शुक्रवार, 21 अगस्त 2020

यह सड़क मेरे गॉव को नही जाती....(१२)/ कुछ तीत कुछ तात कुछ गईले पे रात

यह सड़क मेरे गॉव को नही जाती....(१२)

कुछ तीत कुछ तात कुछ गईले पे रात......

तब बनारस बहुत बड़ा जनपद था। छोटे बब्बा हमसे पूछते कि बनारस की चैहद्दी और हम एकदम सटीक बताते उत्तर में जौनपुर, दक्षिण में मिर्जापुर, पूरब में गाजीपुर और बिहार राज्य, पश्चिम में इलाहाबाद जनपद। छोटे बब्बा का अगला सवाल तैयार रहता कि बनारस जनपद में कुल कितनी तहसील है और उससे भी पहले हमारा जबाब चकिया, चन्दौली, भदोही और वाराणसी। तीसरा सवाल भी हाजिर बनारस कमिश्नरी में कुल कितने जिले है- पाॅच वाराणसी, गाजीपुर, जौनपुर, मिर्जापुर और बलिया।’’ अब हम वहाॅ से भागना चाहते क्योंकि हमें मालूम था कि अब छोटे बब्बा सामान्य ज्ञान के बाद गणित का सवाल पूछना शुरू करेंगे। छोटे बब्बा के सवाल हम लोगों के पाठ्यक्रम से सम्बन्धित रहते हुए भी अकसर पाठयक्रम के बाहर के रहते जैसे -कै नवा मुॅह चुम्मी क चुम्मा। उन्हीं से सुना हुआ जबाब हम बताते: सात नवा मुह चुम्मी का चुम्मा। अच्छा अब ई बताओं कि- कै नवईया चुल्ही में लकड़ी, ऊबते हुए हम रटा रटाया जबाब देते- एक नवईया चुल्ही में लकड़ी। अब छोटे बब्बा के अगले सवाल के पहले हम मौका देख खिसक लिये। छोटे बब्बा के सवालों का सामना अक्सर हमें गर्मी के छुट्टियों में करना पड़ता। जब स्कूल बन्द, कापी किताबों से कुछ दिन फुरसत ऐसे में छोटे बब्बा के सवाल हमारे लिए किसी हैण्ड ग्रेनेड या बम के गोले से कम नही होते क्योंकि तब हम भले ही तन से घर पर हो पर हमारा मन गाॅव के बाहर वाले तालाब पर रहता था। हम ही क्या पूरे गाॅव का ही मन वहीं रहता था उन दिनों और सबकी उपस्थिति भी। छोटे बब्बा बताते थे कि हमारे गाॅव का तालाब बनारस जनपद में दूसरा सबसे बड़ा तालाब था पहला कहीं चन्दौली तहसील में था। कहाॅ? यह उन्हें भी पता नही था पर इस बात को वे दावे के साथ कहते थे कि हमारा तालाब बनारस का दूसरे नम्बर पर है। यह तालाब केवल हमारे गाॅव का नही था यह हमारे गाॅव और गजोखर गाॅव का संयुक्त खाता था। दोनों गाॅवों के उत्तर में इस सिरे उस सिरे तक। साल भर में छः माह पानी से भरा हुआ और छः माह सूखा वीरान। तालाब के किनारे-किनारे वाले हिस्से से गाॅव वाले मिट्टी निकाला करते थे अपने-अपने जरूरतों के हिसाब से कभी घर बनवाने के लिए कभी अपने घर का दुआर पौसारा उॅचा करने के लिए। इससे किनारों में गड्ढ़े बनकर पोखरे बन गये थे। उनमें लगभग दस ग्यारह महीने पानी भरा रहता। वैशाख और जेठ का महीना आते आते वह भी सूख जाता और यदि नही सूखता तो हम लोग सूखा देते और उसे सुखाकर उसमें से मछली मार लेते थे। वैस यह तालाब हम लोगों के लिये सिर्फ मछली मारने के अलावा और भी बहुत सारे काम आता था।
हमारा क्षेत्र अपने जनपद बनारस के उत्तरी सीमावर्ती अंचल में आता है। उपज के नाम पर क्षेत्र का कृषि उत्पादन भगवान भरोसे ही  था। कारण पिण्डरा से लेकर फूलपुर और जौनपुर के सोहनी तक तिकोना क्षेत्र कृषि उपयोग से बंजर माना जाता था। इस इलाके में धूल नही बल्कि रेह होती थी। कभी एक फसल तो कभी-कभी दो फसल। गर्मी की दुपहरी में दूर दूर तक सफेद रेह ऐसे चमकती जैसे सूरज के धूप में सूखने के लिए सफेद मटमैली चादर बिछा रखी हो। बीच-बीच में कहीं-कहीं नीम, महुआ, बबूल या आम के पेड़ इस बात के प्रमाण थे कि इन बंजरों में भी पानी मिल जाता है। पर आश्चर्यजनक रूप से पानी के मामले में हमारा इलाका बहुत समृद्ध था। तपती गर्मियों