गुरुवार, 7 नवंबर 2024

नाटी इमली का भरतमिलाप / व्योमवार्ता

नाटी इमली का भरतमिलाप

सन 1868 अक्टूबर का महीना।बाढ़ व वर्षा के पानी से 
वरूणा नदी अभी भी पूरे उफान पर है। इसी के किनारे काशी की संस्कृतिप्रेमी जनता रामलीला देखने भारी संख्या में उपस्थित है। आज की लीला में सीता हरण के पश्चात उनकी खोज में हनुमान को समुद्र लंघन कर लंका जाना है और सीता के बारे में पता करना है। हनुमान को जामवन्त आदि के साथ श्री राम विदा कर रहे हैं। सम्पूर्ण लीला प्रेमी लीला के संवाद और भाव में डूब रहे है तभी एक ओर कोलाहाल होता है पता चला कि अंग्रेज पादरी फादर मैककर्सन, अंग्रेज कलेक्टर व अन्य अधिकारियों के साथ वहां आ पहुँचे हैं। संवाद अदायगी बन्द हो जाती है। उपस्थित लीला प्रेमियों में एक भय मिश्रित कानाफूसी प्रारम्भ हो जाती है। तभी फादर मैकफर्सन आज की लीला के बारे में जानकारी लेते हैं और व्यंग पूर्वक भारतीय संस्कृति पर कटाक्ष करते है "रामायन का हनुमान तो पूरा "सी" लांघ गया था तुम्हारा हनुमान क्या वरूणा लांघेगा? इसी झोंक में मदिरा के नशे में चूर अंग्रेज कलेक्टर धमकी भरा आदेश देता है कि "अगर तुम्हारा हनुमान यह छोटी सी नदी नहीं क्रास करेगा तो कल से रामलीला ढकोसला बन्द।"
       फिर क्या था पादरी और कलेक्टर व्यंग और धमकी भरे लहजे से हनुमान बने पात्र का खून खौल उठा। परतन्त्रता की बेबसी और हनुमान की गरिमा के आवेश से उसका चेहरा लाल हो उठा। उन्होंने भगवान का ध्यान किया और कुछ करने को ठानते हुये लीला के रामचन्द्र जी से वरूणा पार करने की अनुमति माँगी। "एवमस्तु" सुनते ही हनुमान के स्वरूप ने "बोलों राजा रामचन्द्र की जै" का विकट हुंकार किया और एक ही छलांग में  वरूणा पार कर गये। पलक झपकते ही यह घटना घट गयी। उपस्थित भीड़ ठगी सी रह गयी। एक क्षण बाद उसको काल का बोध हुआ तो सभी लोग "पवनपुत्र महावीर जी की जय, राजा रामचन्द्र की जै" का उद्घोष करते हुये वरूणा के उस पार दौड़ पड़े जहाँ वीर हनुमान वरूणा लांघने के बाद गिरे थे और वही आराम कर रहे थे। उनको भक्त लोग वहाँ से उठाकर ले आये। बताते है कि हनुमान स्वरूप बने टेकराम जी नाटी इमली के भरत मिलाप लीला तक जीवित रहे। भरत मिलाप में उन्हें अपने ईष्टदेव श्री राम जी की झांकी में देवत्व के दर्शन हुये और वे स्वर्गवासी हो प्रभु चरणों में समर्पित हो गये। इस घटना के बाद अंग्रेज सरकार ने रामलीला को सरकारी मान्यता प्रदान करते हुये सरकारी साधन सहित विशेष व्यवस्था की। जिस मुकुट को पहने टेकराम जी ने नदी पार किया था वह आज सुरक्षित रखा हुआ है जिसकी पूजा होती है। यह मुकुट हमारे आस्था और विश्वास के साथ-साथ हमारे पुरुषों के पौरूष और निष्ठा का प्रतीक है।
यह घटना नाटी इमली के भरत मिलाप के महत्व को स्थापित करती है। नाटी इमली का भरत मिलाप विजयादशमी के दूसरे दिन एकादशी को होता है जो वाराणसी का सबसे मेला है। नाटी इमली की इस रामलीला की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पूरी लीला में संवाद नहीं होता केवल झांकिया होती है। साथ ही साथ यह लीला " विश्व के सबसे छोटी झांकी का सबसे बड़ा मेला" है जिसमें राम-भरत का संवादहीन भावपूर्ण मिलन एक मिनट से भी कम कुछ सेकेन्ड का होता है और लीला देखने वालों की भीड़ पाँच लाख से अधिक की होती है।
