मंगलवार, 19 जुलाई 2022

व्योमवार्ता/ समाज जिसमें हम रहते है.....

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं........

बात उन दिनों की है जब मंगल बाज़ार में छोले भटूरे 5 रु के दो होते थे। मकान छोटे मगर दिल बड़े होते थे। यह Space/Privacy जैसे शब्दों के तो माने भी नहीं पता थे क्योंकि छतें पड़ोसियों से जुड़ी होती थी और टायलेट तक सांझा होते थे। दूर के रिश्तेदारों के नाम तक पड़ोसियों को रटे होते थे। डेढ़ दर्जन के परिवार का 3 कमरों में ठाठ से बसर होता था। छुट्टियों में रिश्तेदारों का परिवार भी साथ होता था। काली दाल को घी में सूखे धनिए का छौंक लगा छक कर खाते थे, फिर आम और ठंडे दूध पीते छत पर बिस्तर बच्चे मिनटों में लगाते थे। सूर्य उदय से पहले उठ भी जाते थे। पैसे कम पर खुशियां बहुत थी। देव आनंद के डायलॉग से शामें कटती थी। ईगो,अहम् या नखरे कहांँ किसी में होते थे? VCR किराये पर लेकर रात भर पड़ोसियों के साथ मिल कर फिल्मे देखते थे, तेरा मेरा नहीं, सबकुछ हमारा कहलाता था। भाई की शादी में आया सामान, ननद की शादी में ही जाता था। शादी ब्याह अपने आप में त्योहार होते थे, बाहर से आए संबंधी पड़ोसियों के घर ही सोते थे। मांगे हुए गद्दे, मटर छीलते परिवार, कढ़ाई में पकती सब्ज़ियों ओर, पनीर और आइसक्रीम पर नज़र रखे फूफा जी, वाह क्या नज़ारे होते थे। घंटे भर की कुट्टी और मिनटों में अब्बा होते थे। बुआ मामा, चाचा और मासी के बच्चे सब भाई बहन कहलाते थे, उनके आगे की रिश्तेदार भी पूरी डिटेल से गिनवाते थे। सब बड़े भाई बहनों के कपड़े बिना शर्म के पहनते थे, बताया था ना कि ईगो और अहम् पास भी ना मंडराते थे। आज दौर बदल गया। छोले भटूरे खाने मंगल बाज़ार नहीं हल्दीराम जाने लगे हैं, पांच सौ का नोट बेफिक्र थमाने लगे हैं। मकान आलीशान, मन परेशान हो रहे हैं, कमरों से जुड़े टायलेट हैं फिर भी प्राइवेसी को रो रहे हैं। बच्चों से बड़ों तक को स्पेस चाहिए, बगल वाले घर में कौन रहता है, नाम तो बताइए? आज सबको अलग कमरा चाहिए, बीबी को पंखा पति को AC चाहिए। अब कौन गर्मी की छुट्टियों में किसी के घर बिताता है? अपने कहाँ vacation पर हैं, Facebook बताता है। फिक्र और वज़न बढ़ रहे हैं, आज पैसा और कैसे बढ़ाएं इसी फिक्र में घुल रहे हैं। आज 56 भोग खाते हैं, फिर पचाने बेमन से Gym जाते हैं। घर, गाड़ी, बैंक में जमा धन, खुशियों के सामान सब हैं, खुशियाँ बांटने वाले नहीं हैं। मामा चाचा के बच्चे अब Cousins और उनके आगे के Distant relatives हो गए हैं। Social media पर कई बहनें और Bro ज़रूर हो गए हैं, अब लोग समय बिताने के लिए Mall जाते हैं और Mall में shopping करने के लिए कपड़े खरीदते हैं। अब बच्चों को कोई cousin कपड़े नहीं देता क्योंकि लेने वाले का ईगो और अहम् पीछा नहीं छोड़ता। एक बार पहन कर Maid को zara के टापॅ देते हैं फिर उसीको “बड़ी Happening” कहकर ताना भी देते हैं। अब शादियों में भी रिश्तेदार बस मूंह दिखाने आते हैं, घर में नहीं उन्हें अब होटल में ठहराते हैं। सारे परिवार वाले अब मेकअप करवा,खुद मेहमानों की तरह जाते हैं। अब फूफा जी नहीं, खाने का ज़िम्मा Caterer उठाते हैं। दिखावे की दुनिया में रिश्ते नाते छूट गए, मेरे बचपन के साथी कहांँ गुम गए? अगर ज़िन्दगी से ब्लाक सभी रिश्ते अनब्लाक कर दें, तो खुशियों के पल मिल सकते हैं। पर बनावटी दुनिया मे बनावटी रिश्तों के बीच बनावटी ज़िन्दगी जी रहे है ... 
बस यही सच है ...
#व्योमवार्ता
#शोभितश्रीवास्तव की वाल से
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व्योमवार्ता/ समाज जिसमे हम रहते है....

