शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

व्योमवार्ता / बनारस मे नाग पंचमी, त्यौहारों का शुरूआती महापर्व :// व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 28 जुलाई 2017, शुक्रवार

बनारस मे त्योहारों का शुरूआती महापर्व, नाग पंंचैया : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 28जुलाई 2017, शुक्रवार (2)

            हमारा बनारस मौज-मस्ती का शहर है,  हम बनारसी अपनी जरूरत  के हिसाब से मौज करने के लिये वजह जगह और समय का चौचक इंतजाम  कर ही लेते है,  इंतजाम  भी एकदम चकाचक, दिव्य निपटान से लेकर खाने पीने की मुकम्मल व्यवस्था  तक. चाहे वह गंगा जी का पेटा हो या गंगा ओप्पार, सारनाथ का बगैचा हो या रामनगर का पोखरा, मूड पानी जमा नही कि परोगराम टाईट, फिर चाहे वह भगवान भोलेनाथ  का मंदिर हो चाहे भूतनाथ का महाश्मशान, हमारे लिये सब आनंदकानन काशी बन जाता है.
             उसके बाद भी तीज त्यौहार  के लिये कोई बहाना चाहिये तो हमने हर दिन को ही त्यौहार  बवा डाला,  कहते है तीन वार तेरह त्यौहार  की काशी, यानि हमारे बनारस का हर वार रविवार लगायत शनिवार  तक त्यौहार  है बस मन चंगा,  मिजाज मस्त, और खलीते मे रोकड़ा होना चाहिए. बावजूद कुछ त्यौहार ऐसे है जो सर्वकालिक व सर्वसम्मति  से मनाये जाते है,  जिन्हे मनाने के लिये किसी बहाने की या किसी कारण की जरूरत नही पड़ती, इन्ही त्यौहारों मे एक त्यौहार  नागपंचमी भी है जिसे बनारस मे पंचैय्या के नाम से ज्यादा जाना जाता है.  कहते है पंचैया का त्यौहार  साल भर के त्यौहारों का गेट वे आफ इंडिया है. इसी से साल भर के बड़े त्यौहारो का स्टेटस व डाइरेक्शन पता चलता है. पुरनियो ने कहा है कि" जेहि दिन रहै पंचैया नाग, वही दिन पड़ै दीवाली फाग, " कमाल है कि आज तक यह व्यवहारिक सिद्धांत  कभी गलत नही हुआ.
           पंचैय्या का त्यौहार बनारस मे अखाड़े और दंगल का त्यौहार  है,  पहलवान हो या विद्वान,  कलाकार हो या जादूगर सभी एक दूसरे की औकात नापने के लिये भिड़ते है.  लब्बोलुआब ये कि आज का भिड़ना साल भर के लिये जरूरी है और आज से शुरू हो जाती है कजरी, जो  पड़ोसी जिले मिर्जापुर की आयातित माल है. अब तो कम पहले कजरी के दंगल भी होते है,  हलकी बौछारों के बीच किसी नीम के तले बने चौघट्टे पर गोल गोल चक्कर मे घूमते हुये कजरी के बोल, सुबह शाम पेंग पड़ते हुये झूले तो अब देखने को नही मिलते पर अखाड़ो मे पहलवानों ने और नागकूप तथा अन्य गुरू स्थानों पर विद्वानो ने भिड़न्त  वाली परंपरा कायम रखा है.
            बनारस मे नाग पंचमी के त्यौहार  मे बड़े गुरू व छोटे गुरू के नाम से नागपूजन होता है. इसके पीछे की पौराणिक  कहानी व मिथक को हमारे छोटे भाई राजीव श्रीवास्तव एडवोकेट  जी ने अपने वाल पर निम्न पोस्ट किया है

