कर्मपथ पत्रिका के स्वाधीनता दिवस विशेषांक हेतु उनके विशेष आग्रह पर
इस अंधेरी रात में दीपक जलाना कब मना है.......
-व्योमेश चित्रवंश, एडवोकेट
14 -15 अगस्त 1947 की अर्धरात्रि में हमारी स्वाधीनता का अरुणोदय हुआ ।स्वर्ण विहान आया और हमारे देश के इतिहास मे एक अद्भुत अनुभूति पूर्व शब्द जुड़ गया, स्वतंत्रता, स्वाधीनता और स्वायत्तता । तब से आज तक गंगा जाने कितना जल प्रवाह समुंद्र को दे बैठी । समय निरंतर अविराम भाव से कालखण्ड पर अपने छाप छोड़ता रहा । इतिहास नई करवटें लेते हुए हमारी खुद की सत्ता व्यवस्था अपनी पैनी दृष्टि गड़ाए रहा।खुद को नया करने की होड़ में और साल दर साल बीतते बीतते 72 वर्ष हो गए । यूँ ही इतिहास की दृष्टि से किसी राष्ट्र के जीवन में 72 वर्ष का कार्यकाल बहुत लंबा नहीं होता किन्तु जिस झंझावात की वजह से इन दशकों में बदलाव आए । सदियॉ वर्षों मे ही सिमट आई ।रातो रात पुश्त दर पुश्त संग संग रहने वाले हम अपनों ने अपनी ही देव भूमि पर एक रेखा खींच डाली अपनों के भूमि पर देशों के मध्य दूरियां बढ़ती गई फिर दो से तीन देश, अपनो से जूझते , अपनों से परेशान, विकास की लंबी यात्रा पर चलने वाले मुसाफिर , जिसके पास सब कुछ होते हुये भी कुछ नहीं और कुछ नही होते हुये भी सब कुछ ।
समीचीन होगा कि इन 72 वर्षों की उपलब्धियों का, सफलता-असफलता का लेखा-जोखा तैयार किया जाए और देखा जाए कि हमारे राष्ट्र निर्माताओं के कितने सपने साकार हुए और कितने राख हो गए ? हमने इन72 वर्षों मे क्या खोया क्या पाया ? हम कहां से चले थे और कहां पहुंचे?
जहॉ तक व्यक्तिगत रूप से हमारा मानना है कि स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि हमारा संविधान है । हम इस विशालतम आबादी वाले विविधता भरे और तरह तरह से विखंडित और विभाजित देश के लिए एक सर्वमान्य संविधान बना कर पिछले लगभग छ दशकों से अनेक विकट समस्याओं के बावजूद देश की एकता अखंडता और लोकतंत्र को सुरक्षित रख सके तो यह हमारी बहुत बड़ी उपलब्धि है और यह हमारे संवैधानिक व्यवस्था की ही देन है ।
पर आज जब हम चारों ओर देखते हैं तो राजनीतिक व्यवस्था चरमराती हुई दिखाई देती है । परिस्थितियां विषम है, संकटमय है। लगता है हम आज विनाश की कगार पर खड़े हैं ऐसे अंधे मोड़ पर ,जहां से कोई रास्ता कहीं जाता ही नहीं।हमारी गणना संसार के 10 सर्वाधिक भ्रष्ट राष्ट्रों में है। दुनिया भर में किसी अन्य देश में इतने निरक्षर लोग नहीं बसते जितने हमारे यहाँ हैं। गरीबी की रेखा के नीचे लोगों की तादाद भी भारत में सबसे ज्यादा है। इस स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? हमी मे से अधिसंख्य लोगों का मानना है कि दोष राजनीतिक व्यवस्था का है। वहीं दूसरे लोग कहते हैं दोष वस्तुतः व्यवस्था को चलाने वालों का है ये ही निकम्मे और निष्ठाहीन निकले। लेकिन क्या ऐसे ही दूसरे पर उंगली उठा देने से हम खुद को बचा सकते हैं ? हो सकता है दोष व्यवस्था का भी हो और व्यवस्था चलाने वालों का भी, पर सबसे अधिक दोषी तो 'हम' है यानि "हम भारत के लोग" ।
