मंगलवार, 5 अप्रैल 2016

व्योमेश चित्रवंश की डायरी : बुढ़वा मंगल , 5 अप्रैल 2015 मंगलवार

                     आज बुढ़वा मंगल है। बनारस मे बुढ़वा मंगल के त्यौहार से ही होली का समापन माना जाता है। वैसे तो देश में प्रत्येक स्थान पर होली अलग-अलग तरह से मनाई जाती है, किंतु  बनारस में इसे मनाने का अपना एक निराला ही अन्दाज़ है। बनारस मे कायदे से होली रंगभरी एकादसी से शुरू होकर आज के दिन तक मनायी जाती है।बुढ़वा मंगल होली के बाद पड़ने वाले मंगलवार तक मनाया जाता है, 'वृद्ध अंगारक' पर्व भी कहते हैं। नवान्नेष्टि यज्ञ माघ मास की पूर्णिमा पर प्राय: "होली का डांडा" रोप दिया जाता है और इसी दिन से लोग इसके समीप लकड़ियाँ और गाय के गोबर से कण्डे इकट्ठा करने लगते हैं। लकड़ियों को इकट्ठा करने का यह काम फाल्गुन की पूर्णिमा तक चलता है। इसके बाद उसमें आग लगाई जाती है। यह भी एक प्रकार का यज्ञ है। इसे नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता है। एक महत्त्वपूर्ण कथन यह भी है कि इस दिन खेत से उपजे नये अन्न को लेकर इस यज्ञ में आहुति दी जाती है और उसके बाद प्रसाद वितरण किया जाता है।होलिका के पूजन के समय निम्न मंत्र का उच्चरण किया जाता है-

असृक्याभयसंत्रस्तै: कृता त्वं होलि बालिशै:।
अतस्त्वां पूजयिष्यामि भूते भूतिप्रदा भव।।

होलिका के दिन खेत में उगने वाले नये अन्न को लेकर यज्ञ में हवन करने की परंपरा है। इस अन्न को 'होला' कहा जाता है। इसीलिए इस पर्व को भी लोग 'होलिकोत्सव' कहते हैं। बनारस की परंपरा में यह पर्व होली के बाद पड़ने वाले मंगलवार तक मनाया जाता है।इस मंगल को 'बुढ़वा मंगल' इसलिए भी कहते हैं कि यह वर्ष के आखिरी मंगल के पूर्व का मंगल होता है। मंगल का अभिप्राय मंगल कामना से है, इसलिए बनारस में इस उत्सव को मंगलवार को पूर्ण माना जाता है। होली को प्राय: उत्सव समाप्त हो जाता है, परंतु वाराणसी में इसके बाद मिलने-जुलने का पर्व प्रारम्भ होता है। लोग घर-घर जाकर अपने से बड़ों के चरणों में श्रद्धा से अबीर और गुलाल लगाते हैं और उनका आशीर्वाद लेते हैं तथा छोटों को आशीर्वाद देते हैं। विभिन्न कार्यक्रम 'बुढ़वा मंगल' पर्व के बाद वाराणसी में नृत्य, संगीत, कवि सम्मेलन एवं महामूर्ख सम्मेलन चलते रहते हैं। लोग बड़े उत्साह से इन सभी सम्मेलनों में जाते हैं। भारत की पवित्र नदियों में से एक गंगा नदी में लोग नौका विहार भी करते हैं और साथ ही गंगाजी की पूजा भी करते हैं। इसी उल्लास के साथ आने वाले नूतन वर्ष की मंगल कामना करते हुए वाराणसी में यह पर्व मंगलवार को होली के बाद समाप्त समझा जाता है। मेले का आयोजन होली के अगले मंगलवार को आयोजित होने वाला 'बुढ़वा मंगल' का मेला बनारसी मस्ती और जिन्दादिली की एक नायाब मिसाल है। ऐसी मान्यता है कि होली, जिसमें मुख्यतः युवाओं का ही प्रभुत्व रहता है, को बुजुर्गों द्वारा अब भी अपने जोश और उत्साह से परिचित कराने का प्रयास है- 'बुढ़वा मंगल' का मेला। बनारस के इस पारम्पिक लोक मेले से हिन्दी साहित्य के शिरोमणि भारतेंदु हरिश्चंद्र का भी जुड़ाव रहा है। बनारस के राजपरिवार ने भी इस परंपरा को अपना समर्थन दिया। मेले के आयोजन को कई उतार-चढाव से भी गुजरना पड़ा, किन्तु आम लोगों की सहभागिता और दबाव ने प्रशासन को भी इस समारोह के आयोजन में तत्परता से जुड़ने को बाध्य किया। गंगा की लहरों पर सफेद लकदक कुर्ता पजामा या धोती पहने सर पर बनारसी टोपी सजाए छोटी-बड़ी नौकाओं तथा घाटों पर बैठे संस्कृतिप्रेमी व सुधि दर्शकगण इस सांस्कृतिक नगरी की पारम्परिकता को एक नया आयाम देते हैं। पान की गिलौरियो के बीच गुलाब जल की हल्की बौछारे व गुलाब की पंखुड़ियॉ के साथ चैता व होरी की तान का आनन्द सन १७३०-३१ से लगातार चली आ रही है। बीत मे एक दो अवरोधो के चलते कार्यक्रम स्थगित हुआ पर बनारस के संस्कृतिप्रेमियो ने फिर जीवन्तता दी।
      तीन वार तेरह त्योहार वाले इस शहर के लोग जिन्दगी जीना और मस्ती के साथ जीना अपनेवआराध्य महादेव शंकर से सीखा है और उसी फक्कड़पन से जी रहे है।
कहावत है पाथर पड़े चाहे बज्जर
हमरे ठेंगे से।
(बनारस को जानने वाले मित्र सही शब्द का चयन स्वयं कर लेगें)
बनारस मे हर शख्स आज जीता है। आने वाले कल की न उसे चिन्ता है न फिकर, तभी तो वह आने वााले तल को भी अपने उसी पुरूषॉग पर ही रखता है।

कोई टिप्पणी नहीं: