बुधवार, 19 जून 2024

व्योमवार्ता/ समाज जिसमे हम रहते हैं...../जरूरत परिवार संस्था को बचाने की...

जरूरत 'परिवार' संस्था को बचाने की-

            क्या आपको आशा साहनी, विजयपति सिंघानिया और सुरेन्द्र दास याद हैं? नाम कुछ सुना हुआ लग रहा है पर सही-सही याद नहीं आ रहा है। आज कुछ ऐसी ही स्थिति परिवार नामक संस्था की है। परिवार की प्रवधारणा हमारे मन मस्तिष्क में है पर हम उसके वास्तविक महत्व को नहीं समझ पा रहे हैं। चलिए, पहले आपकी उत्सुकता भरी उलझन दूर करते हुए इन तीनों के बारे में बताते हैं। वर्ष 2018 में इन तीनों व्यक्तियों के साथ घटित घटनाओं ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया था। शायद आप भी विचलित होते हुए हो, पर जीवन की रोजमर्रा की आपधापी में दो-चार दिन के बाद ये तीनों घटनायें विस्मृत हो गयी। आशा साहनी उम्र 63 वर्ष, मुम्बई के अभिजात्य इलाके के एक हाउसिंग सोसाइटी के फ्लैट में रहती थी, उसी सोसाइटी में उनका एक और फ्लैट भी था। दोनों फ्लैटों की कीमत आज की तारीख में लगभग 8 करोड़ रूपये से अधिक होगी। वर्ष 2013 में पति की मृत्यु के बाद वह अकेले ही रहती थी क्योंकि एकमात्र पुत्र रितूराज साहनी अमेरिका में बहुराष्ट्रीय कम्पनी में डालर की मोटी गड्डी वाली नौकरी करता था। अप्रैल 2016 में आशा ने अपने पुत्र रितूराज को फोन पर बताया था कि उसे अकेलापन सताता है, अकेले रहने में डर लगता है इसलिए वह उसे ले चले क्योंकि वह अकेली नही रहना चाहती। बेटे ने माँ की बात सुनकर फिर फोन पर बात करने का आश्वासन दिया। अप्रैल 2016 के पश्चात माँ के बारे में सोचने की फुरसत बेटे रितूराज को अगस्त 2018 में 6 तारीख को मिली, जब वह कम्पनी में काम से मुम्बई आया। फ्लैट अन्दर से बन्द था। पड़ोसियों ने बताया कि उन्होंने पिछले सात-आठ महीनों से फ्लैट को कभी खुलते नहीं देखा। बार-बार घण्टी बजाने पर जब दरवाजा नहीं खुला और बेटे रितूराज ने फ्लैट का दरवाजा तोड़वाया तो माँ आशा साहनी बेड पर बैठी मिली। कपड़ों के भीतर सिर्फ हड्डियों के ढाँचे में, उसके मॉस व चमड़े गलकर अलग हो गये थे जिन्हें चींटियों ने खा डाला था। कंकाल रूपी मॉ के बैठने की स्थिति देखकर लग रहा था कि उसकी आँखे दरवाजे पर ही टिकी थी बेटे के इंतजार में। पर क्या बेटा समय पर आकर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाया?
