गुरुवार, 20 अगस्त 2020

यह सड़क मेरे गॉव को नही जाती (८).... सगरी नगरिया घूम अईली लोय....

यह सड़क मेरे गॉव को नही जाती (भाग-८)

सगरी नगरिया घूम अइली लोय.........

यूॅ तो सांझ ढलते ही महकाली का कुआॅ और चौतरा विराना हो जाता था। छोटेपन पर हमारी माई (दादी) हमें किसी भी जिद पर डराती थी कि महकाली माई के पीपल वाली चुरईन सपने में आ जायेगी। पता नही बचपन की कितनी राते हम डर के मारे सोते ही नही थे कि हमारे सोते ही सपना आयेगा और सपने में चुरईन आ जायेगी। कितनी बार इस सपने को टालने में न सोने की कोशिश में ही हम सो जाते थे। अब यह याद भी नही कि सपने में चुरईन आई थी कि नही। लेकिन इतना जरूर याद है कि चुरईन की डर से हम कभी दिन में भी महकाली तक अकेले नही जाते थे और रात में महकाली तक क्या उससे कम से कम सौ मीटर की दूरी तक। वैसे भी महकाली जहाॅ दिन में खूब गुलजार रहता वही रात में शाम को दीया जलाने के बाद कोई वहाॅ फटकता नही था। पर जब घोर अंधेरे का खरपतवार वाला मौसम बरसात आता तो एक पखवारे तक महकाली का चौतरा, मैदान सब रात में गुलजार हो जाते। तब उस पर गाॅव की लड़कियों का एक छत्र अधिकार होता और उसमें किसी पुरूष सदस्य का प्रवेश क्या वहाॅ फटकना भी उन्हें स्वीकार नही था।
पचैयां छुट्टी के दिन हम पूरे गाॅव के लड़के मिलकर वहाॅ पूरे मैदान को साफ सुथरा कर वहाॅ लगे घास फूस खरपतवार को उखाड़ पखाड़कर चमका देते। रोज शाम लालटेम जलते ही गाॅव की लड़कियां वहाॅ पहुॅच जाती कजरी खेलने। ऐसे में वे लड़कियाॅ टोली की मेट रहती जिनका विवाह पिछले लगन में हुआ होता था। वे कुछ आगे ही बढ़-चढ़कर झूला पटरा डालने के लिये उत्साहित रहती थी। विवाह के पहले जिन लड़कियों ने कभी किसी के आगे मुॅह भी नही खोला हो, वह गाॅव की बिटिया भी चच्चा, ताऊ, बब्बा से कहकर झूले टंगवा लेती थी। मोटे-मोटे सनई का सन या पटुआ का बना नार और उस पर किसी कमरे की अक्सी पर टंगा किवाड़ रखकर बनाया गया पल्ला, फिर जो सुबह से शाम तक झूले पर पटेंग पड़ती थी कि खाना पीना सब भूल जाता था। पूरे गाॅव में तीन से चार पटेंग तो पड़ते ही थे। झूले के बाद गॉव की सभी लड़कियॉ पूरे सावन मास भर और सुबह शाम अपने हाथों से बनाई गयी मिट्टी के गोल पिण्डी (ढॅूही) में जौ व गेहॅू के दाने को गोद कर उसपर सूती कपड़े को लपेटकर पानी के हल्के-हल्के छींटे देकर जरई को जल्दी-जल्दी बढ़ाने की कोशिश करती। यह जरई वाला कार्यक्रम पंचैया से ही शुरू हो जाता था। सुबह-सुबह जेठ के महीने में ताल से निकाल कर लायी गयी मिट्टी के चक्के को खूब अच्छी तरह बूक कर उसे गीला कर दिया जाता और नहा धोकर पवित्र भाव से उस गीली मिट्टी की छोटी सी ढूढ़ी बनाकर उसमें करीने से गेहॅू के दाने गाड़ना फिर एक मिट्टी के खुले बर्तन में राख के उपर उसे रखकर सूती कपड़े से ढक देना फिर सुबह शाम उसे पानी देना और उसके बढ़ने की कामना कि मेरी जरई जल्दी से बढ़ जाये। पूरे कजरी भर का यही कार्यक्रम रहता था इन लड़कियों का। शाम होते ही महकाली माई के चौघट्टे पर पहुॅचकर फूल मस्ती धमाल। मान्यता यह थी कि जो जितना खेलेंगी कूदेंगी उसकी जरई