काशी में नागपंचमी और बड़े –गुरु, छोटे-गुरु के नाग –
         
                    काशी का जैतपुरा स्थित नागकूप एक ऐसा स्थल है जिसका महर्षि पतंजलि और महर्षि पाणिनि से गहरा सम्बन्ध रहा है | यह महर्षि पतंजलि की तपोस्थली है |उन्हें शेषावतार भी माना जाता है | स्कन्द पुराण के अनुसार यह वह स्थान है जहाँ से पाताल लोक जाने का रास्ता है | यहाँ नागकूपेश्वर महादेव स्थापित हैं |   ऐसी मान्यता है कि पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर महाभाष्य की रचना की थी | पतंजलि को शेषावतार माना जाता है | कथा है कि एक बार श्रावण शुक्ल पंचमी (जिसे बाद में नाग पंचमी कहा गया )के दिन काशी के जैतपुरा स्थित इसी कूप पर पाणिनि कुछ विद्वान ब्राह्मणों के साथ शास्त्र चर्चा कर रहे थे तभी पतंजलि एक विशाल सर्प के रूप में वहां प्रकट हुए | इतने बड़े सर्प को देख कर पाणिनि घबरा गए और उन्होंने “को भवान्” (अर्थात आप कौन )के स्थान पर  “कोर्भवान्” कहा | जिसके उत्तर में सर्प रूपधारी पतंजलि ने उत्तर दिया- “सपोऽहम्”| इसपर पाणिनि मुनि ने पूछा-  “ रेफः कुतो गतः”? सर्प ने उत्तर दिया- “ तव मुखे “ | इसपर पाणिनि और वहां बैठे ब्राह्मण विद्वानों को सर्प की विद्वता पर घोर आश्चर्य हुआ और वे एक साथ प्रश्न करने लगे | इसपर सर्प रूपी पतंजलि ने सबके उत्तर एक साथ देने के लिए शर्त लगाई की वे चादर की आड़ के पीछे रहकर एक साथ सभी के प्रश्नों का समाधान करेंगे | इस चादर की आड़ के पीछे से शेषनाग पतंजलि अपने सहस्रों मुखों द्वारा एक साथ सभी प्रश्नकर्ताओं के उत्तर देने लगे | पतंजलि द्वारा दिए गए सभी उत्तरों को विद्वानों ने  लिख लिया और महाभाष्य तैयार हो गया लेकिन एक ब्राह्मण से रहा नहीं गया और उन्होंने चादर की आड़ हटा कर देखना चाहा कि इसकी ओट से कौन उत्तर दे रहा है , लेकिन इससे शर्त का उल्लंघन हो गया और विद्वानों द्वारा लिखा गया पूरा भाष्य जल गया और शेषनाग रूपी पतंजलि अदृश्य हो गए  | इसपर सभी बड़े दुखी हुए | जिस समय ये शास्त्रार्थ चल रहा था , उसी समय समीप के एक वृक्ष पर एक यक्ष भी बैठा था और उसने ये पूरा भाष्य वृक्ष के पत्तों पर लिख लिया था | विद्वानों के दुखी होने पर उसने वृक्ष से ही लिखे हुए सारे  पत्तों को उनकी और फेंका लेकिन इकठ्ठा करते -करते कुछ पत्तों को बकरियां खा गईं | इसलिए महाभाष्य में विसंगतियां आ गईं | इस शास्त्रार्थ के बाद पतंजलि बड़े -गुरु और पाणिनि छोटे -गुरु कहलाये और उनके अनुयायी सर्पों को बड़े- गुरु और छोटे –गुरु का नाग कहा गया | इस प्राचीन समय से पतंजलि और पाणिनि के स्मरण में  श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी) पर शास्त्रार्थ की परंपरा रही है जो बीच में विलुप्त हो गई थी लेकिन कुछ विद्वानो के अथक प्रयास से ये परंपरा पुनर्जीवित है.
(बनारस, 28जुलाई 2017, शुक्रवार)
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व्योमवार्ता / सेक्यूलरिज्म व थाईलैंड पर जय बख्शी जी की पोस्ट : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 28जुलाई 2017,शुक्रवार

सेक्यूलरिज्म व थाईलैंड पर जय बख्शी जी की पोस्ट : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 28जुलाई 2017,शुक्रवार

        जब ही हम देश के विकास की बात करते है तो  हमारे देश के कुछ स्वनामधन्य बुद्धिजीवी धर्मनिरपेक्षता सेकुलरिज्म की बात करने लगते हैं उन्हें हर चीज को सेकूलर चश्मे से देखने की आदत पड़ गई है , वे आम जनता का हित व विकास भी सेकलरिज्म के तराजू पर तौल कर अरना नफा नुकसान जोखते है. कमाल तो यह है अगर आप कहो की हम पूरब की तरफ इसलिए मुँह करके खड़े हो कर धूप सेकेगें क्योकि उससे ऊष्मा व उर्जा प्राप्त होती है,  हम पूरब दिशा को इसलिये महत्व देते हैं क्योंकि उधर से प्रकृति शक्ति सूरज निकलता है जिससे हमें प्रकाश मिलता है प्रकाश से हमें ग्यान मिलता है ज्ञान से हम विवेक प्राप्त करते हैं विवेक हमें सही अर्थों में मानव बनने में मदद करता है परंतु यह तथाकथित बुद्धिजीवी जो अपने आप को सेकुलर करते हैं वह तुरंत हाथ उठाएंगे कि नहीं सूरज की बात वेदों में कही गई है सूरज की बात रामायण में कही गई है इसलिए सूरज एक धर्म से जुड़ा हुआ है और  सूरज निकलने की दिशा पूरब की तरफ मुंह करके खड़ा होना संविधान व सेकूलरिज्म के विपरीत है इसलिए हम पूरब की तरफ मुँह करके नही खड़े हो सकते.  हिंदुस्तान के बाहर के अनेक देशों ने  अपने संस्कृति और इतिहास को ध्यान में रखते हुए धर्म जाति मतभेदों से दूर अपनी एक पहचान बनाई है और अपने इस ऐतहासिक,  पौराणिक  व सॉस्कृतिक पहचान पर वे कोई समझौता नही करना चाहते. इन्ही देशों मे एक है थाईलैंड. थाईलैंड नेआज भी हिंदू संस्कृति और सनातन परंपरा को अपनी विरासत बना रखा है जिसके बारे में आदरणीय श्री जय बख्शी जी एक बहुत ही सुंदर पोस्ट लिखी है आज की डायरी उसी पोस्ट को समर्पित.