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं 

                     लखनऊ के कैसरबाग की रहनेवाली 80 वर्षीया सुशीला त्रिपाठी जी को उनके तीन साल से पाले हुए खतरनाक नस्ल के पिटबुल कुत्ते ने अचानक हमला कर चीरफाड़ कर जीवित ही खा डाला। सुबह छैः बजे जब सुशीला जी का बेटा अंदर से दरवाजा बंद करवाकर जिम गया हुआ था और वे अपने दोनों कुत्तों पिटबुल व लैब्राडोर को छत पर टहला रहीं थीं उसी समय अचानक पिटबुल प्रजाति के कुख्यात कुत्ते ने उन पर प्राणघातक हमला कर दिया। इस परिवार में माँ बेटा सिर्फ यही दोनों लोग रहते थे एवं अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण पड़ोसी उन्हें बचाने के लिए कुत्ते को पत्थर मारने के सिवा और कुछ नहीं कर सके और करीब डेढ़ घंटे तक यानि सुबह छैः बजे से साढ़े सात बजे तक कुत्ता जीवित महिला को नोच नोचकर खाता रहा। पड़ोसियों के बार बार कॉल करने पर भी जब बेटे ने कॉल रिसीव नहीं की तो पड़ोसियों ने स्वयं उसके जिम जाकर उसे सूचना दी। बेटे के आने पर उसका लाड़ला कुत्ता अपनी शरारत पर शरमाकर एक कमरे में छुप गया और काफी देर तक नहीं निकला । अस्पताल ले जाए जाने पर महिला को मृत घोषित कर दिया गया।

इस घटना में मुझे सबसे अजीब बात यह लगी कि बेटे द्वारा लाया गया यह कुत्ता इससे पहले भी सुशीला जी पर हमला कर चुका था पर फिर भी उन्होंने इसे घर में रखना जारी रखा। कुत्ता पाला भले ही बेटे ने था पर उसकी देखभाल माताजी ही करतीं थीं व भोजन आदि भी स्वयं खिलाती थीं। तब भी इस राक्षसी प्रवृत्ति के प्राणी ने उनका यह हाल किया। शिक्षा- वहशी से मोह ममता की आशा करना व्यर्थ है।

एक और चौंकानेवाली बात। बेटे ने इस पूरी घटना में कुत्ते को निर्दोष ठहराया है । यानि जिस कुत्ते ने जन्म देनेवाली माँ को ऐसी भयावह मौत दी उससे उनके सपूत को कोई शिकायत नहीं है। बल्कि माँ की मौत पर अफसोस करने की बजाय वह कुत्ते को ही दुलारता पुचकारता रहा । ये देखकर लोग हैरान रह गए। अपने दोषी से प्रेम करने की इसी बीमारी को 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' कहते हैं। हमारे समाज के ज्यादातर लोग अपने रिश्तों में आजकल इसी बीमारी के शिकार हैं। खुद को तकलीफ देनेवाले,धोखा देनेवाले से प्रेम करना,उन पर विश्वास करना लोगों को एक अलग तरह की सैडिस्टिक किक देती है। "यह घटना उन सभी लोगों के लिए एक सबक है जो ऐसे खतरनाक लोगों पर निरंतर विश्वास कर अपनी और अपने लोगों की जिंदगी खतरे में डाल रहे हैं जिनकी गद्दारी और नृशंसता की घटनाओं से संपूर्ण सभ्यता का इतिहास रक्तरंजित हुआ पड़ा है।"

वृद्धा माताजी की इस निर्मम हत्या का बहुत दुख है पर एक बात समझ नहीं आती। गाय के गोबर से घर लीपने पर घिन माननेवाले लोगों को दोनों टाइम कुत्ते को मल विसर्जित कराने के लिए कुत्ते की जंजीर पकड़कर स्वयं कुत्ते की तरह यहाँ वहाँ टहलने पर घिन क्यों नहीं आती? गाय को एक रोटी प्रतिदिन खिलाने से महँगे आशीर्वाद आटा वाले जिन घरों का बजट वेंटिलेटर पर चला जाता है वे इन राक्षसी कुत्तों को प्रतिदिन आधा किलो माँस कैसे उपलब्ध कराते हैं? जिम में पसीना बहाकर कमाया हुआ पैसा इस हैवान को रोजाना माँस खिलाने में लगा रहे थे पर गौसेवा की हरी घास के लिए अगर महीने में एक बार भी पाँच सौ रुपए माँग लिए जाते तो यही सुपुत्र पूरी लेजर खुलवा लेते। और इतना सब होने पर भी कुत्ते को निर्दोष ही ठहरा रहे हैं। शायद लखनऊ नगर निगम इन्हें लाइसेंस जारी कर दे तो ये अब भी इसी राक्षस को साथ ही रखना चाहेंगे। धन्य हैं ऐसी कलयुग की संतानें।
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व्योमवार्ता/ समाज जिसमे हम रहते है....

