व्योमवार्ता/ अजीतभारती की किताब "घरवापसी ", व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 2जनवरी 2020
बिहार के बेगूसराय से चल कर दिल्ली मे डेरा डंडा जमायें वर्तमान समय के मेरे सबसे पसंदीदा पत्रकारों मे से एक अजीत भारती जी की किताब 'घर वापसी ' पढ़ के अभी फुरसत पाया हूँ।अजीत भारती जी की इससे पहले "बकर पुराण" नाम की लिखी किताब पढ़ा था पर "घरवापसी"मे मुझे बेहद समीचीन समस्या पर लिखी और आज के पढ़े लिखे प्रतिभाशाली नवयुवकों की अपनी माटी के लिये कुछ करने की तड़प और कुछ करने की जिद दिखी, शायद यही मेरे इस किताब के बारे मे लिखने का कारण भी बना। यूँ तो अजीत भारती जी भी अपने माटी से जुड़ कर अपने लोगो को आज के मीडिया विशेष मे विषव्यापित कर रहे विशेष लोगों के छद्म कुटिल उद्देश्यों से सनी मानसिकता को उजागिर करने के जिद मे लगे है। ऑपइण्डिया के अपने विश्लेषण के माध्यम से वे कुटिलता भरे विषव्यापित कर रहे स्वनामधन्य कथित पंथनिरपेक्ष कहे जाने वाले खुद अपने ईमानदारी का ढिंढोरा पीटने वाले सेकूलर पत्तलकारों की उन्ही के विशेष अंदाज मे उनके कथित समाचार प्रस्तुतियों का जो पोस्टमार्टम करते हैं उसे देख तबियत मस्त हो जाती है और अनायास ही देश की नीतियों को बचाने और संस्कारों के लम्बरदार बनने वाले मीडिया मठ वाले अपनी बड़ी बड़ी आँखे नचा नचा कर गंभीर शैली मे सपाट कहने की शैली मे आमजन को भरमाते उन खास लोगों की नीयत का खुलाशा होते देख सुन होंठ अपने आप मुस्कराने लगता है।
बहरहाल बात " घर वापसी " की। घरवापसी भी बिहार , पूर्वी उत्तर प्रदेश के गंगा के विशाल मैदानी क्षेत्र से गये उन हजारों युवकों के ऑखों मे बसे उन सपनों की कहानी है जिन्हे वह चाह कर भी सोई ऑखों से भूल नही पाता और जगती ऑखों मे कटु जिम्मेदारियॉ उन्हे पूरा नही करने देती।यूँ तो विस्थापित युवा के संघर्ष और आंतरिक संवाद यहाँ भी दिखते हैं, लेकिन संदर्भ अलग हो जाता है। ‘घरवापसी’ के मूल में संघर्ष है। यह संघर्ष एक बच्चे का अपने जीवन के उद्देश्य को लेकर है जो कि लगातार उसके अंदर कुलबुलाता रहता है। वह इससे परेशान होता है, और इससे निकलने का हर प्रयास करता है। यह रिश्तों की कहानी है जहाँ पिता-पुत्र, पति-पत्नी, दोस्ती जैसे वैयक्तिक रिश्तों के साथ-साथ व्यक्ति का अपने समाज के साथ बने रिश्ते को भी जगह दी गई है। हम वही होते हैं जो हमारा समाज हमें पालकर बनाता है।व्यक्ति तरह-तरह के वातावरण से ली गई हवाओं के ख़ून तक में संचारित होने से वो बनता है जो वो बन जाता है। हमारा दौर, पहले के तमाम दौरों की तरह, मिश्रित और बनावटी वास्तविकताओं का दौर है। सूचनाएँ आती हैं, जाती हैं, हम उनके हिसाब से, उन्हें समझते हुए, खुद को उनके अनुरूप, विपरीत, या निरपेक्ष रहते हुए व्यक्तित्वमें बदलाव लाते, या नहीं लाते हैं।बिहार से बाहर आ चुकी एक पूरी पीढ़ी के भीतर यह संघर्ष चलता रहता है। कहने का सीधा मतलब यह है कि हमारे अंदर कई लोग होते हैं। किताबों में लिखे शब्दों से लेकर फ़ेसबुक, व्हाट्सएप्प, दोस्तों के बीच की बातों में और पारिवारिक जगहों पर हम अलग-अलग व्यक्ति होते हैं। हर जगह हमारी आकाँक्षाएँ अलग होती हैं, संघर्ष अलग होता है। सुखमय वर्तमान अपनी विस्थापित जड़ों को नई मिट्टी में सींच तो रहा है, लेकिन वो पुरानी नम तासीर नहीं मिलती। दो दुनिया के बीच फँसा हमारा जीवन न तो दिल्ली का हो पाता है, न बेगूसराय के रतनमन बभनगामा गाँव का। वो बहुत कुछ करना चाहता है, लेकिन सब भीतर ही कहीं क़ैद रह जाता है।