शनिवार, 1 जुलाई 2017

हमारी वरूणा के सफर की यादें, जीना इसी का नाम है के बहाने : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 01जुलाई 2017, शनिवार

जीना इसी का नाम है,  मेरे फेसबुकिया मित्र जी आर वशिष्ठ  द्वारा पोस्ट की गयी बेहद मर्मस्पर्शी  कहानी
 
आभाषी दुनिया अकसर बेहद प्यारे और उम्दा लोगों को  अपने बेहद करीब ले आती है, जिनके सोच , लगन और कार्यो से दिल खुश हो जाता है और रश्क होता है खुद की किस्मत से, कि हमारे जानिब भी ऐसे बेहतरीन  शख्सियत है. इसी तरह की शख्सियतों मे एक है जी आर वशिष्ठ जी,  यूँ तो चेहरापुस्तिका पर हमारी इनसे मित्रता महज चंद दिनों की है पर समान धरातल पर मिलती जुलती सोच ने हमारे दिलों को बेहद करीब कर दिया है. बहरहाल बात आज की, आज सुबह सुबह चेहरापुस्तिका पर श्री जी आर वशिष्ठ  जी की कहानी #जीना इसी का नाम है# पढ़ा,  बेहद मर्मस्पर्शी,  सकारात्मक और जिन्दादिल कहानी.  देर तक सोचता रहा कि मन मे विश्वास  हो तो हम अकेले क्या नही कर सकते,  समाज के लिये अकेले दम पर सही सोच पर काम करते हुये हम मिसाल तो बन ही सकते है,
            सच मानिये, ये कोई मुश्किल भी नही, हमने खुद पर इसे आजमाया हुआ है,  आज से लगभग 14 वर्ष  पूर्व अपने मित्र सूर्य भान सिंह के साथ मिल कर  मात्र हम दो लोगो ने वाराणसी को पहचान देने वाली मृतप्राय हो चुकी प्रागैतिहासिक  नदी वरूणा के पुनर्जीवित  व पुनरूद्धार करने हेतु एक सपना देखा था तो यह कल्पना भी नही किया था कि समाज मे अच्छे लोगों की भरमार है बस उन्हे आह्वान करने की जरूरत है, फिर तो वे आपके साथ पग पग पर मिलने व चलने को तैयार है,  याद आते है हमारे शुरूआती कदमों के साथी डॉ0 अरविन्द  कुमार सिंह,  डॉ0 कुलदीप सिंह,  अशोक पाण्डेय, अजय यादव,  मनोज श्रीवास्तव त्रयी (मनोज प्रिन्स, मनोज सीआईएमएस,  मनोज चंदू), दिनेश कुमार सिंह,  छोटे भाई के के श्रीवास्तव  कृष्णा, अंकुर व अंकित विश्वकर्मा, राजीव गोंड, जितेन्द्र,  दिलीप,  प्रमोद मौर्य जैसे वे ढेरो साथी, जिनका नाम अभी याद नहीजो बिना नागा आकर वरूणा की सफाई के लिये श्रमदान किये,  बाहर से हमारे संकल्प को सहयोग करने वाले विजय चौबे (नई दिल्ली), 100यूपी बटालियन एनसीसी के मेजर रामसुधार सिंह,  कैप्टन ओपी सिंह, कैप्टन प्रवीण श्रीवास्तव एवं उनके कैडेट्स, भाई शिराज केसर( वाटरकीपर,  नईदिल्ली), विधि क्षेत्र मे हर कदम पर सहयोगी बनारस के स्वनामधन्य वरिष्ठ अधिवक्ता  स्व0 जे0पी0 मेहता साहब ,नेरे नेक कामों मे हमेसा साथ देने वाले राजीव भैय्या (शरिफा) जैसे लोगों के सहयोग व समर्पण हमेशा हमारी पूँजी रही है,  आज वरूणा के पुनरुद्धार व पुनर्जीवन के लिये हम लोगों द्वारा प्रारंभ  किया गया हमारा प्रयास सफल हुआ, उत्तर प्रदेश सरकार  ने हमारे जागरूकता  के प्रयासों  को संग्यान मे लेते हुये वरूणा कारीडोर प्रोजेक्ट  शुरू किया,  आज वरूणा मात्र पुनर्जीवित  ही नही हुई वरन वाराणसी के विकास की एक मानक बन गई है,  आज ढेरो लोग श्रेय लेने के लिये वरूणा के उद्धारकर्ता बनने को तैयार है  पर हम स्वयं द्वारा किये गये स्वान्त: सुखाय के प्रयासों  से संतुष्ट  है,  ठीक # जीना इसी के नाम है# के किसन की तरह.
आज वशिष्ठ  की कहानी पढ़ कर वरूणा के लिये जनजागरूकता के संघर्ष के एक एक पल स्मृति के चलचित्र  पर आ जा रहे हैं, वशिष्ठ भाई की साधिकार अनुमति से कहानी को शेयर करने के बावजूद  उस पर पुन: लिखने का लोभ संवरण नही कर पा रहा हूँ,  अस्तु उनकी कहानी को पुन: कापी कर रहा हूँ,