जब भारत अंग्रेजी दासता से मुक्त हुआ और राष्ट्रीय आंदोलन के कर्णधार स्वतंत्र भारत का संविधान बनाने बैठे तो उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी विभिन्न प्रकार से विभाजित-विखंडित "हम भारत के" लोगो को किस प्रकार एक सूत्र में पिरो कर एक राष्ट्र का निर्माण किया जाय? संविधान निर्माता चाहते थे कि एक लंबे समय तक गुलामी का दंश झेलने वाले भारतवर्ष में राष्ट्रीयता की चेतना जगे, साम्प्रदायिक भेदभाव व जातिवाद समाप्त हो, देश का आर्थिक विकास हो, गरीबी मिटे और सामाजिक न्याय का वातावरण तैयार हो। संविधान निर्माताओं ने एकता भाईचारा और बराबरी के सपने सजोंये थे और चाहा था भारतीय गणतंत्र में हर गॉव, हर घर और हर झोपड़ी में, हर खेत और खलिहान में स्नवधीनता के बिहान का अनुभव हो, खुशहाली आए, गरीबी बेकारी भूखमरी और अशिक्षा मिटे। चारों ओर आपसी प्रेम और शांति का वातावरण हो। गांधी जी ने हर ऑख के हर आंसू पोछने का आदर्श रखा था तो नेहरू ने संविधान सभा में प्रतिज्ञा की थी कि जब तक आंसू है, गरीबी है ,पीड़ा है ,तब तक आजादी पाने का काम पूरा नही होगा। उनका विश्वास था कि हमारा संविधान भूखे को रोटी और नंगो को कपड़ा देने के साथ ऐसी व्यवस्था कायम करेगा जिसके अंतर्गत प्रत्येक व्यक्ति को अपने सामर्थ्य के अनुसार अधिक से अधिक ऊंचे उठने के पूरे के पूरे अवसर मिल सकेंगे ।अगर यह संविधान नहीं कर सका तो वह नेहरू के अनुसार मात्र कागजों का पुलिंदा ही होगा
आज हम सब जानते हैं संविधान निर्माताओं के सपने पूरे नहीं हुए हम लोग आज भी उनके कल्पना के राष्ट्र नहीं बन सके। वास्तविकता तो ये है कि पिछले दो दशकों से हमारा समाज जितना विखंडित व विभाजित आज है उतना पहले कभी नही था। नक्शे पर खींची रेखाओं से कहीं अधिक भयावह होती हैं मन और भावनाओं में पड़ी दरारें। आज हम जुड़ने के बजाय बिखरे हैं । राष्ट्रीयता व एकता की बातें पुरानी पड़ गई है और जाति धर्म भाषा क्षेत्रियता संप्रदाय के आधार पर अब नई पहचान बनने लगी है। हमारी नई पीढ़ी के लिये राष्ट्रीयता व देशप्रेम का मतलब घर मे टीवी के सामने बैठ कर क्रिकेट मैच मे भारत के लिये हुर्रै चिल्लाना ही रह गया है। राष्ट्रगान की पहचा व कीमत उनके लिये रोज स्कूली प्रार्थना के बाद गाये जाने वाली महज एक औपचारिकता भर है। वे रामायण महाभारत गीता के राम कृष्ण और अन्य भारतीय महापुरूषों राणा प्रताप, शिवाजी, गांधीजी, नेताजी, भगत सिंह के बजाय हैरीपाटर और निंजा हथौड़ी को जानते है। नैतिक शिक्षा, नैतिक मूल्य, प्रकृति प्रेम, प्रकृति पूजा जैसे शब्द उनके लिये वर्णमाला के संयोग भर है। परिणाम भी सामने आने लगे है, आज औसतन हर तीसरे बच्चे के ऑख पर चश्मा, शारीरिक कमजोरी, मानक के विपरीत शारीरिक गठन प्रत्यक्ष दिखते है तो परोक्ष रूप से पारिवारिक अशांति, परिवार विघटन, एकल परिवार, एक दूसरे से आगे बढ़ने की अंधी अंतहीन दौड़, कमाने के लिये बड़े शहरों विदेशों मे गये बच्चो के इंतजार मे बेबस बूढ़ी ऑखे, व्यक्तिगत तनाव, मधुमेह, हृदय दौर्ब्लयता, रक्तचाप, मानसिक विकार जैसी समस्यायें आम हो गई हैं। वोटबैंक बनाने के लिये जातीय व धार्मिक तुष्टिकरण, आरक्षण जैसे विभेदकारी नीति से प्रतिभा का अवमूल्यन जैसे कारकों ने जातिगत विभेद की खाईं को और चौड़ा किया है। मेरी बिरादरी की मेरी सरकार वाली मान्यता के चलते मन के अंदर तल रहे यह विभाजनकारी प्रभाव सड़कों पर भी दिखने लगे है। ऐसे समय मे अपने संविधान के उद्देश्यों का मूल्यांकन करने पर हमे चंहुओर निराशा ही दिखती है।
