शनिवार, 19 मार्च 2022

चटगांव बंगाल हिंदू एनक्लेव : एक संभावना.......(कैप्टन आर विक्रम सिंह के कलम से)

हमारे अति सम्माननीय लोकप्रिय प्रशासनिक अधिकारियों मे रहे बड़े भैया कैप्टन आर विक्रम सिंह के लेख बहुत ही समीचीन व तथ्यपरक रहते हैं। विशेषकर भारतवर्ष के पड़ोसी देशों पर उनका शोधपरक अध्ययन हम जैसों के लिये रोचक व ज्ञानवर्द्धक रहता है। उनके लेख बहुत ही से शब्दों मे समस्या के कारण व समाधान के साथ ही वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे अति प्रासंगिक है।
आज अखण्ड भारत के हिस्सा रहे बांग्ला देश पर उनका यह सारगर्भित लेख।

चटगांव बंगाल हिंदू एनक्लेव : एक संभावना------- 

                    यह कोई सामान्य विचार नहीं है. नया इतिहास लिखना, समाजों का भाग्य बदलना यथास्थितिवादी सत्ता आकांक्षियों के बस का नहीं होता. बात यहां बंगाल के असहाय हिंदुओं की है जिन्हें हमारी आजादी के कथित नायकों ने 1947 में जेहादी भेड़ियों का ग्रास बनने के लिए लावारिस छोड़ दिया था. यह विचार जो अंतिम पैरे में है, 1947-48 में कश्मीर युद्ध के समय भी हमारी बुद्धि में आ सकता था. लेकिन नहीं हमारे नेहरू जैसे नेता तो स्वयं ही पाकिस्तान के विचार के सबसे बड़े संरक्षक थे. 1950 के ढाका के भीषण दंगों के बाद जिसमें न्यूनतम 10,000 हिंदुओं की हत्या हुई थी, सरदार पटेल ने उद्वेलित होकर कहा था कि यही हाल रहा तो हमें शरणार्थियों के लिए जमीन पाकिस्तान से लेनी पड़ेगी. जिसपर नेहरू ने घबरा कर बड़ी सफाई दी कि सरकार का ऐसा कोई विचार नहीं है. यहां यह अवगत कराना चाहूंगा कि चंटगांव से लगी हुई पहाड़ियों का विस्तृत इलाका बौद्ध धर्म को मानने वाली चकमा जनजाति का मूल क्षेत्र रहा है. 1947 में अंग्रेजों के रिकार्ड में था कि इन पर्वतों में मुस्लिम आबादी मात्र 3% है फिर भी इसे पाकिस्तान में शामिल कर चकमा समाज को भूखे भेड़ियों के हवाले कर दिया गया. कांग्रेसियों में से कोई नहीं बोला. वो तो गोपीनाथ बारदोलाई जैसा नेता था वरना नेहरू तो असम को भी पाकिस्तान को देने का मन बना चुके थे. आज चकमा भारत में राज्यविहीन शरणार्थी हैं. कांग्रेस और नेहरू के पाप कहां तक गिनाए जाये. बल्कि नेहरू ने लियाकत अली के साथ मिलकर एक निकृष्ट सोच का ऐसा समझौता कर लिया जो पाकिस्तान के हिंदुओं को पाकिस्तान में ही रहने को बाध्य करता था. हमारे इतिहास में अपने को कश्मीरी ब्राह्मण कहने वाले नेहरू से अधिक हिंदूद्रोही चरित्र खोजना मुश्किल है. चटगांव हिंदू एनक्लेव स्थापित करने का कार्य सन् 1965 के युद्ध के समय भी हो सकता था. लेकिन तब तक तो न रणनीति, न कूटनीति, न राष्ट्रहित की कोई समझ ही विकसित हो सकी थी. हम उन