#जीना_इसी_का_नाम_है
पिताजी की मृत्यु सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के पहले हुई थी तो नियम के अनुसार उनके बेटे को नौकरी मिलनी थी। लेकिन सिद्धार्थ ने अपनी मेहनत से ही एक सरकारी अध्यापक की नौकरी हासिल की थी। पिताजी अक्सर कहा करते कि 'बेटा अपना केवल उसे समझना जो अपनी मेहनत से कमाया हो।'
शहर से 25 किमी दूर एक गाँव के स्कूल में सिद्धार्थ की ज्वॉइनिंग हुई थी।
दूरी ज़्यादा नही थी सो सिद्धार्थ बाइक से ही स्कूल पहुँचा।
शहर की भाग-दौड़ से दूर एक शांत गाँव। साफ-सफाई इतनी कि जैसे प्रधानमंत्री ने ख़ुद स्वच्छता अभियान की शुरुआत यहीँ से की हो।
गाँव में घुसते ही स्कूल पड़ता। बिल्डिंग के नाम पर एक कतार में चार कमरे। पेड़ इतने कि पेड़ों पर ही छत डाली जा सकती थी।
ज़्यादा सर्दी और बारिश के अलावा के दिनों में क्लास इन्हीं पेड़ो के नीचे लगा करती।
आसमानी शर्ट और खाकी पेन्ट में कुछ लड़के एक ही जगह दिखाई दिए तो सिद्धार्थ उनकी ओर जाकर देखने लगा कि दो-तीन लड़के एक कुत्ते को पकड़कर बैठे हैं।
सिद्धार्थ ने देखा तो उनसे कहा, "क्या कर रहे हो?, ये काट लेगा।"
"इस पूरे गाँव में बिना किसी ग़लत बात के कुत्ते भौंकते तक नही...और इंसान भी।" उनमें से एक लड़के ने कुत्ते की गर्दन पर हुए ज़ख़्म पर दवाई लगाते हुए कहा।
सिद्धार्थ को थोड़ा अजीब लगा तो उनसे फिर पूछा, "इस वक़्त कोई क्लास नही है क्या तुम्हारी?"
"जी है ना।" एक ने जवाब दिया।
"किस सब्जेक्ट की?"
"इंसानियत का पीरियड चल रहा है सर।" उस लड़के ने फिर से जवाब दिया।
"इंसानियत का पीरियड?" सिद्धार्थ ने जिज्ञासावश पूछा।
"जी सर। इस पीरियड में हम कोई ऐसा काम करते हैं जो हमें इंसान होने का एहसास कराये। जैसे किसी की तकलीफ़ में मदद करना।" लड़के ने मुस्कुराकर बताया।
"और अगर आपके इस इंसानियत के पीरियड के वक़्त किसी को कोई तकलीफ़ ही न हो या किसी को मदद की ज़रूरत न हो तब?" सिद्धार्थ ने मुस्कुराते हुए पूछा।
"तब?...तब हम सब एक साथ बैठकर एक साथ खाना खाते हैं। " इस बार लड़के की मुस्कुराहट ज़्यादा थी।
"तो फिर लंच ब्रेक में?..." सिद्धार्थ पूछना चाह रहा था तभी पीछे से प्रिंसिपल ने सिद्धार्थ के कंधे पर हाथ रखा।
"अरे तुम आ गए सिद्धार्थ। आओ स्वागत है।"
सिद्धार्थ प्रिंसीपल के साथ ऑफिस की तरफ चलने लगा।
"सिद्धार्थ ये स्कूल बाकी स्कूलों से अलग है। बहुत अलग। धीरे-धीरे जान जाओगे।"
प्रिंसिपल बात करते हुए सिद्धार्थ को ऑफिस में ले गए।
दीवार पर लगी एक तस्वीर पर सिद्धार्थ की नज़रें ठहर गयी और वो मुस्कुराने लगा।
"ये किशन जी। इस स्कूल को अलग बनाने वाले महान इंसान।" प्रिंसिपल ने तस्वीर की तरफ देखते हुए कहा।
"सर कुछ और भी बताइये ना इनके बारे में।" सिद्धार्थ ने कहा।
"एक सनकी इंसान थे साहब। सनक अच्छाई की। सनक ये कि कोई कोशिश करे तो अकेला भी बहुत कुछ बदल सकता है। इस स्कूल को, इस गाँव को जितना इन्होंने दिया उतना अब तक इस गाँव के लिए नेता भी नही कर पाये। बीस साल इस स्कूल में प्रिंसिपल रहे ये। बहुत बार यहाँ से बाहर तबादला हुआ लेकिन इधर उधर से बात करके अपना तबादला फिर यहीँ करवा लेते। पिछले बीस साल से कोई भी बच्चा अनपढ़ नही इस गाँव का।
और पता है सिद्धार्थ.. अपनी तनख़्वाह का तीस प्रतिशत हिस्सा इस स्कूल के विकास के लिए रखते थे। अपने परिवार को हमेशा इसी ग़लतफ़हमी में रखा कि जो सत्तर प्रतिशत था उनको उतनी ही तनख़्वाह मिलती है।
पूरे गाँव की हवाओं में इंसानियत घोल के रख दी इस अकेले इंसान ने।
कुछ नियम बनाये थे उन्होंने जो इस स्कूल में आज भी चलते हैं। जैसे इस स्कूल में दाखिले के बाद किसी भी बच्चे को केवल उसके नाम से याद रखा जाता है। किसी भी बच्चे को दूसरे का सरनेम नही मालूम। यहाँ का इंसानियत वाला पीरियड उन्हीं की देन है। और एक अलग चीज़ और है वो है यहाँ प्रातःकालीन होने वाली प्रार्थना। वो तुम कल सुबह जल्दी आओगे तब ख़ुद देखना। और हाँ एक बात हमेशा याद रखना यहाँ टीचर्स को स्कूल शुरू होने के वक़्त से पहले आना होता है।"
प्रिंसिपल सब कुछ बताते रहे और सिद्धार्थ बड़े ग़ौर से सब सुनता रहा।
घर आने के बाद सारी रात सिद्धार्थ के ज़हन में वो गाँव वो स्कूल घूमती रही।
अगले दिन वक़्त से पहले सिद्धार्थ स्कूल पहुँचा। पूरा स्टाफ आ चुका था। सिद्धार्थ आज फिर किशन जी की तस्वीर की तरफ देखकर मुस्कुराने लगा।