                    दूसरी घटना रेमण्ड ग्रुप ऑफ इण्डस्ट्रिज के मालिक 80 वर्षीय विजयपति सिंघानिया की है। देश के नामी उद्योगपतियों में शामिल विजयपति सिंघानिया बारह हजार करोड़ के औद्योगिक साम्राज्य के स्वामी होने के साथ-साथ बेहद जिन्दादिल और अपने शौक को पूरा करने वाले खुशनसीब इंसानों में शुमार हुआ करते थे। एक अच्छे पायलट होने के साथ सामाजिक क्रिया कलापों एवं साहसिक कारनामों में दखल जैसे कार्यों के चलते वे पद्मविभूषण सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। एक जमानें में मुंबई की सबसे ऊँची 36 मंजिली ईमारत में जे.के. हाउस में रहने वाले विजयपति आज किराये के कमरे में रहने के साथ-साथ पैसे पैसे को मोहताज हैं। उन्होंने अपने इकलौते पुत्र गौतम सिंघानिया पर व्यापार, सम्पत्ति, घर सब कुछ हड़पने का आरोप लगाया है।
          सुरेन्द्र दास बलिया के एक मध्यमवर्गीय परिवार से निकले आईआईटी खड्गपुर से इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग में बीटेक थे। उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा को उत्तीर्ण कर अपने गाँव का प्रथम आईपीएस बनने का गौरव प्राप्त किया। आईपीएस बनने के बाद उन्होंने पेशे से चिकित्सक डॉ० रवीना से मैट्रिमोनियल साईट पर परिचित होकर अन्तर्जातीय विवाह किया। विवाह के एक वर्ष बाद ही पारिवारिक उलझनों के चलते साथ-सुथरी छवि वाले मात्र तीस वर्ष के ईमानदार आईपीएस सुरेन्द्र दास ने जहर खाकर सितम्बर 2018 में आत्महत्या कर लिया। ये तीनों घटनायें तीन विभिन्न परिस्थिति, परिवेश और अलग-अलग स्थानों की हैं जिनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। आर्थिक व सामाजिक ताने-बाने में भी ये तीनों घटनाएं उच्च, मध्यम व टप्रवर मध्य वर्ग से हैं परन्तु ध्यानपूर्वक देखा जाये तो तीनों ही घटनाओं के पीछे व्यक्ति की हताश मनोवृत्ति है जो उसे स्वयं से अन्दर ही अन्दर जूझते हुए कमजोर करती है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह महसूस होता है कि इस कमजोरी का मुख्य कारण आत्मबल का अभाव या कमी है जिसकी भरपाई परिवार संस्था से की जाती है। हमारे समाज में दिनोदिन परिवार के ताने-बाने के कमजोर होने या नष्ट होने से इस तरह की घटनायें हो रही हैं और होती रहेंगी। बात आशा साहनी के बेटे के जीवन शैली से करें तो कारण ज्यादा स्पष्ट होंगे। वर्ष 2013 में अपने पिता के मृत्यु के पश्चात क्या रितूराज यह जानता नहीं था कि मुंबई जैसे महानगर में उसकी बूढ़ी माँ अकेले रह रही है। क्या वर्ष अप्रैल, 2016 में माँ के डर व अकेलेपन की बात फोन पर सुनने के बाद भी वह अपनी 60 वर्षीय मॉ के दर्द को नहीं समझ पाया? और तो और, अन्तिम बार अप्रैल, 2016 में बूढ़ी माँ का फोन मिलने के बाद उसे अपनी माँ को फोन करने और हाल-चाल जानने में उसे दो साल से भी ज्यादा वक्त में समय ही नही मिल सका? क्या मुंबई जैसे शहर में अपना बचपन और जवानी के आठ-दस वर्ष बिताने वाले रितूराज का पूरे शहर में कोई रिश्तेदार, दोस्त, परिजन ऐसा नहीं था जिससे वह उन सवा दो वर्षों के अन्तराल में माँ का हाल पता कर सके? बात विजयपति सिंघानिया की करें तब भी ऐसे ही ढेरों सवाल उठते हैं। क्या कारण थे कि बाप विजयपति की बनाई हुई सारी सम्पत्ति से इकलौते बेटे गौतम ने उन्हें बेदखल करते हुए कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बना दिया? क्या गौतम को समझाने, बताने वाला उसके परिवार, रिश्तेदार, नातेदार में ऐसा कोई नहीं जो उसे पिता के महत्व को बता सके? क्या विजयपति का कोई परिचित, दोस्त, परिजन और रिश्तेदार नहीं जो उन्हें सूकून की छाया और दोनों वक्त दो रोटी दे सके? सुरेन्द्र दास का प्रकरण तो हासिये से और परे हो जाता है। स्व० सुरेन्द्र के ससुर जो चिकित्सा विभाग में निदेशक स्तर के अधिकारी हैं, उनका आरोप है कि सुरेन्द्र के परिवार वाले उसे पैसा कमाने की मशीन समझते थे और पैसे के लिए हमेशा परेशान करते थे। जबकि सुरेन्द्र केम माँ और भाई का कहना है कि सुरेन्द्र की पत्नी सुरेन्द्र को अपने घेरे में लेकर उसे सुरेन्द्र के मौलिक परिवार से अलग-थलग कर दी थी और पिछले महीनों से उसे मॉ से बात भी नहीं करने देती थी जिससे वह काफी परेशान होकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गया। 
सच क्या है? 