नाटी इमली के भरत मिलाप की शुरूआत "मेघा भगत" ने किया था। अब तक प्राप्त जानकारियों से मेघा भगत को ही काशी में रामलीला का "आदि प्रवर्तक" माना जाता है हालांकि बहुत से लोग गोस्वामी तुलसीदास को वाराणसी में रामलीला के प्रवर्तक रूप में मानते है पर यह सर्वमान्य है कि चित्रकूट की राम लीला मेघा भगत ने प्रारम्भ किया। मेघा भगत का वास्तविक नाम नारायण दास था। वे गोस्वामी तुलसीदास के अनन्य भक्त व सेवक थे। जब संवत 1680 में गोस्वामी तुलसीदास ने अपने महा प्रयाण की भविष्यवाणी करते हुये श्रावण शुक्ल पक्ष की तृतीया की तिथि बताया तो मेघा भगत व्याकुल हो उठे और गोस्वामी जी की मृत्यु पूर्व ही आत्महत्या को प्रस्तुत हो गये। गोस्वामी तुलसीदास ने इन्हें बहुत समझाते हुये हनुमान जी की शरण में समर्पित होने का आदेश दिया और नियत तिथि पर गोलोकवासी हो गये। गोस्वामी जी के मृत्योपरान्त उनके आदेशानुसार हनुमान के शरण में जाने के बावजूद भगत जी का व्याकुलता कम नहीं हुई और उन्होंने अन्नजल त्याग दिया। एक रात्रि भगत जी को महाबीर हनुमान जी ने अयोध्या जाने का आदेश दिया और भगत जी रात्रि में ही वर्षा ऋतु का व दुर्गम मार्ग का परवाह न करते हुये अयोध्या चल दिये। अयोध्या में उन्होंने सरयू स्नान कर वहीं पर ध्यान लगाया ही था कि दो सुन्दर बालक खेलते हुये वहाँ आये और अपना धनुष बाण मेघा भगत के पास यह कहते हुये रख गये कि "बाबा हमारा धनुष बाण रखो हम आकर ले लेगें।" सबेरा बीता, दोपहर और संध्या के पश्चात रात हो गयी । भगत इन्तजार करते रहे पर वे दोनों बालक नहीं आये। रास्ते के थकान और दिन भर के बैठे भगत को हल्की सी झपकी आयी और झपकी में ही उन्हें यह सुनाई पड़ा कि " कलियुग में प्रत्यक्ष दर्शन दुर्लभ है, तुम काशी जाकर लीला का आयोजन करो। वही भरत मिलाप में तुम्हें दर्शन मिलेगा।" अपने इष्टदेव के इस परोक्ष आदेश पर मेघा भगत तुरन्त काशी लौट पड़े और वही दोनों धनुष-बाण "निधि" के रूप में रखकर चित्रकूट की रामलीला का आयोजन किया जिसका भरत मिलाप लीला नाटी इमली पर होता है। मेघा भगत रामलीला प्रारम्भ करवाने के बाद भरत मिलाप तक जीवित रहे और भरत मिलाप में राम भरत मिलन के स्वरूप में प्रभु दर्शन पाकर स्वर्गवासी हुये।
वाराणसी में मेघा भगत द्वारा प्रवर्तित इस रामलीला का बहुत महत्व है। पहले रामनगर के बाद गंगा इस पार की काशी में सबसे अधिक भीड़ इसी लीला में होती थी परन्तु अब औपनिवेशिक सभ्यता और पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से वह भीड़ केवल नेमियों की रह गयी है। इसके बावजूद भरत मिलाप में आज भी विशाल भीड देखकर लीला के महत्व का अन्दाज लगाया जा सकता है। चित्रकूट की इस रामलीला में भरत मिलाप के अतिरिक्त दो और लीलाएं "शबरी मंगल" और गिरि सुमेर की झांकी" तथा विजया दशमी बहुत ही प्रसिद्ध हैं। इनमें से शबरी मंगल और गिरिसुमेर की झांकी पिशाचमोचन पोखरे के पास रमाकान्त नगर कालोनी के बगल में होती है और विजया दशमी चौकाघाट वरूणा नदी के किनारे होती है। पूर्व में विजया दशमी के दिन रावण वध के पश्चात भगवान राम का विमान काशी के प्रतिष्ठित रईस अपने पारम्परिक वेशभूषा में उठाते थे। गुजराती, मारवाडी और राजस्थानी रईसों द्वारा अपने-अपने देशज वस्त्रों में भगवान का विमान और उसके पीछे दर्शकों की अनगिनत भीड़ पूरे लीला को एक अलग ही छवि प्रदान करते थे। भाव विभोर दर्शकों द्वारा "बोलो राजारामचन्द्र जी की जय" का हुंकार काशी वासियों के उत्सव प्रेम का प्रतीक था। पर अब वह बात नहीं रह गयी है।
