रविवार, 12 जुलाई 2020

व्योमवार्ता/ यादें यू पी कालेज की ,,,(२) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, १२जुलाई२०२०

यादें यू पी कालेज की ....(२)

            बहरहाल तीन दिन बाद शुक्रवार भी आ गया। हम और संतोष तीन दिनों से इस शुक्रवार का बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। एक तरफ तो मन मे उत्साह था नये माने जाने कालेज मे पढ़ने का, वहीं दूसरी ओर तीन दिन रात तक मन मे धुकधुकी भी लगी हुई थी कि कहीं तीन दिन मे किसी क्षत्रिय छात्र को प्रवेश देने के लिये मेरा एडमिशन न कैंसिल हो गया हो। मन को यह भरोसा था कि जब बिना किसी सोर्स सिफारिश के नाम लिस्ट मे आ गया तो कटना नही चाहिये। फूलपुर बाजार मे हमें और संतोष को मिलना था वहीं से बस से बनारस आना था। बाजार मे संतोष मिले तो उन्होने कहा कि " यार सुनते है कि यू पी कालेज मे रैगिंग भी होती है और नये लड़कों को सब बड़ा मारते है।" अब यह एक नयी मुसीबत का नाम सुना हम लोगों ने, जिससे आज तक पाला नही पड़ा था। आपस मे तय किया कि चलो जहॉ तक हो सकेगा सह लिया जायेगा, और अति होने पर मूंछ वाले रामयाद सर हैं ही।  शायद इसीलिये उन्होने कहा ही है कि कोई दिक्कत पर मेरे पास आ जाना। बजरंगबली हनुमान जी का नाम ले कर हम लोग बस मे बैठे और भोजूबीर उतर कर यूपी कालेज पहुंच गये। आज भीड़भाड़ कुछ ज्यादा ही थी। लड़कों के साथ लड़कियॉ भी दिख रही थी। इतनी लड़कियों को एक साथ देखने का हमारा पहला अनुभव था क्योंकि  कक्षा ६ से लेकर इण्टर तक की हम लोगों की शिक्षा दीक्षा लड़को के स्कूल मे हुई थी। कला संकाय के भूतल पर संकाय का कार्यालय था । भवन मे प्रवेश करते दॉयी ओर,सीढ़ीयों के पहले। हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान समालोचक डॉ० विश्वनाथ प्रसाद जी संकाय प्रमुख थे और उन्ही के द्वारा कौसिंलिंग ली जा रही थी। हाईस्कूल इण्टर का मार्कशीट, सनद, टीसी, चरित्र प्रमाण पत्र का ओरिजिनल से मिलान कर फार्म के एक हिस्से को फाड़ कर छात्रों को दे दिया जाता और उसे ले जा कर विज्ञान भवन मे प्रथमतल के गलियारे मे स्थित फीस काउंटर पर फीस जमा करना था। यह संपूर्ण प्रक्रिया हम ने तीन चार छात्रों की कौंसिलिंग को देख कर समझ लिया था। बाहर भीड़ लगे रहने पर भी क्या मजाल कि कमरे मे दो के बजाय तीन लड़के घुस जाये। इतना सख्त अनुशासन हम लोगों के लिये नया ही नही अनोखा भी था। लगभग एक घंटा इंतजार करने के बाद संतोष का नंबर आया। मेरा नंबर लिस्ट मे उनसे पांच लाईन नीचे था। संतोष अंदर गये तो सब कुछ जॉच कर ये पता चला कि हाईस्कूल के सनद की कापी नही है। तुरंत बगल मे बैठे कुर्ता पजामा पहने हुये पतले दुबले गूरूजी ने ( बाद मे हम लोग उनको सतीश बाबू के नाम से जाने) एकदम से आदेश दिया कि जाओ  भोजूबीर से सनद फोटो कापी करा के ले आओ। अब बेचारे संतोष परेशान । हम लोगों के लिये  भोजूबीर भी उस दिन आक्सफोर्ड लेन से कम नही था। बाहर निकलने पर मैने संतोष से कहा कि थोड़ी देर रूक कर हमारी कौंसिलिंग के बाद दोनो जन चल के फोटोकापी करवा लेगें। पांच लड़को बाद बस मेरा नंबर है । मेरी बारी में अंदर  जब मेरे डाकूमेण्ट्स का मिलान हो रहा था तो संतोष बाहर  दरवाजे के पास खड़े हो उत्सुकतावश यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि कहीं मेरे मे भी कुछ कमी तो नही रह गई है तभी एकदम सफेद झकाझक सफारी मे विराजमान  डॉ० विश्वनाथ प्रासाद की दृष्टि उन पर पड़ गई और उन्होने कस कर संतोष को वहॉ खड़े होने पर डॉट दिया। रामकसम हम लोग अंदर से बुरी तरह सहम गये पर इस  बात की गॉठ बुरी तरह मन मे बैठ गई। बेचारे संतोष और हम सहमे सकुचाये भकुआये से फोटोकापी कराने दुकान पूछते पूछते हुये भोजूबीर पहुंचे। भोजूबीर भी अजीब जगह है । यहॉ १०० मीटर के अंदर मे तीन तिराहा  और दो चौराहा है और सब का नाम भोजूबीर ही है। तब यूपी कालेज से निकल कर दाहिने हाथ पकड़ कर कचहरी जाने वाले रास्ते पर चौराहे के पास कुंये के सामने कोने मे शव विश्राम स्थल का तबूतरा था और उसी के पास सरस्वती टाईपिंग एण्ड फोटोस्टेट की दुकान थी। पूरे कमरे मे लगी बड़ी सी मसीन मे पहले सीधे प्लेट निकाल कर  फिर गोल गोल आगे पीछे करते हुये फोटोकाफी हुआ करती थी वहॉ।  ५० पैसा कापी पहला पन्ना फिर ३० पैसा कापी दूसरा पन्ना की दर से। हम लोगों ने अपने सारे डाकूमेण्ट जो तब संख्या मे कुल चार थे  फोटो कापी करवा लिया।जेब के फुटकर दो रूपये उसे देकर वापस आर्ट्स फैकल्टी पहुंचे। डरते डरते संतोष के "मे आई कम इन सर?" कह कर अनुमति मॉगने पर डीन साहब ने ऐसे देखा जैसे उससे कोई गुनाह हो गया हो। थोड़ी देर पहले संतोष को मिली डॉट का सबक याद रखते हुये मै दरवाजे से हट कर खिड़की के सामने खड़ा था जहॉ से अंदर की गतिविधियों पर नजर रखी जा सके। डाकूमेण्ट चेक कराते समय संतोष थोड़ा टेबुल पर झुक कर कुछ बता रहा था कि ढीले ढाले कुर्ते पजामे मे अपने को सेट किये हुये पतले दुबले सतीश बाबू ने फिर हड़का दिया, "सीधे खड़े नही हो सकते, ऊपर बिछे जा रहे हो।" अब बेचारे सीधे साधे संतोष खुद की गलती भी नही समझ पाये और पहले ही दिन दो बार डॉट खा गये। खैर कौंसिलिंग की औपचारिकता पूरी कर एडमिशन फार्म का पन्ना हम लोगों को मिल गया फीस जमा करने के लिये। आर्ट्स फैकल्टी से विज्ञान भवन फीस काउंटर तक हम लोग मौन ही रहे। अंदर से दोनो जन महाविद्यालय मे हुये इस पहले साक्षात्कार से खुश नही थे पर एक दूसरे से कुछ कह नही रहे थे।