प्रिंसिपल की नज़र सिद्धार्थ की मुस्कुराहट पर गयी।
उन्होंने सिद्धार्थ की तरफ देखकर कहा, "इस स्कूल में ज्वॉइनिंग मिलने वाले हर अध्यापक को गर्व महसूस होता है सिद्धार्थ।"
"तो फिर सोचिये सर कि मुझे कितना गर्व महसूस हो रहा होगा।" सिद्धार्थ ने कहा।
"बिलकुल। तुम्हारी तो नौकरी ही इस स्कूल से शुरू हुई है।" प्रिंसिपल ने कहा।
सिद्धार्थ मुस्कुरा दिया। प्रिंसिपल को थोड़ा अजीब लगा तो उन्होंने पूछा, "इसके अलावा भी कोई बात है क्या?"
"सर..ये मेरे पिताजी थे।" कहते हुए सिद्धार्थ की आँखें छलक उठी।
उधर स्कूल की अलग तरह की प्रार्थना शुरू हो गयी थी। बच्चे अपनी अपनी क्लास में थे। और स्कूल में लगे स्पीकर से मद्धम आवाज़ आ रही थी।
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है .....
                        -जी आर वशिष्ठ

सही लिखा है जी आर भाई आपने ,एक प्रयास की जरूरत है फिर तो सारा जहॉ ही अपना है,  वाकई जीना इसी का नाम है.
(बनारस, 01जुलाई 2017, शनिवार)
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शुक्रवार, 30 जून 2017

व्योमवार्ता / आज कुछ अपनी ,कुछअनकही, मन मे घूमड़ती बातें : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 30 जून 2017,शुक्रवार

आज वर्ष 2017 का पूर्वार्द्ध समाप्त हो रहा है, दिन कितनी जल्दी जल्दी बीतते हैं, हमें लगता है कि आज के युग मे वक्त की रफ्तार मन की गति से भी तेज है, वक्त के साथ बढ़ती हमारी लिप्सा और तृष्णा ने हमे एक जीती जागती मसीन बना दिया है, आज की गलाकाट प्रतिस्पर्धा , एक दूसरे से आगे बढ़ने की होड़और बेहद भौतिकवादी जीवनदृष्टि के चलते हम सुख सुविधाभोगी जीवित मसीन तो बन रहे है पर हमारी मानवीय संवेदनशीलता समाप्त होती जा रही है.  पूज़्य दलाई लामा की एक कविता याद आ रही है
In our times,
Height of skyscrapers increased, but did that of humanity decreased?
Rodes widened, but did the viewpoints narrowed?
Expenses increased, but did the savings dwindled?
Expanded homes, but small families.
Pleasures increased, but the fun reduced.
Free time increased, but the fun reduced.
Degrees and diplomas increased, but wisdom went down.
Mountains of information, but noone to point the correctness.
Lot of medicines, but less health.
Ownership increased, values went down?
We talk a lot, love less and hate easily
Standard of life increased, but life became poorer.
We added years in life, but not life to those years.
We visited the moon, but we are not visiting the neighbor.
we are winning outside, but losing within.