उतनी ही जल्दी बढ़ेगी। जरई और कजरी की दो परस्पर विरोधी बातें मैं आज तक नही समझ पाया कि जरई में धान वाले मौसम में गेहॅू क्यों बोती थी दीदी और जरई के बढ़ने और महकाली माई के चौघट्टे में आपसी सम्बन्ध क्या था? हमें तो बस जरई के पूजा का इसलिए इन्तजार रहता था कि उस पूरे एक पखवाड़े जरई के बहाने, झूले पर पटेंग मारने में साथ देने के लिए मैं दीदी से सालभर के डाॅट खाने का पूरा बदला निकाल लेता था। जरई के विसर्जन वाले दिन तीज के एक रात पहले रतजगा होता था और रतजगे का इन्तजार दीदी से ज्यादा हमें होता था क्योंकि शाम होते ही बब्बा हिरामनपुर से संकठा हलवाई के यहाॅ से छनी हुई गरमागरम चोटहिया जलेबी और जलेबा ले आते थे शाम को लाई और जलेबा का स्वाद जो मीठा न होकर भी मीठे से बढकर होता था। उसी को खाकर दीदी चौघट्टे चली जाती और बचे जलेबे को हम तब तक मन भर जाने के बाद भी खाते रहते जब तक उसका कुरकुरापन ठण्डा नही हो जाता। उस पूरी रात गाॅव भर की लड़कियां गाॅव भर घूम-घूम कर रजजगा करती थी उनके खुद के रतजगे के कारण शायद हीं गाॅव के बाकी लोग उस रात को सो पाते होंगे हमें तो नही लगता था। हम तो यूॅू ही नींद आने के बाद भी जागते रहने की कोशिश करते कि हमें रतजगा में खुद का नाम सुनने की चाह रहती जिसके लिए दीदी से हम पिछले दो तीन दिन से सिफारिश करते रहते। तब जाकर खुद का नाम सुनने की तमन्ना पूरी होती। रतजगे की रात नौ बजे से दीदी की टीम शुरू हो जाती थी ‘‘सगरी नगरिया घूम अईली लोय, कोहू नाही जागत बाटैं लोय, जागे त जागे एक बबलू लाला लोय, जेकरे पढ़ईया क सोच हो, केहॅू नाही जागत बाटैं लोय।’’ वैसे यह भी एक न बूझने वाला ही तथ्य है कि मैं अपनी पढ़ाई के सोच के लिए कभी नही जगा और यह भी उस तरह का लोय था जैसे आज कल मोबाईल में एलओएल वाला लोल होता है। रतजगा के दूसरे दिन सुबह से ही लगभग हर परिवार में हलचल मच जाती थी। मान्यता के अनुसार जरई माता सुबह ही मर जाती थी और दीदी लोग जरई माई को उस राख की ढेर से निकाल कर उसे लेकर महकाली के चौघट्टे पर पहुॅच जाती थी। वहाॅ पर गाॅव की बाकी लड़कियों के साथ अपनी-अपनी जरई  लेकर गाॅव के बाहर पोखरे पर जाती। इधर हम लोग अपने-अपने घर की लड़कियों के कपड़े लेकर दूसरे रास्ते से पोखरे पर जाते थे क्योंकि मरी हुई दक्षिण दिशा की ओर लिटाई गयी जरई माता के रास्ते से लेकर जरई ढोने वाली दीदी और उनके सहेलियों को छूना व मिलना बिलकुल मना होता था, उनके नहाने तक। हम लोग पोखरे के भींटे पर बैठे उन लोगों का पोखरे में तैरते हुए और हल्ला गुल्ला मचाते हुए देखकर कूढ़ते रहते थे। कजरी की पिंडी को पोखरे में विसर्जन कर पिण्डी पर उगे हुए ज्वारों को पिण्डी से अलग कर डीहबाबा के सिर पर चढ़ाने के बाद जब दीदी सबसे पहले जरई के ज्वार को हमारे कानों पर रखती थीं और भाई के लम्बी आयु की कामना करती हुई चलती। हम भी दीदी के साथ गाॅव में बिलकुल सुभद्रा के साथ चलते हुए श्रीकृष्ण और बलराम वाली जोड़ी का एहसास लेकर गाॅव में घुसते। कोई व्यक्ति उस वक्त हमारा सीना नापता तो आज भी यह दावा कर सकता हॅू कि उस वक्त जरूर हमारा सीना छप्पन इंच का रहता रहा होगा। घर आने के बाद दीदी को कानों पर सुशोभित जरई रखने का पैंसा भी देना पड़ता और शाम तक उससे मेरी इस बात पर जरूर लड़ाई होती कि कजरी पर वह मुझसे जो इतना ढेर सारा काम करवायी थी और ऊपर से पैसा भी लिया।