विस्थापन का सबसे बड़ा दर्द अपने घर को छोड़कर बाहर आना नहीं है। उस दर्द को आप अपने नए परिवार के साथ जी लेते हैं। आप ख़ुद को समझा लेते हैं कि आपके बच्चे के बेहतर भविष्य के लिए आपका विस्थापित होना सही है। लेकिन एक बड़ा दर्द हमेशा यह रहता है कि आप उसी गली में दोबारा जा पाते तो उसे थोड़ी बेहतरी दे पाते। हर बार गाँव जाते वक़्त रिक्शा वाले से यह पूछ बैठना कि ‘अरे अभी भी सड़क नहीं बनी’, या ‘दहेज के लिए अभी भी जला देते हैं’, उसी दर्द का विस्तार है। आपके मन में यह आता है कि इसमें कुछ बदलाव कर सकते आप, लेकिन वो हो नहीं पाएगा। क्योंकि अपने भविष्य के सामने समाज का भविष्य हमेशा पीछे रह जाता है। बहुत कम लोगों में यह हिम्मत होती है कि जब वो सड़क पर खड़ा हो तो वापस मुड़ जाए।
डॉ. विवेकी राय जब उस सड़क पर खड़े हुए तो उन्होंने कुछ और चुना। उनके सामने भी परिवार, बेहतर जीवनशैली, बेहतर भविष्य की नींव का पत्थर पड़ा था। साथ ही, उनके सामने ही वो गाँव भी था जिसने उन्हें इस लायक बनाया था कि वे अपने भविष्य को बेहतर कर सकें। समाज भी एक परिवार होता है, वो भी एक माँ-बाप का जोड़ा है जो आप में निवेश करता है। हमारी पीढ़ी माँ-बाप को भी त्याग देती है, और समाज के नाम पर उसके पास कुछ वैसे फ़ोन नंबर के अलावा कुछ नहीं होता जिससे आनेवाले कॉल को वो ख़ाली वक़्त में भी उठाने से पहले सोचने लगता है। घरवापसी के अंतर्द्वंद्व से हमारी पीढ़ी हर रोज़ जूझती है।वही अंतर्द्वंद्व इस कहानी के मुख्य पात्र रवि का भी है। उसके अवचेतन में कोई नोचता है, खरोंचता है, चिल्लाता है… लेकिन उसके चेतन का विस्तार, उसके वर्तमान की चमक उस छटपटाहट को बेआवाज़ बनाकर दबा देते हैं। रवि अपनीअपूर्णताओंको जीते हुए, उनसे लड़ते हुए, बचपन में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर का पीछा करता रहता है कि उसे क्या बनना है। अपने वर्तमान में सामाजिक दृष्टि से ‘सफल’ रवि का अपने अवचेतन के सामने आने पर, ख़ुद को लंबे रास्ते के दो छोरों को तोलते हुए पाना, और तय करना कि घर लौटूँ, या घर को लौट जाऊँ, ही ‘घरवापसी’ की आत्मा है।
अजीत की यह छोटी सी किताब पूरे कथानक को वास्तविक समस्या से ही नही बॉधती बल्कि पाठक को भी किताब पढ़ने के दौरान खुद से छूटने नही देती।
(बनारस,2जनवरी 2020)
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अवढरदानी महादेव शंकर की राजधानी काशी मे पला बढ़ा और जीवन यापन कर रहा हूँ. कबीर का फक्कडपन और बनारस की मस्ती जीवन का हिस्सा है, पता नही उसके बिना मैं हूँ भी या नही. राजर्षि उदय प्रताप के बगीचे यू पी कालेज से निकल कर महामना के कर्मस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे खेलते कूदते कुछ डिग्रीयॉ पा गये, नौकरी के लिये रियाज किया पर नौकरी नही मयस्सर थी. बनारस छोड़ नही सकते थे तो अपनी मर्जी के मालिक वकील बन बैठे.