#थाईलैंड क्या है ये जाने।
भारत के बाहर थाईलेंड में आज भी संवैधानिक रूप में राम राज्य है l वहां भगवान राम के छोटे पुत्र कुश के वंशज सम्राट “भूमिबल अतुल्य तेज ” राज्य कर रहे हैं , जिन्हें नौवां राम कहा जाता है l

-भगवान राम का संक्षिप्त इतिहास-
वाल्मीकि रामायण एक धार्मिक ग्रन्थ होने के साथ एक ऐतिहासिक ग्रन्थ भी है , क्योंकि महर्षि वाल्मीकि राम के समकालीन थे , रामायण के बालकाण्ड के सर्ग ,70 . 71 और 73 में राम और उनके तीनों भाइयों के विवाह का वर्णन है , जिसका सारांश है।

मिथिला के राजा सीरध्वज थे , जिन्हें लोग विदेह भी कहते थे उनकी पत्नी का नाम सुनेत्रा ( सुनयना ) था , जिनकी पुत्री सीता जी थीं , जिनका विवाह राम से हुआ था l
राजा जनक के कुशध्वज नामके भाई थे l इनकी राजधानी सांकाश्य नगर थी जो इक्षुमती नदी के किनारे थी l इन्होंने अपनी बेटी
उर्मिला लक्षमण से, मांडवी भरत से, और श्रुतिकीति का विवाह शत्रुघ्न से करा दी थीl

केशव दास रचित ” रामचन्द्रिका “-पृष्ठ 354 ( प्रकाशन संवत 1715 ) .के अनुसार, राम और सीता के पुत्र लव और कुश, लक्ष्मण और उर्मिला के पुत्र अंगद और चन्द्रकेतु , भरत और मांडवी के पुत्र पुष्कर और तक्ष, शत्रुघ्न और श्रुतिकीर्ति के पुत्र सुबाहु और शत्रुघात हुए थे l

भगवान राम के समय ही राज्यों बँटवारा इस प्रकार हुआ था —
पश्चिम में लव को लवपुर (लाहौर ), पूर्व में कुश को कुशावती, तक्ष को तक्षशिला, अंगद को अंगद नगर, चन्द्रकेतु को चंद्रावतीl कुश ने अपना राज्य पूर्व की तरफ फैलाया और एक नाग वंशी कन्या से विवाह किया था l थाईलैंड के राजा उसी कुश के वंशज हैंl इस वंश को “चक्री वंश कहा जाता है l चूँकि राम को विष्णु का अवतार माना जाता है , और विष्णु का आयुध चक्र है इसी लिए थाईलेंड के लॉग चक्री वंश के हर राजा को “राम ” की उपाधि देकर नाम के साथ संख्या दे देते हैं l जैसे अभी राम (9 th ) राजा हैं जिनका नाम “भूमिबल अतुल्य तेज ” है।

थाईलैंड की अयोध्या–
लोग थाईलैंड की राजधानी को अंग्रेजी में बैंगकॉक ( Bangkok ) कहते हैं , क्योंकि इसका सरकारी नाम इतना बड़ा है , की इसे विश्व का सबसे बडा नाम माना जाता है , इसका नाम संस्कृत शब्दों से मिल कर बना है, देवनागरी लिपि में पूरा नाम इस प्रकार है –

“क्रुंग देव महानगर अमर रत्न कोसिन्द्र महिन्द्रायुध्या महा तिलक भव नवरत्न रजधानी पुरी रम्य उत्तम राज निवेशन महास्थान अमर विमान अवतार स्थित शक्रदत्तिय विष्णु कर्म प्रसिद्धि ”

थाई भाषा में इस पूरे नाम में कुल 163 अक्षरों का प्रयोग किया गया हैl इस नाम की एक और विशेषता ह l इसे बोला नहीं बल्कि गा कर कहा जाता हैl कुछ लोग आसानी के लिए इसे “महेंद्र अयोध्या ” भी कहते है l अर्थात इंद्र द्वारा निर्मित महान अयोध्या l थाई लैंड के जितने भी राम ( राजा ) हुए हैं सभी इसी अयोध्या में रहते आये हैं l

असली राम राज्य थाईलैंड में है-
बौद्ध होने के बावजूद थाईलैंड के लोग अपने राजा को राम का वंशज होने से विष्णु का अवतार मानते हैं , इसलिए, थाईलैंड में एक तरह से राम राज्य है l वहां के राजा को भगवान श्रीराम का वंशज माना जाता है, थाईलैंड में संवैधानिक लोकतंत्र की स्थापना 1932 में हुई।

भगवान राम के वंशजों की यह स्थिति है कि उन्हें निजी अथवा सार्वजनिक तौर पर कभी भी विवाद या आलोचना के घेरे में नहीं लाया जा सकता है वे पूजनीय हैं। थाई शाही परिवार के सदस्यों के सम्मुख थाई जनता उनके सम्मानार्थ सीधे खड़ी नहीं हो सकती है बल्कि उन्हें झुक कर खडे़ होना पड़ता है. उनकी तीन पुत्रियों में से एक हिन्दू धर्म की मर्मज्ञ मानी जाती हैं।