इस बारे में सिर्फ कयास लगाया जा सकता है परन्तु इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि आदमियत के रिश्तों में फर्क पड़ता जा रहा है। परिवार की अवधारणा सिमट कर न्यूक्लियस फैमिली हम दो हमारे दो से और संकीर्ण हो हम दो हमारे एक से होते हुए अब एकाकी पर केन्द्रित होकर रह गया है। ये अहसास कि दुनिया में मेरा कोई नहीं है, किसी को मेरी जरूरत नहीं है। मैं कुछ भी होने की वजह नहीं हूँ। इससे बड़ी बदनसीबी किसी भी इन्सान और इंसानी समाज के लिए कुछ भी नहीं। एक शायर की पंक्तियों याद आ रही है-
'इक जमाना था कि 
सब एक जगह रहते थे 
और अब कोई कहीं, 
कोई कहीं रहता है 
पहले तो हर बात पर 
रूसवाई का डर लगता था 
अब कोई भी टोकने वाला नहीं, 
मेरे परिवार में। 
यह टोकना ही परिवार का अपनापन था जो पूरे परिवार को सामूहिक बन्धन व जिम्मेदारियों में जकड़ा रहता था। तब हर सदस्य घर के बाकी लोगों के साथ अपनी खुशियों ही नहीं, दुःख और परेशानियाँ भी बॉटता था। सबकी लाठी एक का बोझ बनकर थे, परेशानी कब हवा में कपूर बन खत्म हो जाती थी, एहसास भी नहीं होता था। भारतीय परिवेश से दूर आगस्त कांटे ने परिवार के लिए कहा है कि परिवार समाज की आधारभूत इकाई है. जहाँ अच्छा परिवार समाज के लिए वरदान है, वहीं बुरा परिवार एक अभिशाप से कम नहीं है। प्लेटों ने भी परिवार को जीवन की बुनियादी पहलू की प्रथम पाठशाला कहा है। भारतीय परिवेश में तो परिवार के कई मायने हुआ करते थे। एक जन्मना परिवार जहाँ बच्चा जन्म लेकर नाम पाने के साथ-साथ मॉ, पिता, चाचा, बुआ, ताई, दादा-दादी, भैया-बहना के रिश्ते पाता था, वहीं गुरूकुल में जाने पर उसका एक समवयस्क परिवार मिलता था जिसे गोत्र के नाम से जाना जाता था। गुरू और आश्रम के द्वारा दिये हुए गोत्र परिवार से एक अलग सामाजिक संरचना बनती थी। इन दोनों से ऊपर गाँव के रिश्ते जिसमें ढेर सारे मुँहबोले रिश्तों का परिवार होता था। 
उस जमाने में परिवार में कितने ही लोग रहते थे, परिवार हँसता, खेलता था और एक दूसरे से एकदम जुड़ा रहता था, पैसे कम होते थे पर उसमें भी बड़ी बरक्कत होती थी। घर में कोई खुशी की बात होती थी तो बाहर वालों को बुलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी, पर आज परिवार कितने छोटे हो गये हैं और टूटते जा रह हैं, हमारे रिश्ते बिखरते जा रहे हैं। रिश्तों में वो मिठास नहीं रह गयी है। एलपीजी (लिबरलाईजेशन, प्राइवेटाईजेशन, ग्लोबनाईजेशन) के अवधारणा के बाद सदी के आखिरी दशक से भौतिकता के प्रति अंधी दौड़, शहरों में पलायन और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ने संयुक्त परिवार को समाप्त कर रिश्तों में दरारें डाल एकल परिवार की भूमिका को समाज में सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया। समाज की व्यक्तिवादी सोच ने दादी-दादा, चाचा-चाची, बुआ, मौसी और मामा के रिश्ते ही खत्म कर दिये। घर के दरवाजे छोटे होते थे पर घर बड़े और घर की दहलीज के अंदर रहने वाले बड़े मन व सोच के होते थे उनके मन मे एक दूसरे के प्रति अपनापन और अपार स्नेह था। आज घर छोटे हो गये बस दरवाजे बड़़े हो गये परन्तु  उनके भीतर रहने वालों की सोच संकीर्ण और छोटी हो गई। आज परिवार के टूटन के साथ गांव हटते गये और हमने गांव की सरहद पर ही संस्कार भी छोड़ दिया। खरीदी गयी शिक्षा व्यवस्था ने नारी पुरूष समानता के नाम पर संस्कार विहीन व्यक्तिवादी अधिकार के ऐसे बीज रोप दिये कि उनकी जड़ व भविष्य विहीन लहलहाती फसल परिवार न्यायालयों में विवाह विच्छेद से लेकर गुजारे भत्ते की मुकदमों में दिख रही है। एक दरवाजे की हवेली से निकले परिवारों ने शहरी अपार्टमेण्ट के कई दरवाजे वाले फ्लैट में रिहाईस तो बना लिया पर पूरे गाँव को जानने व पहचान वाले व्यक्ति के समक्ष आज अपने पड़ोसी से पहचान का प्रश्न ही उठा रहा। आज के दिखावा भरे जीवन में सहजता नही हैं। फेसबुक पर पाँच हजार फ्रेण्ड्स लिस्ट वाले बन्दे के पास वास्तविक जीवन में पाँच सही मित्र हो, यह सम्भावना भी सवाल खड़ी करती है। आज का एकल परिवार