में पानी बाइस साढे़ बाइस हाथ पर और बरसात में छः-सात हाथ पर मिल जाता था। पानी भी मीठा गन्धरहित, दोषरहित। उसके पीछे का मुख्य कारण था कि हमारा यह तालाब। तालाब में पूरे इलाके का बरसाती पानी नाली और नालों के माध्यम से आकर इकट्ठा होता और बरसात के बाद अगल-बगल के खेती खलिहान के लिए इन्हीं माध्यम से पानी निकाल भी लिया जाता। तालाब में पानी आने का मुख्य स्रोत शारदा सहायक नहर परियोजना के खण्ड 36 की एक छोटी सी नहर थी जो त्रिलोचन महादेव से थानागद्दी वाले माइनर से निकल कर हमारे तालाब को पानी देती थी। तालाब के चारों तरफ मिट्टी का कच्चा बन्धा था जिस पर अड़ोस-पड़ोस के रहने वाले लोगों ने सुविधानुसार पेड़ भी लगा दिये थे। तालाब से पानी निकालने के लिए पूरबी बन्धी पर बनी एक छोटी सी झरना पुलिया थी जिससे बन्धे से ओवर फ्लो हो रहा पानी नहर से होते हुए आगे कहीं जाकर नाद नदी में मिल जाता था।
साल के छः महीनों में सूखे तालाब में हमारे गाॅव सहित  आस-पास के गाॅव के लोग भी ताल का प्रयोग प्राकृतिक निपटान करने के लिए करते। दो-तीन लोग साथ में होकर बतकुच्चन करते-करते ताल में चले गये और निरल्ले में फरचंगा होकर आ गये। इसी बहाने सुबह शाम का तीन चार किलोमीटर टहलना भी हो गया और बतकुच्चन के साथ दिव्य निपटान भी। दिन में गाय गोरू को ताल में छोड़ दिये और अपने बन्धे पर किसी पेड़ के नीचे बैठ दोस्तों के साथ ताश के पत्ते की बाजी जम गयी। मौला बुआ ताल में से ही बरसात में उगी हुई नेरूई को काट कर रख लेती भरसाई में ईधन के लिए और निपटान करके आते समय लगे हाथ लोग बाग मिट्टी का सूखा चक्का हाथ में लेकर चले आते घर के नीम आम का चबूतरा बनाने के लिए। कुल मिलाकर यह तालाब हमारे लिये बहुउद्देशीय लाभ के काम में आता था पर हम लोगों का तालाब से सबसे ज्यादा जुड़ाव की कारण था मछलियाॅ। जो ताल के साथ ही अपने अस्तित्व को बरकरार रखती। हम लोगों के पास जब खेलने को कुछ भी नही होता तो हम इन मछलियों को अपना खेल बना लेते। तालाब में मछलियां कहा से आती इस विषय पर हम बच्चा पार्टी में बहुत ढेर सारे विचार थे। भोनू का मानना था कि मछलियां बरसात में आकाश से बरसती है तो राजू के मत से मछलियाॅ पानी सूखने के साथ और नीचे पाताल में चली जाती और पानी भरने के साथ ऊपर आ जाती। मैं आकाश और पाताल दोनों धारणाओं से अलग शारदा सहायक नहर के पानी को मछलियों के आने का स्रोत मानता तो अजय और उमेश बताते है कि नहर के मुॅह पर बड़े-बड़े जाल से लेकर छोटी-छोटी मच्छरदानियां लगी है ऐसे में नहर से मछली तो दूर से कोई किरौना भी नही आ सकता। कुल मिलाकर तालाब में मछली के आने के बिन्दु पर हम कभी एकमत न होते हुए भी इस बात पर सहमत थे कि तालाब में मछलियां रहती है और हर साल आती रहती है वैसे इस बात का हमें आश्चर्य भी होता था कि जब हम हर साल एक-एक मछली को ढूढ़कर निकाल लेते है तो फिर अगले साल मछली कैसे आ जाती है? और ऐसे में भोनू और राजू की आकाश व पाताल वाली थ्योरी सत्यता के काफी नजदीक लगती हुई भी हमें गले से नही उतरती।
