शुक्रवार, 17 जुलाई 2020

व्योमवार्ता/ यादें यू पी कालेज की.....(५) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी

संस्थापन समारोह का अखिल भारतीय कविसम्मेलन
व्योमवार्ता/ यादें यू पी कालेज की (५) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, १७ जुलाई २०२०

           तीन दिन बाद समापन समारोह मे २५ नवंबर की रात मे अखिल भारतीय कवि सम्मेलन होना था। तब इस तरह के समारोहों के लिये कालेज गेस्ट हाऊस , द्वितीय छात्रावास और पुराने लाईब्रेरी भवन के बीच बड़े मैदान मे विशाल पाण्डाल लगाया जाता था।  आज भी कार्यक्रम निम्मित बना पक्का चबूतरा वहॉ मौजूद है।  पूरा पण्डाल खचाखच भर जाता था न सिर्फ छात्रों से बल्कि कालेज के अगल बगल १-२ किलो मीटर मे रहने वाले परिवारों से, महिला बच्चों के साथ लोग कालेज के कार्यक्रमों को देखने को आते थे और कवि सम्मेलन के दिन तो पूछो मत, लगता था पूरे बनारस की भीड़ इकट्ठी हो गई हो। मेरे ख्याल से वरूणा पार का यह तब का सबसे बड़ा साहित्यिक समारोह होता था। उसी पाण्डाल मे बने मंच से हमें पहली बार डॉ० गोपाल दास नीरज, डॉ० शंभुनाथ सिंह, भूषण त्यागी, सूड़ फैजाबादी, कैलाश गौतम, श्री कृष्ण तिवारी के साथ चकाचक बनारसी को सुनने का मौका मिला। गीतकार पं० श्रीकृष्ण तिवारी जी मंच संचालन कर रहे थे। जिन कवियों का हमने अब तक मात्र नाम सुना था वे हम लोगों के सामने मंच पर साक्षात विराजमान थे।इसी मंच पर हमने डॉ०शंभुनाथ सिंह के गांभीर्यपूर्ण स्वरों मे

"देश है हम मगर राजधानी नही
हम बदलते हुए भी न बदले कभी
लड़खड़ाए कभी और सँभले कभी
हम हज़ारों बरस से जिसे जी रहे
ज़िन्दगी वह नई या पुरानी नहीं ।
हम न जड़-बन्धनों को सहन कर सके,
दास बनकर नहीं अनुकरण कर सके,
बह रहा जो हमारी रगों में अभी
वह ग़रम ख़ून है लाल पानी नहीं ।

और
"समय की शिला पर मधुर चित्र कितने,
किसी ने बनाये किसी ने मिटाये ,
किसी ने लिखी ऑसूओं की कहानी,
किसी ने पढा सिर्फ़ दो बूं पानी।
इसी मे गये बीत दिन जिंदगी के,
गयी धुल जवानी, गयी मिट निशानी
.....शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाए, विरह ने बुझाए।

तथा डॉ० गोपाल दास नीरज की थरथराती आवाज में

"स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।"

और
दीप को अपना बनाने को पतंगा जल रहा है,
बूंद बनने को समुन्दर का हिमालय गल रहा है,
प्यार पाने को धरा का मेघ है व्याकुल गगन में,
चूमने को मृत्यु निशि-दिन श्वास-पंथी चल रहा है,
है न कोई भी अकेला राह पर गतिमय इसी से
मैं तुम्हारी आग में तन मन जलाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥

सुना। हमारे कला संकाय के डीन डॉ० विश्वनाथ प्रसाद ने भी अपनी कविता पढ़ी थी, "जीभ पर ताले दिये, चुप थे नही अच्छा किया, चीखते तुम भी सड़क पर आ गये अच्छा किया"। भूषण त्यागी, हलचल मिर्जापुरी, सूंड़ फैजाबादी, राजशेखर, कमल नयन मधुकर , सावित्री गौड़ की कवितायें तो मुझे अब याद नही है पर पं० हरिराम द्विवेदी के भोजपूरी गीत "

कविता के रस होला सँझिया बिहनवाँ
गउवाँ के गितियन में बसैला परनवाँ
गीतन से करैलें सिंगार हो ,
बाबा मोर आवैं बखरिया॥" 

और कैलाश गौतम की "गॉव गया था गॉव से भागा" के बाद "अमवसा क मेला" की कुछ पंक्तियॉ आज भी याद आते ही मन मुस्करा उठता है,

"एही में चम्पा-चमेली भेंटइली.
बचपन के दुनो सहेली भेंटइली.
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें,
दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें.
असो का बनवलू, असो का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो ना अबतक पठवलू.
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं.
हमैं अपना सासु के पुतरी तूं जानऽ
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जानऽ.
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की.
मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो
भया तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो.
साधु छुड़ावैं सिपाही छुड़ावैं
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावै."