स्वयं में एक बिडम्बना है। यहाँ बच्चों को तो छोड़िये, बड़ों पर अंकुश लगाने वाला कोई नहीं है। परिवार में यदि अनुशासन नहीं तो परिवार को बिखरते देर नहीं लगती। बढ़ते पारिवारिक झगडे, तलाक, बच्चों को उद्दण्डतापूर्ण व्यवहार, इसका ज्वलन्त उदाहरण है। 
अब बच्चों में दादा-दादी का दुलार भरा संरक्षण, स्नेहसिक्त उलाहना और परियों की कहानियों में रूचि नहीं होने के साथ-साथ दिली लगाव भी उत्पन्न नहीं हो पाता क्योंकि एकल परिवार के संचालक उनके आधुनिक माता-पिता अपने बूढ़े माँ-बाप (बच्चों के दादा-दादी) को अपने साथ रखने में असमर्थ हैं, जो साथ हैं वे भी तिरस्कृत हैं। बच्चा वही सीखेगा जो देखेगा। दूसरों पर दोषारोपण करना ठीक नहीं, न ही यह समस्या का समाधान है। मोबाईल, सोशल मीडिया, ओटीटी पर परोसे जाने वाले फूहड़ मनोरंजन और डीटीएच चैनल्स ने आज की सामाजिक सामंजस्यता को समाप्त कर दिया है। मोबाईल पर रोज बात करने वालों को आपस में मिले सालोंसाल बीत जाते हैं। दिन भर कानों में लगे मोबाईल और खाली वक्त मोबाईल पर घूमती उंगलियों ने हमें खुद से ही कितना दूर कर दिया है इसका अहसास हमें होने लगा है। मोबाईल के निजी जीवन में अत्यधिक हस्तक्षेप से परिवार की आपसी बातचीत बन्द कर दिया है। सच कहें तो 
एक अरसा हुआ 
अहसासों को बातों में भींगा देखे, 
कम्बख्त इस मोबाईल ने 
अल्फाजों का वजूद खत्म कर डाला।'
         एक वाक्य में कहें तो परिवार वट वृक्ष की तरह है जो समस्याओं व तनाव के तपती झुलसती धूप से हमें समाधान रूपी राहत देता है। एकल परिवार क्षणिक वर्तमान के लिए सुखद तो हो सकता है, पर लम्बी यात्रा के लिए हमें सहयोग व संबल लेने परिवार को ही अपनाना होगा। हमें परिवार की महत्ता स्वीकार करना ही होगा और एकाकी जीवन व अकेलेपन के प्रश्नों के उत्तर हमें खुद तलाशना होगा। झाँकना होगा अपने अन्तर्मन में टटोलना होगा स्वयं को, क्योंकि समाज एवं स्वयं की इस स्थिति के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। प्रतिस्पर्धा एवं दिखावे की अंधी दौड़ में पड़कर हम सिर्फ अपना स्वार्थ हल कर रहे हैं। भूला बैठे है अपनी प्राथमिकताओं को। नकार रहे हैं उन मूलभूत दायित्वों को जो एक संस्कारिक परिवार एवं समाज की आवश्यकता ही नही आधारशिला है।
सम्बन्धों में जुड़ाव विश्वास आपसी समझ बनाये रखने के लिए कुछ त्याग करने पड़ेंगे। इस बदलते परिदृश्य में नई पीढ़ी को गर्त में जाने से बचाने के लिए उनमें चारित्रिक सृदृढ़ता लाने के लिए माता-पिता को अपने एकाकी सोच में बदलाव लाना होगा। उन्हें अपने पिछली पीढ़ी और परिवार को समय, प्यार एवं भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करनी होगी। उनके समक्ष दम तोड़ रहे रिश्तों को, सम्बन्धों को मान, सम्मान, आदर देना होगा और सबसे बढ़कर 'मैं' की भावना से हटकर 'हम' की भावना का विकास करना होगा। तभी शायद हम आने वाले दिनों में 'परिवार' संस्था को बचाने व स्वयं को सुदृढ़ करने में सफल होंगे। क्योंकि हमारे जीवन का यह बड़ा सच है कि परिवार और मिट्टी का मटका दोनों एक जैसे होते हैं। इसकी कीमत बस बनाने वालों को पता होती है, तोड़ने वालों को नही।
#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं....

(अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस (15मई) समारोह मे उद्बोधित विचार)
नोट: यह उदबोधन वाराणसी के हिन्दी मासिक पत्रिका  के परिवार विशेषांक मे प्रकाशित हो चुका है।
http://chitravansh.blogspot.in

मंगलवार, 18 जून 2024

नवगीत के प्रणेता डाॅ०शंभुनाथ सिंह की जयन्ती पर विशेष

स्वतंत्रता संग्राम और डॉ०शंभुनाथ सिंह

स्वतंत्रता संग्राम में काशी का अप्रतिम योगदान रहा है। राजा चेतसिंह और वारेन हेस्टिंग्स घटना से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक वाराणसी कान्तिकारी गतिविधियों का गढ़ रहा है। न केवल कान्तिकारी विचार धारा के लोग बल्कि उदारवादी और गांवीवादियों ने भी वाराणसी को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। 'आज, 'संसार, 'अग्रगामी', 'रणमेरी' से लेकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, अभिमन्यु पुस्तकालय, सरस्वती सदन पुस्तकालय इन गतिविधियों के केन्द्र थे। जहां एक ओर आजाद, सान्याल जैसे कान्तिकारी पुलिस की आंखो में धूल झोंक कर अपनी गतिविधियों को अन्जाम दे रहे थे, वहीं काशी विद्यापीठ के छात्र एवं अध्यापक गांधीजी के रास्तों पर चल कर तिरंगे की लडाई लड रहे थे, ठीक उसी समय काशी की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परम्परा के अनेक साहित्यकारों, संस्कृति एवं शिक्षाविदों ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना अमूल्य योगदान दिया। आज स्वतंत्रता की स्वर्ण जयन्ती वर्ष में जब स्वाधीनता सेनानियों के रूप में केवल राजनैतिक कार्यकर्ताओं को ही सम्मानित किया जा रहा है, वहीं यह अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि राष्ट्र वाराणसी के उन अमर स्वतंत्रता सेनानियों को स्मरण करें जिन्होंने अपने कार्यों से स्वतंत्रता हेतु सतत् प्रयास किए। किन्तु ऐसे लोगों ने कभी भी स्वयं को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का दावा प्रस्तुत नहीं किया और न ही इस अवसर को भुनाने की कोशिश की, बल्कि निस्वार्थ भाव से अपनी साधना में रत रहे। शायद यही कारण है कि आज आजादी की 50 वी साल गिरह पर हम उनके योगदान को भूल चुके है।
ऐसे ही स्वतंत्रता आन्दोलन कारियों में 'समय की शिला -जैसे अमर गीत के रचनाकार डा० शम्भुनाथ सिंह पर जी भी थे। बहुत से लोग शायद ही इस तथ्य पर विश्वास करें कि हिन्दी साहित्य के नवगीत विवा के उन्नायक और मधुर गीतों के रचनाकार ने आजादी आन्दोलन में सड़क मी काटा एवं रेलवे लाइन उखाड़ने की योजना बनाई। मृदुभाषी, व्यवहार के धनी और कोमल हृदय डा० शम्भुनाथ सिंह जी में देशभक्ति की भावना कितनी बलवती थी. उसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां वे श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे कान्तिकारी के सहायक थे, वहीं गांधी जी को अपनी कविता भेंट करने के लिए सरदार बल्लभभाई पटेल से उलझ पड़े थे। घटनाओं को बताते हुए स्मृतियों 1 के पुंलिके में खो जाते है समाजवादी चिन्तक, वरिष्ठ अधिवक्ता और कवि श्री सागर सिंह जी जो डा० शम्भुनाथ सिंह के अनन्यतम मित्रों में रहे है।
हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, संस्कृतिविद् एवं समाजसेवी डा०शम्भुनाथ सिंह का जन्म 17 जून 1916 को देवरिया जनपद के ग्राम रावतपार अमेठिया में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा बिहार के सिवान जिले के अन्तर्गत ग्राम रामगढ़ तथा माध्यमिक शिक्षा देवरिया जनपद के मझौली राज में सम्पन्न हुयी। मिडिल स्कूल में अध्ययन करते समय ही बालक शम्भुनाथ के मन में राष्ट्रीयता एवं - देशभक्ति की प्रवृत्ति का जन्म हुआ। सन् 1930 में गांधी जी उत्तर  प्रदेश दौरे के सिलसिले में देवरिया जिले का दौरा करते समय भाटपार रानी नामक स्थान पर आये। वहां पर गांधी जी के दर्शन और उनके भाषण सुनने के लिए ये अपने स्कूल से ही गये। अपार भीड़ में एक ऊंचे मंच पर गांधी जी बाबा राघव दास जी के साथ आये। बालक शम्भुनाथ ने सर्वप्रथम गांधी जी का भाषण वहीं सुना, उनके भाषण का आप पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होने उसीसमय से खद्दर पहनने का व्रत ले लिया, जिसका पालन वे जीवन पर्यन्त करते रहे। गांधी जी के सत्याग्रह के अन्तर्गत समी जगह नमक कानून तोड़ा जा रहा था, इन्होने भी अपनी कक्षा के भागीरथी नामक छात्र के साथ नमक बनाने का प्रयोग किया। एक दिन दोनों पढ़ाई छोड़ कर देवरिया भाग गये और सत्याग्रही शिविर में प्रविष्ट होना चाहा, किन्तु कम उम्र होने के कारण इन्हें शिविर में प्रवेश नहीं मिला। उसी वर्ष 1930 में के जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती कमला नेहरू तवा डा० राजेन्द्र प्रसाद का बिहार के मैरवा नामक स्थान पर आगमन हुआ। इन राष्ट्रीय नेताओं के भाषण से आपकी राष्ट्रीयता की भावना और बलवती हुयी। हालांकि उनके परिवार के लोग आमिष भोजी थे, पर गांधी जी के अहिंसा प्रेरणा से उन्होंने उसी समय मांस खाना छोड़ दिया।

सन् 1930-31 में सत्याग्रह आन्दोलन के शिथिल होने पर महात्मा गांधी ने हरिजनोद्वार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस सम्बन्ध में वे पूरे देश का भ्रमण करते हुए सन् 1934 में वाराणसी आये और तीन दिनों तक काशी विद्यापीठ में ठहरे। इस अवसर पर गांधी जी को मेंट करने के लिए शम्भुनाथ जी ने हरिजन' शीर्षक नामक एक कविता लिखी और उसे छपवाकर शीशे में मढ़वाया। काशी विद्यापीठ में नित्य संध्या समय गांधीजी की प्रथर्याना समा होती थी, जिसमें वे हरिजनोद्धार के लिए चंदा मांगते थे। लोग पैसों के अलावा अपने आभूषण, घड़ी आदि वस्तुएं उन्हें दान करते थे जिसे वे सभा में ही नीलाम कर देते थे। एक दिन प्रार्थना सभा में गांधी जी एक चौकी पर बैठे हुए थे और उनके पीछे तथा बगल में अन्य कई नेता विराजमान थे। शम्भूनाथ जी अपनी भेंट लेकर मंच के पास तक पहुंचे किन्तु गांधीजी तक पहुंचना बहुत कठिन था। गांधी जी के बगल में सरदार बल्लभ भाई पटेल बैठे थे और यदि कोई कुछ दान देना चाहता था तो उसे वहीं ले लेते थे। फेम में मढ़ी हुई कविता को भी सरदार पटेल ने लेना चाहा, किन्तु शम्भुनाथ जी ने कहा मैं इस कविता को स्वयं अपने हाथ से गांधी जी को भेंट करूंगा। सरदार पटेल ने उन्हे ऐसा करने से रोका किन्तु तब तक शम्भुनाथ जी उन्हे फटकारते हुए मंच पर पहुंचकर महात्मा जी के चरणों में समर्पित कर दिया। थोड़ी देर बाद जब गांधी जी ने भेंट की गई -वस्तुओं की नीलामी प्रारम्भ की तो सबसे अधिक बोली 50/ रू० लगाकर श्री शिवप्रसाद गुप्त जी ने उस कविता को अपने पास सहेज लिया।