कजरी सिर्फ चौघट्टे पर रतजगे पर होती थी ऐसा भी नही। हमारे गाॅव और आस-पास के गावों में कजरी के समय कजरी दंगल होते थे जिसमें कबड्डी, कुश्ती जैसे कजरी के मैच होते थे। अकसर जब हम मीडिल स्कूल में पढ़कर वापस घर आते रहते थे तो हमारे गाॅव के भरवटी में कजरी दंगल होता था। कजरी दंगल के निर्णायक उसके निर्णय का आधार क्या रखते थे यह तो मालूम नहीं। लेकिन कजरी सुनने मेें जो रूनझुन-रूनझुन जैसी एक लय वाली उतार-चढ़ाव सहित बिना रूके चलते कजरी के धुन आज बड़े-बड़े गीतकार और कवि बना पायेंगे मुझे इसमें सन्देह है। किसी खुले मैदान में बादलों से छाये दिन में दस पन्द्रह बंसहटी वाली खटिया और उनके बीच दस या बारह की संख्या में घेरे में लोग गोल-गोल चक्कर लगाते हुए कजरी गीत गाते थे। हमारे गाॅव के लल्लन प्रसाद कजरी के उम्दा कलाकार थे। लल्लन प्रसाद यूॅ तो सालभर गाॅव के पशुओं की चरवाही करते थे। इस चरवाही के बदले उन्हें प्रति नग पशु का पैसा मिलता था उसी में उनका व उनके परिवार की जिन्दगी राजी खुशी से चल जाती थी। बाद में सुना कि उनका लड़का गाॅव का प्रधान बन गया और उनके दिन लौट आये और अब उनके पास गाॅव पर एक बाईक, दो मंजिला मकान, दो नलिया बन्दूक, शहर में तीन बेडरूम वाला फ्लैट और चार पहिया गाड़ी सब कुछ है। मेरा मन कहता है कि वह जो कजरी में भगवान की कजरी बनाकर गाते थे उसी का फल मिला होगा। भले ही देर से ही सही। तो कजरी टीम में कभी पाॅच तो कभी छः लोग रहते थे जो अपनी टीम में एक दूसरे के पीछे घूमते हुए कजरी की गीत गाते रहते। कजरी मैच दो तरह से खेला जाता था एक अन्ताकक्षरी शैली में तो दूसरा सवाल-जबाब शैली में। गोल चक्करों में घूमती हुई अन्ताकक्षरी शैली मुझे ज्यादा समझ में आती थी और सुनने में मजेदार भी। जैसे- ‘‘झूला पड़े कदम्ब की डारी, झूले राधा संग मुरारी ना’’ से लेकर ‘‘झूला झुले नन्दलाल संग राधा गुजरिया ना, कहे राधा जी पुकार, पेंग मारो सरकार, उड़े पगड़ी तोहार मोरि चुनरिया ना। ‘‘सावन बीत गयो मोरे रामा, नाही आये घर सजनवां नां।’’ तब स्कूल जाते कभी-कभी धान की क्यारियों में धान रोपते समय रोपनहरियों के मुख से एक मीठी लय सुनने में आती थी कि-‘‘ रिमझिम बरसेला बदरिया, गुईयां गावेंली कजरियां ना। वहीं धनिया की कियरिया और भीजै सारी बदनियां रामा.........।  ‘‘पिया मेंहदी लियाइदै मोतीझील से, जाइके साइकिल से ना। पिया मेंहदी लियइहै, छोटकी ननदी से पिसइबैं, अपने हाथों से लगादै काॅटा कील से, जाइयके साइकिल से ना।’’ जब मेरे साथ गाॅव के सारे लड़के स्कूल जाते तो रास्ते में गढ्डे में बैठे मेंढकों को पकड़ते और उनके टर्र-टर्र की आवाज में भरी ‘‘दादुरगीत’’ सुनने मेंमजे लेते । पर मेरा ध्यान धान की क्यारियों से उठने वाले इस लयबद्ध संगीत की ओर रहता। उस समय साॅवन के महीने में गायी गयी कजरी के बोल की धुन मुझे आज भी चावल के सुगन्ध में महकती-सी लगती है।
