शुक्रवार, 7 जुलाई 2017

आशुतोष राना की पोस्ट और पिताजी शब्द से बेजार ममी : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 07जुलाई 2017, शुक्रवार

                प्रज्ञा मोहल्ले मेरी छोटी बहन है वह सिर्फ छोटी बहन ही नहीं बल्कि मेरी बहुत अच्छी मित्र भी हैं. यूपी कॉलेज में पढ़ने के दौरान भी कई मुद्दों पर आपस मे सहमत असहमत होते हुए भी हममें मुद्दों पर बात करने की पूरी संभावना थी और आज भी हम ढेरो असहमति के बाद एक दूसरे से इस बिन्दु पर सहमत रहते है कि विचार स्वतंत्र हो पर संस्कार के प्रश्न व मूल्यों पर नही. आज एक लंबे अंतराल के बाद भी आभासी दुनिया के माध्यम से प्रज्ञा अक्सर मुझे आज के मुद्दों पर सीखती सिखाती और जानकारियां देती रहती हैं . प्रज्ञा ने अपनी पिछली पोस्टों में प्रख्यात अभिनेता आशुतोष राणा का जिक्र किया था उन्होंने बताया था कि आशुतोष एक बेहद जिंदादिल इंसान, सामाजिक परिपक्व और संस्कृत प्रेमी अभिनेता हैं वैसे भी मैं आशुतोष के हिंदी ज्ञान भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी समझ, अभिनय में किरदार में डूब जाने की उनकी कला का हमेशा से मै कायल रहा हूं, आज उनकी एक पोस्ट सुबह सुबह मेरे एक मित्र ने भेजी , आभासी दुनिया के टेढ़े मेढ़े,  गोल गोल चक्करों में घूमती भटकती यह पोस्ट पढ़ कर उसके प्रभाव से ऊबरा भी नही था कि आज ही सुबह की एक घटना ने मन मानस को झकझोर दिया,  दिन भर आज यही दोनो घटनाये बार बार मेरे सोचों की पुनरावृत्ति  करती रही, हुआ यूं, कि आज सुबह सुबह मोहल्ले में गुरुदक्षिणा पर्व का आमंत्रण पत्र देने एक पड़ोसी के घर गया मेरे साथ दयाशंकर जी भी थे, पड़ोस के गेट पर ही मिले बच्चों से हमनेे पूछा कि बेटे पिताजी घर में हैं ? तभी बच्चों की माताजी निकली और उन्होंने उलाहने के स्वर में कहा "क्या भाई साहब आप भी बच्चों को उल्टा सीधा पढ़ाते हैं अरे वह क्या जाने कि पिताजी क्या होता है आप पापा डैडी पूछेंगे तभी वह बता पाएंगे ." मैं भौंचक्का साथ उनका चेहरा देखते हुए यह नहीं समझ पा रहा था कि बच्चे पिताजी शब्द को नहीं समझ पा रहे हैं या माताजी (क्षमा कीजिएगा माम या मम्मी ) नहीं चाहती कि बच्चों को पिताजी जैसे गवॉर और देसज शब्दों से परिचित होने का मौका मिले मैं उन मम्मी या माम को भी जानता हूं जो कायदे से अंग्रेजी को तो छोड़िए हिंदी के 10 शब्द भी नहीं लिख सकती परंतु वह नहीं चाहती कि उनके बच्चे हिंदी जैसी गवॉरू और देसज भाषा के शब्द पिताजी से परिचित हो , मैं अभी तक सुबह की घटना भूल नहीं पा रहा हूं बार-बार आशुतोष राणा की पोस्ट मेरे दिमाग में पुनरावृत्ति कर रही है और प्रश्न उठते जा रहे हैं कि क्या हम पश्चिमी परिवेश के भौतिकवादी सोच के प्रति इस कदर अपनी संस्कृति और संस्कार को भूल गए हैं की हमें अब अपने आत्मज व जननी को पिता या माता कहना पिछड़ापन लगने लगा है,
बहर हाल आभासी दुनिया के टेढ़ी-मेढ़ी रास्तों से घूमती फिरती हुई आई आशुतोष राणा की यह पोस्ट जिसे आप भी पढ़िएगा और जरूर सोचिएगा कि हम आखिर अपने बच्चों को कहॉ ले जा रहे हैं
अपने बच्चों की खातिर आशुतोष  राना की यह पोस्ट जरूर पढ. ने व विचार करने लायक है.