शायद उसी साल डॉ० बुधिनाथ मिश्र भी आये थे, यह तो पक्का याद नही, पर उनकी कविता

"एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!
सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो।

वाली कविता पंक्ति मुझे आज भी याद है। इन कविताओं ने मेरे साहित्यिक रूचि की नींव रखी जो मुझे बरबस ही हिन्दी साहित्य की ओर खींचती गई और भविष्य मे मेरे जीवन मे साहित्य से कोई सरोकार न होते हुये भी बड़ी काम की साबित हुई। कवि गोष्ठी की मनभावन लहरों मे जब श्रोतागण पूरे तरह डूब उतरा रहे थे तो इन श्रोताओं मे पीछे बैठे छात्र श्रोताओं का अपना अलग अंदाज था जो मेरे लिये अप्रत्याशित, नवीन और मजेदार था। जब किसी कवि की सराहना करती होती तो पीछे के छात्र श्रोताओं से एक स्वर मे काशी की पहचान वाला बाबा भोलेनाथ का स्वर उठता " हर हर महाााा देव " और इस लपेटें मे कभी कभार नये, छोटे, कम चर्चित मझोले कवि आ जाते तो पीछे से बनारस की पहचान शंख घोष मे कोरस होता " भाग भाग ......के" थोड़ी देर की देखा देखी के बाद हम नये छात्र श्रोता भी इस कोरस मे अपना योगदान देने लगे। जब कई छोटे मंझोले कविगण बनारसी शंखघोष के बहाव मे नही चल पाये तो संचालक पं० श्रीकृष्ण तिवारी जी द्वारा काशिका के मशहूर हास्यकवि चकाचक बनारसी को इस शोर को शांत कराने के लिये बुलाया गया। चकाचक जी ने आते ही पहले काशिका बोली मे छात्रों से संवादसंबंध स्थापित किया और फिर  अपनी हँस हँस कर लोटपोट करा देने वाली रचना सुनाई,

बदरी के बदरा पिछयउलेस,
सावन आयल काऽ।
खटिया चौथी टांग उठेउलस,
सावन आयल काऽ।
मेहराये के डर से माई लगल छिपावै अमहर,
भईया के बहका फुसला के भउजी भागल नइहर,
सांझै छनी सोहारी दादा तोड़ लियइलन कटहर,
बाऊ छनलन ललका दारू बनके बड़का खेतिहर,
बुढ़िया दादी कजरी गईलेस,
सावन आयल काऽ।
गुद्दड़ क चौउथी मेहररूआ मेंहदी सुरूक लियाईल,
सास क ओकरे कानी अंगुरी सड़-सड़ के बस्साइल,
झिंगुरी के घर भुअरी बिल्ली तिसरे बार बियाइल,
रामभजन क नई पतोहिया झूलै के ललचाईल,
धनुई फिर गोदना गोदवउलेस,
सावन आयल काऽ।
चमरउटी कऽ उलटल पोखरी मचल हौऽ छूआछूत,
खेलत हौऽ धरमू पंडित कऽ बेवा धईलेस भूत,
ननकू के ननका के मुंह पर मकरी देहलस मूत,
छींकत हौ जमिदार क बिटिया गईल खुले में सूत,
पटवारी के दमा सतउलेस,
सावन आयल काऽ।
सांझ के अहिराने में गड़गड़ गड़गड़ बजल नगाड़ा,
कलुआ गनगनायके नचलेस लगल किजइसे जाड़ा,
ओकरे साथे अन्हऊ पंडित नचलन तिरछा आड़ा,
लोटा लेके दउड़त हंउवन उखड़ल ओनकर नाड़ा,
उन्हें गांव भर दवा बतउलेस,
सावन आयल काऽ।
मुखिया के बखरी पर भर-भर चीलम उड़ल खमीरा,
उनके पिछवारे मेघा के लपक के धईलेस कीरा,
एक कोठरी में मुखियाइन के उठल कमर में पीरा,
लगत हौऽ राजा कजरी होई बाजल ढोल मजीरा,
पुरुवा भक दे गैस बुझउलेस,
सावन आयल काऽ।
अभी हम लोग हँसते और हर हर महादेव का हुंकारा भरते कुर्सी पर सीधे भी नही हुये थे कि  चकाचक चचा ने माहौल का रूख पहचान प्रासंगिक कविता सुनाया

जवन पटाका मारब सरऊ मुंह से फेकबा प्रान
तब  तू होश मे अईबा बच्चू जगजीत सिंह चौहान

बाद मे श्रोताओं के मॉग पर उनकी ई राजा काशी हौ वाली कविता का पाठ तो होना ही था।

मचर मचर पुरवटवा बोले,सरर सरर फगुनहटी |
चरर चरर चमरौधा बोले,झलके लाल लंगोटी |
- ई राजा काशी हौ
ठहर ठहर के पान घुलाव,बगली दाब बंसौटी |
लहर लहर के राग अलाप,छान छान के बूटी |
-ई राजा काशी हौ
लहर लहर केशरिया छानब,ई तन अइसे छूटी |
लाख सुरहतिंन घेरैं बाकी ,बँधले रहब लंगोटी |
-ई राजा काशी हौ
चना चबेना गंगाजल हौ,गमछा अउर लंगोटी |
संतोषी जिउ मिलिहें तोके खा खा नून और रोटी |
-ई राजा काशी हौ

चकाचक जी के हर छंद के बाद 'ई राजा' बोलते ही श्रोताओं की भीड़ साथ देती "काशी हौ"। किसी स्थानीय कवि के लिये श्रोताओं का यह उन्माद अद्भुत था। चकाचक जी जब बैठने को हुये तो भीड़ उन्हे बैठाने को तैयार नही थी और उन्हे अपनी एक और कविता का पाठ करना ही पड़ा,

