काशीवासी ?.....
स्वयं में लीन
काशी के स्वभाव में रमा
शिव और शक्ति को
मन मे जपते
चलता है
शहर से गंगा की ओर
भौतिकता से वैराग्य की दिशा में
स्वयं से स्व की ओर
गंगाघाट की सीढ़ीयों से उतरते
सधे कदमों से रस्ते नापता
अंतर में शिव व गंगा को लिये
हर हर महादेव शंभों
काशी विश्वनाथ गंगे,
मन बुद्धि अहकार से परे
भूत को भूल, भविष्य से मुक्त
मात्र वर्तमान को जीता
अपना सर्वस्व दुःख चिन्ता, भार
शिव को समर्पित कर
स्वयं शिवमय होता हुआ
शिव के शरण में
वह काशीवासी,
फक्कड मस्त अड़भंगीग
कुछ अधिक पाने के चाह से दूर
कुछ खोने का डर से मुक्त
मृत्यु से भय नही
जीवन में कुछ चाह नही
वह स्वयं मे शंकर बन
सब कुछ छोड़ कर
अपने महादेव पर,
भोले बाबा से भी अधिक
विश्वास है उसे अपनी मां अन्नपूर्णा पर
तभी तो अलख जगाता है
वो विश्व के नाथ विश्वेश्वर के दरवार में,
बाबा बाबा सब कहे माई कहे न कोय
बाबा के दरबार में माई करें सो होय,
वह जानता है कि
मां बिना पिता की पूर्णता नही
प्रकृति बिना पुरुष सिद्ध नही
जीव बिना आत्मा संपूर्ण नही
इसी लिये वह सहज है सरल है
पर जटिल और अबूझ
अपने आराध्य महादेव के समान
वही तो काशीवासी है।
-व्योमेश,
10जून2025, मंगलवार