*आखिर अंतर फिर भी रह ही गया! 😊
1) *बचपन में जब हम रेल की यात्रा करते थे, माँ घर से खाना बनाकर साथ ले जाती थी, पर रेल में कुछ लोगों को जब खाना खरीद कर खाते देखते, तब बड़ा मन करता था कि हम भी खरीद कर खाएँ !*
पिताजी ने समझाया- ये हमारे बस का नहीं ! ये तो बड़े व अमीर लोग हैं जो इस तरह पैसे खर्च कर सकते हैं, हम नहीं !
बड़े होकर देखा, अब जब हम खाना खरीद कर खा रहे हैं, तो "स्वास्थ्य सचेतन के लिए", वो बड़े लोग घर का भोजन ले जा रहे हैं...आखिर अंतर रह ही गया !
🧐🧐🧐🧐🧐🧐🧐🧐
2) *बचपन में जब हम सूती कपड़े पहनते थे, तब वो लोग टेरीलीन पहनते थे ! बड़ा मन करता था, पर पिताजी कहते- हम इतना खर्च नहीं कर सकते !*
बड़े होकर जब हम टेरीलीन पहने लगे, तब वो लोग सूती कपड़े पहनने लगे ! अब सूती कपड़े महँगे हो गए ! हम अब उतने खर्च नहीं कर सकते थे !
आखिर अंतर रह ही गया...😒🤔
⚖⚖⚖⚖⚖⚖⚖
3) *बचपन में जब खेलते-खेलते हमारा पतलून घुटनों के पास से फट जाता, माँ बड़ी कारीगरी से उसे रफू कर देती, और हम खुश हो जाते थे। बस उठते-बैठते अपने हाथों से घुटनों के पास का वो रफू वाला हिस्सा जरूर ढँक लेते थे !*
बड़े होकर देखा वो लोग घुटनों के पास फटे पतलून महँगे दामों में बड़े दुकानों से खरीद कर पहन रहे हैं !
आखिर अंतर रह ही गया...🤔😒
⚖⚖⚖⚖⚖⚖⚖⚖
4) *बचपन में हम साईकिल बड़ी मुश्किल से खरीद पाते, तब वे स्कूटर पर जाते ! जब हम स्कूटर खरीदे, वो कार की सवारी करने लगे और जब तक हम मारुति खरीदे, वो बीएमडब्लू पर जाते दिखे !*
और हम जब रिटायरमेन्ट का पैसा लगाकर BMW खरीदे, अंतर को मिटाने के लिए, तो वो साईकिलिंग करते नज़र आए, स्वास्थ्य के लिए।
*आखिर अंतर फिर भी रह ही गया...🤔😒*
हर हाल में हर समय दो विभिन्न लोगों में "अंतर" रह ही जाता है।
"अंतर" सतत है, सनातन है,
अतः सदा सर्वदा रहेगा।
कभी भी दो भिन्न व्यक्ति और दो विभिन्न परिस्थितियां एक जैसी नहीं होतीं।
कहीं ऐसा न हो कि कल की सोचते-सोचते हम आज को ही खो दें और फिर कल इसी को आज को याद करें।
*इसलिए जिस हाल में हैं... जैसे हैं... प्रसन्न रहें।*
*आप मुस्कुराइए, जिंदगी मुस्कुराएगी*
😚🙂😚🙂😚
कभी कभी सोशल मीडिया भी मजेदार वाकये याद दिला देता है।