"का रे तेजुवा खोल केवाड़ी,आयल हौ जजमान चकाचक //
तीरथ बरत करै वाला हौ,चौचक में रूपया वाला हौ
तनी दाब के खींच रे सरवा,सुच्चामाल गले वाला हौ
सौ पचास क आपन गोटी,सच्चे में बैठे वाला हौ
और देख भड़के न पावे,हफ्तन से ठाले ठाला हौ
आज लगत हौ की खुश हउवन,अपनन पर भगवान चकाचक //
एहरओहर मतदेख होजजमान,भनाभन बढ़ते आव
बाबा क दरबार इहाँ हौ,बत्तीस गंडा इहाँ चढ़ाव
माई क भण्डार इहाँ हौ,सोरह गंडा इहाँ चढ़ाव
छोट मोट देवी देवतन पर,पंचपंच गंडा रक्खत आव
अब त बस हमही रह गइली ,दस क पत्ती एहर बढ़ाव
,बाबा के छाया में अइला,होई हो कल्याण चकाचक //
देख रे ऊ यात्री भटकल हौ,बढ़के तनी बोलाव
मेहररुआ टौटेक हौ,अपने कोठरी में ठहराव
यात्री के तू रगड़ के बूटी,विधी से आज छनाव
रगड़ के बीया चार धतूरा क ओम्मन घोरवाव
छनते सरवा गिर जाई तब,मेहररुआ हथियाव
काशी में त होत रहेला,तन मन धन क दान चकाचक //
का रे तेजुवा खोल केवाड़ी,आयल हौ जजमान चकाचक //...
       बाद के वर्षों मे चकाचक बनारसी मेरे रिश्तेदार निकले और उनसे रम्मन चाचा वाला संबंध जीवन पर्यन्त बना रहा।इसी तरह पं० हरिराम द्विवेदी से आकाशवाणी मे बना चचा भतीजा वाला संबंध और डॉ० शंभुनाथ सिंह जी से स्नेहिल दुलार पाने का सौभाग्य भी मिला। ऊपर से कठोर व सख्त दिखने वाले और अंदर से स्नेह और आशीष उड़ेलने वाले नारियल सदृश व्यक्तित्व के धनी डॉ० शंभुनाथ सिंह जी कब राजू भैया @rajeev के बाबूजी के साथ मेरे लिये भी बाबूजी बन गये पता ही नही चला। बाद के वर्षों मे राजीव भैया ने उनकी स्मृति में साहित्य, समाज और पुरातत्व के लिये समर्पित वाराणसी के प्रतिष्ठित डॉ०शंभुनाथ सिंह रिसर्च फाउण्डेशन से हमें जोड़ा जो आज तक बरकरार है और राजीव भैया आज भी मेरे बड़े भाई की भूमिका मे सदैव मेरे लिये उपलब्ध रहते है।
यह सारी उपलब्धियॉ यूपी कालेज की ही देन है जो मुझ अकिंचन को संभवतः कहीं और प्राप्त होना संभव नही थी।
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क्रमश: ......
अगले अंक मे : छ: माह पढ़ने के बाद बीए का त्रिवर्षीय हो जाना और छात्र संघ चुनाव

व्योमवार्ता /यादें यू पी कालेज की ......(४)