We are trying to purify air, but our soul suffocates.
Income increased, but honesty decreased.
This is time of more tall people, but less towering characters.
Tons of profits, but less of relations.
Talks about world peace, but fights in home.
Time at hand, but fun already lost.
Lots of foods, but no taste.
More people earning, but divorces increased.
Houses decorated, but homes devastated.
Lots of showpieces in windows, but rooms empty.
There is technology today,
to make this letter reach to you.
And you still have freedom,
To take a serious look,
If you want to change something, change,
Or just forget it and hit delete.
     लेकिन पड़ोसी की साड़ी मेरे साड़ी से सफेद कैसे, या बगल वाले शुक्ला बाबू की हर साल बदलती कार के प्रति हमारी ईर्ष्या हमे कहॉ ले जायेगी हम खुद नही जानते, आज न्यायालय मे मे अरबों रूपये के घोटालेबाज आरोपी आर एस उर्फ राधेश्याम यादव दिखे, आगे पीछे वकील साहबान की फौज, वहीं दूसरी तरफ कल्पना मिश्रा लूट व हत्याकांड के आरोपी वारिस की गरीब मॉ, जो एक नकल के लिये भटक रही थी. आर एस हो चाहे राधे श्याम दोनो की लालच व भौतिक सुविधाओं की भूख ने आज उन्हे जीवन के इस मोड़ पर ला कर खड़ा कर दिया है जहॉ भीड़ मे रह कर भी वे तनहा हो कर रह गये है.
बीते छ: माह का अवलोकन करता हूँ कि वर्षारंभ मे हमने अपनी आवश्यकता न्यूनतम करने का संकल्प लिया था, भौतिकवादी सोच ये परे जा कर  अपने अंतर को देखने का प्रयास करने का संकल्प, प्रयास गतिशील है, टीवी, कम्प्यूटर, फिल्मो से दूर रहने का प्रयास, व्यक्तिगत उपयोग के अतिरिक्त वस्तुयें न खरीदने का प्रयास, पर्यावरण के लिये स्वयं के स्तर से प्लास्टिक रीफिल वाली कलमो के बजाय फॉउटनपेन से लिखने का प्रयास, पानी व्यर्थ व अधिक न उपयोग करने का प्रयास,  छोटे बड़े कम से कम 50 छोटे बड़े पौधे लगाने का प्रयास, कम बोलने का प्रयास  इन सबसे ऊपर पूरे वर्ष दवाओं से दूर रह स्वस्थ बने रहने का प्रयास.
          वर्ष पूर्वार्द्ध मे किये गये अपने प्रयासों मे सफल तो नही पर संतुष्ट हूँ, आशा है कि आने वाले उतरार्द्ध मे सफल भी हो जाऊगॉ. सोशल मीडिया पर बीतने वाले समय को थोड़ा कम करना है,साथ ही खेल व योग के साथ मानसिक स्थिरता के लिये प्राणायाम को अपने दैनिक जीवन मे समाहित करना है. व्यक्तिगत आवश्यकता को और कम करते हुये आध्यात्मिक चेतना की ओर बढ़ना है,
तभी संभवत: स्वयं से स्व की  भेंट हो सकेगी.
       ईश्वर साथ दें सक्षम बनायेे ,अपनो का साथ रहे, शुभकामनायें बनी रहे,
(बनारस, 30 जून 2017, शुक्रवार)
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गुरुवार, 29 जून 2017