आज भी मैं धनकियारियों में रोपे जाते धानों को देख रहा हॅूं। अब रोपनहरिने बिहार और पूर्वी इलाकों से आती है वे अब बीघे के हिसाब से रोपन कार्य करती है तो उनका ध्यान चावल के सुगन्ध में नही बल्कि बीघे के नाप तौल में होता है। अब महकाली के पीपल तले चौघट्टा भी नही बनता। स्कूल काॅलेजों में कजरी, तीज, ललहीछठ, जूतिया, नागपंचमी और रेनी डे जैसी छुट्टियां खत्म होने के कारण अब गाॅव के बच्चे समय नही निकाल पाते तो पुरानी बखरियां खत्म होने से किवाड़ के पल्ले और कुएं नही रहने से नार व रस्सियां और पेड़ों के कट जाने से उन्हें टांगने के लिये झूले नहीं पड़ते। शाम को झूले खोजने के बजाय बच्चों की आॅखे कोचिंग के बोर्ड और कजरी के बदले उनके कान कोचिंग के लेक्चर सुनने में है। कजरी गाॅवों के लिए एक भूला हुआ इतिहास बनकर रह गया है। वह भूला हुआ इतिहास जो कि मुहबोले रिश्तों को भी दिल के करीब ले आता था।
कजरी परम्परा कब शुरू हुई इसका कोई निश्चित इतिहास तो नही पर कजरी एक ऐसा त्योहार है जो अपने गायन परम्परा के नाम से जुड़ा है। कजरी के लोकगीतों की रानी भी कहते है। यह मात्र गायन ही नही बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियां अपने पीहर वापस आती है और वगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों के संग कजरी गाते हुए झूला-झूलती है।
कजरी के मूलतः तीन रूप पूर्वी उत्तर प्रदेश में दिखते हैं। गोरखपुरी, बनारसी और मिर्जापुरी। हमारे गाॅव गिरांव में गायी जाने वाली बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोले की वजह से अलग पहचान वाली थी। धुनमुनिया और परजनियॉ शैली में चौघट्टे और मैदानों मे गोल गोल घूम कर तो खेतों में समान लय से उठते-झूकते गायी जाने वाली कजरी दिल के तारों को छूते हुए रिश्तों को खनकाती थी।
आज उपभोक्तावादी बाजार के ग्लैमरस दौर में कजरी गाॅवों से समाप्त होकर रेडियों और टी.वी. के क्षेत्रीय कार्यक्रमों में सिमट गयी है पर यह प्रकृति के तादात्म का गीत है। इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना का बोध था। निःसन्देह सावन प्रतीक है सुख का, सुन्दरता का, प्रेम का, उल्लास का। इन सब के बीच कजरी जीवन के अनुपम क्षणों की अपने में समेटे यूॅ ही गाॅव के पराये रिश्तों को भी अपनेपन में खनकाती रही। जरई के कमजोर हरे पत्तों में छिपे मजबूत रिश्तों के विश्वास को समेटे भाई-बहन, ननद-भावज, देवर-भाभी, कृष्ण-राधा, शिव-पार्वती के रिश्तों को आपसी मनुहार, छेड़छाड़ में यॅू ही लुटाती रही। आज जरई पूजा समाप्त हो गयी है। कजरी दंगल और चैघट्टे से बिलुप्त होकर रेडियों व टी0वी0 के कामर्शियल स्वरूप में आ चुकी है पर क्या वह उन आपसी रिश्तों को पुनः जी जायेगी जिसमें गाॅव के मुॅहबोले चाचा, ताऊ, भैया का अपनापन था। पर सच यह है कि कजरी आज भी हमारी जनचेतना का परिचायक है मुझे विश्वास है कि जब तक धरती पर हरियाली रहेगी तब तक इन रिश्तों को मजबूत करने का सपना आभासी रूप में ही बनाये रहेगी।
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