शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

एक और सॉझ ढल गई.....

और
एक और सॉझ ढल गयी
आहिस्ता आहिस्ता
आँखों मे उदास सपने लिये
कभी खुली आँखों में तो
कभी बंद पलकों में
पर सभी सपनों का रंग
फीका फीका एक जैसा
दर्द और पीड़ा से भरा
पर उस विवसता के पीछे
एक अकुलाहटऔर बेचैनी
कुछ करने की कुछ कर गुजरने की
पर मन ही सब कुछ नही होता
क्योंकि मन को तन का
वास्तविक बोध नही होता
कसमसाहट में बंद पलको के
कोरों मे सिमट आई नमी
बावजूद मानस केअन्तर से
उठती है आवाज
यह अंधेरा छँट रहा है
कल आने वाली सुबह के लिये.......
       -व्योमेश १४.०७.१३ रविवार

(यह कविता मैने जुलाई २०१३ मे लिखा था, जब पैर टूटने पर प्लास्टर लगवा कर पूरी तरह बिस्तर पर पड़ा था। मन मे आशा को जगाने के लिये कवि कर्म ही मेरा विश्वास था।)