गुरुवार, 2 जनवरी 2020
व्योमवार्ता/ अजीतभारती की किताब "घरवापसी ", व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 2जनवरी 2020
मंगलवार, 31 दिसंबर 2019
व्योमवार्ता/ दिसंबर 2019 मे पढ़ी किताबें #किताबें मेरी दोस्त : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 31 दिसंबर 2019
व्योमवार्ता/ दिसंबर 2019 मे पढ़ी किताबें
#किताबें मेरी दोस्त : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 31 दिसंबर 2019
दिसंबर 2019 काफी सर्द और सूकून भरा रहा। मौसममापी यंत्रों ने बताया कि इस साल ठंड ने 118 सालों का रिकार्ड तोड़ा। बनारस में 30दिसंबर को 2.3डिग्री सेल्सियस था । कचहरी मे दोनो बार के चुनाव के चलते चलते फिर शीतकालीन अवकाश ने थोड़ी फुरसत दिया तो ठंड ने घर के बाहर वाली अन्य गतिविधियों से। लिहाजा मेरी दोस्त किताबों ने अधिकार सहित मेरे साथ खूब समय बिताया । अप्रैल से किताबों को ज्यादा से ज्यादा पढ़ने की संकल्पयात्रा दिसंबर के पाव मे बेहद सूकूनभरी रही। इस महीने हमने कुल दस किताबें शरद असष्ठाना की "कन्हैया तूने यह क्या किया", डॉ० सुधा चौहान राज की " महोबा: आल्हा ऊदल की महागाथा, नीलोत्पल मृणाल की "औघड़", सुधा मूर्ति की " महाश्वेता ", जावेद अख्तर की कैलियोग्राफिक शैली मे लिखी गई "ख्वाब के गॉव में", दिव्य प्रकाश दूबे की मुसाफिर cafe", सीमा त्रेहन की "सरल ज्योतिषीय उपाय", डॉ० शैलेन्द्र कुमार मिश्र की " बड़ी परेशानी है भाई" के अतिरिक्त दो लुगदी उपन्यास रीमा भारती का "कंकाल बादशाह" व केशव पंडित का " कब आओगे किशन कन्हैया" पढ़ा।बहुत दिनो बाद एक महीने मे पढ़ी जाने वाली किताबों की संख्या दहाई तक पहुँची।
शुक्रिया मेरी दोस्त।उम्मीद है कि दोस्ती की यह संकल्प यात्रा सन 2020 मे भी जारी रहेगी।
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(बनारस,31 दिसंबर 2019, मंगलवार)
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रविवार, 29 दिसंबर 2019
व्योमवार्ता/आल्हा कथानक का प्रामाणिक इतिहास: डॉ० सुधा चौहान राज की पुस्तक महोबा, आल्हा ऊदल की महागाथा: व्योमेश चित्रवंश की डायरी
व्योमवार्ता/आल्हा कथानक का प्रामाणिक इतिहास: डॉ० सुधा चौहान राज की पुस्तक महोबा, आल्हा ऊदल की महागाथा : व्योमेश चित्रवंश की डायरी,28दिसंबर 2019
अप्रैल 2019 से हर माह कम से कम चार पुस्तकें पढ़ने के संकल्पयात्रा मे बुंदेली इतिहास पर रेडग्रैब बुक्स, इलाहाबाद से प्रकाशित एक पुस्तक डॉ० सुधा चौहान राज की महोबा : आल्हा ऊदल की महागाथा मिल गई। सत्यनिष्ठा से यह स्वीकार करने मे मुझे कोई गुरेज नही है कि मेरी इतिहास मे रूचि कम है पर बचपन मे हर चौमासे आल्हा गा कर सुनाने वाले मोछू चाचा और उनके ढपले की तीखी व नकियाती आवाज हमें सदैव से आल्हा ऊदल के बारे मे जानने की उत्सुकता जगाती थी। एक बार शारदा देवी के दर्शन के लिये मैहर जाने पर वहॉ आल्हा के अब तक अमर होकर प्रतिदिन देवी दर्शन के बारे मे सुना था तो उत्सुकता और बढ़ गई।आज भी पन्ना, दतिया, समथर, कालिंजर, कन्नौज, कुंडा, अजय गढ़, ओरछा, गढ़ा नरेश के अलावा और भी बहुत से राजदरबारों, रियासतों में भी आल्हा गायन होने के प्रमाण मिलते हैं। यह प्रथा मौखिक रूप से ज्यादा विकसित हुई क्योंकि हर कवि एक दूसरे से सुनकर याद करके गाया करते थे, पर इसका आधार आल्हा रायसो था। सौ साल के अंतराल में ही यानी कि सन् 1320 तक यह गायन सारे भारत में गाया जाने लगा। इसका एक बड़ा कारण यह भी था कि युद्ध पर जाने के पहले सेना इसे सुनकर वीर रस मे डूब जाती थी और अपनी जन्मभूमि की आन बान और शान के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर हो जाती थी। इस प्रकार आल्हा-ऊदल सारे देश के वीरों के आदर्श बन गए थे। यह वीरों की वो गाथा है जो सदियों से चली आ रही है और आज 900 सौ सालों बाद भी उसी जोश खरोश और उत्साह के साथ गाया जाता है।