#व्योमवार्ता/ यादें यू पी कालेज की...(४):व्योमेश चित्रवंश की डायरी

        अक्टूबर नवंबर में दशहरा दीवाली दोनो को मिला कर एक लंबी छुट्टी कालेज मे होती थी। नवप्रवेशी छात्रों विशेषकर दूर से आये छात्रों के लिये यह पहला मौका होता था घर वापस जा के कालेज के दिनचर्या को मिस करते हुये घर परिवार मे जीवन बिताने का। पर हमें लगता है कि ज्यादातर छात्रों के लिये यू पी कालेज का माहौल भूला पाना ज्यादा भारी होता था। दीवाली की छुट्टी खत्म होते ही कालेज पूरी तरह से भर जाता। तब तक सभी अपने अपने ढंग से समय बिताने का जरिया भी खोज लेते। खेल से जुड़े हुये बनारस के हाकी का मक्का कहे जाने वाले शानदार मैदान मे गौरीशंकर मास्टसाब और रामललित सर Ram Lalit Singh के छत्रछाया में, तो क्रिकेट खेलने वाले रणंजय सर के साथ। बास्केटबाल नाथन सर के देखरेख मे तो बालीबाल गुलाब सर के साथ। तब बास्केटबॉल कोर्ट स्विमिंगपुल के सामने पुराने लाईब्रेरी के पीछे हुआ करता था और लड़कियों के लिये रानी मुरार कैम्पस में। एनसीसी के लड़के खुद को रंगरूट के नये ड्रेसअप मे फिट कर के गिरधर सिंह सर, रामसुधार सर Ramsudhar Singh, रामयाद सर और नीलकमल मैडम Neelkamal Singhके कमान मे ड्रिल करते नजर आते थे। तब यू पी कालेज ग्राउण्ड भारतीय हाकी का एक अभिन्न अंग हुआ करता था जहॉ पद्मश्री स्व० मो०शाहिद, नईम, नागेन्द्र सिंह मिण्टू, आर पी सिंह, सुनील सेठ ,शैलेन्द्र सिंह, स्व० विवेक सिंह, प्रशान्त वगैरह डेली प्रैक्टिस को आते थे। तो क्रिकेट मे आज के उत्तर प्रदेश के अम्पायर आर पी गुप्ता, मशहूर अथलीट गुलाब सिंह, अर्जुन सिंह भी शाम को यू पी कालेज मैदान आ ही जाते थे।
                  हम जैसे सख्त अनुशासन को न मानने वालों के लिये सबसे मुफीद जगह एनएसएस थी। बनारसी मिश्रा सर, गणेश सिंह सर , महेन्द्र प्रताप सर के सानिध्य मे हम लोग सप्ताह मे दो दिन सेवा कार्य कम करते कामचोरी ज्यादा। प्राय: हमें और राकेश को सेवा कार्य के बाद प्रोत्साहन प्रसाद के रूप मे समोसा और लालपेड़ा बॉटने की जिम्मेदारी मिलती और हम बड़े ईमानदारी से अपने खास दोस्तों को दो के बदले तीन समोसा और एक की जगह दो लालपेड़ा बॉटने मे कभी भी बेईमानी नही करते थे। बाद मे बॉटने के मेहनताने के रूप मे भी हमारा दो  अतिरिक्त समोसे और दो लालपेड़े पर हक बनता ही था। हम लोग कभी कभी खेल के मैदान मे भी हाथ आजमा लेते थे। हाकी उठाये और चल पड़े मैदान में, पर उसमे कभी नियमितता नही रहने से नियमित खिलाड़ी नही बन सके।कभी  किट पहन के मैदान मे गये तो क्रिकेट खेल लिये, कभी खाली टीशर्ट और लोवर मे गये तो बालीबाल। पर इसका परिणाम यह हुआ कि मैदान के खिलाड़ियों से हमारी अच्छी खासी दोस्ती हो गई। अखिलेश द्वय Akhilesh Singh,Akhilesh Singh, सूर्यभानSuryabhan Singh, राजनRajan Singh, चंद्रबलीChandrabali Singh, स्व०जफर, मार्कण्डेयMarkanday Singh, संजय गुप्ता, मनोज, संजय पाण्डेयSanjay Pandey, रविशंकर सिंह, महेश भैयाMahesh Singh, स्व० रामकुमार, प्रदीप गुप्ता,  संजीवSanjeev Singh, बद्रीविशाल , विजय, महेन्द्र, अजीत और भी कईयों खिलाड़ी हम लोगों के मित्र मण्डली मे बनें तो उनमे से ज्यादातर आज भी संपर्क मे हैं। जो छात्र इन तीनों यानि खेल, एनसीसी और एनएसएस से छूटे उनके लिये शाम बिताने के लिये गेट , महावीरमंदिर और अर्दलीबाजार हुआ करता था। कुछ पढ़ाकू लड़के राजकीय जिला पुस्तकालय मे भी बैठा करते।