           शुक्र था कि शुल्क पटल प्रत्येक संकाय के लिये अलग अलग थे। कला संकाय वाले पटल पर आठ नौ छात्र पहले से लाईन मे थे।हम भी लाईन मे लग गये। हमे क्या पता कि असली मुश्किल तो अब होनी थी। हमारी फीस ₹६४१/- और संतोष की ₹५४१/- रूपये लगनी थी, यानि कुल ₹११८२/- रूपये । काउंटर पर पहुंच कर दोनो फार्म दिये तो काउंटर क्लर्क ने कहा कि एक छात्र से एक फार्म। जब पीछे पलट के संतोष का फार्म उसे पकड़ाने लगा तो पता नही क्यों क्लर्क महोदय को दया आ गई उन्होने कहा" अच्छा लाईन मे हो तो दे दो दोनो साथ ही।" हमने सौ सौ के बारह नोट उन्हे पकड़ाये तो फुटकर देने को कहा, तुरंत पीछे से संतोष ने पचास बीस के एक एक और दस के दो नोट बढ़ा कर मामला सेट करने की कोशिश की तो उन्होने दो रूपये फुटकर की डिमांड रख दी। यह कहते ही कि दो रूपये फुटकर नही है , वे महोदय भड़क गये, "नही है से क्या , एडमिशन कराने आये हो तो फुटकर ले के आना चाहिये था न, अब मै कहॉ से ले आँऊ आठ रूपये?" मै कभी खुद को कोस रहा था फुटकर न रखने के लिये कभी फोटोस्टेट वाले को जो उसने फुटकर दो रूपये ले लिये थे। " सर देख लिजिये" पीछे से संतोष ने याचना की। "अरे देख कहॉ से ले? यहॉ क्या हम रेचकारी की दुकान लगा के बैठे हैं।" काउंटर बाबू एकदम असहयोगात्मक मुद्रा मे थे।और हम दोनो काउंटर के बाहर विपन्न दीन हीन जैसे। समस्या यह भी थी कि उसी दिन फीस न जमा करने पर एडमिशन कैंसिल हो जाता। ऐसे मे कोई और सूरत न देख हमने लाईन मे अगल बगल वालों से फुटकर के लिये पूछना शुरू किया पर अंदर के रवैये को देख बाकी लोग भी  अपने अपने फुटकर से सावधान हो गये थे। बगल वाला काउंटर कृषि संकाय का था उस पर भी तीन चार लोग लाईन लगाये थे ,हमने उनसे भी फुटकर के लिये मदद मॉगी। पर सभी ने ना ना कह दिया। तभी उस लाईन मे खड़े तीसरे छात्र जो हम लोगों से वय मे बड़े और अच्छी कद काठी वाले थे, ने पूछा "कितना पैसा कम हो रहा है?" हम लोगों ने कहा कि "सर दो रूपये देना है इन्हे।" उन्होने तुरंत अपने जेब से एक रूपये के दो सिक्के निकाले और देते हुये कहा" कि फुटकर तो नही है, ये लो जमा कर दो।" 

