यह सड़क मेरे गॉव को नही जाती /(भाग-7)
कहनी कहौ कि महनी महौ.....
मुझे याद नही कि मैं अपने बब्बा के पास कब से सोना शुरू किया पर यह याद है कि जब से मुझे अपने सोने की याद है मैं अपने बब्बा के पास ही सोता था। मेरे बब्बा की दो आदतें थी एक हाथ में तुलसी माला लिये हुए हमेशा सुमिरन ओम नमो नरायन, ओम नमो नरायन करते थे और दूसरी, अखबार में अपने पेंशन के बारे में समाचार खोजते रहते। एक मैं ही था जो उनके दोनों कार्यक्रमों के बारे में हस्तक्षेप करने का एकाधिकार रखता था। जैसे बब्बा की रात सोने से पहले नींद आने तक लगातार माला जपने की आदत थी, वैसे मेरी भी कहानी सुनकर ही सोने की आदत थी। बब्बा मुझे रामायण, महाभारत, सुदामा, राधा, कृष्ण, कीनाराम बाबा सबकी कहानी सुनाते थे पर एक कहानी मेरे और उनके बीच रोजाना कार्यक्रम का हिस्सा थी। मजा यह था कि वह कहानी मुझे भी बब्बा के साथ याद हो गयी थी पर बब्बा के सुनाने का अन्दाज ऐसा था कि उसे रोज सुनकर भी हम बासी नही मानते थे और रोज उसे सुनने का कारण यह भी था कि पूरी कहानी मैं कभी सुन नही पाया था। बब्बा एक और कहानी सुनाते ‘‘रामदास टिपटिपवा मरलन।’ कहानी में रामदास की विजय गाथा से ज्यादा बब्बा का-"ऐ बचवा इहाॅ टिपटिपवा आवेला।" का अन्दाज बेमिसाल था, पर बिनाका गीत माला के टाप पायदान पर रहने वाले गाने की तरह हमेशा उस एक सदाबहार कहानी की चर्चा जरूरी है। वह कहानी थी-‘‘कहनी कहौ कि महनी महौ, महनी बसावैं तीन गाॅव, दो ठो बसबै न करै एक ठो उजड़ल जाये, जौन उजड़न जाये, ओमे बसे तीन कोहार, दो ठो लूला रहे, एक कै हथवै नाही, जौने के हथवै नाहि, उ खनलेस तीन कूॅआ, दो ठो सूखल जाय, एक में पनिये नाहि, जौने में पनिये नाहि, ओमे लोटे तीन सियार, दो ठो बाणा रहे एक कै पोछिये नाहि, जौने के पोछिये नाहि उ चोरउलेस तीन धान, दो ठे छुच्छी रहे एक में चउरै नाहि। जौने में चउरे नाहि ओमे नेवतलै तीन बांभन, दो ठो कोहायल जाय, एक ठो खइबै ना करै, जौन खईबै न करे ओकरे बदे बारेन तीन चूल्हा, दो ठे बरबै न करें, एक में अगियै नाहि, जौने में अगियै नाहि, ओपर रखाइल तीन हाड़ी, दो ठो फूटल जाय एक में पेंदिये नाहि, जउने में पेदिये नाहीं, ओम्मे डललन तीन चाउर, दो ठो सिकठी रहेन,एक ठो चुरबै न करै, जौन चुरबै न करै, औमे बनल तीन कटोरी खीर, दो कटोरी सूखै सूखै,एक में दूधवे नाही, जउनै में दुधवै नही वो के जुठरलन तीन विलार, दो थे बूढ़ा रहेन, एक के दतवे नाहि, जौने के दतवे नाहि, वो धरलेस तीन चूहिया, दो थे आन्हर रहलिन एक कै अंखियन नाहि, जौने के अंखियै नाहि उ कटलेस तीन बोरा, दो ठे खाली-खाली, एक मैं मुहवै नाहि। जौने के मुहवै नाहि वो के अगोरे तीन किसान, दो थे र्निभूमि रहे एक के खेतबै नाहि, जौने के खेतवै नाहि ओ बोयै तीन ऊख, दो थे सूखल सूखल, एकमें रसबै नाहि...................। कहनी कहो कि महनी महौ के कहानी में आखिर में क्या हुआ वह मुझे आज तक नही पता। क्योंकि कभी बामनों के नेवतने तक तो कभी चावलाें के पकने तक मुझे नींद आ जाती थी और यह कहानी सबसे आखिर में ही क्यों सुनाते थे इसका राज मुझे अपने बच्चों को कहानी सुनाते समय समझ में आया।
