शनिवार, 9 अप्रैल 2016

व्योमेश चित्रवंश की डायरी: स्कूलो मे लूट, 09 अप्रैल 2016, शनिवार

स्कूलों में लूट ..........

आज बैठे बैठे स्कूलों के शुल्क संरचना के विषय मे सोच रहा था। समाज मे शिक्षा के प्रसार व दान के नाम पर चलने वाला यह व्यापार किस तरह काम करता है इसका आकलन करते हुये यह महसूस किया कि यदि इस व्यापार पर जल्दी ही कोई नियंत्रणातम्क व्यवस्था नही लागू की गयी तो वह दिन दूर नही जब शिक्षा के नाम पर चलने वाले यह संगठन आर्थिक भ्रष्टाचार के सबसे बड़े तंत्र बन जायेगें।
एक उदाहरण के लिये हमने सी क्लास के एक शहर के मध्यम वर्गीय विद्यालय को लिया। मान लें कि अगर स्कूल में  7000 बच्चे हैं Annual fee building fund ke sath 5000/- rs hai ,
7000*5000=35000000 , यानी कि तीन करोड़ पचास लाख रुपये यह रकम आप से बिना वजह लेते है बिलिंडग और ऐनुयल फडं के रूप मे , यह फडं स्कूल लगाता कहा है ?? कही नही...............
अब टयुश्न फीस 1400/- महीना  यानी 7000 बच्चे , 7000*1400 =9800000 रुपये प्रति महीना और स्कूल का खर्च 160 मैडम कर्मचारी लगभग 160*20000=3200 000 बत्तीस लाख साथ में मैनटेंनस 1800000 अठारह लाख रुपये यह भी मैंने ज्यादा गिन दिए टोटल हुए 50000000 पचास लाख रुपये  ................
आया प्रति महीना 98000000 और खर्च हुआ 50000000 बाकी बचे 48000000 अरतालिस  लाख रुपये महीना ,अब कम्प्यूटर के लिए 100 रुपये प्रति महीना 5000*100=500000 पांच लाख रुपये प्रति महीना लगता लगभग लाख रुपये महीना बाकी बचे 400000 रुपये टोटल हुए बावन लाख रुपये महीना ,फिर यह ऐनुयल फीस और बिलिंडग फंड क्यो ??
यहां ना तो सरकार देखती है ना ही कोई विभाग .....................
टैक्स के लिए सभी लोगों को ऊपर गिद्ध दृष्टि लगा  कर मडंराते रहने वाले आयकर विभाग की भी स्कूलों पर निगाह नहीं है ।

व्योमेश चित्रवंश की डायरी : नवरात्रि का दूसरा दिन और अपना बनारस, 09 अप्रैल 2016, शनिवार

बनारस के रेसम कटरा मे सुबह ५.४५ पर

बनारस गजब का नगर है...........!!
जहां हर कोई "गुरु" है,
चेला कोई नही,
और
हर कोई " राजा " है,
प्रजा कोई नही।
एक कहता है कि " कागुरु "
दूसरा कहता है " हाँ गुरु "।
एक कहता है " काराजा "
दूसरा कहता है " हाँ राजा "।
.
और तो और बनारस की पतली सी गली में
एक ओर से मोटरसाइकिल तो
दूसरी ओर से सांड आमने-सामने होने पर ,
सांड बड़ी समझदारी से अपनी गर्दन एक तरफ झुकाकर रास्ता दे देता है।
.
एक ऐसा शहर जहां कोई ड्रेस कोड नही है....
एक " गमछा "कमर से लपेटकर दूसरा गमछा कन्धे पर रखकर नंगे बदन पूरा बनारस घूम आइये,
न कोई टोकेगा और न ही खुद बिना कपड़ों के होने का एहसास होगा।।
.
शायद इसीलिए बनारसी लोग बड़े शान से कहते हैं..
.
" ई राजा बनारस है।
.हरऽऽऽऽऽऽ हरऽऽऽऽऽऽ महाऽऽऽदेव