मछली मारने का हमारा क्रम पानी बरसने और पानी जमा होने के साथ ही जुलाई में शुरू हो जाता। जुलाई में बरसात होते ही तालाब की ओर बहने वाले नाली, नालों से लेकर धान की क्यारियों तक मछलियां तैरती नजर आने लगती। मछलियां छोटी होती थी सिधरी, चेल्हवा, सौरी, पुठिया और झींगा छिछले पानी मे भी तैरते मिल जाती थी। कार्प जाति की सिधरी हमें सबसे ज्यादा आकर्षित करती। झूण्ड में एक साथ चलने वाली सिधरियां बहुत आसानी से मिल जाती थी। हम लोग सिधरी मारने के दो-तीन तरीके प्रयोग में लाते थे। छोटे-2 गड्ढ़े होने की स्थिति में एक सूती कपड़ा गमछा लेकर दो लोग पानी की तली तक हाथ जमा कर पूरे पानी को छान लेते थे ऐसे में काफी सिधरी के साथ घोंघा, सेवार भी छन जाते थे जिसे बाद में छाॅटना पड़ता था। दूसरा सबसे आसान तरीका था पहरा का ,जो सनई व सुखे सरई से बना अंग्रेजी अक्षर ‘वी’ के आकार की एक फ्रेमदार बुनाई होती थी। इसे पानी बहने वाले नाले, बाहे पर मेड़ बना दिया जाता था जिसमें पानी के साथ सिधरी, चेल्हवां, झींगा व अन्य मछलियां बहकर आती और पानी छनने के बाद उसी में रहते हुए फ्रेम के गहरे गड्ढे में गिर जाती थीं और दो-तीन घण्टे के बाद डेढ़-दो किलो मछलियां आराम से इकट्ठा हो जाती थी। पर बड़े लोग यह दोनों तरीका हम पर छोड़ देते थे क्योंकि उन्हें बड़ी मछलियों से मतलब था। मछली मारने का आनन्द ही कुछ और था जिसमें बरसात के समय रिमझिम-रिमझिम पड़ती पानी के फुहार के समय मछलियां और अधिक पानी के बहाव के साथ भागती नजर आती और मछली मारने वालों के मन में छल-छल, कल-कल की आवाज पर और अधिक आनन्द और चाहत बनी रहती। बड़ी मछलियों के मारने के भी कई तरीके थे वह मछली मारने वालों की संख्या और पानी की गति पर निर्भर करता था सबसे प्रचलित तरीका था फैसला लगाने का। फैसला एक छोटा जाल होता था जिसे बहते हुए पानी में लगाया जाता था। फैसला लगाने वालों में नन्हें चच्चा, लल्लन चच्चा, कैलाश बब्बा, शर्मा जी, नन्दलाल और भरवटी तथा मियानी टोला के लोग रहते थे। जाल लगाने के लिए जब बरसात में ताल मारने के बाद नहर से पानी निकलने लगता तो एकाध किलोमीटर आगे गाॅव से बाहर नहर को दोनों ओर से बाधकर बीच में मोटे मजबूत बाॅस के सहारे से जाल लगाकर रातभर मछली मारने की रखवाली की जाती और अगली सुबह जाल निकाला जाता तो उसमें कभी-कभी पचास किलो तक मछलियां निकलती। जब घोर बरसात बन्द हो जाती और पानी थोड़ा स्थिर हो जाता था तब ‘अखना’ लगाया जाता था। अखना सितम्बर माह के आखिर में लगना शुरू होता था तो वह नवरात्रि आने तक चलता रहता। अखना में भी कम से कम तीन चार लोगों की जरूरत होती थी। अखना बाधना बड़े धैर्य और कला का काम होता। अखना रात में बाॅधा जाता और उसकी रखवाली भी रात में करनी पड़ती क्योंकि कभी-कभी अखना पार्टी में न शामिल होने वाले भी जलन और चिढ़ के कारण अखना में पानी को खोल देते थे ऐसे में अखना बाॅधने की सारी मेहनत बर्बाद हो जाती। अखना विशेषकर पानी भरे खेतों में या तालाब के ऊपरी हिस्सों में मेड़ों पर लगाया जाता। मेड़ को चौड़ा बनाकर उसे बीच में एक गड्ढ़ा तीन बाई दो का बनाकर उसके बीच का पानी निकाल देते थे और उसकी मेड़ को चिकना करके लेबल पानी के बराबर कर देते थे। रात में मछलियां मेड़ को डाॅक कर दूसरे तरफ पार जाने के धोखे में उस गड्ढे में आ जाती थी और पानी न रहने से उसी में रात भर रह जाती थी। सुबह रखवाली करने वाले पानी में उतर कर उन मछलियों को बीन लाते थे। पर अखना में खतरा यह होता है कि अखना कहीं से खुल गया या पानी रिसने लगा तो उसमें पानी भर जाता और एक भी मछली नही मिलती। हमारे गाॅव में लगे अखना में से दस में से चार अखना का यही हश्र होता था। कभी कोई चुपके-छिपके से बधे पानी को खोल देते और कभी वह खुद कमजोर होकर टूट जाता। गेड़ान जब पानी स्थिर तथा कम हो जाता तब बाँधा जाता। गेड़ान में पानी कम होने पर दो मेड़ों के बीच की एरिया सील कर उसमें पानी निकाल देते और उसके कीचड़ में घुसी हुई मछलियों