मेरे बब्बा यानि कमलेश नारायण लाल स्वयं किसी कहानी के नायक से कम नही थे। जीवन के उतर चढ़ाव के ढेरों झंझावतों को झेलते हुए भी वे एक आदर्श जीवन जीये और अपना जीवन शतक पूरा किये। पितामह महराज यानि मेरे बब्बा का जीवन स्वयं में ही किसी कहानी से कम नही था। उनके पिता जी मेरे प्रपितामह मु0 सकल नरायन लाल जी अपने समय के बहुत विद्वान व्यक्ति थे। उस समय इन्ट्रेस पास सकलनरायन जी हिन्दी एवं अंग्रेजी के कवि थे और उनकी रचनाएं देश के जाने माने पत्र पत्रिकाओं से लेकर ग्रेट ब्रिटेन से प्रकाशित होने वाले पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुकी थी। उनकी विद्वता को देखते हुए महाराजा हथुआ ने उन्हें अपना दीवान और सेक्रेटरी के रूप में नियुक्त किया। बनारस में तब के सिविल लाईन्स माने जाने वाले कचहरी चौकाघाट मार्ग (अब मकबूल आलम रोड) पर महाराजा हथुआ की कोठी में आवास और शिवपुर में तरना, चमाॅव व पिसौर की जमींदारी की देखभाल करने वाले मु0 सकलनरायन लाल के एक मात्र पुत्र थे मेरे बाबा। तीन बहनों के अकेले लाड़ले। मातृत्व से बंचित। बाबा के सुख सुविधा के लिए उस वक्त उनके माँग पर हर चीज मौजूद रहती थी। बींसवी सदी के तीसरे दशक में उनको पढ़ने के लिए तब शहर के अंग्रेज और हिन्दुस्तानी (भारतीय अंग्रेजों) अफसरानों के बच्चों के शिक्षा के लिए स्थापित प्रतिष्ठित कटिंग मेमोरियल स्कूल नदेसर में उनका नाम लिखवाया गया। उस दौर में बाबा को स्कूल से आगे जाने के लिए मोटर कार और रेसस में गरम टिफिन पहुॅचाने के लिए हरकारे लगे हुए थे। अब इतनी सुख सुविधाओं में बब्बा क्या पढ़ते? उनको ट्यूशन के लिए तब लमही के होनहार गरीब युवक धनपत राय को नियुक्त किया गया था। यही धनपत राय जी बाद में मुंशी प्रेमचन्द्र जी के नाम से उपन्यास सम्राट के रूप में जाने गये। उस समय वे क्वींस कालेज में पढ़ते हुए अपने जीवन व भविष्य हेतु संघर्षशील थे। तब के धनपत राय बब्बा के चौकाघाट वाले आवास में रहकर अपनी पढ़ाई जारी रखने के साथ हमारे बब्बा की पढ़ाई को भी जारी कराने का प्रयत्न कर रहे थे। बाबा मु0 सकलनरायन लाल जी साहित्य अनुरागी विद्वान एवं अंग्रेजों के बीच उठने बैठने वाले रसूखदार शख्स थे तो उनके यहाॅ हिन्दी साहित्य के विद्वानों सहित स्वतऩ्त्रता संग्राम सेनानियों का अक्सर आना-जाना लगा रहता था। एक चित्र जो अभी भी यदा कदा देखने को मिल जाता है उसमें बब्बा के पिता जी यानि मु0 सकलनरायन जी चित्र में पीछ खड़े आचार्य शिवपूजन सहाय और प्रेमचन्द के मध्य कुर्सी पर विराजमान है। बनारस के ख्यातिनाम चिकित्सक डा0 सत्य नारायण वर्मा जी भी बब्बा के सहपाठी थे। पर इन सबके साथ जो सबसे बड़ा सच था कि बब्बा का मन पढ़ने में कभी नही लगा। हिन्दी एवं अंग्रेजी भाषा में अच्छी दखल होने के अतिरिक्त अन्य विषयों में उनका मन नही लगता था। लिहाजा तब के बर्नाक्यूलर और अन्य परीक्षायें उनके लिए एक मुश्किल हुआ करती थी। उनका मैट्रिक उत्तीर्ण होना भी एक हादसा ही था। जिसमें उन्हें बिना परीक्षा दिये ही प्रमाण पत्र जारी कर दिया गया था।