       हम हरफनमौला मिजाज के लोग सभी ग्रुपों मे शामिल थे, एनसीसी ,एनएसएस से लेकर खेल के मैदानी दोस्तों तक में। पर आखिर मे हम भी इन तीनों से परे महावीर मंदिर, अर्दलीबाजार पर शाम बिताने वालों मे शामिल हो गये। पर इन दोनों जगहों से भी अलग हमने एक और अन्य जगह तलाशा अपनी अड़ी के लिये वह थी कालेज गेट पर स्व० शरद जायसवाल की ज्ञानप्रसार केन्द्र। तब ज्ञानप्रसार दो दुकानों को मिला कर एक बड़ी दुकान हुआ करती थी उन दोनो दुकानों के जोड़ने वाली गली मे रखे स्टूल से लेकर काउंटर तक हम  ग्रुप मेम्बरान जम जाते और साहित्य से लेकर राजनीति, प्रतियोगिता, खेल, सिनेमा , समाज की बातें होने लगती। जय प्रकाश भाई, समीर कुमार सिंह, प्रेम नारायणPrem Narain Singh, संजय कटिहार, राजीव विश्वास, संतोष सिंह बब्बूSantosh Singh , स्व० संजय श्रीवास्तव, निर्भय सिन्हा गठरी उस बैठकी के नियमित सदस्य थे। प्राय: वहीं अपना क्रिकेट का अभ्यास कर सूर्यभान, संजय पाण्डेय, मनोज और हाकी खेल कर मार्कण्डेय, संजय गुप्ता अखिलेश आ जाते तो हम लोग अर्दली बाजार निकल लेते।
अर्दली बाजार मे जितेन्द्र दीपू, मुशीरMushir Uddin, गप्पूSanjay Kumar Srivastava, चंदूManoj Srivastava, अरविन्दArvindps Srivastava, शफी, राकेश, राजेशRajesh Srivastava, पिंकू, विनय पहले से कुंये के पास जमे रहते वहीं सड़क पर दुनिया जहॉ की बाते कर आठ बजे तक हमारी वापसी होती थी। फिर रात खाना खा कर एक घण्टे दूरदर्शन पर राष्ट्रीय समाचार ओर आधेघण्टे का सीरियल देख सो जाना क्योंकि अब हम लोगों ने अपने को सेक्शन ए मे बदलवा दिया था तो हमारी कक्षाएँ सुबह सात से शुरू हो ११.३० तक खतम हो जाती थी। सुबह उठना पड़ता था तो हम जल्दी सो जाते थे। पढ़ाई का काम कालेज से आने के बाद दोपहर मे होता था। हमारी पढ़ाई और पढ़ाई के तौर तरीके से कभी घर वालों को ऐतराज नहीं था तो वे लोग हस्तक्षेप भी नही करते थे।
          दिवाली की छुट्टी से वापस आते ही १० नवंबर सोमवार से कक्षायें पूरे रौ मे गंभीरतापूर्वक चलने लगी उसी दिन यह सूचना लगाई गई कि कालेज का संस्थापन वार्षिक समारोह २३,२४और २५ नवंबर को है। इसमे जो छात्र सहभागिता करने को इच्छुक हों वे संबधित शिक्षकों को अपना नाम नोट करवा दें। हम नें भी कला संकाय डेलीगेसी इंचार्ज डॉ० राम सुधार सिंह सर Ram Sudhar Singhके पास जा कर वाद विवाद प्रतियोगिता के लिये अपना नाम लिखवा दिया। वाद विवाद का विषय था "औद्योगीकरण पर्यावरण के मूल्य पर नही किया जा सकता।" मैने अपना नाम विषय के विपक्ष मे लिखवाया था और विपक्ष मे बोलने वाला मै एकमात्र प्रस्तावित सहभागी था। जहॉ अन्य छात्र इसके लिये जबर्दस्त तैयारी कर रहे थे वहीं मै बिना कुछ किये लगभग निश्चिंत था। मेरी निश्चिंतता रामसुधार सर के लिये चिंता का सबब बनती जा रही थी। उन्होने कई बार मुझसे कहा कि "तुम अपना भाषण लिख कर मुझे दे दो", पर मेरी समस्या यह थी कि मैने तब तक कुछ लिखा ही नही था तो रोज टालमटोल करता जा रहा था। बात जब डीन और हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ० विश्वनाथ सर के पास पहुंची तो मेरे लचर रवैये को देख  उन्होने भी मेरे ऊपर भरोसा न करने और मुझे हटा कर मेरे बदले किसी और छात्र को मौका देने का सलाह दिया। बहरहाल मुझे हटा  कर किसी अन्य को यह मौका दे दिया गया। संयोगवश उसी वर्ष पं० नारायण गुरू पंचगंगा घाट पर देव दीपावली मनाने की तैयारी कर रहे थे। कुछ संपर्कों