शुक्रवार, 23 सितंबर 2022

व्योमवार्ता/एक बाप का फैसला

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं.....

*एक बाप का फैसला*

"क्या बताऊँ मम्मी, आजकल तो , बासी कढ़ी में भी उबाल आया हुआ है| 
जबसे पापा जी रिटायर हुए है , दोनों लोग फिल्मी हीरो हीरोइन की तरह दिन भर अपने बगीचे में ही झूले पर विराजमान रहते हैं| 
न अपने बालों की सफेदी का लिहाज है न बहू बेटे का इस उम्र में दोनों मेरी और नवीन की बराबरी कर रहे हैं|
ठीक है मां मैं आपसे बाद में बात करती हूं शायद सासुमा आ रही हैं।"

  सासु मां ने बहू की बातें कमरे के बाहर सुन ली थी, 
पर नज़रअंदाज़ करते हुए खामोशी से चाय सोनम को दे दी| 

 सासू मां बहू सोनम को चाई देने के पश्चात पति देव अशोक जी के लिए चाय ले जाने लगी, 
ऐसा देखकर बहू सोनम के चेहरे पर व्यंगात्मक मुस्कान तैर गयी| 
पर सासू मां, समझदारी दिखाते हुए बहू की इस नाजायज हरकत को नज़र अंदाज़ करते हुए सिर झुकाए वन्हा से निकल गईं| 

पति के रिटायर होने के बाद कुछ दिन से उनकी यही दिनचर्या हो गयी थी|  
आजकल सासुमा प्रभा जी अपने पति देव अशोक जी को उनकी इच्छानुसार अच्छे से तैयार होकर अपने घर के सबसे खूबसूरत हिस्से में अपने पति देव के साथ झूले में बैठ कर उनको कंपनी देती थी।
 
प्रभाजी ने सारी उम्र तो उनकी बच्चों के लिए लगा दी थी|  

 कोठीनुमा घर अशोक और प्रभा का जीवन भर का सपना था, जो उन्होंने बड़ी मेहनत से साकार किया था।

 
ऐसे मनमोहक वातावरण में वहां पर लगा झूला मन को असीम शांति प्रदान करता।

पहले वह और अशोक इस मनमोहक जगह में कम समय के लिए ही बैठ पाते थे।
प्रभा अनमनी होतीं तो अशोक बड़े ज़िंदादिल शब्दों में कहते, 
"पार्टनर रिटायरमेंट के बाद दोनों इसी झूले पर साथ बैठेंगे और खाना भी साथ में ही खायेंगे| 
आपकी हर शिकायत हम दूर कर देँगे| 
फ़िलहाल हमें बच्चों के लिये जीना है| 
बच्चों के कैरियर पर बहुत कुछ बलिदान करना पड़ा, 
खेर अब बेटा अच्छी नौकरी में था और बेटी भी अपने घर की हो चुकी थी | 

रिटायरमेंट के बाद घर में थोड़ी रौनक रहने लगी थी,
अशोक जी को भी घर में रहना अच्छा लग रहा था| 
पहले तो बड़े पद पर थे तो कभी उनके कदम घर में टिकते ही नहीँ थे|  

लेकिन उनकी बहू सोनम अपने पति नवीन को उसके माता पिता के लिये ताने देने का कोई मौका न छोड़ती| 

उसने उस कोने के बागीचे से छुटकारा पाने के लिये नवीन को एक रास्ता सुझाते हुए कहा,"क्योँ न हम बड़ी कार खरीद लें...नवीन"| 
 "आईडिया तो अच्छा है पर रखेंगे कहाँ एक कार रखने की ही तो जगह है घर में",नवीन थोड़ा चिंतित स्वर में बोला|

"जगह तो है न, वो गार्डन तुम्हारा..जहाँ आजकल दोनों लव बर्ड्स बैठते हैं।"
सोनम व्यागतमक स्वर में बोली|  

"थोड़ा तमीज़ से बात करो,"
नवीन क्रोध से बोला।
लेकिन फिर भी सोनम ने अपने पति को पापा जी से बात करने का मन बना लिया।  

अगले दिन नवीन कुछ कार की तस्वीरों के साथ शाम को अपने पिता के पास गया और बोला,
" पापा !मैं और सोनम एक बड़ी गाड़ी खरीदना चाहते हैं "  

"पर बेटा एक बड़ी गाड़ी तो घर में पहले ही है, फिर उस नई गाड़ी की रखेंगे भी कहाँ?"
अशोक जी ने प्रश्न किया|  
"ये जो बगीचा है यहीँ गैराज बनवा लेंगे वैसे भी सोनम से तो इसकी देखभाल होने से रही और मम्मी कब तक देखभाल करेंगी? 
इन पेड़ों को कटवाना ही ठीक रहेगा| 
वैसे भी ये सब जड़े मज़बूत कर घर की दीवारें कमज़ोर कर रहें है|" 