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2016

भारत वंदना : व्योमेश चित्रवंश की कवितायें, 26 जनवरी 1988

व्योमेश की कवितायें : भारत वंदना

हे भारत तुझे प्रणाम, माँ भारत तुझे प्रणाम
तेरे चरणों का वंदन करते हम तेरे संतान ।
वो तुम ही हो भारत भूमि,जहाँ संस्कृति का निर्माण हुआ
गीता का उपदेश हुआ, भारत का संग्राम हुआ
रामायण युग धर्म हुआ ,सभ्यता का संचार हुआ
जब जब तुझ पे संकटआया , अवतार लिए भगवान।
तुम ही वो जननी हो माँ जो वीरो को जनती है
तेरी संताने तुझ पे माँ सर्वस्व निछावर करती है
राणा, शिवा, आजाद, भगत जैसे कितने वीर हुए
गाँधी, नेहरू, शास्त्री, सुभाष ने किया स्वयं बलिदान।
तेरी शांत प्रकृति के बेटे ,माँ हम शान्ति दूत कहलाते है
पर उठे कोई ऊँगली तुझ पर ,हम कालदूत बन जाते है
रंगभेद मिटला कर हम , विश्वबंधु कहलाये है
तेरी धरती पे जन्म लिए ,हमको है अभिमान।
कश्मीर से कन्याकुमारी, तुम एक अखंड मूर्ति हो माँ
भारत के हर जन जन के मन में बसी छवि हो माँ
तुझ पे गर कोई हाथ उठा, वो हाथ वहीं कट जाएगा
तेरी खातिर दे देंगे हम कोटि कोटि जन प्राण.

(गणतंत्र दिवस विशेषांक, दैनिक आज , २६ जनवरी १९८८, वाराणसी के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित मेरी पहली कविता)

मिल कर बने सूरज : व्योमेश चित्रवंश की कवितायें , 02जनवरी 2000

मिल कर बने सूरज

कुहॉसे और अंधियारे के बीच
दिखने लगी आशा की एक किरण
बादलो के घने लामबंद परतो को तोड़
चमकने को आतुर है अब सूरज
बार बार पीछे कर देते हैं उसे
काले डरावने सफेद भूरे बादल
लेकिन वह आयेगा, चमकेगा अवश्य
क्योंकि उस पर ही टिकी हैं
सारी दुनिया की आशायें
अंधकार से लड़कर प्रकाश
और अग्यानता को चीर कर ग्यान को
विस्तारित करने के उदाहरण
आओ हम सब मिल कर बने सूरज
फैलाये नव प्रकाश
क्योंकि मिल कर अंधेरे से लड़ने पर
सूरज को शक्ति मिलती है....

(०२ जनवरी,२०००)