द्वारा मेरा जुड़ाव उनसे हुआ तो हम कुल १७ लोग पूरे मनोयोग से उस अनूठे कार्यक्रम की तैयारी मे प्राणपण से जुट गये। चार दिन बाद कार्तिक पूर्णिमॉ,१६ नवंबर रविवार को देवदीपावली कार्यक्रम होना था। हम लोगों ने सनातन धर्म और भारतीय संस्कृति के प्रकाण्ड विद्वान महाराज बनारस डॉ० विभूति नारायण सिंह को उस कार्यक्रम मे आमंत्रित किया था। तब दीये से लेकर तेल बाती, घाट माला फूल , स्वागत सारी व्यवस्थायें हमी लोगो को करना था। भैरोनाथ से दीये खरीदकर १०१ दीपों को प्रज्वलित कर हम लोगों ने कार्यक्रम का सफल शुभारंभ किया। देवदीपावली #devdeepavali के आयोजन की व्यस्तता मे मै कालेज के कार्यक्रम को लगभग भूल ही चला था। पिछले चार दिनों से कालेज मे पढ़ने के बाद भाग कर  पंचगंगा घाट जाना और कम से कम पॉच से छ: बार घाट की खड़ी सीढ़ीयों पर ऊपर नीचे की कवायद ने ईधर से मुंह मोड़ रखा था। रामसुधार सर को अपना वक्तव्य लिख कर न देने के पीछे यह भी कारण था। वहॉ से  फुरसत पाते ही हम  अपने नियमित दिनचर्या पर आ गये थे। वार्षिक संस्थापन कार्यक्रमो की शुरूआत २० नवंबर से होना था और उसी क्रम मे २१ की शाम को डिग्री कालेज वाद विवाद प्रतियोगिता इण्टर कालेज के हाल मे आयोजित थी। तब आज वाला मल्टीपर्पज आडोटोरियम हाल नही बना था। इण्टर कालेज के पुराने भवन वाला सेण्ट्रल हाल ही साल भर बैडमिंटन कोर्ट और वार्षिक आयोजनों मे इनडोर कंपटीशन के लिये काम मे आता था। जब २१ नवंबर की शाम हम कार्यक्रम देखने पहुंचे तो इण्टर कालेज की वाद विवाद प्रतियोगिता चल रही थी एवं डिग्री कालेज के लिये सहभागियों के नाम पंजीकृत कराने की घोषणा हो चुकी थी। तभी हाल मे मुझे देखते ही राम सुधार सर ने बुलवाया और पूछा कि "तुम्हारा विपक्ष मे बोलने वाला भाषण तैयार है न? " मेरे लिये ये आश्चर्यजनक था क्योंकि मेरी जानकारी मे मेरा नाम  सहभागी सूची से हटा दिया गया था। फिर भी मेरे लिये यह खुद को कालेज पटल पर साबित करने का पहला मौका था तो चुनैतियों से जूझने का आदी मैने तत्काल सहमति दे दी। बस मेरा नाम कला संकाय द्वारा विषय के विपक्ष मे बोले जाने वाले सहभागी रूप मे शामिल हो गया। कला संकाय का क्रम सबसे बाद मे पड़ा था। हमसे पहले न्यू हास्टल के चारों ब्लाक सहित शेष दोनो डिग्री कालेज के छात्रावास, विज्ञान और कृषि संकाय वाले बोल चुके थे। अपनी बारी आने पर मैने अपने सभी विपक्षी खेमे वाले वक्ताओं का जीस्ट लेकर निर्धारित समय मे बोलना शुरू किया। लगभग आधे वक्तव्य सामाप्ति पर छात्रावास वालों को मेरे मे कुछ संभावना दिखी तो उन्होने शोर शराबा मचाते हुये हूट करना शुरू कर दिया। पर मै बिना घबराये अपनी बात पूरी की। मै पहला सहभागी था जो निर्धारित समय मे अपनी पूरी बात रख पाया था क्योंकि इसके पूर्व के सभी प्रतिभागी समय बीतने के बाद भी बोलते रहे थे और अपनी समय सीमा पार कर चुके थे। मुझे कालेज के प्रतियोगिता मे पहली बार द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ ।बाद मे यह जानकारी मिली की बीए द्वितीय वर्ष वाले सज्जन जिन्हे कला संकाय के तरफ से बोलना था वे एक सप्ताह से अपना भाषण रटने के बावजूद मौके पर गायब हो गये। इस प्रतियोगिता ने मुझे मेरे विषय से हट कर हिन्दी वाले अध्यापकों विशेषकर रामसुधार सर का प्रिय बना दिया।
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क्रमश:........
अगले अंक मे संस्थापन समारोह का अखिल भारतीय कवि सम्मेलन......