थाईलैंड का राष्ट्रीय ग्रन्थ रामायण है
यद्यपि थाईलैंड में थेरावाद बौद्ध के लोग बहुसंख्यक हैं , फिर भी वहां का राष्ट्रीय ग्रन्थ रामायण है l जिसे थाई भाषा में ” राम-कियेन ” कहते हैं l जिसका अर्थ राम-कीर्ति होता है , जो वाल्मीकि रामायण पर आधारित है l इस ग्रन्थ की मूल प्रति सन 1767 में नष्ट हो गयी थी , जिससे चक्री राजा प्रथम राम (1736–1809), ने अपनी स्मरण शक्ति से फिर से लिख लिया था l थाईलैंड में रामायण को राष्ट्रिय ग्रन्थ घोषित करना इसलिए संभव हुआ ,क्योंकि वहां भारत की तरह दोगले हिन्दू नहीं है ,जो नाम के हिन्दू हैं, हिन्दुओं के दुश्मन यही लोग हैं l

थाई लैंड में राम कियेन पर आधारित नाटक और कठपुतलियों का प्रदर्शन देखना धार्मिक कार्य माना जाता है l राम कियेन के मुख्य पात्रों के नाम इस प्रकार हैं-

राम (राम), 2 लक (लक्ष्मण), 3 पाली (बाली), 4 सुक्रीप (सुग्रीव), 5 ओन्कोट (अंगद), 6 खोम्पून ( जाम्बवन्त ) ,7 बिपेक ( विभीषण ), 8 तोतस कन ( दशकण्ठ ) रावण, 9 सदायु ( जटायु ), 10 सुपन मच्छा ( शूर्पणखा ) 11मारित ( मारीच ),12इन्द्रचित ( इंद्रजीत )मेघनाद , 13 फ्र पाई( वायुदेव ), इत्यादि l थाई राम कियेन में हनुमान की पुत्री और विभीषण की पत्नी का नाम भी है, जो यहाँ के लोग नहीं जानते l

थाईलैंड में हिन्दू देवी देवता
थाईलैंड में बौद्ध बहुसंख्यक और हिन्दू अल्प संख्यक हैं l वहां कभी सम्प्रदायवादी दंगे नहीं हुए l थाई लैंड में बौद्ध भी जिन हिन्दू देवताओं की पूजा करते है , उनके नाम इस प्रकार हैं
1 . ईसुअन ( ईश्वन ) ईश्वर शिव , 2 नाराइ ( नारायण ) विष्णु , 3 फ्रॉम ( ब्रह्म ) ब्रह्मा, 4 . इन ( इंद्र ), 5 . आथित ( आदित्य ) सूर्य , 6 . पाय ( पवन ) वायु l

थाईलैंड का राष्ट्रीय चिन्ह गरुड़
गरुड़ एक बड़े आकार का पक्षी है , जो लगभग लुप्त हो गया है l अंगरेजी में इसे ब्राह्मणी पक्षी (The brahminy kite ) कहा जाता है , इसका वैज्ञानिक नाम “Haliastur indus ” है l फ्रैंच पक्षी विशेषज्ञ मथुरिन जैक्स ब्रिसन ने इसे सन 1760 में पहली बार देखा था, और इसका नाम Falco indus रख दिया था, इसने दक्षिण भारत के पाण्डिचेरी शहर के पहाड़ों में गरुड़ देखा थाl इस से सिद्ध होता है कि गरुड़ काल्पनिक पक्षी नहीं है l इसीलिए भारतीय पौराणिक ग्रंथों में गरुड़ को विष्णु का वाहन माना गया है l चूँकि राम विष्णु के अवतार हैं , और थाईलैंड के राजा राम के वंशज है , और बौद्ध होने पर भी हिन्दू धर्म पर अटूट आस्था रखते हैं , इसलिए उन्होंने ” गरुड़ ” को राष्ट्रीय चिन्ह घोषित किया है l यहां तक कि थाई संसद के सामने गरुड़ बना हुआ है।

सुवर्णभूमि हवाई अड्डा
हम इसे हिन्दुओं की कमजोरी समझें या दुर्भाग्य , क्योंकि हिन्दू बहुल देश होने पर भी देश के कई शहरों के नाम मुस्लिम हमलावरों या बादशाहों के नामों पर हैं l यहाँ ताकि राजधानी दिल्ली के मुख्य मार्गों के नाम तक मुग़ल शाशकों के नाम पार हैं l जैसे हुमायूँ रोड , अकबर रोड , औरंगजेब रोड इत्यादि , इसके विपरीत थाईलैंड की राजधानी के हवाई अड्डे का नाम सुवर्ण भूमि हैl यह आकार के मुताबिक दुनिया का दूसरे नंबर का एयर पोर्ट है l इसका क्षेत्रफल 563,000 स्क्वेअर मीटर है। इसके स्वागत हाल के अंदर समुद्र मंथन का दृश्य बना हुआ हैl पौराणिक कथा के अनुसार देवोँ और ससुरों ने अमृत निकालने के लिए समुद्र का मंथन किया था l इसके लिए रस्सी के लिए वासुकि नाग, मथानी के लिए मेरु पर्वत का प्रयोग किया था l नाग के फन की तरफ असुर और पुंछ की तरफ देवता थेl मथानी को स्थिर रखने के लिए कच्छप के रूप में विष्णु थेl जो भी व्यक्ति इस ऐयर पोर्ट के हॉल जाता है वह यह दृश्य देख कर मन्त्र मुग्ध हो जाता है।