तुरंत आजाद किये गये गुलामों की तरह थे जिनकी गुलामी की आदतें गहरे पैंठी हुई थीं. गुलामी के मानस से आजाद हो जाना, शक्ति की भाषा बोलने लगना आसान न था. अंग्रेजों की गुलामी से छूटे तो नेहरू की बदौलत वामपंथ की वैचारिक गुलामी का दौर आ गया था. एक आकलन के मुताबिक 2013 के बाद से बांग्ला देश में अब तक हिंदुओं पर 3600 हमले किये जाने का रिकार्ड उपलब्ध हैं और कितने ही तो रोज होते हैं जो अनरिपोर्टेड रहते हैंं. मात्र मानवीय आधार पर ही देखें तो इसकी गंभीरता अत्यंत चिंताजनक है. जिस बंगाल की सरकार व मुख्यमंत्री को बंगाली हिंदुओं संस्कृति और भाषा के हित में सीमापार के ये मुद्दे मजबूती से उठाने चाहिए थे वे तो भारत के बंगाल में उसी बांगला देशी जेहादी साम्प्रदायिक मशीन के बेशर्म हिस्से बन चुके हैं. वे भी अपने मजहबी एजेंटों के माध्यम से हिंदू समाज पर अत्याचार करने में कहीं से पीछे नहीं हैं. यह एक अलग विमर्श है कि ये सरकार अभिजात भद्रलोक हिंदू व दलित नमोशूद्र हिंदुओं में भेद करते हुए दलित हिंदू समाज की जेहादी प्रताड़ना से आंखें बंद रखती है. चूंकि मामला दलित बंगाली हिंदूओं का है इसलिए मीडिया वगैरह का शोर भी एक सीमा से आगे नहीं बढ़ा. ये लोकतंत्र के सबक हैं. बंगाल में संभवतः एक छोटे से वर्ग को छोड़ कर सब ने इसे अपनी नियति मान लिया है कि राजनैतिक हित साधने वाले इस प्रायोजित जेहादी विस्तार व वर्चस्व को रोक सकना संभव नहीं है. बांग्ला देश की कुल 17 करोड़ आबादी में हिंदू लगभग 1.5 करोड़ के आसपास हैं. अभी हमने दुर्गा पूजा पंडालों पर हुए जेहादी आक्रमणों को देखा है जिसमें इस्कॉन के पुजारियों समेत दर्जन भर हिंदुओं की वीभत्स हत्या हुई. संभवतः यह पहली बार है कि बांगलादेश का साम्प्रदायिक मुद्दा विश्व स्तर पर उठाया गया और दुनिया ने इनका जेहादी चेहरा देखा. नान रेजिडेंट बंगाली-बांग्ला देशी हिंदुओं में इसके प्रति चिंताएं देखी गयीं कि यह सब आखिर कब तक चलेगा. बांग्ला देश, बताते हैं कि भारत की बदौलत आजाद हुआ है. इतिहास में तो यही लिखा है. हमारी अपनी फौजी रेजिमेंट भी 1971 में ढाका की लड़ाई में थी लेकिन अब भरोसा नहीं होता. हमारी बदौलत आजाद हुए इस देश की साम्प्रदायिकता जेहादियों की सहयोगी बनी हुई हिंदुओं से शत्रुता में किसी से पीछे नहीं है. हमारा दिमाग ही नहीं चलता कि आखिर हमारे देश की भूमिका, हमारा दायित्व और भविष्य की दिशा क्या है. क्या सिर्फ बच्चे पालना, मुफ्तखोरी करना, जब मौका लगे तो जाकर किसी को वोट दे देना ही हमारे भाग्य में है ? मरने के करीब पहुंचे लोगों ने संविधान रच दिया अब वह देश के मरने तक क्या ऐसे ही चलेगा ? जेहादी समाज तो इस देश के मरने के इंतजार में