यह सुनकर प्रभा तो वहीँ कुर्सी पर सीना पकड़ कर बैठ गईं,
अशोक जी ने क्रोध को काबू में करते हुए कहा, 
मुझे तुम्हारी माँ से भी बात करके थोड़ा सोचने का मौका दो|  
क्या पापा... मम्मी से क्या पूछना ..वैसे भी इस जगह का इस्तेमाल भी क्या है नवीन थोड़ा चिड़चिड़ा कर बोला|  
"आप दोनों दिन भर इस जगह बगैर कुछ सोचे समझे,चार लोगों का लिहाज किये बग़ैर साथ में बैठे रहते हैं|
अब आप दोनों कोई बच्चे तो नहीं हो |  
लेकिन आप दोनों ने दिन भर झूले पर साथ बैठे रहने का रिवाज बना लिया है और ये भी नहीँ सोचते कि चार लोग क्या कहेंगे|  
इस उम्र में मम्मी के साथ बैठने की बजाय आप अपनी उम्र के लोगों में उठा बैठी करेंगे तो वो ज़्यादा अच्छा लगेगा न कि ये सब।"
 और वह दनदनाते हुए अंदर चला गया| अंदर सोनम की बड़बड़ाहट भी ज़ारी थी।

अशोक जी कड़वी सच्चाई का एहसास कर रहे थे।

पर आज की बात से तो उनके साथ प्रभा जी भी सन्न रह गईं,
अपने बेटे के मुँह से ऐसी बातें सुनकर दोनों को दिल भर आया था और टूट भी चुका था।
 रिटायरमेंट को अभी कुछ ही समय हुआ जो थोड़ा सकून से गुजरा था।
पहले की ज़िन्दगी तो भागमभाग में ही निकल गयी थी, बच्चों के लिए सुख साधन जुटाने में|  
अशोक जी आज पूरी रात ऊहापोह में लगे रहे,
 कुछ सोचते रहे, कुछ समझते रहे और कुछ योजना बनाते रहे ।
लेकिन सुबह जब वे उठे तब बड़े शांत और प्रसन्न थे।

वे रसोई में गये और खुद चाय बनाई | 
कमरे में आकर पहला कप प्रभा को उठा कर पकड़ाया और दूसरा खुद पीने लगे|  
आपने क्या सोचा?प्रभा ने रोआंसे लहज़े में पूछा| 
 मैं सब ठीक कर दूँगा बस तुम धीरज रखो,अशोक बोले| पर हद से ज़्यादा निराश प्रभा उस दिन पौधों में पानी देने भी न निकलीं,और न ही किसी से कोई बात की|  

दिन भर सब सामान्य रहा,लेकिन शाम को अपने घर के बाहर To Let का बोर्ड टँगा देख नवीन ने भौंचक्के स्वर में अशोक से प्रश्न किया,"पापा माना कि घर बड़ा है पर ये To Let का बोर्ड किसलिए"? 
 " अगले महीने मेरे स्टाफ के मिस्टर गुप्ता रिटायर हो रहें है,तो वो इसी घर में रहेँगे",
उन्होंने शान्ति पूर्ण तरीके से उत्तर दिया| हैरान नवीन बोला,
"पर कहाँ?" "तुम्हारे पोर्शन में",अशोक जी ने सामान्य स्वर में उत्तर दिया|  
नवीन का स्वर अब हकलाने लगा था,"और हम लोग " "तुम्हे इस लायक बना दिया है दो तीन महीने में कोई फ्लैट देख लेना या कम्पनी के फ्लैट में रह लेना,अपनी उम्र के लोगों के साथ | 
"अशोक एक- एक शब्द चबाते हुए बोल रहे थे|  
हम दोनों भी अपनी उम्र के लोगों में उठे बैठेंगे।
 तुम्हारी माँ की सारी उम्र सबका लिहाज़ करने में निकल गयी| 
कभी बुजुर्ग तो कभी बच्चे| 
अब लिहाज़ की सीख तुम सबसे लेना बाकी रह गया थी| "पापा मेरा वो मतलब नहीँ था",नवीन सिर झुकाकर बोला|  