खजुहट वाला कुत्ता : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 29 जून 2017, गुरूवार

खजुहट वाला कुत्ता : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 29 जून 2017, गुरूवार
       
           मेरे मोहल्ले मे एक कुत्ता है, खजुहट सा, कभी कभार रात बिरात मुझे आते जाते देख भौंकने लगता है, नजदीक पहुँचने पर दुम दबा के भाग लेता है, अकसर मै बुधवार को अपने पंडितजी के सलाह के अनुसार उसे रोटी भी फेंक देता हूँ, और वह ससुरा आ के दुम हिलाता हुआ खा भी लेता है .
कल बहुत देर तक सोचता रहा कि यह मेरे हाथ से रोटी खा के भी क्यों कभी कभीं भौंकने लगता है?
श्रीमती जी ने मेरे सोचों पर पूर्णविराम लगाते हुये समस्या का समाधान किया " अरे वह कुत्ता है, नही भौंकेगा तो लोगो को कैसे पता चलेगा कि वह कुत्ता है."
# मेरे इस पोस्ट को आप देश व राजनीति से जोड़ कर पढ़ने के लिये पूर्ण स्वतंत्र है, क्योंकि मै भी वही कह रहा हूँ जो आप समझ रहे हैं, कुत्ता साला कुत्ता ही है"#
(बनारस, 29 जून 2017, गुरूवार)
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सोमवार, 26 जून 2017

एक रफ़ काॅपी का होना : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 26 जून 2017, सोमवार

एक रफ़ काॅपी का होना : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 26 जून 2017, सोमवार