भरत मिलाप की लीला में परम्परागत रूप से आज भी काशी के यादव बन्धु अपनी विशेष वेशभूषा धोती, गंजी, साफा और बनारसी गावटी के गमछे में राम भरत मिलन के पश्चात चारों भाईयों का विमान कन्धे पर उठाते हैं। सर्वत्र फैले विशाल दर्शकों की भीड़ में जब विमान लहराते हुये, चलता है तो यह आभास होता है कि विमान स्वयं भीड़ के ऊपर से चला आ रहा है। काशी नरेश स्वयं शिव के प्रतिनिधि के रूप में भरत मिलाप के प्रत्यक्षदर्शी बनते हैं और शिव की पुरातन नगरी में विष्णु के अवतार राम का लीला रूपी अयोध्या में वापसी पर स्वागत करते हैं। इस मिलन और विमान यात्रा में "हर-हर महादेव" और राजा रामचन्द्र की जय' का समान हुंकार काशी वासियों के धार्मिक सहिस्णुता को प्रदर्शित करता है। पूर्व में स्वर्गीय महाराजा डाक्टर विभूति नारायण सिंह हमेशा भरत मिलाप पर उपस्थित रहते थे। अब वर्तमान काशी नरेश महाराजा अनन्त नारायण सिंह ने उस परम्परा को बनाये रखे काशी वासियों के प्रति अपने प्रेम का परिचय दिया है।
अब न तुलसीदास है न मेघा भगत न ही टेकारामा बस उनकी यश कीर्तियां है, जो काशी वासियों के राम लीला प्रेम में दिखती हैं। आवश्यकता है भरत मिलाप को पर्यटक यात्रा में स्थान दिलाने की और आर्थिक सहयोग की जिससे काशी वासियों में अपनी परम्परा कायम रहे।

(यह  लेख थर्टीडेज मासिक पत्रिका के प्रवेशांक अक्टूबर 2008मे प्रकाशित हो चुका है।)

बनारस मे पियरिया पोखरी वाली पीताम्बरा काली माँ /व्योमवार्ता

चौकाघाट आयरन ब्रिज से संस्कृत विश्वविद्यालय और तेलियाबाग की तरफ से जाने वाली सड़क के दायी पटरी पर एक छोटा सा मुहल्ला है पियरिया पोखरी। कभी यहाँ पियरिया की पोखरी हुआ करती थी, पर अब कंक्रीटों के जंगल में वह कहीं गुम हो गयी है। वहाँ दिखती है, टेढ़ी-मेढ़ी गलियाँ और ढ़ेर सारे लोग। इन्हीं गलियों की भूल-भूलैया में एक छोटे से मकान में छोटा सा मंदिर है, पीताम्बरा व खप्पर वाली काली माँ का मंदिर। इस छोटे से मंदिर में श्रद्धालुओं की बड़ी भीड़ है। मंदिर के कमरे में बैठने की क्या खड़े होने की भी जगह नहीं बची है। मंदिर के पुजारी बाबा के पुत्र रामजी भाई साथ में लगा हुआ, अपने घर का ड्राइंग रूप खोलकर श्रद्धालुओं को वहाँ बैठने के लिए कहते हैं। पर पाँच मिनट के अन्दर स्थिति पूर्ववत। भीड़ बिल्कुल अनुशासित, किसी को कोई जल्दी नहीं, हर कोई अपने पास खड़े व्यक्ति से दर्शन करने का अनुरोध करते हुए, माँ के दरबार में रखे रजिस्टर में अर्जी लिखने के लिए कहते हैं।
यह छोटा सा मंदिर सिद्धपीठ है। माँ बंगलामुखी पीताम्बरा का यहाँ आशुतोष भगवान चन्द्रमौलिश्वर महादेव शंकर एवं खप्पर वाली काली माँ विराजमान है। इस मंदिर का इतिहास भी इतना ही विचित्र और जीवन्त है। बताते हैं मन्दिर के अधिष्ठाता श्री पीताम्बरा बाबा। वे बताते हैं कि 40-45 वर्ष पूर्व जब मैं क्वींस कालेज में कक्षा 6 में पढ़ता था, तो प्रायः मुझे अकेले होने पर खप्पर वाली काली माँ नजर आती थीं। लाल- लाल आँखों वाली, हाथ में कटार लिए और गले में नरमुण्डों की माला डाले। ऐसा आभास होता था कि माँ मुझसे कुछ कहना चाहती है परन्तु मैं बालपन के कारण काफी भयभीत हो जाता था और यह आभास होते ही भागने का प्रयास करता था। जब यह प्रवृत्ति बढ़ने लगी तो मैं यह प्रयास करने लगा कि मैं अकेले न रहूँ। उसी समय एक बार अपनी बहन को विदाई कराके जंघई रेलवे स्टेशन से आ रहा था कि एकाएक तबियत बहुत खराब हो गई। डाक्टरों को दिखाया पर कोई लाभ नहीं मिला। स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई कि कई बार लोगों ने मृत जानकर जमीन पर उतार दिया। उसी रुग्णावस्था में मुझे सम्भवतः हनुमान और माँ काली के दर्शनों का अनुमान हुआ। माँ काली का स्वरूप तो वही था जिससे मैं बार-बार भयभीत हो जाता था परन्तु माँ के चेहरे पर मेरे लिए दया थी, करुणा थी और ममत्व था, जैसे कह रही हो, 'अरे पगले ! तू मुझसे भयभीत हो भाग रहा है। आपनी माँ से! बता आखिर, माँ को छोड़कर कहाँ जायेगा ?