मंगलवार, 14 जुलाई 2020

व्योमवार्ता/ यादें यूपी कालेज की .....(३). : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, १४ जुलाई २०२०

व्योमवार्ता/ यादें यूपी कालेज की.....(३)

         एडमिशन के बाद लगभग बारह दिन बीतने के बाद पॉच अगस्त भी आ गया । मंगलवार  का दिन।  हमने आशा जताई कि पहला दिन शुभ ही रहेगा। मंगलामुखी सदा सुखी। गॉव से विदा ले दही गुड़ खा डीह बाबा को प्रणाम कर हम चल पड़े जीवन मे उच्च शिक्षा के मुकाम पर यू पी कालेज। संतोष और मेरी राहें आज से अलग होनी थी। एक ही कालेज मे एक ही कक्षा मे पढ़ते हुये हम दोनों के विषय अलग अलग थे। तो बस एक साथ बैठने उठने पढ़ने के बजाय आगे से बस मिलना ही रह जाना था। हम दोनो पहली बार अपने मॉ के ऑचल के छाँव से अलग हो रहे थे ,  इसके पहले गोल गोल रोटी कौन कहे, हमने कभी चाय तक नही बनाया था। तो पढ़ने के लिये मै अपने चाचा जो गिलट बाजार मे रहते थे ,के यहॉ और संतोष ने सरसौली मे राजा मामा लाज मे अपना नया बसेरा बनाया। चाचा के यहॉ कपड़े वाली अटैची रख नहा धो नाश्ता कर  भगवान जी का नाम ले चल पड़ा यू पी कालेज मे पढ़ने। आज पहली बार अकेले पढ़ने जा रहा था इसलिये कुछ अजीब भी लग रहा था। कालेज गेट पर आ कर उदय प्रताप कालेज लिखे दो पतले रजिस्टर वाली कापियॉ खरीदते समय पहली बार ध्यान से कालेज के सिंहद्वार को देखा अब यहीं से जीवन के भविष्य का निर्माण होना था। विशाल सिंह द्वार केसरिया मिश्रित पीले रंग मे रंगा हुआ साफ सुथरा । गेट के ठीक ऊपर कालचक्र के दो पहियों के मध्यअर्द्ध चंद्राकार संगमरमर पट्टी पर लिखा 'उदय प्रताप कालेज' और ठीक उसके नीचे वृत्त मे लिखा कालेज का ध्येयवाक्य "दृढ़ राष्ट्रभक्ति पराक्रमश्च"  खुद को गौरव बोध करा गया। सन १९०९ मे  यह कालेज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना के सात वर्ष पूर्व स्थापित हो चुका था आवासीय विद्यालय के रूप मे। आज भी इण्टर कालेज का मुख्य भवन , संध्याहाल और इण्टर कालेज के सभी छात्रावास उसी जमाने के है जो स्वयं मे सुदृढ़ है। कापी ले कर कला संकाय मे पहुंचा तो यह पता चला कि मेरा प्रवेश अर्थशास्त्र के बी सेक्शन मे हुआ है, मेरे विषयों के समायोजन के आधार पर । समय सारिणी के हिसाब से १२.१५ से १ बजे वाली अर्थशास्त्र की कक्षा का समय थोड़ी देर मे होने ही वाला था। कला संकाय के प्रथम तल पर बरामदे साईड वाला कक्ष। लगभग ४० छात्र और १२-१३ छात्रायें। यू पी कालेज मे पहला पीरियेड पढ़ने का सौभाग्य मिला डॉ० विनोद कुमार सर से। सौभाग्य से सर आज भी हमारे लिये मार्गदर्शक के रूप मे सदैव पूज्य है और दूसरे तीसरे उनसे आज भी आशीर्वाद प्राप्त हो ही जाता है। डॉ० विनोद कुमार जी ने प्रथमत: अपना परिचय देते हुये इस कालेज की परंपरा और इतिहास के बारे मे बताया ।सन १९०९ के हिवैट क्षत्रिया स्कूल से लेकर उदय प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय बनने तक का सफर और उसमे राजर्षि से लेकर बाबू प्रशिद्ध नारायण सिंह, इण्टर के अद्भुत प्राचार्य जे पी सिंह , डिग्री कालेज के पुनरूद्धारक राजनाथ सिंह लेकर अब तक का एक लेखाजोखा । साथ ही विद्यालय का ध्येयवाक्य दृढ़ राष्ट्रभक्ति के लिये पराक्रम होना जरूरी है। यह पराक्रम हमे अपने अध्ययन और अनुशासन से प्राप्त करना है तभी हम इस राष्ट्र को मजबूत बना सकेगें। स्वागत और शुभकामना के साथ उन्होने इस शैक्षिक सत्र का शुभारंभ किया तो मै उनके सहज और सरल वक्तव्य की तुलना प्रवेश के दिन वाले कटु अनुभव से कर रहा है। फिर मन को यह कह कर संतोष दिया कि भले बुरे दोनो लोग हर कहीं होते हैं कौन सा मुझे अपना अहंकार पोषण करने यहॉ रहना है,हमें तो अपना अध्ययन और अनुशासनरूपी पराक्रम दिखा कर अपने भविष्यनिर्माण के पथ पर आगे बढ़ना है। जाहिर था कि अभी अभी कक्षा मे पाये व्याख्यान को मै गहनता से समझने का प्रयास कर रहाथा। कक्षा समाप्ति के पश्चात छात्र छात्राये बिखर कर अलग अलग हो गये। जब हम पढ़ कर नीचे आये तो भीड़ लगभग नही के ही बराबर थी। विज्ञान व वाणिज्य की कक्षायें अभी प्रारंभ नही हुई थी। कृषि वालो का समय सुबह ही होता था।
           हम जब नीचे आ रहे थे तभी डीन साहब डॉ० विश्वनाथ प्रसाद नीचे खड़े कुछ छात्रों को नीचे के क्लासरूम मे बैठने का निर्देश रहे थे । सीढ़ी से उतरते मुझे देख उन्होने मुझसे भी कहा कि कमरें मे चलों। भूतल वाले बॉये पहले कमरे मे ही काफी छात्र छात्रायें बैठे थे और अध्यापन मंच पर डॉ० विश्वनाथ प्रसाद, डॉ० राम सुधार सिंह(जो बाद के वर्षों मे मेरे अध्यापक संरक्षक भी रहे) के साथ दो अन्य लोग। कुछ गुरूजन और गुरूजन समान लोग छात्रों के साथ सामने  ही बैठे थे। हमे यह बैठने पर पता चला कि  यहॉ हिन्दी साहित्य कार्यक्रम चल रहा था जिसमें बाहर के शोरगुल से व्यवधान होने के कारण डीन साहेब ने बाहर टहल घूम रहे सभी बच्चों को बुला कर अंदर बैठा लिया। मै पीछे की सीट पर अनजान अपरिचित नये चेहरों के बीच बैठे इस फिजूल के बेकारबाजीके लिये कूढ़ना शुरू ही किया था कि मेरे जीवन मे वह क्षण आया जिसने मेरे भविष्य के शौक को एक नई दिशा दी। मंच पर बैठे कुर्ता पाजामा और सदरी पहने मध्यम कद के गौरवर्णीय आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी सज्जन के स्वरों मे जैसे मॉ सरस्वती विराजमान हो अपनी मधुर रागिनी बजा रही हो -

" गीत जिस दिन मोहब्बत के मर जायेगें,
टूट कर हम उसी दिन बिखर जायेगें।
सामने बैठिये आईने की तरह,
आपको देख के हम सँवर जायेगे।
आदमी के ज़हर का असर देखने ,
साँप भी गाँव से अब शहर जायेंगे ! "

              वह सज्जन थे हिन्दी के प्रख्यात गीतकार पं० श्री कृष्ण तिवारी और यह हिन्दी विभाग मे उनके अकस्मात आगमन पर परास्नातक हिन्दी के छात्रों के अनुरोध पर यह आशुकविगोष्ठी आयोजित थी । मेरे लिये टीवी के अलावा किसी कविगोष्ठी मे कवि से रूबरू होने का यह पहला अवसर था।  सधे हुये स्वरों मे डूबते उतराते गीत के बोलों मे मुझे तालियों की आवाजों से वर्तमान का अहसास हुआ। छात्र श्रोताओं के मॉग पर पंडित जी ने  आपातकाल मे लिखा हुआ अपना मशहूर  गीत सुनाया -