हुआ यॅू कि एकबार बब्बा के कटिंग मेमोरियल स्कूल में कोई अंग्रेज सैन्य अधिकारी उनके प्रिंसिपल से मिलने आया। कटिंग मेमोरियल इण्टर कालेज आज भी वैसे ही है जैसे तब लगभग एक सौ वर्ष पूर्व हुआ करता था। विद्यालय के मुख्य द्वार से विद्यालय के प्रिंसपल कार्यालय भवन के मध्य की दूरी अच्छी खासी। उस अंग्रेज सैन्य अधिकारी ने विद्यालय के आदर व शिष्टाचार का पालन करते हुए अपनी गाड़ी विद्यालय के मुख्य द्वार पर छोड़ा और पैदल फौजी चाल चलते हुए विद्यालय के मुख्य भवन की ओर बढ़ने लगा तभी उसे रास्ते में मेरे बब्बा मिल गये तब वे दसवीं की परीक्षा में दो बार फेल हो जाने के बाद तीसरे साल पढ़ रहे थे। अंग्रेज अधिकारी ने बब्बा को आवाज दिया- "हे यंग ब्वाय, व्हेयर इज यूअर प्रिंसिपल आफिस?"
"गुड नून सर, माई प्रिंसिपल आफिस इज देयर, बट ही इज आउट आफ स्कूल राईट नाऊ।" बब्बा ने अपने सुसंस्कृति अंग्रेजी में जबाब दिया।
"वेरी वेल आई विल रिविजट टू मारो, थैक्यू यंग ब्वाय।"
"यूअर वेलकम सर, वी विल प्लीज्ड बाई यूअर विजिट।"बब्बा अंग्रेजीयत सलीके में पुनः जबाब दिये। वह अंग्रेज सैन्य अधिकारी एक भारतीय स्कूली छात्र के इस भाषा संस्कार व सलीके से बहुत प्रभावित हुआ।
"ओ यंग ब्याज, व्हाट्स यूअर नेम प्लीज?"
"माई डियर सर, आई एम कमलेश नरायन श्रीवास्तव फ्राम क्लास 10सी",
"वेरी गुड सी यू अगेन श्रीवास्तो, बाय।" अंग्रेज सैन्य अधिकारी ने अपना हाथ आगे बढ़ाया।
"श्योर सर, युअर मोस्ट वेलकम, बाय सर।"बब्बा ने भी गर्मजोशी से हाथ मिलाया।
बात आई गयी हो जाती अगर वो अंग्रेज मिलटरी आफिसर दो दिन बाद कटिंग मेमोरियल स्कूल में फिर से नही आया होता। पर दो दिन बाद वो अंग्रेज मिलीटरी आफिसर स्कूल में क्या आया और मेरे बब्बा को पढ़ाई से हमेशा के लिए फुर्सत ही मिल गयी। तीसरे पीरियेड में फिजिक्स में ध्वनि का उबाऊ क्लास चल रहा था बब्बा की दिलचस्पी कभी भी भौतिक शास्त्र में नही रही। तभी प्रिंसिपल साहब का चपरासी बब्बा को खोजता हुआ कक्षा 10सी में आया कि उन्हें प्रिंसिपल साहब का सम्मन बताते हुए तुरन्त हाजिर होने को कहा। ऐसे में हाजिर होने के सिवा कोई रास्ता भी नहीं था। जब बब्बा प्रिंसिपल सर के आफिस में पहुॅचे तो वही सोमवार वाले मिलिट्री वाले आफिसर भी बैठे हुये थे। बब्बा ने प्रिसिंपल सहित उसको भी गुड मार्निंग सर बोला।
"हे श्रीवास्तो, हाउ आर यू, यंग ब्याय।" वह आफिसर चहका।
"वेरी फाईन सर, थैंक्यू। प्लीज्ड टू सी यू अगेन।" बब्बा ने जबाब दिया।
"या या वेरी नाइस। हे श्रीवास्तो,युअर प्रिंसिपल टोल्ट डैट यू नाट सक्सीड इन युअर बोर्ड इक्जामिनेशन, व्हाई? व्हाट इज यूअर प्राब्लम? व्हाई डिडन्ट यू सक्सेज?"