हैं. जेहादी ही नहीं, जातिवादी, भाषावादी, क्षेत्रीय क्षत्रप, मिशनरी, माओवादी, खालिस्तानी और भी बहुत से देश के मरने की प्रतीक्षा में हैं. आपने झंडे पर लिटा कर जेहादियों द्वारा काटी जा रही गाय का तड़पता वीडियो देखा होगा. वह एक सिंबल है कि समाज को काटने वाले सशक्त बेधड़क हो रहे हैं. वे भारत का यही हस्र देखना चाहते हैं. यहां सवाल वैचारिक विमर्शों से बाहर आकर कार्ययोजना पर चलने का है. खालिस सोचना, सिर्फ आलोचक बने रहना, कोई समाधान नहीं है. मैंने खोजने का प्रयास किया कि क्या बांग्ला देश के प्रताड़ित हिंदू समाज ने इस अत्याचारों का प्रतिवाद करने के लिए व अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कोई ऐसा सशक्त संगठन बनाया है जो आवश्यकता पड़ने पर सशस्त्र प्रतिवाद से भी पीछे न हटे. अभी तक ऐसा कोई दिखा नहीं है. बंगाली हिंदू एनआरआई वर्ग इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. 1.5 करोड़ एक सशक्त आबादी है. चटगांव क्षेत्र में हिंदू आबादी 15 लाख के लगभग है. सशक्त राजनैतिक प्रतिक्रियाओं के मद्देनजर अन्य क्षेत्रों से चटगांव की ओर हिंदुओं के माइग्रेशन से यह आबादी बढ़ती जाएगी. इतिहास की गलतियों को सुधारने के ऐसे कई उदाहरण अभी के इतिहास में मौजूद हैं. अभी अभी यूक्रेन के पूर्वी रूसी आबादी बहुल इलाके डोनबास के दो राज्यों को रूस ने अलग मान्यता दी है. इससे पहले यूगोस्लाविया के टूटने से नाटो द्वारा बनाया गया कोसोवो एक अलग मुस्लिम बहुल योरोपीय देश अस्तित्व में आया है. तो बांग्ला देशी हिंदुओं के लिए चटगांव हिंदू राष्ट्र या 'बंगभूमि' नामक देश क्यों नहीं बन सकता. राजस्थान के अरावली की पहाड़ियों की तरह चकमा हिल्स, चटगांव की पहाड़ियां हैं जो क्रांतिकारियों को शरण देकर हिंदू बंगाल की आधारशिला बन सकती हैं. सशक्त प्रयास होगा तो चटगांव हिंदू बहुल भी हो सकता है. सम्बंधित मानचित्र को ध्यान से देखें, गहन अध्ययन करें. चटगांव के पूर्व में भारत, पश्चिम में समुद्र, दक्षिण में म्यांमार और उत्तर में त्रिपुरा का भारतीय क्षेत्र है इसके पश्चिम से होकर फेनी इलाके की एक छोटी जमीनी पट्टी से बांग्ला देश मुख्यभूमि से यह चटगांव प्रायद्वीप जुड़ता है. यहां का भूगोल एक सशस्त्र क्रांति के लिए आदर्श है. बंगाल ने पहले भी देश को रास्ता दिखाया है. अधिक नहीं यदि जमीन से जुड़े मात्र एक लाख बंगाली युवक ही यह प्रतिज्ञा कर लें तो सहयोगी शक्तियां अपने आप साथ आने लगेगी. अगले दस वर्षों से पहले ही चंटगांव प्रायद्वीप में हिंदू राष्ट्र बंगाल का स्वप्न साकार हो सकता है. यदि ऐसा हो सका तो यह हमारे मानस को आमूल बदल देने वाली एक हिंदू क्रांति का सूत्रपात होगा ...
   