व्योमेश चित्रवंश की डायरी : बासंतिक नवरात्रि 08अप्रैल 2016, शुक्रवार

08 अप्रैल 2016, शुक्रवार

बासंतिक नवरात्रि
आज से बासंतिक नवरात्रि प्रारंभ हुआ। पर्यावरण असंतुलन के कारण शहर के तापमान मे अप्रत्याशित बृद्धि ने व्यवस्था अस्त व्यस्त कर दिया है। सुबह १० बजे तक सूरज के तेज को झेलते हुये तापमान ४२ डिग्री तक पहुँच जाना कही से भी उचित नही कहा जा सकता । उस पर विकास के नाम पर अंधाधुँध प्राकृतिक संसाधनो का दोहन, सड़क के चौड़िकरण के लिये वृक्षो की मनमानी कटाई व विकल्प के नाम पर केवल मौखिक आश्वासन । पता नही कब इस सोच को सकारात्मक दिशा मिल सकेगी?
आज से हमारा नवरात्रि का व्रत प्रारंभ हुआ। हमारा मानना है कि नवरात्रि का व्रत जहॉ रितु संक्रमण मे शरीर के अवयवो को विकाररहित करते हुये एक नया कलेवर देता है वही आध्यात्मिक दृष्टि से मन व आत्मा को भी एक उत्कृष्ट अवसर देता है स्वयं के मूल्यांकन व स्वयं को आत्मसाक्षात्कार करने का। मेरे लिये नवरात्रि व्रत का दूसरा उद्देश्य ही महत्वपूर्ण है।
इस बार पता नही क्यों होली के बाद से ही पेट कुछ ठीक नही चल रहा है, उम्मीद थी कि दो चार दिन मे ठीक हो जायेगा। दवाये मेरे लिये सदैव से परहेज की विषयवस्तु रही है, पर अभी तक इस बार ऐसा नही हुआ अंतत: दवा की शरण मे जाना ही पड़ा, उम्मीद है कि कल तक ठीक हो जायेगा।
दिन मे आकाशवाणी वाराणसी मे रिकार्डिग थी। अम्बेदकर पर जन्मदिवस पर वार्ता के लिये, बीच दूपहरी मे जाना हुआ पर सड़को की ताप के बीच कही गलियो मे बचे इक्का दुक्का पेड़ यह अहसास कराने से नही चूक रहे थे कि उनका महत्व पूर्व की तुलना मे और बढ़ गया है।
बनारस मे नवरात्रि के पर्व का विशेष महत्व है यहॉ नौ दिनो के लिये नौ अलग देवियो के नौ अलग आस्थानो के दर्शन की परंपरा है जिसका बनारसी लोग बड़ी श्रद्धा व विश्वास से पालन करते है। इस दौरान काशी में स्थित देवी के अलग-अलग नौ स्वरूपों की पूजा की जाएगी। मान्यता है कि नौ दिनों में देवी के इन स्वरूपों के दर्शन करने से सभी परेशानियां दूर हो जाती है। देवी मां भक्तों की हर मन्नत पूरी करती हैं। मान्यता है कि काशी भारत में एक मात्र स्थान है, जहां शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री रूपी नव दुर्गा मंदिर में विराजमान हैं। नवरात्रि के दौरान यहां दूर-दराज से श्रद्धालु आते हैं। कई स्थानों पर उल्लेख मिलता है कि 13वीं शताब्दी के समय से ही काशी में नव दुर्गा मंदिर अस्तित्व में है। शास्त्रों में भी वर्णन मिलता है कि दुर्गा के अलग-अलग रूप आठों दिशाओं से काशी की रक्षा करती हैं।
1. शैलपुत्री देवी:
नवदुर्गा का पहला रूप शैलपुत्री का है। काशी के अलईपुरा इलाके में इनका मंदिर बना है। हिमालय के यहां जन्म लेने के कारण देवी का नाम शैलपुत्री पड़ा। शैलपुत्री देवी का वाहन वृषभ है। उनके दाएं हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में कमल है। इन्हें पार्वती का स्वरूप भी माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवी के इस रूप ने ही शिव की कठोर तपस्या की थी। कहा जाता है कि इनके दर्शन मात्र से शादी में आ रही रुकावटें दूर हो जाती हैं।
2. ब्रह्मचारिणी देवी:
देवी के दूसरे स्वरूप ब्रह्मचारिणी देवी का मंदिर दुर्गाघाट में स्थित है। इस स्वरूप में देवी तप का आचरण करने वाली हैं। ऐसे में उन्हें ब्रह्मचारिणी कहा जाता है। उनका स्वरूप ज्योतिर्मय और बेहद भव्य है। इनके दाएं हाथ में जप की माला और बाएं हाथ में कमंडल रहता है। जो भक्त देवी के इस रूप की आराधना करता है, उसे साक्षात परम ब्रह्म की प्राप्ति होती है।
3. चंद्रघंटा देवी:
नवरात्रि के तीसरे दिन देवी देवी के चंद्रघंटा स्वरूप की पूजा की जाती है। काशी में इनका मंदिर चौक इलाके में स्थित है। माता का यह स्वरूप शांतिदायक और कल्याणकारी है। इनके माथे पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र बना हुआ है। इसी कारण इन्हें चंद्रघंटा देवी कहा जाता है। इनके शरीर का रंग सोने की तरह चमकीला है। इनके दस हाथ होते हैं। इनका वाहन सिंह है। इनकी मुद्रा युद्ध के लिए तैयार रहने की होती है।
4. कुष्मांडा देवी:
यह देवी मां का चौथा स्वरूप है। इनका मंदिर दुर्गाकुंड में स्थित है। मान्यता है कि देवी मां ने अपनी हंसी से ब्रह्मांड को उत्पन्न किया था। इस कारण उनका नाम कुष्मांडा देवी हो गया। इन्हें सृष्टि की आदि स्वरूपा माना जाता है। इन्हें अष्टभुजा देवी भी कहा जाता है। इनके सात हाथों में कमंडल, धनुष-बाण, कमल, फूल, अमृत पूर्ण कलश, चक्र और गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। देवी का वाहन सिंह है।
5. स्कंदमाता देवी:
आदि शक्ति का पांचवां स्वरूप स्कंदमाता है। जैतपुरा इलाके में इनका मंदिर स्थित है। स्कंद कुमार यानि कार्तिकेय की मां होने के कारण इन्हें स्कंदमाता कहा जाता है। देवी मोर की सवारी करती हैं और कमल पर विराजमान रहती हैं। इनकी गोद में बाल स्कंद कुमार बैठे रहते हैं। इसी कारण से इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। संतान सुख के लिए इनका दर्शन करना शुभ माना जाता है। मान्यता है कि पूजा से देवी प्रसन्न होती हैं और भक्त की गोद भर देती हैं।
6.कात्यायनी देवी:
देवी का छठा स्वरूप कात्यायनी देवी है। काशी में इनका मंदिर सिंधिया घाट मोहल्ले में है। माना जाता है कि देवी ने महर्षि कात्यायन की बेटी के रूप में अवतार लिया था। इसलिए उनका नाम कात्यायनी पड़ा। ऋषि कात्यायन ने लगातार सप्तमी, अष्टमी और नवमी को इनकी पूजा की थी। दशमी के दिन देवी ने महिषासुर का वध किया था। इनका स्वरूप भव्य और दिव्य है। इनकी अराधना से सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। कहा जाता है कि रुक्मिणी ने भी कात्यायनी देवी की आराधना कर कृष्ण को पति के रूप में पाया था।
7. कालरात्रि देवी:
देवी मां का सातवां स्वरूप कालरात्रि है। इनका मंदिर कलिका गली में है। इनके शरीर का रंग घने अंधेरे की तरह एकदम काला है। सिर के बाल बिखरे हुए हैं। गले में बिजली की तरह चमकने वाली माला है। देवी की तीन आंखें हैं। ये ब्रह्मांड की तरह गोल हैं। इनका वाहन गर्दभ है। देवी अपने दाएं हाथ की वर मुद्रा से सभी भक्तों को आशीर्वाद देती हैं। देवी का यह स्वरूप देखने में काफी भयानक है, लेकिन इनका दर्शन करना हमेशा शुभ फल देता है। इसी कारण इनका नाम शुभ कारिणी भी है।
8. महागौरी देवी:
महागौरी देवी दुर्गा का आठवां स्वरूप है। विश्वनाथ गली में इनका मंदिर है। यहां महागौरी को अन्नपूर्णा देवी के रूप में भी पूजा जाता है। महागौरी देवी वृषभ की पीठ पर विराजमान रहती हैं। उनके माथे पर चांद का मुकुट सजा रहता है। मां अपने चार हाथों में शंख, चक्र, धनुष और बाण लिए हुए हैं। उनके कानों में रत्न जड़ित कुंडल झिलमिलाते हैं। महागौरी देवी अपने भक्तों को सौंदर्य प्रदान करती हैं।
9. सिद्धिदात्री देवी:
यह आदि शक्ति माता का नौवां रूप है। सिद्धिदात्री मंदिर बुलानाला में स्थित है। मां भगवती का यह स्वरूप भक्तों को सभी प्रकार की सिद्धियां देता है। वह श्रद्धालुओं की सभी कामनाओं को पूरा करती हैं। माना जाता है कि देवी के नौ रूपों की पूजा तब तक पूरी नहीं मानी जाती, जब तक की सिद्धिदात्री की पूजा नहीं कर ली जाती है।
     आज से ही हम सनातनधर्मियों के नववर्ष विक्रम संवत की शुरूआत हो रही है। घर मे पूजा पाठ व उत्सव का माहौल है। बच्चो ने ऊँ कार युक्त भगवा ध्वज छत पर लगा दिया है। मित्रो के बीच शुभकामनाओं का आदान प्रदान भी चल रहा है। विश्वास है मॉ भगवती आने वाले वर्ष मे हम सबको सुख समृद्धि व स्वास्थ्य से परिपूर्ण करेगीं।

मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

व्योमेश चित्रवंश की कवितायें: मॉ, (03अक्टूबर1999)

                         मॉ,

ओ मेरी जन्मदात्री, मेरी अनकही मॉ
तूने ये क्यों नही सोचा
कि तू भी तो एक लड़की थी
बिलकुल मेरी तरह
आज से बीस पचीस बरस पहले
क्यों भूल गयी तू कि मॉ होना ही
स्त्री के लिये सबसे अनमोल तोहफा है
पर नही, तू तो निर्दय थी।
ओ मेरी जन्मदात्री, मेरी निष्ठुर मॉ
तूने ये भी नही सोचा
कि कूड़े की ढेर पर फिंके मेरे नन्हे से तन को
खा जायेगे कुत्ते स्वाद ले ले कर
सच बता?
क्या तूझे बिलकुल दया नही आयी थी
अपने ही शरीर के अंश रहे
मेरे रक्त मज्जा से लिपटे कोमल तन पर,
क्या तू बिलकुल ही हृदयहीना थी,
ओ मेरी जन्मदात्री मेरी अनकही मॉ
तूने क्या ये भी नही सोचा कि मै भी
इंदिरा, ऊषा या टेरेसा या क्यूरी बन सकती हूँ
पर तूने तो मुझे मार डाला था मुझे फेंक कर
उस कूड़े की ढेर पर
क्या तूझे बिलकुल भी दया नही आयी थी
मेरी टुकुर टुकुर करती टिमटिम ऑखो पर,
हॉथ की मुट्ठियों मे बंधे
मेरे भविष्य के पन्नो पर
अंगूठे को चूसती अपनी मॉ को खोजती
उस दूधमुँही बच्ची पर
जो बिलकुल नयी थी
तुम्हारे इस क्रूर दुनिया मे,
ओ मेरी जन्मदात्री मेरी पाषाणहृदया मॉ
क्या कहूँ तुझे, तुम खुद ही बतलाओ
मेरी जन्मदात्री या मेरी हत्यारिन?
क्या तूझे आज भी अपराधबोध नही ग्रसता
मेरी हत्या के प्रयासो पर?
क्या लज्जित नही हुई थी तू
मुझ अबोली को फेकते हुये
कूड़े के ढेर पर?
मै जानती हूँ तुम्हारे पास कोई उत्तर नही है
मेरे सवालो का,
क्योकि हर बार खुद से भी यही पूछ कर
रह गयी हो तुम उत्तरहीन।
है ना मेरी जन्मदात्री मेरी अनकही मॉ ।

(अक्टूबर १९९९ मे कूड़े पर मिली एक नवजात बच्ची की खबर से प्रेरित लिखी भावनायें)

व्योमेश चित्रवंश की डायरी : बुढ़वा मंगल , 5 अप्रैल 2015 मंगलवार

                     आज बुढ़वा मंगल है। बनारस मे बुढ़वा मंगल के त्यौहार से ही होली का समापन माना जाता है। वैसे तो देश में प्रत्येक स्थान पर होली अलग-अलग तरह से मनाई जाती है, किंतु  बनारस में इसे मनाने का अपना एक निराला ही अन्दाज़ है। बनारस मे कायदे से होली रंगभरी एकादसी से शुरू होकर आज के दिन तक मनायी जाती है।बुढ़वा मंगल होली के बाद पड़ने वाले मंगलवार तक मनाया जाता है, 'वृद्ध अंगारक' पर्व भी कहते हैं। नवान्नेष्टि यज्ञ माघ मास की पूर्णिमा पर प्राय: "होली का डांडा" रोप दिया जाता है और इसी दिन से लोग इसके समीप लकड़ियाँ और गाय के गोबर से कण्डे इकट्ठा करने लगते हैं। लकड़ियों को इकट्ठा करने का यह काम फाल्गुन की पूर्णिमा तक चलता है। इसके बाद उसमें आग लगाई जाती है। यह भी एक प्रकार का यज्ञ है। इसे नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता है। एक महत्त्वपूर्ण कथन यह भी है कि इस दिन खेत से उपजे नये अन्न को लेकर इस यज्ञ में आहुति दी जाती है और उसके बाद प्रसाद वितरण किया जाता है।होलिका के पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चरण किया जाता है-