आज मेरे पूज्य पिताजी का जन्मदिन है सो उनको स्मरण करते हुए एक घटना साँझा कर रहा हूँ।

बात सत्तर के दशक की है जब हमारे पूज्य पिताजी ने हमारे बड़े भाई मदनमोहन जो राबर्ट्सन कॉलेज जबलपुर से MSC कर रहे थे की सलाह पर हम ३ भाइयों को बेहतर शिक्षा के लिए गाडरवारा के कस्बाई विद्यालय से उठाकर जबलपुर शहर के क्राइस्टचर्च स्कूल में दाख़िला करा दिया। मध्य प्रदेश के महाकौशल अंचल में क्राइस्टचर्च उस समय अंग्रेज़ी माध्यम के विद्यालयों में अपने शीर्ष पर था।
पूज्य बाबूजी व माँ हम तीनों भाइयों ( नंदकुमार, जयंत, व मैं आशुतोष ) का क्राइस्टचर्च में दाख़िला करा हमें हॉस्टल में छोड़ के अगले रविवार को पुनः मिलने का आश्वासन दे के वापस चले गए।

मुझे नहीं पता था की जो इतवार आने वाला है वह मेरे जीवन में सदा के लिए चिन्हित होने वाला है, इतवार का मतलब छुट्टी होता है लेकिन सत्तर के दशक का वह इतवार मेरे जीवन की छुट्टी नहीं "घुट्टी" बन गया।

इतवार की सुबह से ही मैं आह्लादित था, ये मेरे जीवन के पहले सात दिन थे जब मैं बिना माँ बाबूजी के अपने घर से बाहर रहा था। मन मिश्रित भावों से भरा हुआ था, हृदय के किसी कोने में माँ,बाबूजी को इम्प्रेस करने का भाव बलवती हो रहा था , यही वो दिन था जब मुझे प्रेम और प्रभाव के बीच का अंतर समझ आया। बच्चे अपने माता पिता से सिर्फ़ प्रेम ही पाना नहीं चाहते वे उन्हें प्रभावित भी करना चाहते हैं। दोपहर ३.३० बजे हम हॉस्टल के विज़िटिंग रूम में आ गए•• ग्रीन ब्लेजर, वाइट पैंट, वाइट शर्ट, ग्रीन एंड वाइट स्ट्राइब वाली टाई और बाटा के ब्लैक नॉटी बॉय शूज़.. ये हमारी स्कूल यूनीफ़ॉर्म थी। हमने विज़िटिंग रूम की खिड़की से स्कूल के कैम्पस में मेन गेट से हमारी मिलेट्री ग्रीन कलर की ओपन फ़ोर्ड जीप को अंदर आते हुए देखा, जिसे मेरे बड़े भाई मोहन जिन्हें पूरा घर भाईजी कहता था ड्राइव कर रहे थे,और माँ बाबूजी बैठे हुए थे।

मैं बेहद उत्साहित था मुझे अपने पर पूर्ण विश्वास था की आज इन दोनों को इम्प्रेस कर ही लूँगा। मैंने पुष्टि करने के लिए जयंत भैया जो मुझसे ६ वर्ष बड़े हैं उनसे पूछा मैं कैसा लग रहा हूँ ? वे मुझसे अशर्त प्रेम करते थे मुझे लेके प्रोटेक्टिव भी थे बोले शानदार लग रहे हो नंद भैया ने उनकी बात का अनुमोदन कर मेरे हौसले को और बढ़ा दिया।
जीप रुकी..