को पकड़ लेते। गेड़ान में मिलने वाली मछलियां बड़ी प्रजाति की होती जिसमें रोहू, पहिना, भांगुर, बाम रहती। इस तरह से हमारे गांव में जुलाई के बरसात से ही मछली मारना प्रारम्भ हो जाता और ताल में पानी रहने तक चलता रहता। हमसे कद काठी और उम्र में बड़े पर हमारे साथी सुरेश चच्चा और हम ने मछली मारने की श्रमहीन पद्धति पर भरोसा किया और हम और वह इस अभियान में पार्टनर बने। हम लोग मिट्टी की एक गगरी की पेदी में सरसो की खली पोत कर अखना वाले स्थान पर अच्छे ढंग से गड्ढा बनाकर अपनी गगरी गाड़ देते उसका मुॅह जल स्तर के बराबर रख देते और रात में खली की महक से मछलियां कूद कर उसमें आ जाती और हम दोनों का काम उन डेढ़-दो किलो सौरी गोईजी और टेंगरा में मजे में चल जाता। कभी-कभी तो ऐसा भी होता कि अखना वालों का अखना टूट जाता पर हम लोगों का गगरी वाला प्रोग्राम बहुत सफल रहता। फिर एक दिन ऐसा हुआ कि हम लोगों ने गगरी लगाना छोड़ दिया। उस रात में हम लोग अखना वालों के साथ उनके मेड़ पर अपनी गगरी फिक्स करके चले आये। सुबह खुशी-खुशी जाकर हम लोग अपनी गगरी उठाकर बाहर लाये और गगरी थोड़ी भारी दिख रही थी तो हम बहुत खुश हुए कि आज मछली ज्यादा फॅसी है। पर जब हम लोग गगरी के मुॅह को बाॅधे हुए बंधे पर ले आये और उसे हमलोगों ने पलटा तो गगरी छोड़ कर सुरेश चच्चा आगे भागे और मैं उनके पीछे-पीछे भागा। पीछे पलट कर हम लोगों ने यह भी देखने की कोशिश की कि गगरी सही सलामत है या हम लोगों ने उसे भी पटक कर फोड़ दिया। इस बार हम लोगों की गगरी में मछली के बदले में एक बड़ा सा डेड़हा सांप घुस गया था। वह गगरी में कूॅद कर आयी बाकी मछलियों को भोजन कर मोटा बना गगरी में बैठा था। गगरी में चिकनाई होने के कारण वह बाहर नही निकल कर जैसे सुबह हम लोगों की ही प्रतीक्षा कर रहा था। इस घटना के बाद से हमने मछली मारना बन्द कर दिया। क्योंकि तीन साल पहले भी एक अन्य मछली वाली घटना में ही मेरी काफी लानत मलानत हो चुकी थी। उस बार के प्रकरण में मैं अकेला नायक खलनायक, सहनायक सभी था। तब ये हुआ था कि दोपहर में मैं शौच करने के लिए तालाब पर गया था। शौचोपरान्त मैंने देखा कि तालाब के किनारे बने एक बहुत छोटे से गड़ढे में दो-तीन सौरी मछलियां घुस आयी है। गर्मी का दिन स्कूल की छुट्टी, सूनसान बन्धा और हाथ में पकड़ में आने लायक मछलियां। संयोग ऐसा था कि मैं मन को रोकने के बजाय गड्ढे की मेड़ बाॅध कर हथेलियों से पानी निकालकर तीनों सौरी मछलियों को पकड़ लिया और जेब में दबाये घर आया और पक्के बन रहे घर के आॅगन में एक किनारे भॅूसे की गाॅठ को इकट्ठा करके उन्हें भुनने के लिए आग जला दिया। आग जलते ही आग बढ़ते-बढ़ते भूसे की ढेर की तरफ बढ़ चली। शुरू में तो मैंने आग को बुझाने की कोशिश किया फिर स्थिति नियन्त्रण से बाहर होते देख वहाॅ से खिसकने में ही भलाई समझी। पाॅच सात मिनट बाद ही पूरा गाॅव मेरे दरवाजे पर हाथ में बाल्टी गगरा लिये आग बुझाने के लिए आ पहुॅचा। अगल-बगल के सभी कुयें हैण्ड पाइप से पानी खींच खाॅच कर पानी से आग पर काबू पाया गया और आग बूझ गयी। इस अबूझ पहेली पर सभी लोग चर्चा करते रहे कि आखिर आॅगन में रखे भूसे की ढेर में आग कैसे लगी? यह पहेली अबूझ ही रह जाती अगर मैं भूसे की आॅग बूझने के डेढ़-दो घण्टे बाद अपनी भूनी हुई मछलियों को खोजने की कोशिश में न पकड़ा जाता।