"व्हाट आई कैन से सर, आई ट्राइड आल्वेज माई बेस्ट। आई गाट एट्टी फाईव इन इंग्लिश एण्ड सिक्सटीफोर इन हिन्दी।"
"थैट्स गुड, मि0 प्रिंसपल आई थिंक, श्रीवास्तो हैज क्नालेज एण्ड सब्जेक्ट स्किल्स बट ही इज वीक इन रायटिंग एक्सप्रेसन।"
" यस सर आई थिंक सो, आई एम आव्स्यूलटली एग्री विद यू सर।" प्रिंसपल साहब उस मिलीटरी आफिसर के स्वर में स्वर हकलाते हुए मिला रहे थे।
"हूम्म इट्स ओके, श्रीवास्तव इज गुड ब्याय, ही मे असिस्ट टू आवर सिस्टम फार गुड गवर्नेन्स।"
"यस सर यस सर।" प्रिंसिपल साहब ने हाॅ में हाॅ मिलाया।
उस मिलिटरी आफिसर ने प्रिंसपल से स्कूल का छपा हुआ लेटर पैड वाला पेपर माॅगा और उस पर अपने हाथो से लिखा- It is certified that Mr Kamlesh Narayan Srivastava s/o Mr Sakal Narayan Lal Srivastava of Class 10C of Cutting Memorial High School ,Benaras is well qualified as Matriculation for any Governmental or Non- Governmental jobs.
I wish for his good life and bright future.
Benaras, 26Sept.1934, WednesDay
John C.McPhilip
Lt. Colonel, 4th Bn.
Royal Indian Army, Benaras Cantt.
उस दिन बब्बा खुशी खुशी वो सर्टिफिकेट लेकर घर पहुॅचे। वह यह सोचकर ही खुश थे कि ये रोज-रोज स्कूल जाने और फिजिक्स के ध्वनि, प्रकाश, चुम्बक, विद्युत और केमिस्ट्री के परस्पर उलझे केमिकल बैलेन्सिंग,इलेक्ट्रान, प्रोटान से मुक्ति मिली और बिना परीक्षा दिये प्रमाण पत्र भी मिल गया। शाम को अपने पिता जी के कचहरी से वापस आते ही खुशी-खुशी अपनी बिना मैदान में उतरे ही मैच के विजेता बन जाने जैसा सर्टिफिकेट उन्हें दिखाने के लिए पहुॅचे पर पिता जी सर्टिफिकेट देख शाबासी देने के बजाय उन्हें निराश करते हुए धिक्कारा - ‘‘यह अंग्रेजों का दिया हुआ भीख है, अगर तुम इस साल भी फेल हो जाते तो मुझे उतना दुःख नही होता जितना तुम्हारे इस सर्टिफिकेट पाने से है।’’
"तो पिता जी, मैं इस सर्टिफिकेट को वापस कर दॅू?"
‘डेफनेटली, यू मस्ट डू इट। आई विल बी हैप्पी व्हेन यू विल सक्सेस इन युअर इक्जामिनेशन बाई युअर मेरिट। यू शूड प्रूफ योर मेरिट देयर।’’ पिता जी ने समझाया।
बस बब्बा ने अपनी नई-नई आयी हुई रेले साइकिल उठाया और कचहरी होते हुए वरूणा के किनारे से कैन्टोमेन्ट पहुॅच गये। साहब के बंगले का पता तो था नही। पर वे सर्टिफिकेट पर लिखे नाम ले0कर्नल जान मैकफिलीप को पूछते हुए उस अंग्रेज सैन्य आफिसर के बंगले पर पहुॅच गये। बड़े से अहाते में बने बंगले के गेट पर खड़े अर्दली से उन्हाेने अपना नाम लेकर साहब से मिलने को कहा। अर्दली पहले तो आश्चर्य में पड़ा कि शाम के समय एक हिन्दुस्तानी स्कूल ब्वाय अकेले कर्नल साहब से क्यूँ मिलना चाहता है। फिर भी उसने अपने साहब से जाकर बताया जो अपने बंगले के ऊॅचे बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे। कर्नल ने बब्बा को तुरन्त बुलवा लिया।
"हे श्रीवास्तो, यंग मैन, हाऊ डू यू डू? कम, कम यूअर मोस्ट वेलकम एट माई रेजिडेन्स।’’
‘‘गुड इवनिंग सर! आई एम फाईन, थैक्यू, हाऊ डू यू डू?’’
