सोमवार, 27 जनवरी 2020

व्योमवार्ता / डॉ० राजीव मिश्रा की किताब विषैला वामपंथ, जिसे बहुत पहले प्रकाशित होना चाहिये था : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 27 जनवरी 2020

व्योमवार्ता /विषैला वामपंथ, जिसे बहुत पहले प्रकाशित हो कर पढ़ना चाहिये था : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 27जनवरी 2020

                    मुखपुस्तिका(फेसबुक) की हमारी साहित्यकार मित्र अभिधा शर्मा के जनवरी 2020 के दिल्ली पुस्तक मेला के दौरान अति उत्सुकता से खोजी गई और न मिलने पर किसी भी मित्र से इस पुस्तक विषैला वामपंथ को उपलब्ध कराये जाने हेतु निवेदन ने मेरा ध्यान इस की तरफ आकर्षित किया। पुस्तक के बारे मे अभिधा की यह जानकारी कि अभी नवम्बर मे पहली बार प्रकाशित और उसके एक माह के अंदर दिसंबर मे दुबारा मुद्रित होने के बावजूद किताब की अनुपलब्धता ने इस आकर्षण को और तीब्र कर दिया। फिर अभिधा के ही पोस्ट पर आये टिप्पणियाँ मे ही किसी ने बताया कि अमेजन पर किताब आ चुकी है। लगे हाथ हमने भी आनन फानन मे किताब को मंगाने हेतु आर्डर बुक कर दिया। किताब आने के बाद जब पढ़ना प्रारंभ किये तो लगा कि हम अभी तक वामपंथ के बनाये छलावे और भूलाये मे ही जी रहे थे। और अपनी आँखों को खुली रखने के बावजूद वही देख रहे थे जो हमे किसी खास उद्देश्य की पूर्ति के लिये साजिसन दिखाया जा रहा था।   डॉ० राजीव मिश्रा के छप्पन लेखों के इस बेहतरीन संकलन को पढ़ने से कहीं अधिक गुनते हुये यह कसिस रही कि इस किताब को तो बहुत पहले प्रकाशित होना और पढ़ा जाना चाहिये था ताकि यूटोपिया मे जीने की कल्पना करने वाली अपनी संस्कृति व परंपरा से विमुख हो कर कथित नैरेटिव्स के पीछे भाग रही युवा पीढ़ी को कभी न मिलने वाली मंजिल की सच्चाई और वास्तविकता तो पता हो जाती।
     किताब के बारे में जैसा राजीव स्वयं कहते है कि " यह किताब किसी विद्वता के भ्रम मे नही लिखी गई है। ऐतिहासिक घटनाओं और तारीखों की एक्यूरेसी के लिये इसे एक रिफरेंस बुक भी नही होना है। यह किताब पढ़ने के लिये लिखी गई है, ड्राइंग रूम मे सजाने के लिये तो बिलकुल नही। यह उन किताबों मे ना गिनी जाय जिसकी दस लाख प्रतियॉ बिकें और दस हजार लोग भी उसे खत्म ना कर पाये बल्कि इसकी पॉच हजार प्रतियॉ बिके तो एक लाख लोग उसे पढ़ें।" यह किताब पढ़ने और सोचने के लिये है।
समाज के जड़ तक नकारात्मक प्रवृत्ति ने इतना गहरे तक जम चुकी है कि उसने आम जनमानस का विशेषकर युवा वर्ग को साहित्य, मीडिया, संप्रेषण और कथ्य निर्माण के माध्यम से अपने सोचने समझने के नजरिये का चश्मा लगा कर हर तथ्य को देखने पर विवस करती है। डॉ०राजीव ने समाज को लुभाने वाली भ्रामक वामपंथी शब्दावली की व्याख्या करते हुये बताते है कि " हमारी समस्या यह है कि हम अकसर अपने विमर्श में इन्हीं पॉलिटिकली करेक्ट मूल्यों को मान्यता दिए बैठे हैं। बिना यह समझे कि ये सारे शब्द जिसकी