एक समय था अपनी सारी कमियों, कमजोरियों, मफलिसी और गुलामी के बावजूद अपने को भारतीय कहने में गर्व महसूस करते थे एक हिंदुस्तानी होने का गर्व। किंतु आज स्थिति यह है कि हिन्ददुस्तान में हिंदुस्तानी को छोड़ बाकी सभी मिल जाते हैं पंजाबीी कश्मीरी राजस्थानी मराठी उड़िया, तमिल तेलगू बिहारी,आसामी और ढेरों , पर एक भारतीय को ढूंढने के लिए दिन में भी लालटेम लेकर निकलना पड़ेगा ।आज हम अल्पसंख्यको के कल्याण की बात करते हैं पर सच्चाई तो यह है कि असली अल्पसंख्यक तो "भारतीय" नामधारी प्राणी हो गया है। आज हममे से कोई यह कहने की हिम्मत क्यो नहीं जुटा पा रहा है कि हमें हिंदू मुस्लिम ,सिख ईसाई , हिन्दी-गैर हिन्दी मे बांटने की कोशिश कर रहा है अर्थात जो भी देेेश को तोड़ने की कोशिश कर रहा है वह देश का दुश्मन है। हर नेता यह सब जानते हुये भी बस इसलिए नहीं कहता क्योकि सच यह है कि आज भारत और भारतीयता के नारे के सहारे कोई वोटबैंक नही बनते हैं बल्कि आज समाज मे वैमनस्यता फैलाकर जाति धर्म भाषा वादी फूट फैला कर फूट के जहर डालकर वोट बैंक बनते हैं तब जाकर संसद और विधानसभा में स्थान मिलते हैं सरकारें बनती हैं और संसदीय लोकतंत्र चलता है।
पहले अंग्रेजों के लिए कहा जाता था उनकी कूटनीति थी "फूट डालो शासन करो" । किन्तु आज के अधिकांश नेता भी तो वही कुछ कर रहे हैं। सच तो यह लगता है कि राष्ट्र निर्माण की आवश्यकताओं में और पश्चिमी शैली के लोकतंत्र में सत्ता में आने या बने रहने की शर्तों मे ही परस्पर विरोधाभास है क्योंकि आज जिस व्यवस्था में हम जी रहे हैं या ,दूसरे शब्दों में जिसे हम ढो रहे हैं वह हमारे परिवेश के लिए नहीं, थी, गांधी के सपनों के व्यवस्था तो कदापि नहीं थी। वह डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ,अंबेडकर की कल्पना का प्रसाद भी नहीं थी।उसे लोकनायक जयप्रकाश नारायण नेताओं का भी समर्थन नहीं था। जो संविधान बना वह भारतीय मानस के सपने का संविधान नहीं था , वह तो अंग्रेजी वातावरण में पले बढ़े, पढ़े लिखे और अंग्रेजों सभ्यता और पश्चिमी राजनीतिक संस्थाओं से अभिभूत अभिजात वर्ग के कुछ लोगों का आदर्श मात्र था। वस्तुतः लोकतांत्रिक व्यवस्था तो देश के अंतर्मन से प्रस्फुटित होनी चाहिए ,लोगों के बीच से ही उपजनी पनपनी चाहिए ।यहां के लोगों के विचारों मनोभावनाओं,आदर्शों ,मान्यताओं और अनुभवों के अनुरूप नैसर्गिक रूप से विकसित होनी चाहिए ।
अब वक्त आ गया है कि हमें अपनी आस्था का मूल्यांकन करना चाहिए अपने परिस्थिति के अनुरूप व्यापक बदलाव किया जाना चाहिए ।
व्यवस्था के बाद हमें स्वयं को देखना आवश्यक है कि अब तक दूसरों पर उंगलियां उठाते उठाते हमारी उंगलियां भी थकने लगी हैं। सुधार हमें अपने आप से करना है । यदि हम अपनी आने वाली पीढ़ी को राष्ट्र के प्रति बोध नही कराएंगे तो आने वाली पीढ़ी की उंगलियों को अपने पर उठने से नहीं रोक पाएंगे ।
बातें बहुत हो चुकी अब करने का समय आ चुका है। हर एक को अपने अपने स्थान से ही राष्ट्रीय पुनर्जागरण के यज्ञ में लगना होगा ।देश के जवान अगर सीमा पर मुस्तैद हैं तो देश के किसान को भी उनके लिए खेतं मे मुस्तैद होना होगा। यदि अध्यापक नई पीढ़ी को दिशा दे रहे हैं तो डॉक्टर , वकील को भी समाज को सही दिशा देने और आदर्श बनने की जरूरत है। कहने का अर्थ यह है कि हम जहां है वहीं से राष्ट्रीय बोध को दृष्टिगत रख अपने कार्य मे लग जायें और नई पीढ़ी, उसकी तो सबसे बड़ी जिम्मेदारी है क्योंकि वह आने वाले भविष्य के लिये नियामक ही वरन वर्तमान से भविष्य तक ले जाने की वाहक भी है। नयी पीढ़ी को अपने आने वाले भविष्य के संरक्षण संवर्धन और शुभदायक बनाने के लिये स्वयं के साथ देश के प्राकृतिक संसाधनों , सिद्धान्तो और मूल्यों को संरक्षित रखना होगा ताकि उन्हे वे सौगात के तरह अपनी आने वाले पीढ़ी को भेंट कर सके।
(लेखक विधिव्यवसायी और सामाजिक कार्यकर्ता है)
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