उलटे पल्ले की गोल्डन ऑरेंज साड़ी में माँ और झक्क सफ़ेद धोती कुर्ता गांधी टोपी और काली जवाहर बंड़ी में बाबूजी उससे उतरे, हम दौड़ कर उनसे नहीं मिल सकते थे ये स्कूल के नियमों के ख़िलाफ़ था, सो मीटिंग हॉल में जैसे सैनिक विश्राम की मुद्रा में अलर्ट खड़ा रहता है एक लाइन में तीनों भाई खड़े माँ बाबूजी का अपने पास पहुँचने का इंतज़ार करने लगे, जैसे ही वे क़रीब आए, हम तीनों भाइयों ने सम्मिलित स्वर में अपनी जगह पर खड़े खड़े Good evening Mummy. Good evening Babuji. कहा।
मैंने देखा good evening सुनके बाबूजी हल्का सा चौंके फिर तुरंत ही उनके चहरे पे हल्की स्मित आई जिसमें बेहद लाड़ था मैं समझ गया की ये प्रभावित हो चुके हैं । मैं जो माँ से लिपटा ही रहता था माँ के क़रीब नहीं जा रहा था ताकि उन्हें पता चले की मैं इंडिपेंडेंट हो गया हूँ .. माँ ने अपनी स्नेहसिक्त मुस्कान से मुझे छुआ मैं माँ से लिपटना चाहता था किंतु जगह पर खड़े खड़े मुस्कुराकर अपने आत्मनिर्भर होने का उन्हें सबूत दिया। माँ ने बाबूजी को देखा और मुस्कुरा दीं, मैं समझ गया की ये प्रभावित हो गईं हैं। माँ, बाबूजी, भाईजी और हम तीन भाई हॉल के एक कोने में बैठ बातें करने लगे हमसे पूरे हफ़्ते का विवरण माँगा गया, और ६.३० बजे के लगभग बाबूजी ने हमसे कहा की अपना सामान पैक करो तुम लोगों को गाडरवारा वापस चलना है वहीं आगे की पढ़ाई होगी•• हमने अचकचा के माँ की तरफ़ देखा माँ बाबूजी के समर्थन में दिखाई दीं। हमारे घर में प्रश्न पूछने की आज़ादी थी घर के नियम के मुताबिक़ छोटों को पहले अपनी बात रखने का अधिकार था, सो नियमानुसार पहला सवाल मैंने दागा और बाबूजी से गाडरवारा वापस ले जाने का कारण पूछा ? उन्होंने कहा रानाजी मैं तुम्हें मात्र अच्छा विद्यार्थी नहीं एक अच्छा व्यक्ति बनाना चाहता हूँ। तुम लोगों को यहाँ नया सीखने भेजा था पुराना भूलने नहीं। कोई नया यदि पुराने को भुला दे तो उस नए की शुभता संदेह के दायरे में आ जाती है, हमारे घर में हर छोटा अपने से बड़े परिजन, परिचित,अपरिचित जो भी उसके सम्पर्क में आता है उसके चरण स्पर्श कर अपना सम्मान निवेदित करता है लेकिन देखा की इस नए वातावरण ने मात्र सात दिनों में ही मेरे बच्चों को परिचित छोड़ो अपने माता पिता से ही चरण स्पर्श की जगह Good evening कहना सिखा दिया। मैं नहीं कहता की इस अभिवादन में सम्मान नहीं है, किंतु चरण स्पर्श करने में सम्मान होता है यह मैं विश्वास से कह सकता हूँ। विद्या व्यक्ति को संवेदनशील बनाने के लिए होती है संवेदनहीन बनाने के लिए नहीं होती। मैंने देखा तुम अपनी माँ से लिपटना चाहते थे लेकिन तुम दूर ही खड़े रहे, विद्या दूर खड़े व्यक्ति के पास जाने का हुनर देती है नाकि अपने से जुड़े हुए से दूर करने का काम करती है। आज मुझे विद्यालय और स्कूल का अंतर समझ आया, व्यक्ति को जो शिक्षा दे वह विद्यालय जो उसे सिर्फ़ साक्षर बनाए वह स्कूल, मैं नहीं चाहता की मेरे बच्चे सिर्फ़ साक्षर हो के डिग्रीयों के बोझ से दब जाएँ मैं अपने बच्चों को शिक्षित कर दर्द को समझने उसके बोझ को हल्का करने की महारथ देना चाहता हूँ। मैंने तुम्हें अंग्रेज़ी भाषा सीखने के लिए भेजा था आत्मीय भाव भूलने के लिए नहीं। संवेदनहीन साक्षर होने से कहीं अच्छा संवेदनशील निरक्षर होना है। इसलिए बिस्तर बाँधो और घर चलो। हम तीनों भाई तुरंत माँ बाबूजी के चरणों में गिर गए उन्होंने हमें उठा कर गले से लगा लिया.. व शुभआशीर्वाद दिया कि किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो.. पूज्य बाबूजी जब भी कभी थकता हूँ या हार की कगार पर खड़ा होता हूँ तो आपका यह आशीर्वाद "किसी और के जैसे नहीं स्वयं के जैसे बनो" संजीवनी बन नव ऊर्जा का संचार कर हृदय को उत्साह उल्लास से भर देता है । आपको शत् शत् प्रणाम
(बनारस, 07जुलाई 2017, शुक्रवार)
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मंगलवार, 4 जुलाई 2017

