वे चिट्ठियाँ.......
वो चिट्ठियाँ कहाँ खो गईं,
जिनमें लिखने के सलीके छुपे होते थे,
कुशलता की कामना से शुरू होते थे,
बड़ों के चरणस्पर्श पर ख़त्म होते थे…
और बीच में लिखी होती थी जिन्दगी..
नन्हें के आने की खबर,
माँ की तबीयत का दर्दं,
और पैसे भेजने का अनुनय,
अपनी गाय गौरी व कुत्ते शेरू के हाल
फसलों के खराब होने की वजह।
कितना कुछ सिमट जाता था,
एक नीले से कागज में,
जिसे नवयौवना भाग कर सीने से लगाती,
और अकेले में आँखों से आँसू बहाती।
माँ की आस थीं ये चिट्ठियाँ,
पिता का सम्बल थीं ये चिट्ठियाँ,
बच्चों का भविष्य थीं ये चिट्ठियाँ,
और गाँव का गौरव थीं ये चिट्ठियाँ…
डाकिया चिट्ठी लाएगा
कोई बाँच कर सुनाएगा
देख-देख कर चिट्ठी को,
कई-कई बार छू कर चिठ्ठी को,
अनपढ़ भी अपनों के
एहसासों को पढ़ लेते थे
अब नही आती वे चिट्ठीयां,
न ही रहता है डाकिये भैया का इंतजार
जो सिर्फ चिट्ढी ही नही लाते थे
बल्कि ले आते थे रिश्तों की गरमाहट
मन की ढेरों संवेदनायें
और चिट्ठियों के संग ढेर सारी खुशियाँ
अपनों संग बीतने वाली सुख दुख की आशंकायें
अब तो स्क्रीन पर अँगूठा दौड़ता है,
और अक्सर ही दिल तोड़ता है,
मोबाइल का स्पेस भर जाए तो,
सब कुछ दो मिनिट में डिलीट होता है,
सब कुछ सिमट गया छै इंच में,
जैसे मकान सिमट गए फ्लैटों में,
जज्बात सिमट गए मैसेजों में,
चूल्हे सिमट गए गैसों में,
और इंसान सिमट गया पैसों में...!!
(वाराणसी,28जून2022,मंगलवार)
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