नही बेटा तुम्हारी पीढ़ी ने हमें भी प्रैक्टिकल बनने का सबक दे दिया,
जब हम तुम दोनों को साथ देखकर खुश हो सकते है तो तुम लोगों को हम लोगों से दिक्कत क्योँ है| "?  
इस मकान को घर तुम्हारी माँ ने बनाया, ये पेड़ और इनके फूल तुम्हारे लिए माँगी गयी न जाने कितनी मनौतियों के साक्षी हैं,
तो यह अनोखा कोना छीनने का अधिकार में किसी को भी नहीं दूँगा|  
पापा आप तो सीरियस हो गये, नवीन के स्वर अब नम्र हो चले थे|  
न बेटा... तुम्हारी मां ने जाने कितने कष्ट सहकर, कितने त्याग कर के मेरा साथ दिया आज इसी के सहयोग से मेरे सिर पर कोई कर्ज़ नहीँ है|
 इसलिये सिर्फ ये कोना ही नहीं पूरा घर तुम्हारी माँ का ऋणी है| ।
घर तुम दोनों से पहले उसका है, क्योंकि जीभ पहले आती है, न कि दाँत|  
जब मंदिर में ईश्वर जोड़े में अच्छा लगता है तो मां बाप साथ में बुरे क्योँ लगते हैं? 
ज़िन्दगी हमें भी तो एक ही बार मिली है|
इसलिए हम इसे अपने हिसाब से एंजॉय करना चाहते हैं।
  #व्योमवार्ता

व्योमवार्ता/सिखाता नही कर के दिखाता हूं

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं......

#सिखाता_नही_कर_के_दिखाता_हूं...
'सर! मुझे चार दिनों की छुट्टी चाहिए, गांव जाना है!'-बॉस के सामने अपना आवेदन रखते हुऐ संदीप  ने कहा

'चार दिन! इकट्ठे! कोई खास बात है क्या?'--बॉस ने उत्सुकता वश पूछा।

'जी सर! पितृपक्ष चल रहा है ना, पिता को पिंडदान करना है!'

'क्या संदीप! कॉरपोरेट वर्ल्ड में काम करते हुए भी तुम्हारी सोच पिछड़ी की पिछड़ी रह गयी!'

'मैं समझा नहीं सर!'

'कहाँ पड़े हो इन झमेलों में! जानता हूँ, जीते जी खूब सेवा की है पिता की, माँ की सेवा के लिए अब तक बीवी-बच्चों को गांव में रख छोड़ा है! आखिर हासिल क्या होगा इनसे जीवन में!'

'एक पुत्र का जीवन उसके माँ-बाप का ही तो दिया होता है सर, उनकी सेवा में कुछ हासिल होने का कैसा लोभ!'

'मतलब नि:स्वार्थ!'

'पुत्रधर्म के पालन करने का आत्मसंतोष सर!'

चलो मान लिया! पर जो तुम ये इतना सब करते हो, क्या गारंटी है कि तुम्हारे बच्चे भी तुम्हारे लिए करेंगे!'

'गारंटी भौतिक चीजों के मामले में देखी जाती है सर! मैं स्वयं के धर्म के प्रति उत्तरदायी हूँ, उनका उन पर ही छोड़ देता हूँ! वैसे मुझे पूर्ण विश्वास है कि वे नहीं भटकेंगे!'

'इस विश्वास की वजह! ये चीजें सिखाते हो क्या उनको?'

'सिखाता नहीं, कर के दिखाता हूँ सर, इसलिए विश्वास है!'

'फिर भी मान लो, वो तुम्हारी तरह ना निकलें, जमाने की हवा लग जाय! फिर...!'

'ये भी स्वीकार है सर! ना मान से आह्लादित होना है और ना अपमान से दु:खी! जीवन की झोली में नियति जो डाल देगी, खुशी से स्वीकार कर लूंगा!'

'कहना आसान है, पर जीवन में ये उतरता कहाँ है!'

'उतरता है सर, अगर हम सच में प्रयास करें! जीवन में ढेर सारी चाह होती है, थोड़ा सा उन्हें त्याग दें तो राह सूझ जाती है! जीवन को बुलबुले की तरह मानकर जीना शुरु कर दीजिये, बनने-बिगड़ने के डर से मुक्त हो जायेंगे।"
#व्योमवार्ता
#पिततृपक्ष

व्योमवार्ता/हमारा भी एक जमाना था....