-कैप्टन राघवेन्द्र विक्रम सिंह (पूर्व आईएएस अधिकारी)

(काशी,19मार्च 2022,शनिवार)
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शुक्रवार, 18 मार्च 2022

व्योमवार्ता /काँन्वेंट शब्द पर गर्व न करें सच समझे..

कान्वेंट शब्द के मायने.

                सोशल मीडिया भी अकसर महत्वपूर्ण जानकारियां व सूचनायें दे जाता है। आज ऐसे ही यह छोटा सा लेख फेसबुक पर किसी ने लगाया था। पढ़ कर जिज्ञासा हुई तो गुगल बाबा और विकीपिडिया से तथ्यों का सत्यापन किया। मेरा यह दावा नही है कि गुगल और विकिपीडिया पर तथ्य प्रामाणिक ही होगें पर तथ्यों के ऐतिहासिक संदर्भ उन्हे गलत भी नही सिद्ध करते। बहरहाल फेसबुक पर मिली पोस्ट ज्यों की त्यों रख रहा हूं  इसमे कोई तथ्यपरक जानकारी द्वारा सार्थक परिमार्जन, परिवर्द्धन, संशोधन होने पर संभवतः तथ्यों मे ज्ञानवृद्धि ही होगी।
    ‘काँन्वेंट’ सबसे पहले तो यह जानना आवश्यक है कि ये शब्द आखिर आया कहाँ से है, तो आइये प्रकाश डालते हैं।
ब्रिटेन में एक कानून था *लिव इन रिलेशनशिप* बिना किसी वैवाहिक संबंध के एक लड़का और एक लड़की का साथ में रहना। जब साथ में रहते थे तो शारीरिक संबंध भी बन जाते थे, तो इस प्रक्रिया के अनुसार संतान भी पैदा हो जाती थी तो उन संतानों को किसी चर्च में छोड़ दिया जाता था।
अब ब्रिटेन की सरकार के सामने यह गम्भीर समस्या हुई कि इन बच्चों का क्या किया जाए तब वहाँ की सरकार ने काँन्वेंट खोले अर्थात् जो बच्चे अनाथ होने के साथ-साथ नाजायज _अवैध हैं उनके लिए काँन्वेंट बने।
                     उन अनाथ और नाजायज बच्चों को रिश्तों का एहसास कराने के लिए उन्होंने अनाथालयों में एक फादर एक मदर एक सिस्टर की नियुक्ति कर दी क्योंकि ना तो उन बच्चों का कोई जायज बाप है ना ही माँ है। तो काँन्वेन्ट बना नाजायज बच्चों के लिए जायज। इंग्लैंड में पहला काँन्वेंट स्कूल सन् 1609 के आसपास एक चर्च में खोला गया था जिसके ऐतिहासिक तथ्य भी मौजूद हैं और भारत में पहला काँन्वेंट स्कूल कलकत्ता में सन् 1842 में खोला गया था। परंतु तब हम गुलाम थे और आज तो लाखों की संख्या में काँन्वेंट स्कूल चल रहे हैं।
जब कलकत्ता में पहला कॉन्वेंट स्कूल खोला गया, उस समय इसे ‘फ्री स्कूल’ कहा जाता था, इसी कानून के तहत भारत में कलकत्ता यूनिवर्सिटी बनाई गयी, बम्बई यूनिवर्सिटी बनाई गयी, मद्रास यूनिवर्सिटी बनाई गयी और ये तीनों गुलामी के ज़माने की यूनिवर्सिटी आज भी इस देश में हैं।
मैकाले ने अपने पिता को एक चिट्ठी लिखी थी बहुत मशहूर चिट्ठी है। उसमें वो लिखता है कि:
“इन कॉन्वेंट स्कूलों से ऐसे बच्चे निकलेंगे जो देखने में तो भारतीय होंगे लेकिन दिमाग से अंग्रेज होंगे। इन्हें अपने देश के बारे में कुछ पता नहीं होगा। इनको अपने संस्कृति के बारे में कुछ पता नहीं होगा। इनको अपनी परम्पराओं के बारे में कुछ पता नहीं होगा।
इनको अपने मुहावरे नहीं मालुम होंगे, जब ऐसे बच्चे होंगे इस देश में तो अंग्रेज भले ही चले जाएँ इस देश से अंग्रेजियत नहीं जाएगी।” उस समय लिखी चिट्ठी की सच्चाई इस देश में अब साफ़-साफ़ दिखाई दे रही है और उस एक्ट की महिमा देखिये कि हमें अपनी भाषा बोलने में शर्म आती है, अंग्रेजी में बोलते हैं कि दूसरों पर रुवाब पड़ेगा। अरे ! हम तो खुद में हीन हो गए हैं। जिसे अपनी भाषा बोलने में शर्म आ रही है, दूसरों पर रोब क्या पड़ेगा?
लोगों का तर्क है कि “अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है”। दुनियाँ में 204 देश हैं और अंग्रेजी सिर्फ 11 देशों में ही बोली, पढ़ी और समझी जाती है, फिर ये कैसे अंतर्राष्ट्रीय भाषा है? शब्दों के मामले में भी अंग्रेजी समृद्ध नहीं दरिद्र भाषा है। इन अंग्रेजों की जो बाइबिल है वो भी अंग्रेजी में नहीं थी और ईसा मसीह अंग्रेजी नहीं बोलते थे। ईसा मसीह की भाषा और बाइबिल की भाषा अरमेक थी। अरमेक भाषा की लिपि जो थी वो हमारे बंगला भाषा से मिलती जुलती थी। समय के कालचक्र में वो भाषा विलुप्त हो गयी।
भारत देश में अब भारतीयों की मूर्खता देखिए जिनके जायज माँ बाप भाई बहन सब हैं, वो काँन्वेन्ट में जाते है तो क्या हुआ एक बाप घर पर है और दूसरा काँन्वेन्ट में जिसे फादर कहते हैं। आज जिसे देखो काँन्वेंट खोल रहा है जैसे बजरंग बली काँन्वेन्ट स्कूल, माँ भगवती काँन्वेन्ट स्कूल। अब इन मूर्खो को कौन समझाए कि भईया माँ भगवती या बजरंग बली का काँन्वेन्ट से क्या लेना देना?
दुर्भाग्य की बात यह है कि जिन चीजो का हमने त्याग किया अंग्रेजो ने वो सभी चीजो को पोषित और संचित किया। और हम सबने उनकी त्यागी हुई गुलामी सोच को आत्मसात कर गर्वित होने का दुस्साहस किया।
(काशी,18मार्च2022,होली)
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बुधवार, 16 मार्च 2022