एक बार फिर अपने स्कूल जरूर जाना : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 04 जुलाई 2017, मंगलवार

एक बार  फिर अपने स्कूल जरूर जाना : व्योमेश चित्रवंश की डायरी,  04 जुलाई 2017, मंगलवार

कमीज के बटन ऊपर नीचे लगाना
वो अपने बाल खुद न काढ पाना
पी टी शूज को चाक से चमकाना
वो काले जूतों को पैंट से पोछते जाना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो बड़े नाखुनो को दांतों से चबाना
और लेट आने पे मैदान का चक्कर लगाना
वो prayer के समय class में ही रुक जाना
पकडे जाने पे पेट दर्द का बहाना बनाना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो टिन के डिब्बे को फ़ुटबाल बनाना
ठोकर मार मार उसे घर तक ले जाना
साथी के बैठने से पहले बेंच सरकाना
और उसके गिरने पे जोर से खिलखिलाना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

गुस्से में एक-दूसरे की कमीज पे स्याही छिड़काना
वो लीक करते पेन को बालो से पोछते जाना
बाथरूम में सुतली बम पे अगरबती लगा छुपाना
और उसके फटने पे कितना मासूम बन जाना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो games period के लिए sir को पटाना
unit test को टालने के लिए उनसे गिडगिडाना
जाड़ो में बाहर धूप में class लगवाना
और उनसे घर-परिवार के किस्से सुनते जाना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो बेर वाली के बेर चुपके से चुराना
लाल –काला चूरन खा एक दूसरे को जीभ दिखाना
जलजीरा , इमली देख जमकर लार टपकाना
साथी से आइसक्रीम खिलाने की मिन्नतें करते जाना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो लंच से पहले ही टिफ़िन चट कर जाना
अचार की खुशबूं पूरे class में फैलाना
वो पानी पीने में जमकर देर लगाना
बाथरूम में लिखे शब्दों को बार-बार पढके सुनाना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो exam से पहले गुरूजी के चक्कर लगाना
लगातार बस important ही पूछते जाना
वो उनका पूरी किताब में निशान लगवाना
और हमारा ढेर सारे course को देख चकराना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो farewell पार्टी में पेस्ट्री समोसे खाना
और जूनियर लड़के का ब्रेक डांस दिखाना
वो टाइटल मिलने पे हमारा तिलमिलाना
वो साइंस वाली मैडम पे लट्टू हो जाना
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो मेरे स्कूल का मुझे यहाँ तक पहुचाना
और मेरा खुद में खो उसको भूल जाना
बाजार में किसी परिचित से टकराना
वो जवान गुरूजी का बूढ़ा चेहरा सामने आना ...
तुम सब अपने स्कूल एक बार जरुर जाना .....
(बनारस, 04 जुलाई 2017, मंगलवार)
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सोमवार, 3 जुलाई 2017

