीं होता। मगर कश्मीर के इन वहशी चेहरों में एक जैन, एक बौद्ध, एक सिख, एक पारसी, एक यहूदी या एक हिंदू ही बता दीजिये। सिनेमा के परदे का रहीम और रहमत, खान और पठान कश्मीर में आकर क्या से क्या नजर आया..?? सियासत और साहित्य की तरह सिनेमा भी ३२ साल से एक शातिर चुप्पी में पड़ा रहा। विधु विनोद चोपड़ा (नेत्रहीन दिव्यांग) तो स्वयं एक कश्मीरी हैं, दो साल पहले "शिकारा" में लोरी सुनाने निकले थे और पहले ही शो में गालियां खाकर लौटे थे। 

सबकी परतें उधड़ रही हैं। सबकी कलई खुल रही है। घातक सेक्युलरिज्म के दुष्प्रभाव अपनी कहानी खुद कह रहे हैं। इंडिया टुडे के कवर किन चेहरों से सजाये गये थे..?? कौन बड़े ठाट से प्रधानमंत्री से हाथ मिला रहा था..?? कौन दिल्ली में लाल कालीन सजाये बैठे थे..?? गंगा-जमुनी माहौल कितना शायराना बना दिया गया था..?? एनडीटीवी की नजर में यह एक प्रोपेगंडा फिल्म है। ये सब मिलकर भारत को एक फरेब में घसीटकर ले गये। बटवारे की भीषण और भारी कीमत चुकाने के बावजूद इस देश पर किसी को दया नहीं आई। अंतत: यह एकतरफा चाल सिर्फ उन ताकतों को ही भारी नहीं पड़ी, जिनके चेहरे से सत्तर साल बाद नकाब हटे हैं। यह देश के लिए बहुत महंगी साबित हुई। परदे पर तो एक कश्मीर का भोगा हुआ सच सामने आया है। भुक्तभोगी कश्मीरी हिंदू सुशील पंडित कितने मंचों से आगाह करते रहे हैं कि देश में ऐसे पांच सौ कश्मीर तैयार हैं। फिर ये किया धरा किसका है..?? 

फिल्में तो बेशुमार बनती हैं। मगर विवेक रंजन अग्निहोत्री ने फिल्म नहीं बनाई है। उन्हाेंने परदे में छिपे हुए कश्मीर के सच से हिजाब हटा दिया है। तीन दशक का दर्द सिनेमा हाॅल में आंसू बनकर बह निकला है। पिछली बार किस मूवी के दर्शकों को डायरेक्टर के पैरों पर गिरते हुये आपने देखा..?? कब बिलखती हुई किसी महिला दर्शक ने एक नये नवेले एक्टर को सीने से लगाकर बहुत आगे जाने की दुआयें दीं थीं..?? कब किसी टीवी चैनल को यह चुनौती देते हुये देखा था कि अगर सिनेमा हॉल में फिल्म के प्रदर्शन में अड़चन आये तो उसका मंच खुला हुआ है..?? मगर डरे हुये लोगों द्वारा फिल्म को रोकने की याचिका के हाईकोर्ट से खारिज होते ही पहले दिन के तीन सौ स्क्रीन तीन दिनों में २६ सौ हो गये।

आम दर्शकों की तीखी प्रतिक्रिया के ये सारेे चौंकाने वाले दृश्य परदे पर फिल्म के "द एंड" के बाद के हैं। हम देख रहे हैं कि प्रत्येक दर्शक एक कड़क समीक्षक की भूमिका में आ गया है। तकनीक ने उसे मीडिया का मोहताज नहीं रहने दिया है। न टीवी का, न प्रिंट का। डिजीटल प्लेटफॉर्म पर वह जमकर लिख रहा है। खुलकर बोल रहा है। भांड मीडिया सोया हुआ है। मगर सोशल मीडिया को अनिद्रा का वरदान टेक्नालॉजी ने ही दिया हुआ है। भारत का भोगा हुआ सच अब हजार दरवाजों और लाखों खिड़कियों से झांकेगा। सिनेमा से भी, साहित्य से भी और सियासत से भी। वह हम सबसे हिसाब मांगेगा। सवाल करेगा, आइना दिखायेगा, अक्ल ठिकाने लगायेगा, होश भी उड़ायेगा और सोचने पर निश्चित मजबूर भी करेगा। और हमारे जवाब का इंतजार भी करेगा। अभी तो बस यह शुरुआत है।
(काशी,16मार्च 2022,बुधवार)
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