              आज गॉव गया था, महीनों से बंद घर की साफ सफाई कराते हुये छत पर कबाड़ वाले कमरे मे फेंकी मेरी ऱफ कापी मिल गई, शायद कक्षा दस की, उस पर कहीं करीने से, कहीं घसीट कर, लिखी गई टेढ़ी मेढ़ी सतरें, और बीच बीच मे बने फूल पत्ती, कुत्ता बिल्ली ,  रविवार को खेले जाने वाले क्रिकेट मैच की टीम संरचना से लेकर स्कोरबोर्ड तक ,और नामालूम कौन कौन सी डिजाईन स्कूली दिनों की याद दिला गये, जब हम कभी जानकर कभी अनजाने मे, कभी मन से कभी बेमन से रफ कापी का सहारा लेते थे, वह रफ कापी न महत्वपूर्ण न होते हुये भी सबसे महत्वपूर्ण होती थी जिनमे हम पढ़ाई के अलावा बहुत यारी हाचों का ब्यौरा दर्ज करते थे. आज दिन भर वही रफ कापी दिलो दिमाग पर छायी रही, आप सबने भी रफ कापी बनायी होगी. याद है अपनी ऱप कापी?
हर सब्जेक्ट की काॅपी अलग अलग बनती थी,
परंतु एक काॅपी ऐसी थी जो हर सब्जेक्ट को सम्भालती थी।
उसे हम रफ़ काॅपी कहते थे।
यूं तो रफ़ काॅपी  का मतलब खुरदुरा होता है।
परंतु वो रफ़ काॅपी हमारे लिए बहुत कोमल होती थी।

कोमल इस सन्दर्भ में कि उसके पहले पेज पर हमें कोई इंडेक्स नहीं बनाना होता था, न ही शपथ लेनी होती थी कि, इस काॅपी का एक भी पेज नहीं फाडे़ंगे या इसे साफ रखेंगे।
                उस काॅपी पर हमारे किसी न किसी पसंदीदा व्यक्तित्व का  ज्यादातर क्रिकेट प्लेयर, टेनिस की महिला खिलाड़ी या किसी फिल्मी हीरो हिरोईन का चित्र होता था।
उस काॅपी के पहले पन्ने पर सिर्फ हमारा नाम होता था और आखिरी पन्नों पर अजीब सी कला कृतियां, राजा मंत्री चोर सिपाही या फिर पर्ची वाले क्रिकेट का स्कोर कार्ड।
उस रफ़ काॅपी में बहुत सी यादें होती थी।
जैसे अनकहा प्रेम,
अनजाना सा गुस्सा,
कुछ उदासी,
कुछ दर्द,
कुछ टेढ़ी मेढ़ी, बनती बिगड़ती कवितायें,
कुछ बनते बिगड़ते रेखाचित्र
हमारी _रफ काॅपी_में ये सब कोड वर्ड में लिखा होता था
जिसे कोई आई एस आई
या
सी आई ए डिकोड नहीं कर सकती थी।
उस पर अंकित कुछ शब्द, कुछ नाम कुछ चीजें ऐसी थीं, जिन्हें मिटाया जाना हमारे लिए असंभव था।
हमारे बैग में कुछ हो या न हो वो रफ़ काॅपी जरूर होती थी। आप हमारे बैग से कुछ भी ले सकते थे पर वो रफ़ काॅपी नहीं।
          हर पेज पर हमने बहुत कुछ ऐसा लिखा होता था जिसे हम किसी को नहीं पढ़ा सकते थे।
             कभी कभी ये भी होता था कि उन पन्नों से हमने वो चीज फाड़ कर दांतों तले चबा कर थूक दिया था क्योंकि हमें वो चीज पसंद न आई होगी।
समय इतना बीत गया कि, अब काॅपी ही नहीं रखते हैं।
रफ़ काॅपी जीवन से बहुत दूर चली गई है,
हालांकि अब बैग भी नहीं रखते हैं कि रफ़ काॅपी रखी जाए।
              वो खुरदुरे पन्नों वाली रफ़ काॅपी अब मिलती ही नहीं।
हिसाब भी नहीं हुआ है बहुत दिनों से, न ही प्रेम का न ही गुस्से का, यादों की गुणा भाग का समय नहीं बचता।
अगर कभी वो रफ़ काॅपी  मिलेगी उसे लेकर बैठेंगे,
फिर से पुरानी चीजों को खगांलेगें,
हिसाब करेंगे और
आखिरी के पन्नों पर राजा, मंत्री, चोर, सिपाही खेलेंगे।
वो 'नटराज' की पेन्सिल, वो 'चेलपार्क' की स्याही, वो महंगा 'पायलेट' का पेन और जैल पेन की लिखाई।
वो सारी ड्राइंग, वो पहाड़, वो नदियां, वो झरने, वो फूल, लिखते लिखते ना जाने कब ख़त्म हुआ स्कूल।
अब तो बस साइन करने के लिए उठती है कलम, पर आज न जाने क्यों वो नोटबुक का वो आखिरी पन्ना याद आ गया जैसे उस काट - पीट में छिपा कोई राज ही टकरा गया।
        जीवन में शायद कहीं कुछ कम सा हो गया। पलके भीगी सी है, कुछ नम सा हो गया। आज फिर वक्त शायद कुछ थम सा गया।