#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं

*रिटायरमेंट के बाद का दर्द*

छत्तीसगढ़ के शहर कोरबा में बसे नेहरू नगर में एक आईएएस अफसर रहने के लिए आए जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए थे।‌ ये बड़े वाले रिटायर्ड आईएएस अफसर हैरान-परेशान से रोज शाम को पास के पार्क में टहलते हुए अन्य लोगों को तिरस्कार भरी नज़रों से देखते और किसी से भी बात नहीं करते थे। *एक दिन एक बुज़ुर्ग के पास शाम को गुफ़्तगू के लिए बैठे और फिर लगातार उनके पास बैठने लगे लेकिन उनकी वार्ता का विषय एक ही होता था - मैं  रायपुर में इतना बड़ा आईएएस अफ़सर था कि पूछो मत, यहां तो मैं मजबूरी में आ गया हूं। मुझे तो बिलासपुर में बसना चाहिए था- और वो बुजुर्ग प्रतिदिन शांतिपूर्वक उनकी बातें सुना करते थे। परेशान होकर एक दिन जब बुजुर्ग ने उनको समझाया* - आपने कभी *फ्यूज बल्ब* देखे हैं? बल्ब के *फ्यूज हो जाने के बाद क्या कोई देखता है‌ कि‌ बल्ब‌ किस कम्पनी का बना‌ हुआ था या कितने वाट का था या उससे कितनी रोशनी या जगमगाहट होती थी?* बल्ब के‌ फ्यूज़ होने के बाद इनमें‌‌ से कोई भी‌ बात बिलकुल ही मायने नहीं रखती है। लोग ऐसे‌ *बल्ब को‌ कबाड़‌ में डाल देते‌ हैं है‌ कि नहीं! फिर जब उन रिटायर्ड‌ आईएएस अधिकारी महोदय ने सहमति‌ में सिर‌ हिलाया* तो‌ बुजुर्ग फिर बोले‌ - रिटायरमेंट के बाद हम सब की स्थिति भी फ्यूज बल्ब जैसी हो‌ जाती है‌। हम‌ कहां‌ काम करते थे‌, कितने‌ बड़े‌/छोटे पद पर थे‌, हमारा क्या रुतबा‌ था,‌ यह‌ सब‌ कुछ भी कोई मायने‌ नहीं‌ रखता‌। मैं सोसाइटी में पिछले कई वर्षों से रहता हूं और आज तक किसी को यह नहीं बताया कि मैं दो बार संसद सदस्य रह चुका हूं। वो जो सामने  ठाकुर जी बैठे हैं, एस .सी .सी.एल .के महाप्रबंधक थे। वे सामने से आ रहे मरकाम साहब सेना में ब्रिगेडियर थे। वो देवांगन.. जी इसरो में चीफ थे। *ये बात भी उन्होंने किसी को नहीं बताई है, मुझे भी नहीं पर मैं जानता हूं सारे फ्यूज़ बल्ब करीब - करीब एक जैसे ही हो जाते हैं*, चाहे जीरो वाट का हो या 50 या 100 वाट हो। कोई रोशनी नहीं‌ तो कोई उपयोगिता नहीं। *उगते सूर्य को जल चढ़ा कर सभी पूजा करते हैं। पर डूबते सूरज की कोई पूजा नहीं‌ करता‌।* कुछ लोग अपने पद को लेकर इतने वहम में होते‌ हैं‌ कि‌ *रिटायरमेंट के बाद भी‌ उनसे‌ अपने अच्छे‌ दिन भुलाए नहीं भूलते। वे अपने घर के आगे‌ नेम प्लेट लगाते‌ हैं - रिटायर्ड आइएएस‌/रिटायर्ड आईपीएस/रिटायर्ड पीसीएस/ रिटायर्ड जज‌ आदि - आदि। अब ये‌ रिटायर्ड IAS/IPS/PCS/तहसीलदार/ पटवारी/ बाबू/ प्रोफेसर/ प्रिंसिपल/डाक्टर / अध्यापक.. कौन.. कौन-सी पोस्ट होती है भाई?माना‌ कि‌ आप बहुत बड़े‌ आफिसर थे‌, *बहुत काबिल भी थे‌, पूरे महकमे में आपकी तूती बोलती‌ थी‌ पर अब क्या? अब यह बात मायने नहीं रखती है बल्कि मायने‌ रखती है‌ कि पद पर रहते समय आप इंसान कैसे‌ थे...आपने‌ कितनी जिन्दगी‌ को छुआ... *आपने आम लोगों को कितनी तवज्जो दी...समाज को क्या दिया,जाति बन्धुओं के कितने काम आएं* लोगों की मदद की..या सिर्फ घमंड मे ही सूजे हुए रहे. .पद पर रहते हुए कभी घमंड आये तो बस याद कर लीजिए कि एक दिन

..............सबको फ्यूज होना है।

(काशी 19जुलाई 2022, मंगलवार)
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