‘‘आई एम फाईन यंग मैन, सिट डाऊन प्लीज, एण्ड टेल व्हाई डिड यू कम?"
‘‘सर, आई एम सारी,आई कान्ट एक्सेप्ट युअर सर्टिफिकेट! आई बिल गिव माई बोर्ड एक्जामिनेशन।’’ बब्बा ने आत्म स्वाभिमान से कहा। यह उस अंग्रेज मिलिटरी आफिसर के लिये आश्चर्य जनक तथ्य था कि कोई भारतीय लड़का अपने मिले इस अजूबे उपलब्धि को वापस लौटाने आया है। वह बब्बा से और भी प्रभावित हुआ।
‘‘ओह वेल, बट व्हाई डिड यू नाट गेट इट? एनी प्राब्लम?"
‘‘यस सर, आई वांट टू प्रूफ माइसेल्फ इन इक्जामिनेशन इनस्पाइट आफ दिस प्लीजनेस।’’ बब्बा ने बेखौफ जबाब दिया।
‘‘हुम्म!"अब सोचने की बारी कर्नल मैकफिलिफ की थी वह बब्बा का और मुरीद होता जा रहा था। इतने सालों से हिन्दुस्तान में रहते हुए उसे पहली बार किसी हिन्दुस्तानी ने अपनी ईमानदारी, शिष्टता और आत्मविश्वास से प्रभावित किया था वह भी इस युवा लड़के ने। वह और भी प्रभावित होता जा रहा था।
‘‘वेल श्रीवास्तो, हैव ए टी।’ उसने खुद चाय बनाकर कप बब्बा की ओर बढ़ाया। ‘‘या, व्हाट डू यू वांट टू बी इन युअर लाईफ?’
अब बब्बा तो इस सवाल के लिए तैयार नही थे। सच तो यह है कि उन्होंने अभी तक कभी इस विषय पर सोचा ही नही था कि उन्हें पढ़ाई के बाद क्या करना है? अभी वे कैन्टोमेण्ट एरिया की शान्ति, मिलिटरी अफसरान के बड़े-बड़े बंगले, गेट पर सिपाही, बरामदे में अर्दली, मैदान से चार सीढ़ी ऊपर चढ़कर खुला बरामदा इन्ही सब से अभिभूत थे। उन्होंने फटाफट निश्चय कर लिया कि उन्हें मिलीटरी में जाना है।
‘‘सर आई वुड लाइक टू बी ए मिलिटरी परसोनल’’ बब्बा ने अभी अभी तय किये अपने निश्चय को शब्द रूप दिया।
‘‘वेरीगुड, यू हैव परफेक्ट हाईट, यू आर आनेस्ट एण्ड एक्टिव। श्योरली यू शुड गो इन रायल इण्डियन आर्मी।’’
‘‘यस सर, इट इज माई ड्रीम, आई वांट टू सी माईसेल्फ इन मिलिटरी यूनिफार्म।’’ बब्बा के तत्काल देखे सपने को नये पंख मिले।
‘‘सर थैक्यू अगेन फार युअर ग्रेटनेस, लेट मी गो नाऊ।’’ बब्बा चाय खत्म कर कप को टेबुल पर वापस रखते हुए कहा।
‘‘वेल श्रीवास्तो, आई एम सो हैप्पी दैट यू वांट टू ज्वाईन मिलिटरी। सो आई रिकमेण्डेड यू फार रायल इण्डियन आर्मी। यू मे गेट युअर ज्वाइनिंग एण्ड अथारिटी लेटर टूमारो फ्राम माई आफिस फार ज्वाइन दि ट्रेनिंग सेण्टर।’’ कर्नल मैकफिलिप ने पूरे प्रकरण का सुखद अन्त एक झटके के साथ कर दिया।
इस तरह मेरे बब्बा रायल इण्डियन आर्मी के अंग हो गये। सुबह से शाम के बीच हुये हाईस्कूल पास होने से लेकर नौकरी पाने तक का घटना क्रम किसी सपने से कम नही था और सपना भी ऐसा जो उन्होंने तुरन्त देखा और पूरा भी हो गया। बब्बा अपने पिता जी का मन न होने के बावजूद पढ़ाई-लिखाई का लम्बा चलने वाला चक्कर छोड़ अपना बोरिया बिस्तरा बाॅध कर जबलपुर में आर्मी आर्डिनेन्स कोर के ट्रेनिंग सेण्टर पर नये रंगरूटों में शामिल हो गये। ट्रेनिंग