अक्टूबर में शारदीय नवरात्रि के शुरूआत होने के साथ ही बासन्तिक नवरात्रि तक मछली मारने वाले कार्यक्रम लगभग बन्द ही रहता। दो चार लोग जो कटिया लगा कर मछली मारते बस वे ही तालाब के किनारे मिलते। दोनों नवरात्रियों के बीच का यह अन्तराल हम लोगों के लिए भी बहुत व्यस्तता भरा रहता। खेलने से लेकर पढ़ने तक। और इस बीच ठण्डक बढ़ जाने से भी बड़े लोग खेतीबारी नौकरी में ही लगे रहते। बस छूड़ी महराज अपनी कटिया संभाले दोपहर को तालाब पर मछली मारते मिल जाते। वे बारहोमासी मछली भोजक थे। कभी-कभी उनकी देखा-देखी  गाॅव के निखिद्दी, मोईन आदि भी कटियां लगाते थे। हमने भी कटिया लगाने में हाथ अजमाया पर उतना धैर्य और गम्भीरता मुझमें कभी नही थी तो हम कटियामारी में कभी सफल नही रहें।
वासन्तिक नवरात्र के दस बीस दिन बाद स्कूल एकबेलवा हो जाता था और तालाब भी सूख जाता था। पानी किनारे-किनारे के गड्ढों में जमा हो जाता था अपने साथ अच्छी खासी मछलियों को लिये हुए। दिन निश्चित कर प्रधान जी की ओर से मछली मारने का एलान होता। पूरा गाॅव इकट्ठा होता और मछली मारने का घरवार चन्दा इकट्ठा होता। मई के पहले दूसरे सप्ताह में बारी-बारी से गड्ढों की मछलियां निकाली जाती। मछली मारने वालों के हिस्से लगने के बाद बची मछलियां पूरे गाॅव में बाॅट दी जाती। पूरा गाॅव हफ्तो मछली के महक से ही महकता रहता। हम बच्चा पार्टी की तो खूब चाॅदी रहती। सुबह शाम खाने के लिए मछली और दिन दुपहरी से शाम तक बन्धे पर मछली मराते हुए दृश्य को देखना। छोटे बब्बा खुद तो शाकाहारी थे पर हम लोेगों को गाॅव की मछली बटाई के हिस्से में कोई बेइमानी न हो जाये इसके लिए वे बहुत सावधान रहते कि हम लोगों को वे खुद हिस्सा लगने और बाॅटने के समय हम लोगों के साथ रहते, बच्चा समझ कर कोई टेनी न मार दे। उनके कम पढ़े लिखे होने के बावजूद बहुत ढेर सारी कहावते याद थी उन्हें में एक कहावत वे मछली मारने वाले दिनों में रोज बताते कि रोटी से बोटी, शुरूआ से भात, कुछ तीत कुछ तात, कुछ गइले पे रात। अर्थात् मछली खाने का नियम यह है कि मछली के पकौड़े यानि सूखी मछली से रोटी खाना चाहिए और उसके करी से चावल। यह दोनों तब खूब स्वादिष्ट लगते है जब वे थोड़े तीखे और मसालेदार हो और खाने का समय रात में हो।
अब छोटे बब्बा भी नही रहे। तालाब का स्वरूप भी बदल गया है। गजोखर वाले भू-भाग में नवोदय विद्यालय खुल गया है और वहाॅ भी झील जैसे पर्यटकस्थल बनाने की योजना चल रही है। तालाब में उपरी व छिछले भागाें में वन विभाग ने जंगल लगा दिया है। गाॅव के लोग बताते है कि उन जंगलों में सेंहुवार, घड़रोज, मोर, खरहा बहुत हो गये है। मछलियां कम हो गयी है। शायद न भी कम हुई हो पर गाॅव के लड़के अब पहरा, फैसला, अखना, गेड़ान नही जानते। कटिया भी अब शायद ही कही-कहीं दिखती है। नितिन बता रहा है कि अब मछली मारने की कोई डुगडुगी नही पिटाई जाती। जिसका जब मन हो वह जाकर मछली मारता है। अब गाॅव में मछली की महक का संयोग भी नही मिलता। जो लोग सालभर तक एक बेला का भोजन बिना मछली के करते ही नही थे उन्होंने भी बाजार से सब्जी खरीद कर खाना खाने की आदत में शामिल कर लिया है और गाॅव के बच्चे जो मछली मारने को मनोरंजन व खेल का साधन मानते थे उनके बच्चे मछली मारने में शर्म महसूस करते हैं। कोई कहावत वाला नही रहा न ही कहावत वाली मछरी।
रोटी से बोटी, शुरूआ से भात, कुछ तीत कुछ तात, कुछ गइले पे रात।
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गुरुवार, 20 अगस्त 2020

यह सड़क मेरे गॉव को नही जाती (८).... सगरी नगरिया घूम अईली लोय....

यह सड़क मेरे गॉव को नही जाती (भाग-८)

सगरी नगरिया घूम अइली लोय.........