वक्त ही पीछे पड़ गया मेरे....... : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 03जुलाई 2017, सोमवार

जीवन के असल फलसफा को समझाने वाली डॉ0 हरबंश राय बच्चन की यह कविता मेरे पसंदीदा कविताओं मे ये एक है. आज के मौजूं मे जिन्दगी के हकीकत से परे भागते व सच का सामना करने के बजाय झूठे छलावा मे जिन्दगी जीने का असल सच यही है,  कभी जीवन की आपाधापी  मे खुद का तलाश करने बैठने पर पूरी जिन्दगी का गुणाभाग कर के सच देखा जाय तो कहीं खुद के पीछे तनहा बैठा अकेला असल इंसान दिखता है जो वक्त की मार मे खुद से दूर हो दोयम जिन्दगी जीने को मजबूर है,  यही इस कविता का ही नही जिन्दगी का भी सच है, जब खुद को जिन्दगी के टेढ़े मेढ़े रस्ते मे उलझनों के बियाबान मे भटकता पाता हूँ तो इनही लाइनो को दुहराता हूँ  ौर यकीं मानिये कोई रस्ता निकल ही आता है.....

खवाहिश  नही  मुझे  मशहुर  होने  की।
आप  मुझे  पहचानते  हो  बस  इतना  ही  काफी  है।

अच्छे  ने  अच्छा  और  बुरे  ने  बुरा  जाना  मुझे।
क्यों अपनी जरूरत भरा  हर एक ने पहचाना  मुझे।

ज़िन्दगी  का  फ़लसफ़ा  भी   कितना  अजीब  है,
शामें  कटती  नहीं, और  साल  गुज़र जाते हैं....!!

एक  अजीब  सी  दौड़  है  ये  ज़िन्दगी,
जीत  जाओ  तो  कई  अपने  पीछे  छूट  जाते  हैं,
और  हार  जाओ  तो  अपने  ही  पीछे  छोड़  जाते  हैं।

बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर...
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है..

मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।।

ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है
पर सच कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं है

जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन
क्यूंकि एक मुद्दत से मैंने
न  अंदाज बदले और न ही दोस्त बदले .!!.

एक घड़ी ख़रीदकर हाथ मे क्या बाँध ली..
वक़्त पीछे ही पड़ गया मेरे..!!

सोचा था घर बना कर बैठुंगा सुकून से..
पर घर की ज़रूरतों ने मुसाफ़िर बना डाला !!!

सुकून की बात मत कर ऐ ग़ालिब....
बचपन वाला 'इतवार' अब नहीं आता |

जीवन की भाग-दौड़ में -
क्यूँ वक़्त के साथ रंगत खो जाती है ?
हँसती-खेलती ज़िन्दगी भी आम हो जाती है..

एक सवेरा था जब हँस कर उठते थे हम
और
आज कई बार
बिना मुस्कुराये ही शाम हो जाती है..

कितने दूर निकल गए,
रिश्तो को निभाते निभाते..
खुद को खो दिया हमने,
अपनों को पाते पाते..

लोग कहते है हम मुस्कुराते बहोत है,
और हम थक गए दर्द छुपाते छुपाते..

"खुश हूँ और सबको खुश रखता हूँ,
लापरवाह हूँ फिर भी सबकी परवाह
करता हूँ..

मालूम है कोई मोल नहीं मेरा,
फिर भी,
कुछ अनमोल लोगो से
रिश्ता रखता हूँ...!

(बनारस, 03 जुलाई 2017, सोमवार )
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