पूरा होते-होते द्वितीय विश्व युद्ध प्रारम्भ हो गया था तो उन्हें अपनी बटालियन के साथ रायल इण्डियन आर्मी के नये-नये बने 23वें डिविजन में शामिल कर जावा भेज दिया गया। जावा के लिए बब्बा के डिवीजन के ज्यादातर सैनिकों को हवाई जहाज से वहाॅ उतारा गया था। इस लिहाज से हवाई यात्रा करने वाले और समुन्दर पार करने वाले बब्बा हमारे इलाके के पहले व्यक्ति होने का गौरव भी प्राप्त किये थे। जावा में कुछ महीनों के बाद उनकी बटालियन का डिप्लायमेन्ट वर्मा (वर्तमान म्यमार) में हुआ जहाॅ जापानियों के साथ लड़ाई में हुए बमबारी में उनके एक कान की पूरी और दूसरे काम के 40 प्रतिशत श्रवण शक्ति समाप्त हो गयी। बब्बा को मेडिकल डिसेबिलिटी एलाउन्स सहित भारतीय नौ सेना के कलकत्ता स्थित नेवी बेस हास्पिटल में रखा गया। जहाॅ उनके इलाज के साथ सिविल लाईफ में पुर्नव्यवस्थित होने हेतु प्रशिक्षण की व्यवस्था थी। इसी बीच नौसैनिक विद्रोह की बंबई से खबर मिलते ही कलकत्ता नैवी बेस के सैनिकों एवं कर्मचारियों ने भी अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध विद्रोह कर दिया। इस नौ सैनिक विद्रोह में हिन्दू व मुसलमान दोनों थे। तब तक भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम से प्रभावित हो बब्बा भी उस विद्रोह में शामिल हो गये। अंग्रेजों ने तत्परता से सरदार पटेल और मुहम्मद अली जिन्ना को मध्यस्थ बनाकर 23 फरवरी, 1946 को विद्रोही भारतीय नौ सैनिकों का आत्म समर्पण करवा दिया। आत्म समर्पण के समय सरदार पटेल ने भारतीय नौ सैनिक विद्रोहियों को यह आश्वासन दिया था कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग उन्हें अन्याय व प्रतिशोध का शिकार नहीं होने देंगे। पर बाद में सेना के अनुशासन की दुहाई देते हुए सरदार पटेल ने अपना वायदा तोड़ दिया और अपने देश के भारतीय नौ सैनिकों के साथ विश्वासघात किया। दुःखद यह रहा कि देश की आजादी के लिए आशा के किरण बने महात्मा कहे जाने वाले गाँधी जी और भावी प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने भी नौ सैनिक विद्रोही भारतीयों का साथ न देकर उनकी निन्दा करते हुए कहा कि यदि नौ सैनिकों को कोई शिकायत हो तो वे नौकरी छोड़ दें। हालांकि अरूणा आसफ अली और अच्युत पटवर्धन ने इन नौ सैनिकों का मनोबल बढ़ाते हुए साथ देने की कोशिश किया पर गाँधी नेहरू पटेल के प्रभामण्डल के आगे उनकी कुछ नही चली। परिणामतः विद्रोह में शामिल सभी भारतीय नौ सैनिकों की नौकरी से निकाल कर उन्हें कारावास में डाल दिया गया। इन कारावासियों में हमारे बब्बा भी शामिल थे। पर इस विद्रोह का देश के लिए सुखद परिणाम यह रहा कि ब्रिटिश सरकार को यह अच्छी तरह महसूस हो गया कि अब भारत को ज्यादा दिन गुलाम रखना सम्भव नही। ब्रिटिश प्रधानमन्त्री क्लामेन्ट रिचर्ड एटली ने ब्रिटिश संसद में इस मुद्दे पर चर्चा में स्पष्ट कहा कि अब भारत में टिक पाना अंग्रेजों के लिए मुश्किल है। अंग्रेजी फौजों के भारतीय सिपाही बागी हो चुके है। इसलिए अब भारतीयों को सत्ता हस्तान्तरित करने की घोषणा कर देनी चाहिए। एटली ने सत्ता हस्तान्तरण के लिए लार्ड माउन्ट बेटेन को भारत भेजा और अगस्त 1947 में सत्ता का हस्तान्तरण भारत और पाकिस्तान के रूप में हो गया, पर बब्बा बाकी नौ सैनिक विद्रोहियों के साथ जेल में ही बन्द थे और दिसम्बर 1947 में उन लोगों को नौकरी से बर्खास्त करते हुए जेल से रिहा कर दिया गया। बब्बा वापस बनारस आये तब तक यहाॅ की स्थितियाॅ भी काफी बदल गयी थी। आजादी के साथ ही सारे राज और रियासते खत्म हो गयी थी। बब्बा के पिता जी भी दीवान गिरी और शहर से मुक्त होकर अब गाॅव में आ बसे थे। नफासत की जिन्दगी के बजाय अब जरूरत पर जिन्दगी आधारित हो गई थी। बब्बा ने कर्नल मैकफिलिप के लिखे उसी प्रमाण पत्र के आधार पर नार्मल टीचिंग कोर्स किया और मीडिल स्कूल में अध्यापक हो गये। बब्बा कान से कम सुनने लगे थे पर अंग्रेजी सेना में रहने और नैवल ट्रेनिंग में लिखा पढ़ी की अच्छी जानकारी होने से वे पढ़ाने के अलावा स्कूल के हिसाब-किताब बिल बाउचर रजिस्टर आदि का काम बढ़िया कर लेते थे तो उन्हें स्कूल से वही काम जिला परिषद, ट्रेजरी आफिस और स्कूल के बीच सामंजस्य बनाने का कार्य दिया गया जिसका उन्होंने अपने द्वितीय अवकाश प्राप्ति (शिक्षक धर्म से) 1977 तक बखूबी निर्वहन किया। आजादी के पाॅच-सात साल बाद भारत सरकार ने द्वितीय विश्वयुद्ध में लड़े और पूर्व में अंग्रेजी सेना में रहे, भारतीय सैनिकों की पेंशन भी मान लिया जो बारह रूपये से शुरू होकर बब्बा के शिवलोक गमन तक लगभग बारह हजार रूपये हो गयी थी। सन् 1977 में मीडिल स्कूल से रिटायर होने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने भी उन्हें शिक्षक पेंशन देना प्रारम्भ किया। दोनों मिलाकर एक अच्छी खासी रकम हो जाती थी जो बब्बा के लिए पर्याप्त से अधिक थी फिर भी बब्बा अपनी पेंशन में हुई वृद्धि के प्रति हमेशा जागरूक रहे। क्योंकि उनका मानता था कि पेंशन निर्वाह राशि प्रत्येक सेवामुक्त व्यक्ति का मौलिक अधिकार होता है जिसे छोड़ना अपने मूल कर्तव्य की अवहेलना करना है।
बरामदे वाले कमरे में बब्बा का बड़ा सा तैल चित्र टॅगा हुआ है। चन्दन के छिलकों की माला के बीच मुस्कराते हुए बब्बा जैसे अब सोने के पहले वाली आखिरी कहानी कह रहे हो पर आज वह कहानी के बोलों को आभाषी रूप से सुन के मुझे नींद नही आ रही बल्कि आॅखों के कोरो में रिस आये आॅसूओं के बीच में मैं भी उनको देख के मुस्करा देता हॅू। कहानी अभी भी याद आ रही है। वह अन्तहीन कहानी ‘‘कहनी कहौ कि महनी महौ, महनी बसावै तीन गाॅव।’’
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