असृक्याभयसंत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव।।

होलिका के दिन खेत में उगने वाले नये अन्न को लेकर यज्ञ में हवन करने की परंपरा है। इस अन्न को 'होला' कहा जाता है। इसीलिए इस पर्व को भी लोग 'होलिकोत्सव' कहते हैं। बनारस की परंपरा में यह पर्व होली के बाद पड़ने वाले मंगलवार तक मनाया जाता है।इस मंगल को 'बुढ़वा मंगल' इसलिए भी कहते हैं कि यह वर्ष के आखिरी मंगल के पूर्व का मंगल होता है। मंगल का अभिप्राय मंगल कामना से है, इसलिए बनारस में इस उत्सव को मंगलवार को पूर्ण माना जाता है। होली को प्राय: उत्सव समाप्त हो जाता है, परंतु वाराणसी में इसके बाद मिलने-जुलने का पर्व प्रारम्भ होता है। लोग घर-घर जाकर अपने से बड़ों के चरणों में श्रद्धा से अबीर और गुलाल लगाते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं तथा छोटों को आशीर्वाद देते हैं। विभिन्न कार्यक्रम 'बुढ़वा मंगल' पर्व के बाद वाराणसी में नृत्य, संगीत, कवि सम्मेलन एवं महामूर्ख सम्मेलन चलते रहते हैं। लोग बड़े उत्साह से इन सभी सम्मेलनों में जाते हैं। भारत की पवित्र नदियों में से एक गंगा नदी में लोग नौका विहार भी करते हैं और साथ ही गंगाजी की पूजा भी करते हैं। इसी उल्लास के साथ आने वाले नूतन वर्ष की मंगल कामना करते हुए वाराणसी में यह पर्व मंगलवार को होली के बाद समाप्त समझा जाता है। मेले का आयोजन होली के अगले मंगलवार को आयोजित होने वाला 'बुढ़वा मंगल' का मेला बनारसी मस्ती और जिन्दादिली की एक नायाब मिसाल है। ऐसी मान्यता है कि होली, जिसमें मुख्यतः युवाओं का ही प्रभुत्व रहता है, को बुजुर्गों द्वारा अब भी अपने जोश और उत्साह से परिचित कराने का प्रयास है- 'बुढ़वा मंगल' का मेला। बनारस के इस पारम्पिक लोक मेले से हिन्दी साहित्य के शिरोमणि भारतेंदु हरिश्चंद्र का भी जुड़ाव रहा है। बनारस के राजपरिवार ने भी इस परंपरा को अपना समर्थन दिया। मेले के आयोजन को कई उतार-चढाव से भी गुजरना पड़ा, किन्तु आम लोगों की सहभागिता और दबाव ने प्रशासन को भी इस समारोह के आयोजन में तत्परता से जुड़ने को बाध्य किया। गंगा की लहरों पर सफेद लकदक कुर्ता पजामा या धोती पहने सर पर बनारसी टोपी सजाए छोटी-बड़ी नौकाओं तथा घाटों पर बैठे संस्कृतिप्रेमी व सुधि दर्शकगण इस सांस्कृतिक नगरी की पारम्परिकता को एक नया आयाम देते हैं। पान की गिलौरियो के बीच गुलाब जल की हल्की बौछारे व गुलाब की पंखुड़ियॉ के साथ चैता व होरी की तान का आनन्द सन १७३०-३१ से लगातार चली आ रही है। बीत मे एक दो अवरोधो के चलते कार्यक्रम स्थगित हुआ पर बनारस के संस्कृतिप्रेमियो ने फिर जीवन्तता दी।
      तीन वार तेरह त्योहार वाले इस शहर के लोग जिन्दगी जीना और मस्ती के साथ जीना अपनेवआराध्य महादेव शंकर से सीखा है और उसी फक्कड़पन से जी रहे है।
कहावत है पाथर पड़े चाहे बज्जर
हमरे ठेंगे से।
(बनारस को जानने वाले मित्र सही शब्द का चयन स्वयं कर लेगें)
बनारस मे हर शख्स आज जीता है। आने वाले कल की न उसे चिन्ता है न फिकर, तभी तो वह आने वााले तल को भी अपने उसी पुरूषॉग पर ही रखता है।