व्योमवार्ता : काश्मीर फाईल्स के बहाने.......

सोशल मीडिया पर विजय मनोहर तिवारी जी का लेख

आखिर अब रुख से नकाब सरक रहा है...!!!

आज मैं "द कश्मीर फाइल्स" की बात कर रहा हूँ, जो मैंने अभी तक देखी नहीं है। मैं पिछले छः दिन से सिर्फ देखने वालों को देख रहा हूँ, गौर से सुन रहा हूँ। मगर फिल्म देखने की हिम्मत अभी तक जुटा नहीं पाया हूँ।

निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री यह फिल्म लेकर आये हैं। मगर विवेक रंजन के नाम के आगे न चोपड़ा लगा है, न कपूर। वे न जाैहर हैं, न रामसे। वे न भंसाली हैं, न बड़जात्या। वे न सिप्पी हैं, न देसाई। यह बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी का जमाना भी नहीं है। कथा-पटकथा लिखने वाले न सलीम हैं, न जावेद। डायलॉग लिखने वाले कादर खान भी नहीं हैं। कौमी एकता के तराने किसी कैफी आजमी या कैफ भोपाली ने भी नहीं लिखे हैं। न ही ए आर रहमान ने बाजे बजाये हैं। वे सिर्फ विवेक रंजन अग्निहोत्री हैं, अग्निहोत्री। वे कोई शोमैन नहीं हैं, वे एक अग्निहोत्री हैं। उन्होंने एक आहुति दी है। अपनी कला से बस एक अग्निहोत्र ही किया है और पवित्र अग्नि से निकला यज्ञ का यह प्रचंड धुआं समस्त वायुमंडल में व्याप्त हो गया है। 

कपिल शर्मा छाप विदूषकों की मंडली को पता चल गया है कि बड़े सितारे वे नहीं होते, जो परदे पर चमकते हैं। बड़े सितारे वे हैं, जो उन सितारों को सितारा हैसियत में लेकर आते हैं। सिनेमा के आम और अनाम दर्शक। किंग नहीं, किंग मेकर ही बड़ा होता है। सियासत हो या साहित्य या फिर सिनेमा। नेताओं, लेखकों और अदाकारों को बड़ा बनाने वाला होता है उनका वोटर, उनका पाठक और उनका दर्शक। हाँ, वे जरूर इस वहम में हाे सकते हैं कि वे अपने बूते पर बड़े बने हैं। आज उनका ये वहम टूट गया है, चूर-चूर हो गया है। उन्हें यह भी ज्ञात हो चुका है कि फिल्म को हिट करने के लिये उनके एक घंटे की फूहड़ बकवास नहीं, ट्विटर पर दिल्ली से आयी एक तश्वीर ही काफी है। यह सच्चाई की ताकत है, एक्टिंग की नहीं।