                चलो ये समस्या तो निपटी। हमने ₹११८२ रूपये जमा कर रसीद ले कर औपचारिक प्रवेश पा लिया। तब तक फुटकर दो रूपये देने वाले सज्जन अपना काम निबटा कर के जा चुके थे। पुन: कला संकाय आ कर देखा तो नोटिस बोर्ड पर ५ अगस्त से कक्षाएँ चलने की नोटिस लगी थी। सुबह से लाईन लगाये और खड़े खड़े हम लोग थक गये थे । मन हुआ कुछ चाय चुक्कड़ कर लिया जाये। हमारी जानकारी मे दुकान भोजूबीर थी पर संतोष ने सुझाया कि उस दिन हम लोगों ने एनसीसी के बगल मे कैण्टीन देखा था और वहॉ बैठ कर कुछ चाय नाश्ता करते लोगों को भी। तो हम लोग कैण्टीन पहुंच गये। वहॉ ६० पैसे का समोसा और चालीस पैसे की चाय पी कर निकलने वाले ही थे कि  दो रूपये फुटकर देने वाले सज्जन कैण्टीन मे आते दिखे। हम लोगों ने सोचा बढ़िया है ये यही मिल गये नही तो बिना नाम पता के इनका भी पैसा लौटाना मुश्किल होता। अब हम लोगो के  पास फुटकर भी था । संतोष तुरंत उनके पास पहुंच कर दो रूपये देते हुये कहे "सर, वो आपका पैसा।" उन्होने दो क्षण संतोष और हमे देखा फिर बैठने को कह हम लोगों के बारे मे, विषय, पिछला कालेज, घर दुआर पूछने लगे। फिर बताया कि "इस कालेज मे सर कहने की परंपरा नही है, हम सभी एक परिवार के हैं , यहॉ बड़ो को भईया कह कर सम्मान देते है और अपनापन पाते है।" सुबह से तल्ख व्यवहार झेल रहे हम लोगों ने मुंहदेखी सहमति मे सिर हिलाया। और चलने को हुये। संतोष ने एक बार फिर दो रुपया उनकी ओर बढ़ाते हुये कहा" सर वो आपका दो रूपया।" इतना सुनते ही वो भड़क गये " तुम लोगो को एतना देर से समझा रहे है, बुझा नईखै रहा है। दूई रूपिया अपने छोटे भाई के फीस मे हम जोड़ देगें तो कर्जा मॉगेगें? और ई सर सर का होता है, कायदे से भईया कहे मे शरम आ रहा है तो अरून कहो।रखो पईसा। बड़े आये पईसा देने वाले?"

         आज सुबह से अनजाने लोगों से डॉट खाते हम लोगो का यह तीसरा मौका था। क्या जगह है यार, नये बच्चों को पा के जिसका मन हो रहा है वही हड़का दे रहा है। हम लोगों के मुंह लटक गये। जिसे तुरंत उन्होने ताड़ लिया, फिर बड़े प्यार से बोले " अरे पागल, अब हम भईया हो के तुमसे दो रूपया लेगें , मेरी तरफ से एडमिशन की खुशी मे लाल पेड़ा खा लेना", फिर जैसे उन्हे याद आया कि हम लोग तो पहली बार कालेज आये हैं हम तो लाल पेड़ा से अनजान होगें, तो तुरंत उन्होने कैंटीन काउंटर पर आवाज दिया " ऐ बाऊसाब, तीन गो लालपेड़ा भेजियेगा तो।"उस प्यार भरे डॉट के स्वाद से लालपेड़ा आज तक हमारे पसंदीदा मिठाई मे शामिल है।

         वह सज्जन अरूण भईया थे। मोहनिया रामगढ़ के रहने वाले बीएससी थर्ड ईयर के छात्र। अरूण भईया जब तक रहे, हम लोगों के लिये कालेज मे छॉव बने रहे। फिर जाने कितने बार उनके साथ लालपेड़ा खाने का मौका मिला और हर बार पैसा उन्होने ही दिया। बड़े भाई की मौजूदगी मे डॉट खाने के डर से हमने कभी पैसा देने की कोशिश भी नही की।और वो दो रूपया, वह अभी तक मूल धन के रूप मे अरून भईया के धरोहर रूप मे हमारे खाते मे दर्ज चला आ रहा है।😀😀😀

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क्रमश:.........

अगली बार----,'कालेज मे कक्षा चलने पर तीन छात्र गुट......


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