जब शम्भूनाथ जी उदय प्रताप कालेज की दसवी कक्षा में पढ़ रहे थे उसी समय ब्रिटिश आर्मी के रिटायर्ड कैप्टन ए.डब्ल्यू. लांग वहा प्रिंसिपल होकर आये। प्रिसिपल कैप्टन लांग का छात्रों के साथ व्यवहार अत्यन्त बर्बर था. जिससे छात्र बहुत असन्तुष्ट थे। प्रिसिंपल महोदय ये छात्रों की परीक्षाओं से एक माह पूर्व होने वाले अभ्यासावकाश को समाप्त कर देने की घोषणा की। इस पर सभी छात्रों ने शम्भूनाथ जी के नेतृत्व मे यह निर्णय लिया कि इस तानाशाही निर्णय के विरूद्ध हड़ताल की जाय। अन्ततोगत्वा हडताल हुयी, जिससे अंग्रेज प्रिंसिपल को अपने निर्णय से डिगना पड़ा और छात्रों को अवकाश मिला। जब हाईस्कूल परीक्षा समाप्त हुयी तो विदाई समारोह में प्रिसिंपल एवं उनके पिट्दू अध्यापकों के भाषण में छात्रों ने "शर्म-शर्म" की आवाज लगाई, परिणामतः उन अध्यापकों ने चिढ़े हुऐ प्रिसिंपल से यह शिकायत की कि यह बेइज्जती शम्भूनाथ के उकसावे पर हुयी है, बस क्या था? प्रिसिंपल ने छात्रावास में जाकर चिल्लाकर पूछा कि 'शम्भुनाथ कौन है?" उस समय छात्रावास के विद्यार्थी मेंस में भोजन कर रहे थे। हाथ धोकर शम्भुनाथ जी ने कहा की "मैं हूं।" इस पर प्रिसिंपल ने उन्हे बिना कारण बताये मारना शुरू कर दिया। प्रिंसिपल के इस कूर व्यवहार को इन्होने भी उसी भाषा में उत्तर दिया। इतने में छात्र इकट्ठे हो गये और अंग्रेजों के खिलाफ उनके जोश ने जोर मारा और फिर प्रिंसिपल की खूब पिटाई हुयी। प्रिसिंपल की पिटाई की घटना दूसरे दिन अखबारों में छपी और लोगों ने इस घटना की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोध छात्र श्री रामप्रवेश शुक्ल अपने शोध कार्य 'हिन्दी साहित्य के इतिहास में 'डॉ० शम्भुनाथ सिंह का योगदान' में लिखते हैं कि जब शम्भुनाथ जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी०ए० के छात्र थे, उसी समय दैनिक पत्र 'भारत' में मुशी ईश्वर चन्द्र ने यह विज्ञापन निकलवाया कि एक सवर्ण छात्र की आवश्यकता हो जो गंगा तट पर स्थित 'हरिजन आश्रम में हरिजन छात्रों के साथ रहे और उनके साथ मिल कर आश्रम का कार्य करे, उसके निवास और भोजन की व्यवस्था आश्रम की ओर से होगी। विज्ञापन पढ़कर शम्भूनाथ जी मुंशी जी से मिलकर आश्रम में रहने लगे, जहां इन्हें चमार, पासी, ६ कि गोबी, मुसहर आदि हरिजन छात्रों के साथ रहना और उनके साथ मिलकर भोजन बनाना, बर्तन साफ करना, झाडू लगाना आदि कार्य करना पड़ता था। सबको अपनी जूठी का थाली स्वयं साफ करनी पड़ती थी। यह आप पर गांधी जी के हरिजन सेवा का प्रभाव था।
बी०ए० करने के पश्चात् जब आप बनारस आये तो इनके कर्तव्य मार्ग के समक्ष दो प्रश्न थे, जहां एक ओर शम्भुनाथ जी एम०ए० करना चाहते थे वहीं देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय हाथ बंटाना चाहते थे। इनके अभिन्न मित्र श्री सागर सिंह ने उसी समय इनका परिचय प्रसिद्ध कान्तिकारी वि नेता श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल से कराया, जो उस समय अपने कान्तिकारी जीवन के अनुभव लिख रहे थे और उन्हे एक हिन्दी लेखक की आवश्यकता थी। श्री सान्याल ने शम्भूनाथ जी को उसकार्य