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं ....
#हमारा_भी_एक_जमाना_था...
*हमें खुद ही स्कूल जाना पड़ता था क्योंकि साइकिल, बस आदि से भेजने की रीत नहीं थी, स्कूल भेजने के बाद कुछ अच्छा बुरा होगा ऐसा हमारे मां-बाप कभी सोचते भी नहीं थे उनको किसी बात का डर भी नहीं होता था।
*पास/ फैल यानि नापास यही हमको मालूम था... *परसेंटेज % से हमारा कभी संबंध ही नहीं रहा।
 *ट्यूशन लगाई है ऐसा बताने में भी शर्म आती थी क्योंकि हमको ढपोर शंख समझा जा सकता था।
*किताबों में पीपल के पत्ते, विद्या के पत्ते, मोर पंख रखकर हम होशियार हो सकते हैं, ऐसी हमारी धारणाएं थी।
 *कपड़े की थैली में बस्तों में और बाद में एल्यूमीनियम की पेटियों में किताब, कॉपियां बेहतरीन तरीके से जमा कर रखने में हमें महारत हासिल थी।
*हर साल जब नई क्लास का बस्ता जमाते थे उसके पहले किताब कापी के ऊपर रद्दी पेपर की जिल्द चढ़ाते थे और यह काम लगभग एक वार्षिक उत्सव या त्योहार की तरह होता था। 
*साल खत्म होने के बाद किताबें बेचना और अगले साल की पुरानी किताबें खरीदने में हमें किसी प्रकार की शर्म नहीं होती थी क्योंकि तब हर साल न किताब बदलती थी और न ही पाठ्यक्रम।
*हमारे माताजी/ पिताजी को हमारी पढ़ाई का बोझ है ऐसा कभी लगा ही नहीं। 
*किसी दोस्त के साइकिल के अगले डंडे पर और दूसरे दोस्त को पीछे कैरियर पर बिठाकर गली-गली में घूमना हमारी दिनचर्या थी।इस तरह हम ना जाने कितना घूमे होंगे।
** स्कूल में मास्टर जी के हाथ से मार खाना,पैर के अंगूठे पकड़ कर खड़े रहना,और कान लाल होने तक मरोड़े जाते वक्त हमारा ईगो कभी आड़े नहीं आता था सही बोले तो ईगो क्या होता है यह हमें मालूम ही नहीं था।
**घर और स्कूल में मार खाना भी हमारे दैनिक जीवन की एक सामान्य प्रक्रिया थी।
*मारने वाला और मार खाने वाला दोनों ही खुश रहते थे। मार खाने वाला इसलिए क्योंकि कल से आज कम पिटे हैं और मारने वाला है इसलिए कि आज फिर हाथ धो लिये।

*बिना चप्पल जूते के और किसी भी गेंद के साथ लकड़ी के पटियों से कहीं पर भी नंगे पैर क्रिकेट खेलने में क्या सुख था वह हमको ही पता है।

*हमने पॉकेट मनी कभी भी मांगी ही नहीं और पिताजी ने भी दी नहीं.....इसलिए हमारी आवश्यकता भी छोटी छोटी सी ही थीं। साल में कभी-कभार एक आद बार मैले में जलेबी खाने को मिल जाती थी तो बहुत होता था उसमें भी हम बहुत खुश हो लेते थे।
*छोटी मोटी जरूरतें तो घर में ही कोई भी पूरी कर देता था क्योंकि परिवार संयुक्त होते थे।
*दिवाली में लिए गये पटाखों की लड़ को छुट्टा करके एक एक पटाखा फोड़ते रहने में हमको कभी अपमान नहीं लगा।

*हम....हमारे मां बाप को कभी बता ही नहीं पाए कि हम आपको कितना प्रेम करते हैं क्योंकि हमको आई लव यू कहना ही नहीं आता था।
*आज हम दुनिया के असंख्य धक्के और टाॅन्ट खाते हुए और संघर्ष करती हुई दुनिया का एक हिस्सा है किसी को जो चाहिए था वह मिला और किसी को कुछ मिला कि नहीं क्या पता
*स्कूल की डबल ट्रिपल सीट पर घूमने वाले हम और स्कूल के बाहर उस हाफ पेंट मैं रहकर गोली टाॅफी बेचने वाले की दुकान पर दोस्तों द्वारा खिलाए पिलाए जाने की कृपा हमें याद है।वह दोस्त कहां खो गए वह बेर वाली कहां खो गई....वह चूरन बेचने वाला कहां खो गया...पता नहीं।

* हम दुनिया में कहीं भी रहे पर यह सत्य है कि हम वास्तविक दुनिया में बड़े हुए हैं हमारा वास्तविकता से सामना वास्तव में ही हुआ है।

*कपड़ों में सिलवटें ना पड़ने देना और रिश्तों में औपचारिकता का पालन करना हमें जमा ही नहीं......सुबह का खाना और रात का खाना इसके सिवा टिफिन क्या था हमें अच्छे से मालूम ही नहीं...हम अपने नसीब को दोष नहीं देते जो जी रहे हैं वह आनंद से जी रहे हैं और यही सोचते हैं और यही सोच हमें जीने में मदद कर रही है जो जीवन हमने जिया उसकी वर्तमान से तुलना हो ही नहीं सकती।

** हम अच्छे थे या बुरे थे नहीं मालूम पर हमारा भी एक जमाना था। वो बचपन हर गम से बेगाना था।
#व्योमवार्ता
#भूली_बिसरी_यादें