महत्ता और मर्तायादा की दुहाई देते हुये हम आपस में लड़ते हैं, वे सभी किसी न किसी देशविरोधी धर्मविरोधी या समाज विरोधी शक्ति की ढाल है। एक देशद्रोही चैनल मीडिया की स्वतंत्रता के पीछे छुपा है, एक समाज विरोधी फिल्मकार कलात्मकता के की पीछे दो नंबर के पैसे को सफेद करने वाला एक दलाल समाजसेवा के पीछे छुपा है तो नक्सलियों और जिहादियों की फौज धर्मनिरपेक्षता की ओट लिये खड़ी है ....."
डॉ० राजीव अपने विश्लेषण के आधार पर इस पालिटिकल करेक्टनेस के हौव्वा का समाधान भी बताते है " खुलकर प्रश्न किजिये.., पालिटिकल करेक्टनेस के हर मानक को अस्वीकार किजिये.., वह एक सिद्धांत नही है,शत्रु का बंकर है? यह टूटा तो शत्रु सामने होगा.., बिना पालिटिकल करेक्टनेस को अस्वीकृत और अनधिकृत किये यह लड़ाई नही जीती जा सकती। पालिटिकल करेक्टनेस एक किस्म का बौद्धिक आतंकवाद है और इसका उस  बंदूक वाले आतंकवाद से बड़ा भाईचारा है....."
विषैला वामपंथ के तथ्यों ,शब्दावलीयों की सहज ,सरल व बोधगम्य व्याख्या करने के साथ हीजोसेफ मैक्कार्थी, जान एफ केनेडी, निक्सन, जिमक्रो, देंग सियांगो पिंग, ली कुआन यू,साल अलिन्स्की केट मिलेट,एंटिनियो ग्राम्स्की, माओ, मुसोलिनी के बारे भी चर्चा की है तो कुर्ता, जीन्स, मोटे फ्रेमवाले चश्मे और गले मे गमछा लटका कर बुजुर्वा और सर्वहारा की व्याख्या करने वाले वामपंथियों के बोझिल पर असरकारक टर्मोलाजी फ्रैंकफर्ट स्कूल, रूल्स फार रेडिकल्स, पालिटिकल करेक्टनेस, विक्टम आईडेंटिटी, कनफ्लिक्ट नैरेटिव, फेमिनिज्म, सोशल आटो इम्युनिटी, म्यूटेटेड वायरस, नैरेटिव बिल्डिंग को भी विश्लेषित किया है।
कुल मिला कर पूरी तरह से समझने बूझने वाली किताब को पढ़ कर कहीं से यह नही लगता कि किताब के लेखक डॉ० राजीव मिश्रा सीनियर गैस्ट्रोइंन्ट्रोलाजी के वरिष्ठ चिकित्सक है बल्कि यह महसूस होता है कि हम किसी बेहद सुलझे वरिष्ठ राजनीति विज्ञानी, विश्लेषक के द्वारा वामपंथ के वास्तविक स्वरूप से परिचित हो रहे हैं। वैसे हम कहें कि, डाक्टर साहेब ने  किताब लिखते समय भी वामपंथ का पोस्टमार्टम ही किया है जिसमें अंदर तक विष ही भरा मिलता है, तो गलत नही होगा। वाकई यह किताब आज की जरूरत है, हम तो सोच रहे थे कि यदि यह किताब पहले आई होती तो स्वयं मेरे मन मे कुछ सामाजिक कथ्यों पर मेरा जो भ्रम था कब का मिट गया होगा। क्योंकि "वामपंथ एक तरह का sociopsychosis है। उनकी सोशल रियलिटी कुछ और है। उसमे वर्ग संघर्ष है, क्रांतिहै, समानता है .... तरह तरह की बकवास है जो आपको तब तक दिखाई नही देगा जब तक आप उनके नैरेटिव को सब्सक्राईब नही करेगें, या आप खुद उनके सायकोसिस से ग्रस्त नही हो जायेगें।
        और जबतक आपको पता नही चल जाता कि यह सायकोसिस है, आप उसके नैरेटिव को सब्सक्राइब करते हैं और वह आपको वास्तविक ही लगता रहता है....."
(बनारस, 27 जनवरी 2020, सोमवार)
http://chitravansh.blogspot.com
#किताबें मेरी दोस्त