मेरे शहर में नवतपा........
-डॉ०व्योमेश चित्रवंश, एडवोकेट
मेरा शहर इस समय गरमी के नवतपा के ताप से लरज रहा है। सूरज से बरसते अंगारे और धरती से निकलती तपिश के साथ पारे ने ऊपर और ऊपर चढ़ने की होड़ लगा रखी है वहीं न बर्दास्त होने वाली ऊमस गरमी से बचने की ठांव खोज रही है। कितना अजीब है नदियों के नाम पर बसा गंगा के खूबसूरत घाटों वाला यह शहर आज खुद में हैरान व परेशान है। परेशान भी क्यों न हो? शहर को नाम देने वाली नदियाँ या तो विलुप्त हो चुकी या विलुप्त होने के कगार पर है और गंगा के घाट? आह! जब कल गंगा ही नहीं रहेगी तो ये घाट क्या करेगें? मुझे याद नहीं कहाँ लेकिन कहीं सुना था कि एक बार माँ पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा था कि बनारस की उम्र क्या और कितनी होगी तो अवधूत भगवान शंकर ने कहा था कि "यह आदि काल से भी पहले अनादि काल से बसी है यानि मानव सभ्यता के आदिम इतिहास काशी से जुड़ते है और जब तक सुरसर गामिनी भगीरथ नन्दिनी गंगा बनारस के घाट पर रहेगी तब तक काशी अक्षुण्ण रहेगी।" तो क्या गंगा के घाटों को छोड़ने के साथ ही मेरा शहर ? और कहीं अन्दर तक मन को हिला देती है यह भयानक कल्पना। याद आता है, चना चबेना गंगा जल ज्यों पुरवै करतार, काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दरबार। अब तो न गंगा में गंगा जल रह गया, न ही सबके लिये मुअस्सर 'विश्वनाथ दरबार'। अब तो दोनों ही सरकारी निगहबानी में दिल्ली और लखनऊ के इशारों पर मिलते हैं। माँ गंगा और भगवान विश्वनाथ के सरकारीकरण से अपने शहर की स्थिति उतनी नहीं खराब हुई जितनी हम बनारसियों के नव भौतिकवादी सोच और 'तोर से बढ़कर मोर' वाली अपसंस्कृति ने अपने शहर का नुकसान किया। शहर बढ़ता गया और हमारी सोच का दायरा सिकुड़ता गया। कभी लंगड़े आम व बरगद और वरूण के पेड़ों और लकड़ी के खिलौने के लिए मशहूर बनारस में पेड़ों की छाँव अब गिने चुने उदाहरण बनकर रह गयी। मेरे घर की नींव पड़ोस के घर से नीची न रहे क्योंकि ऊँचे नाक का सवाल है। इस 'नाक' के सवाल ने बरसाती पानी के रास्तों को सीवर जाम, नाली जाम के भुलभुलैया में उलझा दिया तो पड़ोसी के दो हाथ के बदले हमारी चार हाथ ऊँची सड़क की जमीन की सोच ने इस शहर को एक नई समस्या अतिक्रमण के नाम से दी। नदी तालाब पोखरों का तो पता ही नहीं, कुयें क्या हम इन आलीशान मकानों के बेसमेन्ट में मोमबत्ती जलाकर ढूढ़ेगें? ऊपर से तुर्रा यह कि तालाब, पौखरों, नदियों के सेहत का ख्याल रखने वाला वाराणसी विकास (उचित लगे तो विनाश भी पढ़ सकते है) प्राधिकरण खुद ही मानसिक रूप से बीमार होने की दशा में है। कितने तालाब, पोखरे पाट डाले गये यह कार्य उसके लिए "आरुषि हत्या काण्ड की तरह किसी मर्डर मिस्ट्री, फाइनल रिपोर्ट, क्लोजर रिपोर्ट, रिइनवेस्टिगेशन से कम नहीं है और तो और दो तीन को तो वी०डी०ए० ने खुद ही पाट कर अपने फ्लैट खड़े कर दिये। शहर के जमींन मकान और योजनाओं का लेखा-जोखा रखने वाले तहसील, नगर निगम और वी०डी०ए० के पास अपना कोई प्रामाणिक आधार ही नहीं है जिस पर वे अतिक्रमणकारियों के खिलाफ ताल ठोंक सके। कम से कम वरूणा नदी और पोखरों के बारे में तो मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही सिद्ध करता है।
हमारे सासंद मोदी जी ने प्रधानमंत्री के रूप मे इस शहर के विकास के लिये धन का पिटारा खोल दिया तो बनारस के भूगोल इतिहास और संस्कृति से पूरी तरह अनजान हुक्मरानों ने जिन विकास योजनाओं को बनारस की धरती पर उतारा वह यहां के परिस्थितियों के बिलकुल प्रतिकूल थी। सड़कें चौड़ी होने के बावजूद सहज सरल व अतिक्रमणमुक्त नही हो सकी। यातायात प्रबंधन बेहतर करने के प्रयोग ने बनारस को क्योटो सिटी जैसे बनाने के बजाय टोटो सिटी बना दिया। गोदौलिया चौक मैदागिन गोलघर से ले कर पूरा पक्का महाल जो इस शहर की पहचान पान, ठीहा, अड़भंगीपन, बनारसियत, मंदिर ,नेमी, नाश्ता और व्यापार के लिये ही जाना जाता था वहां अब केवल भीड़ का रेला दिखता है। हर साल पौधारोपड़ कर शहर को हराभरा बनाने के बड़े बड़े दावे तो किये गये पर सच यह है कि आज शहर मे पेड़ों की छांव कहां मिल सकती है इस पर भी काफी मगजमारी करनी पड़ेगी। हम पिछले दो वर्षों से शहर को नाम देने वाली वरूणा नदी के किनारे घने जंगल के अस्तित्व में रहे वरूण वृक्ष की तलाश कर रहे हैं। बहुत सारे पुराण कथाओं मे वरूणा का नामकरण इन्ही वरूण वृक्ष के कारण बताया गया है पर हमारी तलाश अभी मुकम्मल नही हुई है। कल सोशल मीडिया पर इसी चर्चा मे एक आयुर्वेद के ज्ञाता हमं वरूण वृक्ष के लाभ और सेहत के लिये उसके उपयोग के बारे मे बताने लगे पर सेहत मे वरूण के लाभ की चर्चा तो तब होगी जब वरूण मिल पायेगा। कुल मिला जुला कर बनारस का आम शहरी धीरे धीरे निराश हो रहा है। यहां की बनारसियत, अक्खड़मिजाजी, मस्तमौलापन, मिजाज अब कम हो रहा है जो बनारस की पहचान रही है। शहर खुद को कहीं न कहीं अंदर से नासाज़ महसूस कर रहा है लब्बोलुआब यह है कि शहर की सेहत ठीक नहीं है।
इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक अगर कहीं मानसून आ गया तो आम शहरी की चिन्ता यही है कि गर्मी की तपिश तो कम हो जायेगी लेकिन जलनिकासी के व्यवस्था बिना नाले बने सड़कों से घर कैसे पहुँचेगें? इसी से तो बरसात चाहते हुए मन में एक दबी सी चाहत है कि दो चार दिन और मानसून टल जाये तो शायद...।
अपनी ही नही सारे शहर की बात कहें तो एक शेर याद आता है-
सीने में जलन, आँखों में तूफान सा क्यूँ है।
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है।
(लेखक विधि व्यवसायी एवं हमारी वरूणा अभियान के संयोजक है)
काशी, 30मई2025, शुक्रवार
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