माँ काली का आदेश होने के पश्चात् बाबा पंचगंगा घाट पर शिव स्तुति करने लगे। साथ-साथ श्मशान काली माँ, तारा माँ, मशान बाबा की धूनी जमाई। तुलसी घाट पर बैठ माँ की समस्त क्रियाओं से पूजन किया। इस कठोर साधना के वर्षों के परिणाम स्वरूप वहीं माँ के भक्त बालक का प्रति अभ्युदय पीताम्बरा बाबा के रूप में हुआ। पियरिया पोखरी स्थित घर पर शिवजी के अखण्ड जप सोमवार व्रत और माँ काली के असीम कृपा से घर का पूरा स्थान ही खप्पर वाली सिद्धपीठ के रूप में प्रतिष्ठापित हो गया। फिर तो माँ के भक्ति में यह लगन लगी कि सोते जागते दिन रात नींद में भी केवल शिव और काली का जाप। ऐसे में पत्नी बीमारी से अस्पताल में जीवन के लिए संघर्षरत थी और बाबा नाम जप रहें थे। उसी अवस्था में बाबा को आभास हुआ कि माँ ने आदेश दिया कि मैं तुम्हारी प्रतीक्षा कर रही हूँ। आओ मुझे ले चलो। आप उसी अवस्था में चाँदपुर चल पड़े। वहाँ पहुँचे तो देखा कि माँ काली का एक भव्य प्रतिमा और प्रतिमाओं से भिन्न बिल्कुल वैसे ही जैसे दर्शनों में आभास होता था। ममत्व एवं करुणा से भरी हुई रौद्र रूप से भिन्न माँ की प्रतिमा जैसे कह रही हो, तुम आ गये, चलो मैं तुम्हारी ही बाट जोह रही हूँ। परन्तु मूर्तिकार ने उस प्रतिमा को देने से मना कर दिया। बिलकुल भी टस से मस होने को तैयार नहीं। सीधे कह दिया कि 'आप कोई अन्य मूर्ति ले लें, यह बिल्कुल नहीं दूंगा।'
बाबा ने माँ से गुहार लगाई 'हे माँ जब तुझे नहीं चलना था तो मुझे बुलाया क्यूँ ?' अंततः माँ ने अपने पुत्र की गुहार सुनी और शाम के समय मूर्तिकार माँ की वहीं मूर्ति देने को तैयार हो गया। आखिर 6 बजे बाबा जी माँ काली की अपनी वांछित मूर्ति लेकर घर पहुँचे तो घर वाले खुशी एवं आश्चर्य में पड़ गये कि माँ को कहाँ विराजमान किया जाये? माँ की प्रतिमा आने के साथ अस्पताल से खबर आई कि पत्नी की हालत खतरे से बाहर है। अंततः माँ की प्रतिमा पूजास्थल पर लगाई गयी तब से लेकर आज तक माँ की पूजा अनवरत जारी है। वर्तमान समय में खप्पर वाली काली माँ का मंदिर सिद्धपीठ बन चुका है जहाँ केवल हिन्दू जन ही नहीं वरन सभी धर्मों के लोग आकर माँ का आशीर्वाद प्राप्त कर रहे हैं। यहाँ आ रहे भक्तों को माँ के दर्शनों का तुरन्त लाभ मिलता है। वर्तमान मंदिर में चन्द्रमौलिश्वर भगवान शंकर की पारद लिंग, पीताम्बरा माँ की प्रतिमा काली माँ के साथ भव्य रूप से प्रतिष्ठापित है। मान्यता है कि 21 रविवार को माँ का दर्शन करने से हर मनोकामना पूर्ण होती है।
( पीतांबरा माँ काली पर यह लेख मासिक पत्रिका थर्टी डेज के प्रवेशांक अक्टूबर 2008 में पूर्व मे प्रकाशित हो चुका है)