इस लेख का उदेश्य लोगों को यह बताना है कि असली सेकुलरज्म क्या होता है, यह थाईलैंड से सीखो l
(  बनारस 28 जुलाई 2017 शुक्रवार)
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मंगलवार, 25 जुलाई 2017

व्योमवार्ता / बनारस जहॉ मेरा मन बसता है: व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 25जुलाई 2017, मंगलवार

बनारस जहॉ मेरा मन बसता है,  साल भर पुरानी पोस्ट : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 25 जुलाई 2017, मंगलवार

कल से बनारस मे एकदम झैंयम झैंयम बरसात हो रही है,  पूरा शहर कहीं बारिस से तो कहीं बारिस के प्रभाव  से जलायमान हो गया है, प्रधानमंत्री  व बनारस के यशस्वी सांसद द्वारा बनारस को विकसित करने के सपने और स्थानीय  अधिकारियों व ठीकेदारों के मनी अर्निंग गेम के चलते कहीं आईडीपीएस तो कहीं सड़क, पुल व सीवर के चलते सड़कें गलियॉ खुदी पड़ी है,  कीचड़,  पानी गड्ढा तो हमारे बनारस की पहचान  बन गये हैं. पर अपना बनारस तो अड़बंगों का अड़बंगी शहर है जो सारी कमियों के बावजूद हमारे मन मे बसता है. हमारा बनारस हमारा अपना बनारस है जिसके बिना हम रह पायेगें, यह सोचना भी कल्पना से परे है. सुबह सुबह ही ऱेसबुक ने अपने आदत के अनुसार पुरानी पोस्ट दिखाया तो याद आया कि साल भर पहले यह पोस्ट  इसी कल्पना को भुलाने के लिये लिखा था हमने. आज फिर से शेयर कर रहा हूँ.
             एक वक़्त था जब हम बचपन में अपने घर से निकलते थे और फ़िक्र इस बात की होती थी की कचौड़ी जलेबी भर के पैसे जेब में  हैं या नहीं. गोलगप्पे के पैसों के लिए घर पे लात जूते खाने से भी गुरेज़ नहीं किया. घाट ही हमारा गोवा और बैंकॉक था. नाटी इमली का भरत मिलाप ही हमारे लिए ऑस्कर था. ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना पेट भर मलइय्यो खाना था. ख्वाहिशें छोटी थी, और बनारस से उम्मीदे कम. शायद इसीलिए हम सुखी थे और बनारस ने भी हमे कभी निराश नहीं किया. जितना हमने चाहा, बनारस ने हमेशा उससे बढ़ कर दिया. बनारस ने घाट पे बैठ के चीलम फूकने वाले को भी स्वीकारा और सड़क पे शान से भांग पीने वाले को भी. घाट पे नग्न बैठे अघोरी साधू को भी सम्मान दिया और मंदिरों में बैठे पंडितों की आस्था को भी पाला पोसा. बनारस ने डोम को भी राजा की उपाधि दे कर साम्राज्यवादियों के मुह पर तमाचा भी मारा. ये कमाल भी सिर्फ बनारस के बस की बात थी.
लेकिन अब चीजे बदल रही हैं. हमेशा मस्त हो कर भी शांत रहने वाला बनारस, अल्हड होते हुए भी संभ्रांत बनारस अब भागा भागा फिर रहा है. परेशां भी है और विचलित भी. इसका दिल अब गलियों से ऊब रहा है. इसे अब आसमानी इमारतों में रहना है. धड़ाधड़ बन रही इमारते यही बयान करती हैं. कोई फ्लैट बनाने में  परेशां है, कोई बेचने में और कोई खरीदने में. बनानेवाले भी बनारसी, बेचने वाले भी और  खरीदने वाला भी. हर रोज़ एक पुरानी इमारत गिरा दी जाती है एक नयी इमारत की  तामीर के लिए. और उसी के साथ गिर जाता है हम पर बनारस का भरोसा. चाट दलित सी हो रही है जिसकी तारीफ़ हर कोई करता है लेकिन साथ खाने की मेज़ पर कोई  नहीं बिठाना चाहता. आज का नया बनारसी पान नहीं खाता बल्कि पान की दूकान के पीछे मुंह छुपा के सिगरेट पीता है. मॉल की चमक और होटल की मदहोशी देखने और सुनने की सकत को ख़त्म कर रही है. जो बनारस अपने आप में पूर्ण था वो अब किसी और की तरह बनना चाहता है. भौतिकता और सांसारिक इच्छाओ का अंतिम पड़ाव समझा जाने वाला बनारस अब उसी में लिप्त होने को तड़प रहा है. सारनाथ, गोदौलिया, विश्वनाथ गली और हथुआ मार्किट तो चीप लोगो का बाजार हो गया. अब तो शादी के कपडे भी तभी जचते हैंजब दिल्ली या मुम्बई से आये हों. अब औरते माई से मम्मी और मम्मी से मॉम हो गयी हैं. सब्ज़ी अब वही स्वादिष्ट बना पाती हैं जोबिग बाजार से आयी हो. किटी पार्टियां इतनी होती हैं जितने बाप दादा ने रामायण नहीं कराये होंगे.
इन सब के बीच में हौले हौले सांस लेता बनारस आज भी शांत  है, और सब कुछ देख रहा है. शायद हमसे ये कहने की कोशिश कर रहा की "अपनी तहज़ीब को मस्ख  करने पे तहज़ीब का कुछ नहीं जाएगा, लेकिन एक दिन  वो तुम्हे मस्ख कर देगी".......
इसे वही समझ सकता है जो असली बनारसी हो,  जिसके मन मे बनारस बसता हो,  जो भले बनारस का पुरनिया न हो पर अपने नयेपन के बावजूद बनारस के मर्म को जान व पहचान गया हो. आप लोग नये बनारसी है या पुराने...?
(बनारस, 25जुलाई 2017, मंगलवार)
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सोमवार, 24 जुलाई 2017