16वीं सदी में रानी दुर्गावती, जो महोबा राजवंश के राजा कीर्तिपाल चंदेल की बेटी थीं, उन्हें आल्हा सुनना बहुत पसंद था इसीलिए उन्होंने अपने कालिंजर के दरबार में बहुत से चारण-भाट आल्हा गायन के लिए रखे था। उन्होंने बहुत सी पुरानी पांडुलिपियों को सहेजकर बुंदेली बोली में लिपि बद्ध कराया था। उन पर इनकी वीरता का बहुत प्रभाव था, इसी कारण उन्होने दलपतशाह की बीरता से प्रभावित होकर उनका वरण किया था और उनसे प्रेम विवाह किया था; उसी का प्रभाव था कि उन्होने अपनी वीरता दिखाते हुए मुगलों से लोहा लिया था। मुगल दिल्ली के आस-पास तो आते जाते थे, पर कभी वह बुंदेलखंड में अपनी जड़ें नहीं जमा पाये। इसीलिए जब आल्हा ऊदल के बाद उनका आक्रमण बुंदेलखंड पर हुआ तो उन्होंने यहां के भवन, इमारत, मंदिर, मठ आदि तुड़वा दिये। दरबारों से कवियों से सारा इतिहास लूटकर सागर में बहा दिया था। उनका कहना था कि इसे पढ़कर भारतीय सैनिकों में अद्भुत जोश आ जाता ।
डॉ० सुधा चौहान के इस शोधपरक पुस्तक से पता चलता है कि आल्हा की प्रामाणिकता- आल्हा उदल का विस्तृत वर्णन भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में मिलता है। आल्हा ऊदल की प्रमाणिकता इस बात से सिद्ध होती है कि पृथ्वीराज चौहान का इनसे अलग-अलग स्थानों पर पाँच बार युद्ध हुआ है। उस समय तीन महाशक्तियां भारत में राज्य कर रही थीं। दिल्ली में चैहान वंशी राजा पृथ्वीराज, कनवज में राठौर वंशी राजा जयचंद और महोबा में चंदेलवंशी राजा परमार्दिदेव जिनके धर्म भाई दच्छराज और बच्छराज के पुत्र आल्हा ऊदल और मलखान थे। पृथ्वीराज की पुत्री बेला का विवाह चंदेल राजकुमार ब्रह्मदेव के साथ हुआ था। जिसकी अगुवाई आल्हा और ऊदल ने की थी। सन 1191 में सबसे अंतिम युद्ध पृथ्वीराज का आल्हा ऊदल से महोबा के मैदान में हुआ था। उसके बाद अपनी सारी सेना को गंवा कर पृथ्वीराज ने युद्ध जीता था जिसका वर्णन चंदेलकालीन बुंदेलखंड के इतिहास में मिलता है। बेटी के गौने के बाद पृथ्वीराज ने गौरी से आखिरी युद्ध लड़ा था।
इसके लिए सबसे बड़ा प्रमाण पृथ्वीराज के दरबारी कवि चंदबरदायी का लिखा पृथ्वीराज रासो है, जिसमें इनकी सभी लड़ाइयों का क्रमवार ब्योरा दिया रहेंगे ।
यूं तो सत्य को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती, वह तो अपने आप में स्वयं ही बड़ा प्रमाण होता है। सन 1130 से ले कर 1192 के कालखण्ड की घटनाओं को समेेटे ऐतहासिक संदर्भों, गजेटियर्स, प्रमाणों व शिलालेखों का संदर्भ देते हुये लेखिका ने पुस्तक के शीर्षक के साथ पूरा न्याय किया है। जो आल्हा कथानक के गायन के प्रति आज भी आमजन को जोड़ते है
इसीलिए तो आज 900सौ सालों बाद भी वह लोंगों के दिलो-दिमाग में हैं। यह तो हमारे देश का दुर्भाग्य ही है कि ऐसे वीरों का इतिहास सुरक्षित तरीके से संजोकर नहीं रखा गया और मुगलों द्वारा इसे विलुप्त कर दिया गया।
आल्हा गायन एक इतिहास है, वीरों की संस्कृति है, एक राग है, एक आग है, एक जोश है, जो रग-रग में वीरता का जोश जगा देता है। आल्हा उदल आज भी लोगों के दिलों में वास करते हैं। वो आज भी अमर हैं और सदियों तक अमर रहेंगे। भारत के इतिहास के जनप्रिय कथानक को प्रामाणिक रूप से प्रस्तुत करने हेतु डॉ० सुधा चौहान राज को बधाई ।
(बनारस, 28दिसंबर2019,शनिवार)
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