क्या आपको याद है आपकी वो रफ़ काॅपी
(बनारस,26 जून 2017, सोमवार)
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रविवार, 25 जून 2017

श्री रामचरितमानस के गूढ़ तत्व : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 25 जून 2017, रविवार

रावण विद्वान था जबकि हनुमान जी, विद्यावान थे...
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विद्यावान गुनी अति चातुर ।
राम काज करिबे को आतुर ॥
  एक होता है विद्वान और एक विद्यावान । दोनों में आपस में बहुत अन्तर है । इसे हम ऐसे समझ सकते हैं, रावण विद्वान है और हनुमान जी विद्यावान हैं ।
  रावण के दस सिर हैं । चार वेद और छः शास्त्र दोनों मिलाकर दस हैं । इन्हीं को दस सिर कहा गया है । जिसके सिर में ये दसों भरे हों , वही दस शीश हैं । रावण वास्तव में विद्वान है । लेकिन विडम्बना क्या है ? सीता जी का हरण करके ले आया । कई बार विद्वान लोग अपनी विद्वता के कारण दूसरों को शान्ति से नहीं रहने देते । उनका अभिमान दूसरों की सीता रुपी शान्ति का हरण कर लेता है और हनुमान जी उन्हीं खोई हुई सीता रुपी शान्ति को वापिस भगवान से मिला देते हैं । यही विद्वान और विद्यावान में अन्तर है ।

