यादें यू पी कालेज की........(१)
उदय प्रताप कालेज यानि छत्रिया कालेज।,यही धाऱणा थी यूपी कालेज के प्रति हमारे अध्ययन से पूर्व हमारे जानने पहचानने और गॉव वालों के मन मे कि वहॉ केवल छत्रिय लोग ही पढ़ते है। वहॉ के अध्यापक दबंग होते है जो रिवाल्वर पिस्टल खोंस के चलते है, और छात्रों को दौड़ा दौड़ा कर मारते है। बाकी जातियों के बच्चों को फेल कर देते हैं। नकल करने पर रेस्टिकेट कर देते हैं। वगैरह वगैरह।
वर्ष 1986 मे जब हमने अपने गॉव के कालेज से इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण कर लिया तो उच्च शिक्षा के लिये बनारस में कहॉ प्रवेश ले यह विकट समस्या थी। उस समय काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे अराजकता चरम पर थी। शैक्षणिक सत्र दो वर्ष बिलंब से चल रहे थे। काशी विद्यापीठ मे पढ़ाई के अतिरिक्त सब कुछ होता था। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के संबंध मे न तो कोई जानकारी थी, न ही वहॉ पढ़ने की ईच्छा, क्योंकि संस्कृत विषय मे हम पैदल क्या घसीटामार भी नही थे। तब ले दे के बचा उदय प्रताप कालेज और हरिश्चंद्र कालेज। इन दोनो कालेजो के विषय मे मेरे परिवार सहित गॉव के लोग भी तब बिलकुल अंजान थे क्योंकि मेरे परिवार के सभी लोगों ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से अध्ययन प्राप्त किया था और गांव के लोगों ने काशी विद्यापीठ से। मेरे इण्टर के सहपाठी मित्र संतोष कुमार सिंह (एसोसियेट प्रोफेसर, विधि, टीडी कालेज जौनपुर) ने सुझाया कि यूपी कालेज मे एडमिशन लेते है। दूसरे दिन हम दोनों जन यूपी कालेज आये और संभवत: चालीस रूपये का फार्म खरीद कर भर दिया गया। वह हम दोनो के लिये यूपी कालेज मे पैर रखने का पहला दिन था। फार्म भरने के पश्चात हम लोग विद्यालय परिसर देखने को निकले ।डिग्री कालेज से न्यू हास्टल होते हुये एनसीसी ,पुरानी लाईब्रेरी होते हुये कोआपरेटिव से घूमते हुये जिम और नंबर लिखे हुये हास्टलों को देखते हुये राजर्षि शिशु विहार रानी मुरार से आगे बढ़ते हुये इण्टर कालेज के लाल बिल्डिंग तक। बाप रे , कितना बड़ा कालेज ? हम लोग इण्टर कालेज के सामने पहुंचे ही थे कि पीछे से एक गरजती हुई आवाज आई ," रूको, कहॉ जा रहे हो? किस सेक्शन में हो? ड्रेस क्यों नही पहने हो?" हमने पीछे घूम कर देखा तो प्रभावशाली व विशाल व्यक्तित्व के सज्जन बड़ी बड़ी डरावनी मूंछे और बड़ी बड़ी ऑखों से सवाल करते हमे घूर रहे थे।
" जी हम लोग एडमिशन के लिये फार्म लेने आये थे।" हमारी व संतोष दोनों की हवा खिसक चुकी थी। छत्रिया कालेज के बारे मे सुने गये सारे किस्से कहानी हम लोगों को याद आने लगे थे।
"फार्म? किस चीज का फार्म?" उसी तल्ख असरदार आवाज मे अगला सवाल।
"जी, वह बी ए मे एडमिशन के लिये।" संतोष मिनमिनाये।
"तो यहॉ क्या कर रहे हो? डिग्री कालेज जाओ।"
"जी वह देख रहे......." संतोष वाक्य पूरा करें कि हमने मौके को संभाला " जी सर वह रास्ता भूल गये थे।"
"अच्छा,अच्छा, पहली बार आये हो। बेटा इधर से सीधे जा कर मेन गेट से बॉये घूम जाना तो डिग्री कालेज पहुंच जाओगे। यह इण्टर कालेज है। अब चले जाओगे न?" आवाज मे असर वही पर अब लहजा समझाने वाला हो गया था।
"जी सर।" हमने तत्काल उस लंबे चौड़े रोबीले काया का चरण छुआ। देखा देखी संतोष ने भी।
" खूब खुश रहो, मेहनत से पढ़ो। कोई समस्या हो तो आ जाना, उस कोने वाले कमरे मे बैठता हूँ मै।"