व्योमवार्ता / वतन पर मरने वालों का कहीं बाकी निशां होगा : व्योमेेश चित्रवंश की डायरी (2).  24 जुलाई 2017, सोमवार

वतन पर मरने वालों का कहीं बाकी निशां होगा : व्योमेेश चित्रवंश की डायरी (2).  24 जुलाई 2017, सोमवार

आज शाम दोबारा डायरी लिखने को बैठा हूँ,  लिखने को मजबूर  होना पड़ा, थोड़ी देर पहले आभाषी दुनिया के ही किसी मित्र ने श्री जय बख्शी जी की पोस्ट साझा किया है,  पढ़ कर मन दु:खी हो गया . बचपन से बिस्मिल की पंक्तियॉ पढ़ते आ रहे है "शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले,  वतन पर मरने वालो का यही बाकी निशां होगा." क्या यही सम्मान  दिया है हमने अपने अमर बलिदानी सपूतों का?  वह भी अपने स्वराज,  अपने सत्ता मे?
घृणा हो जाती है, इन राजनीति के स्वार्थी  कीड़े मकोड़ो और दलालों से ,जो आजादी के बाद सफेद खादी के कुर्ते की आड़ में अपना कलुष भरा मन लिये अपने को सर्वोत्तम जताने के लिये देश पर जान न्यौछावर  करने वाले शहीदों के पवित्र स्मृतियों को नाश करने व उसे विस्मृत करने मे लगे रहे.
अभी कल ही अमर शहीद चंदशेखर आजाद जी का जन्मदिवस था ऐसे में हमारे बनारस के अधिवक्ता मित्र नित्यानंद राय  व अंशुमान त्रिपाठी जैसे लोग बनारस के सेंट्रल जेल में चंदशेखर आजाद के सजा स्थल को स्मृति केंद्र बनवाने हेतु प्रयास मे हैं,वहीं दूसरी ओर आजाद भारत में स्वतंत्रता के 2 वर्षों बाद झॉसी मे स्वर्गीय चंद्रशेखर आजाद की स्मृति एवं उनकी मां के मूर्ति स्थापित करने के लिये उतारू कटिबद्ध निरीह निशस्त्र वअहिंसावादी नागरिकों पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने सीधे गोली मारने का आदेश दे दिया था जिसमे तीन शहीदभक्त नागरिक मृत्यु के घाट उतार दिये गये और कई लोग घायल हो गए .जिसके बारे में बक्शी जी की पोस्ट मे बताया गया है. मेरे लिये पहली बार यह रहस्योद्घाटन त्रासदपूर्ण व हृदयविदारक है .हम सोचने को मजबूर हैं कि क्या आजाद भारत में हम अपने शहीदों के लिए यही संकल्पना लेकर आए थे अगर यह सच है तो हमें अपने मन मानस मे ही थोड़ी सी जगह ढूंढनी पड़ेगी. तब कम से कम हम अपने को तो यह आभाष करा सकेगें कि वतन पर मरने वालों की कहीं बाकी निशा होगा.

झाँसी, वर्ष 1951-52: चंद्रशेखर आजाद की माँ के स्मारक को नहीं बनने दिया गया। (साभार)
- श्री जय बख्शी जी

           कल हमने हुतात्मा चन्द्र शेखर आजाद जी को बहुत मान दिया .... पर क्या आपको मालूम है कि आजाद जी के बलिदान के बाद क्या हुआ था उनके परिवार पर .... अगर नही पता है तो इस को पूरा पढ़ें शहादत के बाद उनके परिवार का क्या हश्र हुआ, उसे सुनकर आपकी आँखे नम हो जाऐंगी.....

भारत माता के अमर बलिदानी सपूत चंद्रशेखर आज़ाद और उनकी माता की पुण्य स्मृतियों के साथ इस कहानी का जन्म हुआ!  यह कहानी आजाद की शहादत के बाद जन्मी!

यह कहानी हम भारतीयों की कहानी कहती है! सच की पृष्ठभूमि से भी परिचित हो लीजिये!
इस कहानी का जिक्र करना बेहद आवश्यक इसलिए है क्यूंकि आप इसे समझ सकें कि तब कैसे कैसे लोग थे और आज कैसे कैसे लोग है!