अभी तक तो भारत की सेक्युलर सियासत बुरी तरह बेपर्दा हुई थी। अब एक झटके में बॉलीवुड बेनकाब हो गया है। भारत का सबसे मालदार सिनेमा उद्योग अनगिनत धुरंधर लेखकों और रचनाकारों के होते हुये भी इतना दरिद्र रहा कि सवा सौ साल में अपने लिये एक मौलिक नाम तक नहीं खोज पाया। हॉलीवुड की भोंडी नकल में बॉलीवुड ही बना बैठा है, आज उसके सारे हिजाब हट गये हैं। वह एक गैंग की तरह ही सामने आ गया है। जँहा हैं ऐसी बेजान और बिकाऊ कठपुतलियां, जिनकी डोर किसी और के ही हाथों में रही थी। उनके असल निर्णायक कोई और हैं। मगर आज इस समय सबके चेहरे उतरे हुये हैं।

अभिनय जगत के सफलतम कारोबारी अमिताभ बच्चन किस प्रतीक्षा और किस जलसे में हैं, जिन्हें शब्दों की फिजूलखर्ची करने में माहिर मूर्ख भारतीय मीडिया ने सदी के महानायक के तमगे दिये..?? किस मन्नत में हैं दोयम दरजे के अदाकार शाहरुख, जिन्हें किंग खान के तख्त पर बैठा दिया गया..?? खान तिकड़ी के बाकी बेहूदा चेहरे आखिर आज किधर सरक गये हैं..?। कपूर खानदान के चमकदार सितारे भी कंही दूर ओझल हो गये हैं। इन सबकी चमक बीते शुक्रवार को फीकी पड़ गयी है। हिंदी में बनी एक फिल्म, इन सबके बिना भी दुनिया भर में करोड़ों लोगों के दिलों को छू सकती है। सिर्फ सच की बदौलत। उसे न धर्मा की जरूरत है, न कर्मा की। सब धरे के धरे रह गये हैं।

अक्षय कुमार और अजय देवगन चाहें तो बॉलीवुड का व्याकरण बदल सकते हैं। वे अपने हिस्से की दौलत और शोहरत अपनी उम्मीदों से अधिक प्राप्त कर चुके हैं। परदे की परछाइयों में उन्हें पाने को अब बहुत कुछ शेष है नहीं। मनोज मुंतशिर जैसे हिम्मतवर नौजवान उसी सच से ताकत पाते हैं, जिस पर सिनेमा में एक साजिश के तहत अब तक पूरी तरह परदा डालकर रखा गया था।

प्रतिभा और कला, केवल और सदा अपने ही अभिषेक के लिए नहीं होनी चाहिए। देश को न इस नरेशन की जरूरत है, न उस नरेशन की। नरेशन जो भी हो, राष्ट्र का हित दायें-बायें न हो। अभी तो पेंडुलम पूरा ही एक तरफ सरका हुआ है।

सलीम-जावेद के संयुक्त सौजन्य से सिनेमाई कहानियों में जो रहीम और रहमत चचा, खान और पठान जरूरत के वक्त हीरो के मददगार के रूप में चित्रित किये गये थे, वे चित्र से बाहर कश्मीर में कुछ और ही करते हुये नजर आ गये। वर्ना एक लड़की के साथ सामूहिक रेप के बाद आरे से चीरने वाले कौन थे..?? चावल के ड्रम में अपनी जान बचाने के लिये छिपे निहत्थे आदमी को गोलियों से किसने भून डाला था..?? वो कौन थे, जिन्होंने खून से सने चावल को घर की औरतों और बच्चों के सामने परोस दिया था..?? वो कौन थे, जिन्होंने इशारे में बताया था कि निहत्था आदमी छत पर कँहा छुपा हुआ है..?? वो कौन थे, जो लाउड स्पीकरों पर खुलेआम धमका रहे थे..?? उनके नाम क्या हैं, जो भीड़ में तकबीर के नारे बुलंद कर रहे थे..??