  हनुमान जी गये, रावण को समझाने । यही विद्वान और विद्यावान का मिलन है । हनुमान जी ने कहा --
विनती करउँ जोरि कर रावन ।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन ॥
  हनुमान जी ने हाथ जोड़कर कहा कि मैं विनती करता हूँ , तो क्या हनुमान जी में बल नहीं है ? नहीं, ऐसी बात नहीं है । विनती दोनों करते हैं, जो भय से भरा हो या भाव से भरा हो । रावण ने कहा कि तुम क्या, यहाँ देखो कितने लोग हाथ जोड़कर मेरे सामने खड़े हैं ।
कर जोरे सुर दिसिप विनीता ।
भृकुटी विलोकत सकल सभीता ॥
            रावण के दरबार में देवता और दिग्पाल भय से हाथ जोड़े खड़े हैं और भृकुटी की ओर देख रहे हैं । परन्तु हनुमान जी भय से हाथ जोड़कर नहीं खड़े हैं । रावण ने कहा भी --
कीधौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही ।
देखउँ अति असंक सठ तोही ॥
  रावण ने कहा - "तुमने मेरे बारे में सुना नहीं है ? तू बहुत निडर दिखता है !" हनुमान जी बोले - "क्या यह जरुरी है कि तुम्हारे सामने जो आये, वह डरता हुआ आये ?" रावण बोला - "देख लो, यहाँ जितने देवता और अन्य खड़े हैं , वे सब डरकर ही खड़े हैं ।"
  हनुमान जी बोले - "उनके डर का कारण है, वे तुम्हारी भृकुटी की ओर देख रहे हैं ।"
भृकुटी विलोकत सकल सभीता ।
  परन्तु मैं भगवान राम की भृकुटी की ओर देखता हूँ । उनकी भृकुटी कैसी है ? बोले --
भृकुटी विलास सृष्टि लय होई ।
सपनेहु संकट परै कि सोई ॥
  जिनकी भृकुटी टेढ़ी हो जाये तो प्रलय हो जाए और उनकी ओर देखने वाले पर स्वप्न में भी संकट नहीं आए । मैं उन श्रीराम जी की भृकुटी की ओर देखता हूँ ।
  रावण बोला - "यह विचित्र बात है । जब राम जी की भृकुटी की ओर देखते हो तो हाथ हमारे आगे क्यों जोड़ रहे हो ?
विनती करउँ जोरि कर रावन ।
हनुमान जी बोले - "यह तुम्हारा भ्रम है । हाथ तो मैं उन्हीं को जोड़ रहा हूँ ।" रावण बोला - "वह यहाँ कहाँ हैं ?" हनुमान जी ने कहा कि "यही समझाने आया हूँ । मेरे प्रभु राम जी ने कहा था --
सो अनन्य जाकें असि ,
     मति न टरइ हनुमन्त ।
    मैं सेवक सचराचर ,
   रुप स्वामी भगवन्त ॥
  भगवान ने कहा है कि सबमें मुझको देखना । इसीलिए मैं तुम्हें नहीं, तुझमें भी भगवान को ही देख रहा हूँ ।" इसलिए हनुमान जी कहते हैं --
खायउँ फल प्रभु लागी भूखा ।
और सबके देह परम प्रिय स्वामी ॥
  हनुमान जी रावण को प्रभु और स्वामी कहते हैं और रावण --
मृत्यु निकट आई खल तोही ।
   लागेसि अधम सिखावन मोही ॥
  रावण खल और अधम कहकर हनुमान जी को सम्बोधित करता है ।
     यही विद्यावान का लक्षण है कि अपने को गाली देने वाले में भी जिसे भगवान दिखाई दे, वही विद्यावान है ।
विद्यावान का लक्षण है .
विद्या ददाति विनयं ।
  विनयाति याति पात्रताम् ॥
  पढ़ लिखकर जो विनम्र हो जाये, वह विद्यावान और जो पढ़ लिखकर अकड़ जाये, वह विद्वान ।
तुलसी दास जी कहते हैं --
बरसहिं जलद भूमि नियराये ।
जथा नवहिं वुध विद्या पाये ॥
  जैसे बादल जल से भरने पर नीचे आ जाते हैं, वैसे विचारवान व्यक्ति विद्या पाकर विनम्र हो जाते हैं । इसी प्रकार हनुमान जी हैं  विनम्र और रावण है विद्वान ।
     यहाँ प्रश्न उठता है कि विद्वान कौन है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि जिसकी दिमागी क्षमता तो बढ़ गयी, परन्तु दिल खराब हो, हृदय में अभिमान हो, वही विद्वान है .
      अब प्रश्न है कि विद्यावान कौन है ? उत्तर में कहा गया है कि जिसके हृदय में भगवान हो और जो दूसरों के हृदय में भी भगवान को बिठाने की बात करे, वही विद्यावान है ।
  हनुमान जी ने कहा - "रावण ! और तो ठीक है, पर तुम्हारा दिल ठीक नहीं है । कैसे ठीक होगा ? कहा कि
राम चरन पंकज उर धरहू ।
लंका अचल राज तुम करहू ॥
  अपने हृदय में राम जी को बिठा लो और फिर मजे से लंका में राज करो । यहाँ हनुमान जी रावण के हृदय में भगवान को बिठाने की बात करते हैं, इसलिए वे विद्यावान हैं ।
सीख : विद्वान ही नहीं बल्कि "विद्यावान" बनने का प्रयत्न करें
(बनारस,25जून2017, रविवार)
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#विद्वान और विद्यावान मे अंतर