यूॅ तो सांझ ढलते ही महकाली का कुआॅ और चौतरा विराना हो जाता था। छोटेपन पर हमारी माई (दादी) हमें किसी भी जिद पर डराती थी कि महकाली माई के पीपल वाली चुरईन सपने में आ जायेगी। पता नही बचपन की कितनी राते हम डर के मारे सोते ही नही थे कि हमारे सोते ही सपना आयेगा और सपने में चुरईन आ जायेगी। कितनी बार इस सपने को टालने में न सोने की कोशिश में ही हम सो जाते थे। अब यह याद भी नही कि सपने में चुरईन आई थी कि नही। लेकिन इतना जरूर याद है कि चुरईन की डर से हम कभी दिन में भी महकाली तक अकेले नही जाते थे और रात में महकाली तक क्या उससे कम से कम सौ मीटर की दूरी तक। वैसे भी महकाली जहाॅ दिन में खूब गुलजार रहता वही रात में शाम को दीया जलाने के बाद कोई वहाॅ फटकता नही था। पर जब घोर अंधेरे का खरपतवार वाला मौसम बरसात आता तो एक पखवारे तक महकाली का चौतरा, मैदान सब रात में गुलजार हो जाते। तब उस पर गाॅव की लड़कियों का एक छत्र अधिकार होता और उसमें किसी पुरूष सदस्य का प्रवेश क्या वहाॅ फटकना भी उन्हें स्वीकार नही था।
पचैयां छुट्टी के दिन हम पूरे गाॅव के लड़के मिलकर वहाॅ पूरे मैदान को साफ सुथरा कर वहाॅ लगे घास फूस खरपतवार को उखाड़ पखाड़कर चमका देते। रोज शाम लालटेम जलते ही गाॅव की लड़कियां वहाॅ पहुॅच जाती कजरी खेलने। ऐसे में वे लड़कियाॅ टोली की मेट रहती जिनका विवाह पिछले लगन में हुआ होता था। वे कुछ आगे ही बढ़-चढ़कर झूला पटरा डालने के लिये उत्साहित रहती थी। विवाह के पहले जिन लड़कियों ने कभी किसी के आगे मुॅह भी नही खोला हो, वह गाॅव की बिटिया भी चच्चा, ताऊ, बब्बा से कहकर झूले टंगवा लेती थी। मोटे-मोटे सनई का सन या पटुआ का बना नार और उस पर किसी कमरे की अक्सी पर टंगा किवाड़ रखकर बनाया गया पल्ला, फिर जो सुबह से शाम तक झूले पर पटेंग पड़ती थी कि खाना पीना सब भूल जाता था। पूरे गाॅव में तीन से चार पटेंग तो पड़ते ही थे। झूले के बाद गॉव की सभी लड़कियॉ पूरे सावन मास भर और सुबह शाम अपने हाथों से बनाई गयी मिट्टी के गोल पिण्डी (ढॅूही) में जौ व गेहॅू के दाने को गोद कर उसपर सूती कपड़े को लपेटकर पानी के हल्के-हल्के छींटे देकर जरई को जल्दी-जल्दी बढ़ाने की कोशिश करती। यह जरई वाला कार्यक्रम पंचैया से ही शुरू हो जाता था। सुबह-सुबह जेठ के महीने में ताल से निकाल कर लायी गयी मिट्टी के चक्के को खूब अच्छी तरह बूक कर उसे गीला कर दिया जाता और नहा धोकर पवित्र भाव से उस गीली मिट्टी की छोटी सी ढूढ़ी बनाकर उसमें करीने से गेहॅू के दाने गाड़ना फिर एक मिट्टी के खुले बर्तन में राख के उपर उसे रखकर सूती कपड़े से ढक देना फिर सुबह शाम उसे पानी देना और उसके बढ़ने की कामना कि मेरी जरई जल्दी से बढ़ जाये। पूरे कजरी भर का यही कार्यक्रम रहता था इन लड़कियों का। शाम होते ही महकाली माई के चौघट्टे पर पहुॅचकर फूल मस्ती धमाल। मान्यता यह थी कि जो जितना खेलेंगी कूदेंगी उसकी जरई उतनी ही जल्दी बढ़ेगी। जरई और कजरी की दो परस्पर विरोधी बातें मैं आज तक नही समझ पाया कि जरई में धान वाले मौसम में गेहॅू क्यों बोती थी दीदी और जरई के बढ़ने और महकाली माई के चौघट्टे में आपसी सम्बन्ध क्या था? हमें तो बस जरई के पूजा का इसलिए इन्तजार रहता था कि उस पूरे एक पखवाड़े जरई के बहाने, झूले पर पटेंग मारने में साथ देने के लिए मैं दीदी से सालभर के डाॅट खाने का पूरा बदला निकाल लेता था। जरई के विसर्जन वाले दिन तीज के एक रात पहले रतजगा होता था और रतजगे का इन्तजार दीदी से ज्यादा हमें होता था क्योंकि शाम होते ही बब्बा हिरामनपुर से संकठा हलवाई के यहाॅ से छनी हुई गरमागरम चोटहिया जलेबी और जलेबा ले आते थे शाम को लाई और जलेबा का स्वाद जो मीठा न होकर भी मीठे से बढकर होता था। उसी को खाकर दीदी चौघट्टे चली जाती और बचे जलेबे को हम तब तक मन भर जाने के बाद भी खाते रहते जब तक उसका कुरकुरापन ठण्डा नही हो जाता। उस पूरी रात गाॅव भर की लड़कियां गाॅव भर घूम-घूम कर रजजगा करती थी उनके खुद के रतजगे के कारण शायद हीं गाॅव के बाकी लोग उस रात को सो पाते होंगे हमें तो नही लगता था। हम तो यूॅू ही नींद आने के बाद भी जागते रहने की कोशिश करते कि हमें रतजगा में खुद का नाम सुनने की चाह रहती जिसके लिए दीदी से हम पिछले दो तीन दिन से सिफारिश करते रहते। तब जाकर खुद का नाम सुनने की तमन्ना पूरी होती। रतजगे की रात नौ बजे से दीदी की टीम शुरू हो जाती थी ‘‘सगरी नगरिया घूम अईली लोय, कोहू नाही जागत बाटैं लोय, जागे त जागे एक बबलू लाला लोय, जेकरे पढ़ईया क सोच हो, केहॅू नाही जागत बाटैं लोय।’’ वैसे यह भी एक न बूझने वाला ही तथ्य है कि मैं अपनी पढ़ाई के सोच के लिए कभी नही जगा और यह भी उस तरह का लोय था जैसे आज कल मोबाईल में एलओएल वाला लोल होता है। रतजगा के दूसरे दिन सुबह से ही लगभग हर परिवार में हलचल मच जाती थी। मान्यता के अनुसार जरई माता सुबह ही मर जाती थी और दीदी लोग जरई माई को उस राख की ढेर से निकाल कर उसे लेकर महकाली के चौघट्टे पर पहुॅच जाती थी। वहाॅ पर गाॅव की बाकी लड़कियों के साथ अपनी-अपनी जरई  लेकर गाॅव के बाहर पोखरे पर जाती। इधर हम लोग अपने-अपने घर की लड़कियों के कपड़े लेकर दूसरे रास्ते से पोखरे पर जाते थे क्योंकि मरी हुई दक्षिण दिशा की ओर लिटाई गयी जरई माता के रास्ते से लेकर जरई ढोने वाली दीदी और उनके सहेलियों को छूना व मिलना बिलकुल मना होता था, उनके नहाने तक। हम लोग पोखरे के भींटे पर बैठे उन लोगों का पोखरे में तैरते हुए और हल्ला गुल्ला मचाते हुए देखकर कूढ़ते रहते थे। कजरी की पिंडी को पोखरे में विसर्जन कर पिण्डी पर उगे हुए ज्वारों को पिण्डी से अलग कर डीहबाबा के सिर पर चढ़ाने के बाद जब दीदी सबसे पहले जरई के ज्वार को हमारे कानों पर रखती थीं और भाई के लम्बी आयु की कामना करती हुई चलती। हम भी दीदी के साथ गाॅव में बिलकुल सुभद्रा के साथ चलते हुए श्रीकृष्ण और बलराम वाली जोड़ी का एहसास लेकर गाॅव में घुसते। कोई व्यक्ति उस वक्त हमारा सीना नापता तो आज भी यह दावा कर सकता हॅू कि उस वक्त जरूर हमारा सीना छप्पन इंच का रहता रहा होगा। घर आने के बाद दीदी को कानों पर सुशोभित जरई रखने का पैंसा भी देना पड़ता और शाम तक उससे मेरी इस बात पर जरूर लड़ाई होती कि कजरी पर वह मुझसे जो इतना ढेर सारा काम करवायी थी और ऊपर से पैसा भी लिया।
कजरी सिर्फ चौघट्टे पर रतजगे पर होती थी ऐसा भी नही। हमारे गाॅव और आस-पास के गावों में कजरी के समय कजरी दंगल होते थे जिसमें कबड्डी, कुश्ती जैसे कजरी के मैच होते थे। अकसर जब हम मीडिल स्कूल में पढ़कर वापस घर आते रहते थे तो हमारे गाॅव के भरवटी में कजरी दंगल होता था। कजरी दंगल के निर्णायक उसके निर्णय का आधार क्या रखते थे यह तो मालूम नहीं। लेकिन कजरी सुनने मेें जो रूनझुन-रूनझुन जैसी एक लय वाली उतार-चढ़ाव सहित बिना रूके चलते कजरी के धुन आज बड़े-बड़े गीतकार और कवि बना पायेंगे मुझे इसमें सन्देह है। किसी खुले मैदान में बादलों से छाये दिन में दस पन्द्रह बंसहटी वाली खटिया और उनके बीच दस या बारह की संख्या में घेरे में लोग गोल-गोल चक्कर लगाते हुए कजरी गीत गाते थे। हमारे गाॅव के लल्लन प्रसाद कजरी के उम्दा कलाकार थे। लल्लन प्रसाद यूॅ तो सालभर गाॅव के पशुओं की चरवाही करते थे। इस चरवाही के बदले उन्हें प्रति नग पशु का पैसा मिलता था उसी में उनका व उनके परिवार की जिन्दगी राजी खुशी से चल जाती थी। बाद में सुना कि उनका लड़का गाॅव का प्रधान बन गया और उनके दिन लौट आये और अब उनके पास गाॅव पर एक बाईक, दो मंजिला मकान, दो नलिया बन्दूक, शहर में तीन बेडरूम वाला फ्लैट और चार पहिया गाड़ी सब कुछ है। मेरा मन कहता है कि वह जो कजरी में भगवान की कजरी बनाकर गाते थे उसी का फल मिला होगा। भले ही देर से ही सही। तो कजरी टीम में कभी पाॅच तो कभी छः लोग रहते थे जो अपनी टीम में एक दूसरे के पीछे घूमते हुए कजरी की गीत गाते रहते। कजरी मैच दो तरह से खेला जाता था एक अन्ताकक्षरी शैली में तो दूसरा सवाल-जबाब शैली में। गोल चक्करों में घूमती हुई अन्ताकक्षरी शैली मुझे ज्यादा समझ में आती थी और सुनने में मजेदार भी। जैसे- ‘‘झूला पड़े कदम्ब की डारी, झूले राधा संग मुरारी ना’’ से लेकर ‘‘झूला झुले नन्दलाल संग राधा गुजरिया ना, कहे राधा जी पुकार, पेंग मारो सरकार, उड़े पगड़ी तोहार मोरि चुनरिया ना। ‘‘सावन बीत गयो मोरे रामा, नाही आये घर सजनवां नां।’’ तब स्कूल जाते कभी-कभी धान की क्यारियों में धान रोपते समय रोपनहरियों के मुख से एक मीठी लय सुनने में आती थी कि-‘‘ रिमझिम बरसेला बदरिया, गुईयां गावेंली कजरियां ना। वहीं धनिया की कियरिया और भीजै सारी बदनियां रामा.........।  ‘‘पिया मेंहदी लियाइदै मोतीझील से, जाइके साइकिल से ना। पिया मेंहदी लियइहै, छोटकी ननदी से पिसइबैं, अपने हाथों से लगादै काॅटा कील से, जाइयके साइकिल से ना।’’ जब मेरे साथ गाॅव के सारे लड़के स्कूल जाते तो रास्ते में गढ्डे में बैठे मेंढकों को पकड़ते और उनके टर्र-टर्र की आवाज में भरी ‘‘दादुरगीत’’ सुनने मेंमजे लेते । पर मेरा ध्यान धान की क्यारियों से उठने वाले इस लयबद्ध संगीत की ओर रहता। उस समय साॅवन के महीने में गायी गयी कजरी के बोल की धुन मुझे आज भी चावल के सुगन्ध में महकती-सी लगती है।
आज भी मैं धनकियारियों में रोपे जाते धानों को देख रहा हॅूं। अब रोपनहरिने बिहार और पूर्वी इलाकों से आती है वे अब बीघे के हिसाब से रोपन कार्य करती है तो उनका ध्यान चावल के सुगन्ध में नही बल्कि बीघे के नाप तौल में होता है। अब महकाली के पीपल तले चौघट्टा भी नही बनता। स्कूल काॅलेजों में कजरी, तीज, ललहीछठ, जूतिया, नागपंचमी और रेनी डे जैसी छुट्टियां खत्म होने के कारण अब गाॅव के बच्चे समय नही निकाल पाते तो पुरानी बखरियां खत्म होने से किवाड़ के पल्ले और कुएं नही रहने से नार व रस्सियां और पेड़ों के कट जाने से उन्हें टांगने के लिये झूले नहीं पड़ते। शाम को झूले खोजने के बजाय बच्चों की आॅखे कोचिंग के बोर्ड और कजरी के बदले उनके कान कोचिंग के लेक्चर सुनने में है। कजरी गाॅवों के लिए एक भूला हुआ इतिहास बनकर रह गया है। वह भूला हुआ इतिहास जो कि मुहबोले रिश्तों को भी दिल के करीब ले आता था।
कजरी परम्परा कब शुरू हुई इसका कोई निश्चित इतिहास तो नही पर कजरी एक ऐसा त्योहार है जो अपने गायन परम्परा के नाम से जुड़ा है। कजरी के लोकगीतों की रानी भी कहते है। यह मात्र गायन ही नही बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियां अपने पीहर वापस आती है और वगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों के संग कजरी गाते हुए झूला-झूलती है।
कजरी के मूलतः तीन रूप पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिखते हैं। गोरखपुरी, बनारसी और मिर्जापुरी। हमारे गाॅव गिरांव में गायी जाने वाली बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोले की वजह से अलग पहचान वाली थी। धुनमुनिया और परजनियॉ शैली में चौघट्टे और मैदानों मे गोल गोल घूम कर तो खेतों में समान लय से उठते-झूकते गायी जाने वाली कजरी दिल के तारों को छूते हुए रिश्तों को खनकाती थी।
आज उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर में कजरी गाॅवों से समाप्त होकर रेडियों और टी.वी. के क्षेत्रीय कार्यक्रमों में सिमट गयी है पर यह प्रकृति के तादात्म का गीत है। इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना का बोध था। निःसन्देह सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का। इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों की अपने में समेटे यूॅ ही गाॅव के पराये रिश्तों को भी अपनेपन में खनकाती रही। जरई के कमजोर हरे पत्तों में छिपे मजबूत रिश्तों के विश्वास को समेटे भाई-बहन, ननद-भावज, देवर-भाभी, कृष्ण-राधा, शिव-पार्वती के रिश्तों को आपसी मनुहार, छेड़छाड़ में यॅू ही लुटाती रही। आज जरई पूजा समाप्त हो गयी है। कजरी दंगल और चैघट्टे से बिलुप्त होकर रेडियों व टी0वी0 के कामर्शियल स्वरूप में आ चुकी है पर क्या वह उन आपसी रिश्तों को पुनः जी जायेगी जिसमें गाॅव के मुॅहबोले चाचा, ताऊ, भैया का अपनापन था। पर सच यह है कि कजरी आज भी हमारी जनचेतना का परिचायक है मुझे विश्वास है कि जब तक धरती पर हरियाली रहेगी तब तक इन रिश्तों को मजबूत करने का सपना आभासी रूप में ही बनाये रहेगी।
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