चंद्रशेखर आजाद का क्रांतिकारी जीवन का केंद्र बिंदु झांसी रहा था! जहाँ क्रांतिकारियों में उनके २-3 करीबियों में से एक सदाशिव राव मलकापुरकर रहते थे.. चंद्रशेखर आजाद अपने जीवन में बहुत अधिक गोपनीयता रखते थे इस कारण वह आजीवन कभी भी पुलिस द्वारा पकडे नहीं गए थे! उन्हें इसका अहसास था कि उनके साथियों में कुछ कमजोर कड़ी है जो पुलिस की प्रताड़ना पर विश्वसनीय नहीं रह जायेंगे! लेकिन सदाशिव जी उन विश्वसनीय लोगों में से थे जिन्हें आजाद अपने साथ मध्यप्रदेश के  झाबुआ जिले के भाबरा गाँव ले गए थे और अपने पिता सीताराम तिवारी एवं माता जगरानी देवी से मिलवाया था..

सदाशिव राव आजाद की मृत्यु के पश्चात भी ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष करते रहे एवं कई बार जेल भी गए, आजादी के बाद जब वह स्वतंत्र हुए तो वह आजाद के माता पिता का हालचाल पूछने उनके गाँव पहुंचे; वहां उन्हें पता चला कि चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के कुछ वर्षों बाद उनके पिता जी की भी मृत्यु हो गयी थी! आज़ाद के भाई की मृत्यु भी इससे पहले ही हो चुकी थी!
अत्यंत निर्धनावस्था में हुई उनके पिता की मृत्यु के पश्चात आज़ाद की निर्धन निराश्रित वृद्ध माताश्री उस वृद्धावस्था में भी किसी के आगे हाथ फ़ैलाने के बजाय जंगलों में जाकर लकड़ी और गोबर बीनकर लाती थी तथा कंडे और लकड़ी बेचकर अपना पेट पालती रहीं!

लेकिन वृद्ध होने के कारण इतना काम नहीं कर पाती थीं कि भरपेट भोजन का प्रबंध कर सकें! अतः कभी ज्वार कभी बाज़रा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं क्योंकि दाल चावल गेंहू और उसे पकाने का ईंधन खरीदने लायक धन कमाने की शारीरिक सामर्थ्य उनमे शेष ही नहीं रह गयी थी!  सबसे शर्मनाक बात तो यह कि उनकी यह स्थिति देश को आज़ादी मिलने के 2 वर्ष बाद (1949 ) तक जारी रही! (यहां आज की पीढ़ी के लिए उल्लेख करना आवश्यक है कि उस दौर में ज्वार और बाज़रा को ''मोटा अनाज'' कहकर बहुत उपेक्षित और हेय दृष्टि से देखा जाता था और इनका मूल्य गेंहू से बहुत कम होता था)

सदाशिव राव ने जब यह देखा तो उनका मन काफी व्यथित हो गया!  एक महान राष्ट्र भक्त की माँ दिन के एक वक़्त के भोजन के लिए तरस रही थी*! जब उन्होंने गाँव से कोई मदद न मिलने का कारण पता किया तो पता चला कि चंद्रशेखर आजाद की माँ को एक डकैत की माँ कहकर उलाहना दिया जाता थी और समाज ने उनका बहिष्कार सा किया हुआ था!

आजाद जी की माँ की इस दुर्दशा को देख सदाशिव जी ने उनसे अपने साथ झांसी चलने को कहा परन्तु उस स्वाभिमानी माँ ने अपनी उस दीनहीन दशा के बावजूद उनके साथ चलने से इनकार कर दिया था! तब चंद्रशेखर आज़ाद जी को दिए गए अपने एक वचन का वास्ता देकर सदाशिव जी उन्हें अपने साथ अपने घर झाँसी लेकर आये थे, क्योंकि उनकी स्वयं की स्थिति अत्यंत जर्जर होने के कारण उनका घर बहुत छोटा था अतः उन्होंने आज़ाद के ही एक अन्य मित्र भगवान दास माहौर के घर पर आज़ाद की माताश्री के रहने का प्रबंध किया था और उनके अंतिम क्षणों तक उनकी सेवा की! मार्च १९५१ में जब आजाद की माँ जगरानी देवी का झांसी में निधन हुआ तब सदाशिव जी ने उनका सम्मान अपनी माँ के समान करते हुए उनका अंतिम संस्कार स्वयं अपने हाथों से ही किया था! अपनी अत्याधिक जर्जर आर्थिक स्थिति के बावजूद सदाशिव जी ने चंद्रशेखर आज़ाद को दिए गए अपने वचन के अनुरूप आज़ाद की माताश्री को अनेक तीर्थ स्थानों की तीर्थ यात्रायें अपने साथ ले जाकर करवायी थीं!

अब यहाँ से प्रारम्भ होता है वो खूनी अध्याय जो राक्षसी राजनीति के उस भयावह चेहरे और चरित्र को उजागर करता है जिसके रोम-रोम में चंद्रशेखर आज़ाद सरीखे क्रांतिकारियों के प्रति केवल और केवल जहर ही भरा हुआ था!

चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री के देहांत के पश्चात झाँसी की जनता ने उनकी स्मृति में उनके नाम से एक सार्वजनिक स्थान पर पीठ का निर्माण किया; *प्रदेश की तत्कालीन सरकार ने इस निर्माण को झाँसी की जनता द्वारा किया हुआ अवैध और गैरकानूनी कार्य घोषित कर दिया था* ! किन्तु झाँसी के राष्ट्रभक्त नागरिकों ने तत्कालीन सरकार के उस शासनादेश को महत्व न देते हुए उस पीठ के पास ही चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित करने का फैसला कर लिया था!
मूर्ती बनाने का कार्य चंद्रशेखर आजाद के ख़ास सहयोगी कुशल शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह जी को सौपा गया! उन्होंने फोटो को देखकर आज़ाद की माताश्री के चेहरे की प्रतिमा तैयार कर दी थी! झाँसी के नागरिकों के इन राष्ट्रवादी तेवरों से तिलमिलाई बिलबिलाई तत्कालीन सरकार अब तक अपने वास्तविक राक्षसी रूप में आ चुकी थी! जब सरकार को यह पता चला कि आजाद की माँ की मूर्ती तैयार की जा चुकी है और सदाशिव राव, रूपनारायण, भगवान् दास माहौर समेत कई क्रांतिकारी झांसी की जनता के सहयोग से मूर्ती को स्थापित करने जा रहे है तो उसने अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापना को देश, समाज और झाँसी की कानून व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर उनकी मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर पूरे झाँसी शहर में कर्फ्यू लगा दिया, चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी गई ताकि अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति की स्थापना ना की जा सके !

तत्कालीन सरकार के इस राक्षसी स्वरूप के खिलाफ आज़ाद के अभिन्न सहयोगी सदाशिव जी ने ही कमान संभाली थी और चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति अपने सिर पर रखकर इस ऐलान के साथ कर्फ्यू तोड़कर अपने घर से निकल पड़े थे कि यदि चंद्रशेखर आज़ाद ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण बलिदान कर दिए थे तो आज मुझे अवसर मिला है कि उनकी माताश्री के सम्मान के लिए मैं अपने प्राणों का बलिदान कर दूं !

Indian Revolutionaries: A comprehensive study 1757-1961, Volume 3"

अपने इस ऐलान के साथ आज़ाद की माताश्री की मूर्ति अपने सिर पर रखकर पीठ की तरफ चल दिए सदाशिव जी के साथ झाँसी के राष्ट्रभक्त नागरिक भी चलना प्रारम्भ हो गए थे! अपने आदेश की झाँसी की सडकों पर बुरी तरह उड़ती धज्जियों से तिलमिलाई तत्कालीन राक्षसी सरकार ने अपनी पुलिस को सदाशिव जी को गोली मार देने का आदेश दे डाला था किन्तु आज़ाद की माताश्री की प्रतिमा को अपने सिर पर रखकर पीठ की तरफ बढ़ रहे सदाशिव जी को जनता ने चारों तरफ से अपने घेरे में ले लिया था अतः सरकार ने उस भीड़ पर भी गोली चलाने का आदेश दे डाला था! *परिणामस्वरूप झाँसी की उस निहत्थी निरीह राष्ट्रभक्त जनता पर तत्कालीन नृशंस सरकार की पुलिस की बंदूकों के बारूदी अंगारे मौत बनकर बरसने लगे थे सैकड़ों लोग घायल हुए, दर्जनों लोग जीवन भर के लिए अपंग हुए और तीन लोग मौत के घाट उतर गए थे*
तत्कालीन राक्षसी सरकार के इस खूनी तांडव का परिणाम यह हुआ था कि चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित नहीं हो सकी थी और आते जाते अनजान नागरिकों की प्यास बुझाने के लिए उनकी स्मृति में बने प्याऊ को भी पुलिस ने ध्वस्त कर दिया था!

अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की 2-3 फुट की मूर्ति के लिए उस देश में 5 फुट जमीन भी देने से तत्कालीन यमराजी सरकार ने इनकार कर दिया था जिस देश के लिए चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे!  एक और कहाँ चन्द्र शेखर आजाद, उनकी माँ जगरानी देवी, सदाशिव मलकापुरकर, मास्टर रूपनारायण, भगवान् दास माहौर एवं झांसी की जनता वहीँ दूसरी और भावरा गाँव, वहाँ का समाज और तत्कालीन सरकार! आज भी हमारा समाज दो भागों में बंटा दिखाई देता है, लोग दो तरफ खड़े हुए है !

इस कहानी से देश के सभी लोगों को विशेषकर आज की नौजवान पीढ़ी के हर सदस्य को परिचित होना चाहिए! क्योंकि वर्षों से कुटिलता और कपट के साथ सत्ताधीशों ने अपने राक्षसी कारनामों को हमसे आपसे छुपाकर रखा है और इतने वर्षों से हमे सिर्फ यह समझाने की कोशिश की गई है कि देश की आज़ादी का इकलौता ठेकेदार परिवार विशेष ही है !
(बनारस, 24 जुलाई 2017,सोमवार)
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