भीलों ने बाँट लिए वन
राजा को खबर तक नहीं

पाप ने लिया नया जनम
दूध की नदी हुई जहर
गाँव, नगर धूप की तरह
फैल गई यह नई ख़बर
रानी हो गई बदचलन
राजा को खबर तक नहीं

कच्चा मन राजकुंवर का
बेलगाम इस कदर हुआ
आवारे छोरे के संग
रोज खेलने लगा जुआ
हार गया दांव पर बहन
राजा को खबर तक नहीं

उलटे मुंह हवा हो गई
मरा हुआ सांप जी गया
सूख गए ताल -पोखरे
बादल को सूर्य पी गया
पानी बिन मर गए हिरन
राजा को खबर तक नहीं

एक रात काल देवता
परजा को स्वप्न दे गए
राजमहल खंडहर हुआ
छत्र -मुकुट चोर ले गए
सिंहासन का हुआ हरण
राजा को खबर तक नहीं।

यह मेरे जीवन की प्रथम सुनी  कविता थी और यूपी कालेज के पढ़ाई के पहले दिन की कापी पर लिखी नोट्स भी , जो मैने सुनते हुये जल्दी जल्दी आखिरी पन्ने पर लिख लिया था। वह पन्ना आज भी मेरी पुरानी डायरी के पन्नों मे कहीं सुरक्षित है। संभवतः यही वह दिन था जिसने मुझ उडण्ड और खिलंदड़े लड़के को साहित्य की ओर आकर्षित किया। कालेज से चाचा के घर पहुंचने तक मै बार बार यही गीत गुनगनाता रहा।चाची ने आज की पढ़ाई के बारे मे पूछा तो बरबस ही होठों पर मुस्कराहट आ गई कि मै पढ़ने अर्थशास्त्र गया था और पढ़ आया हिन्दी की कविता।
         पूरे दिन और रात मेरे ऊपर अर्थशास्त्र के बजाय उस  कविता का प्रभाव बना रहा। दूसरे दिन से बाकी नियमित कक्षाएँ भी चलने लगी। कल की तरह आज भी कक्षा से निकलते ही सभी छात्र तितर बितर हो कर बिखर गये,पर यह बिखराव हम जैसों पर ज्यादा भारी था। क्योंकि इसके पूूूूर्व के छात्र जीवन मे कभी भी न हम अकेले रहे न ही एकाकी जीवन ही जीया था। इस बिखराव के बाद भी छात्र छात्राओं के दो गुट तो स्पष्टत: दिख रहे थे। पहले गुट मे वे छात्र छात्रायें जो इसी कालेज परिसर के अंग रहे उदय प्रताप इण्टर कालेज और रानी मुरार से पढ़ कर आये थे वे आपस मे पूर्व परिचय के कारण घुले मिले थे। दूसरे गुट मे वे छात्र छात्रायें जो यू पी कालेज मे पहली बार प्रवेश लेने के बावजूद कालेज परिसर, परिवेश और लोगों से परिचित थे , इस गुट मे शहर के छात्र विशेषकर अर्दली बाजार, शिवपुर, पाण्डेपुर, वरूणापुल,पहड़िया और आस पास के थे। इन दोनो गुटों से उपेक्षित हम लोग थे जो यू पी कालेज मे पढ़ने दूर दराज और दूसरे शहरों गॉवों से आये थे। हमारे जैसे लोग दोनो गुटों से अलग थलग छितराये हुये थे और कालेज परिसर और परिवेश को समझने का एकाकी प्रयास कर रहे थे। मेरे लिये यह एक कष्ट मय प्रक्रिया थी क्योंकि मुझे याद नही कि मैने कभी बिना संगी साथी के जीवन का कोई दिन व्यतीत किया हो। बरामदें मे गुटों से अलग थलग खड़े एक पतले दुबले छात्र को मैने अपना परिचय देते हुये उससे उसके विषय पूछ दोस्ती की शुरूआत की। वह अरविन्द था, लखनऊ से केन्द्रीय विद्यालय मे पढ़ने के बाद यहॉ नाम लिखाया था। उसे भी किसी साथी की ही तलाश थी। तभी हम लोगों से राजेश भी आ मिले, वे मेरे बचपन के मित्र  होने के साथ रिश्ते मे भाई लगते है और उसने भी यहीं प्रवेश लिया था। फिर तो दोनो गुटों से अलग थलग पड़े हम गुटनिरपेक्ष छात्र छात्राओं का तीसरा गुट धीरे धीरे प्रभावी होता गया और एक स्थिति यह हो गई कि दोनो गुट हम लोगों से जुड़ने लगे। सीनियर्स के क्लासेज भी शुरू हो चुके थे। अब बड़े छोटे का आपसी तालमेल भी दिखने लगा था। कहीं कोई रैगिंग नही। कहीं कोई जाति प्रभुत्व नही। क्लास कर के दोस्तों के संग कैण्टीन मे जा कर समोसा चाय लालपेड़ा खाते किसी सीनियर के आने पर सम्मान के साथ उनके लिये सीट छोड़ देना और उस सम्मान के बदले पैसा न देने की नसीहत पाते हुये अब कालेज लाईफ पूरे रौ मे चलने लगी।
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क्रमश: .....
अगले अंक मे  वार्षिक संस्थापन समारोह और अखिल भारतीय कवि सम्मेलन.....