कश्मीर कब तक जन्नत था और कब से जहन्नुम हो गया..?? इसे जहन्नुम बनाने में किन-किन के हाथ लगे..?? चलो मान भी लिया कि आतंक का तो कोई मजहब नहीं होता। मगर कश्मीर के इन वहशी चेहरों में एक जैन, एक बौद्ध, एक सिख, एक पारसी, एक यहूदी या एक हिंदू ही बता दीजिये। सिनेमा के परदे का रहीम और रहमत, खान और पठान कश्मीर में आकर क्या से क्या नजर आया..?? सियासत और साहित्य की तरह सिनेमा भी ३२ साल से एक शातिर चुप्पी में पड़ा रहा। विधु विनोद चोपड़ा (नेत्रहीन दिव्यांग) तो स्वयं एक कश्मीरी हैं, दो साल पहले "शिकारा" में लोरी सुनाने निकले थे और पहले ही शो में गालियां खाकर लौटे थे। 

सबकी परतें उधड़ रही हैं। सबकी कलई खुल रही है। घातक सेक्युलरिज्म के दुष्प्रभाव अपनी कहानी खुद कह रहे हैं। इंडिया टुडे के कवर किन चेहरों से सजाये गये थे..?? कौन बड़े ठाट से प्रधानमंत्री से हाथ मिला रहा था..?? कौन दिल्ली में लाल कालीन सजाये बैठे थे..?? गंगा-जमुनी माहौल कितना शायराना बना दिया गया था..?? एनडीटीवी की नजर में यह एक प्रोपेगंडा फिल्म है। ये सब मिलकर भारत को एक फरेब में घसीटकर ले गये। बटवारे की भीषण और भारी कीमत चुकाने के बावजूद इस देश पर किसी को दया नहीं आई। अंतत: यह एकतरफा चाल सिर्फ उन ताकतों को ही भारी नहीं पड़ी, जिनके चेहरे से सत्तर साल बाद नकाब हटे हैं। यह देश के लिए बहुत महंगी साबित हुई। परदे पर तो एक कश्मीर का भोगा हुआ सच सामने आया है। भुक्तभोगी कश्मीरी हिंदू सुशील पंडित कितने मंचों से आगाह करते रहे हैं कि देश में ऐसे पांच सौ कश्मीर तैयार हैं। फिर ये किया धरा किसका है..?? 

फिल्में तो बेशुमार बनती हैं। मगर विवेक रंजन अग्निहोत्री ने फिल्म नहीं बनाई है। उन्हाेंने परदे में छिपे हुए कश्मीर के सच से हिजाब हटा दिया है। तीन दशक का दर्द सिनेमा हाॅल में आंसू बनकर बह निकला है। पिछली बार किस मूवी के दर्शकों को डायरेक्टर के पैरों पर गिरते हुये आपने देखा..?? कब बिलखती हुई किसी महिला दर्शक ने एक नये नवेले एक्टर को सीने से लगाकर बहुत आगे जाने की दुआयें दीं थीं..?? कब किसी टीवी चैनल को यह चुनौती देते हुये देखा था कि अगर सिनेमा हॉल में फिल्म के प्रदर्शन में अड़चन आये तो उसका मंच खुला हुआ है..?? मगर डरे हुये लोगों द्वारा फिल्म को रोकने की याचिका के हाईकोर्ट से खारिज होते ही पहले दिन के तीन सौ स्क्रीन तीन दिनों में २६ सौ हो गये।

आम दर्शकों की तीखी प्रतिक्रिया के ये सारेे चौंकाने वाले दृश्य परदे पर फिल्म के "द एंड" के बाद के हैं। हम देख रहे हैं कि प्रत्येक दर्शक एक कड़क समीक्षक की भूमिका में आ गया है। तकनीक ने उसे मीडिया का मोहताज नहीं रहने दिया है। न टीवी का, न प्रिंट का। डिजीटल प्लेटफॉर्म पर वह जमकर लिख रहा है। खुलकर बोल रहा है। भांड मीडिया सोया हुआ है। मगर सोशल मीडिया को अनिद्रा का वरदान टेक्नालॉजी ने ही दिया हुआ है। भारत का भोगा हुआ सच अब हजार दरवाजों और लाखों खिड़कियों से झांकेगा। सिनेमा से भी, साहित्य से भी और सियासत से भी। वह हम सबसे हिसाब मांगेगा। सवाल करेगा, आइना दिखायेगा, अक्ल ठिकाने लगायेगा, होश भी उड़ायेगा और सोचने पर निश्चित मजबूर भी करेगा। और हमारे जवाब का इंतजार भी करेगा। अभी तो बस यह शुरुआत है।
(काशी,16मार्च 2022,बुधवार)
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