अब लहजा समझाने से बढ़ कर प्यार दुलार वाला हो गया था। बेहद अपनो जैसा, पर आवाज मे वही असर।
"जी", कह कर हम लोग वहॉ से जल्दी से निकल पड़े , जान बची तो लाखों पाये। लगभग भागने के अंदाज मे चलते हुये हम लोग मेन गेट से बाहर आ कर भरपूर सांस लिये होगें। संतोष ने तत्कालिक एलान कर दिया कि भाई मै तो यहॉ नही पढ़ूगॉ, अंदर से मै भी हिला हुआ था। संतोष तो फिर भी क्षत्रिय हैं, मेरा क्या होगा, मै भी ये सोच के परेशान था। ठीक है भाई , चलो हरिश्चंद का भी फार्म भर देते है। वहॉ से हम लोग निकल कर भोजूबीर केशरी मंदिर के पीछे अपने नाना के मकान पर पहुंचे वहॉ भोजन कर दोनो जन हरिश्चंद्र कालेज पहुंच गये। वहॉ फार्म लेने के बाद हमने पाया कि यह तो हमारे पुराने इण्टर कालेज से भी छोटा है। मुर्गी के दरबे के माफिक। बहरहाल वहॉ भी पचास रूपये का फार्म खरीद कर हम लोग गांव लौट आये, पर यू पी कालेज का वह खुला खुला हरा भरा परिसर हमारी आंखो पर चढ़ा रहा और बार बार बुलाते हुये ललचाता रहा। एक सप्ताह बाद हम दोनो लिस्ट निकलने पर पुन: मन को समझाते यूपी कालेज पहुंचे ये मान कर कि हम लोगों का नाम तो आया नही होगा पर आशा के विपरीत दूसरी लिस्ट मे हम दोनो लोगों का नाम था। काफी भीड़ भाड़ ,गहमा गहमी और लिस्ट मे नाम न आये ढेर सारे निऱाश चेहरों को देखते हुये पुन: डिग्री कालेज के पीले रंग वाले कला भवन के बरामदें की रेलिंग पर आपस मे सोच विचार कर हम लोगों ने निर्णय लिया कि अब प्रवेश तो यहीं लिया जायेगा।
एडमिशन के लिये तीन दिन बाद की तिथि मिली थी सारे ओरिजनल डाकूमेण्ट्स व फीस ले कर आने के लिये। साथ मे दो लिफाफे पर पॉच पॉच रूपये का डाक टिकट लगा कर भी जमा करना था शहर से बाहर के नव प्रवेशार्थियों को। हम लोग तीसरे दिन आने का निश्चय कर मेन गेट से लगे पोस्ट आफिस मे से टिकट खरीद कर निकले कि वही पहले दिन वाले रोबीले व्यक्तित्व व काया के स्वामी बुलेट पर से उतरते मिले। और हम लोगों के कुछ करने से पहले ही उन्होने पहचान लिया, " क्या बेटा , कैसे हो? क्या हुआ एडमिशन का?
हम लोगों ने आगे बढ़ कर पुन: चरणस्पर्श किया।
" जी सर, शुक्रवार को बुलाया है कौन्सिलिंग के लिये।"
"बहुत अच्छे, ठीक है एडमिशन ले लो। मेहनत से पढ़ोगे तो बहुत आगे जाओगे। कोई भी दिक्कत हो तो मेरे पास चले आना। मेरा कमरा देखे ही हो?"
" जी सर।" हम ने पुन: चरणस्पर्श कर उनसे विदा लिया। मैने संतोष से कहा " यार संतोष, जहॉ, इतने सहयोगी भाव वाले टीचर है, न हम से जान न पहचान तब भी हमारे लिये इतना करने को तैयार है तो वहॉ छत्रियता के नाम पर भेदभाव कैसे हो सकता है? मुझे लगता है कि वे सब कही सुनी बाते हैं।" संतोष ने भी मेरी बात से सहमति जताई और कहा कि "अरे यार उस गुरूजी का नाम तो पता करना था जो हम लोगों के लिये यहॉ पहले गार्जियन व मार्गदर्शक के रूप मे मिले हैं।" हम लोग वही बाहर किताब की दुकान पर सिलेबस और विषय की जानकारी ले रहे थे कि अंदर से धड़धड़ाती हुई बुलेट पर पुन; रोबीले चेहरे और मूंछ वाले गुरूजी निकले। हमने दुकान वाले से ही पूछा "क्यों भईया , वो जो बुलेट से गुरूजी जा रहे हैं, उनका क्या नाम है?"
" वो, वो तो रामयाद सर थे।" दुकानवाले ने बताया।
.........क्रमश;
(एडमिशन और शेष प्रक्रिया अगले अंक में)
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