पर नियुक्त कर लिया। कुछ समय बाद सान्याल जी के संपादकत्व में 'अग्रगामी' नामक दैनिक पत्र निकला और सान्याल जी ने इन्हें 'अग्रगामी' का सहायक सम्पादक नियुक्त कर लिया। सान्याल जी इन्हे अपना प्रधान सम्पादक बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने आपको 'आज' कार्यालय में जाकर सम्पादन कार्य सीखने की सलाह दी। शम्भुनाथ जी ने मुंशी कालिका प्रसाद के साथ बैठ कर अंग्रेजी समाचारों का हिन्दी में अनुवाद करने, शीर्षक लगाने और प्रूफ देखने का काम सीखा। इसके एक मास बाद वे 'अग्रगामी' के समाचार सम्पादक बना दिया गये।
जुलाई सन् 1942 में जब उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एम०ए० द्वितीय वर्ष में दाखिला लिया तोउसके अगले ही महीने में 9 अगस्त को देश में 'अंग्रेजो! भारत छोड़ो' आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। गांधी जी ने यह घोषणा की कि इस बार आन्दोलन समाप्त नहीं होगा, कार्यकर्ताओं को करो या मरो का संकल्प लेकर जो करना चाहें वह करें। यह अनुमति पाकर देश भर में रेल पटरियां उखाड़ी जाने लगीं, सड़कें काटी जाने लगी, पुल तोड़े जाने लगे, कचहरियों, थानों और जेलों पर कांग्रेस का झण्डा फहराने लगा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी कान्ति की चिन्गारी फैल गयी। समाजवादी छात्र नेता श्री राजनारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का बहुत बड़ा जुलूस कचहरी की ओर बढ़ा। शम्भुनाथ सिंह जी भी अपने मित्र साहित्यकार श्री गंगारत्न पाण्डेय तथा प्रसिद्ध गीतकार श्री मोती बी०ए० के साथ जुलूस में शमिल थे। कचहरी में छात्रों ने कांग्रेस का झण्डा फहरा दिया। पुलिस बौखला उठी, लाठी चार्ज हुआ और छात्र तितर-बितर हो गये। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अनिश्चित काल के लिए बन्द कर दिया गया और बके सेना ने वहां घेरा खाल दिया। शम्भुनाथ जी अपने मित्र सागर सिंह बडू के साथ बबुरी स्थित उनके गांव खरहुआ चले गये। लेकिन मित्रों ठी की गतिविधियां वहां भी बन्द नहीं हुयी। 10 अगस्त को उन्होंने बबुरी जी बाजार में जनसमा में भाषण दिया कि 'हमें आज से यह मान लेना चाहिए कि भारत में अंग्रेजी राज्य समाप्त हो गया अब यहां हमारे देश जो की जनता का राज होगा। इसके लिए आवश्यक है कि सड़कों को और काट दिया जाय, ताकि ब्रितानी सरकार की पुलिस एवं सेना की ना गाडियां न आने पावे। उन्होने सागर सिंह के साथ मुगलसराय से त्र बबुरी जाने वाली सड़क को गांव के लोगों के साथ मिलकर काट री दिया। इन लोगों का लक्ष्य यह था कि चन्दौली थाने को फूंक दिया ने जाय और रेलवे लाइन उखाड़ दिया जाय। परन्तु उसी समय अपनी कोमाता की मृत्यु के कारण इन्हे अपनी यह योजना छोड़कर अपने गाव जाना पड़ा। गाव से लौटने के बाद आपने यह महसूस किया कि एक पत्रकार के रूप में वे स्वाधीनता आन्दोलन में अधिक सक्रिय ढंग से भागीदारी कर सकेंगे। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने पं० - कमलापति त्रिपाठी के सम्पादकत्व में 'आज' के सम्पादकीय विभाग में साप्ताहिक सम्पादक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। बाद में वे स्वतंत्रता प्राप्ति तक 'आज, उदयप्रताप कालेज की पत्रिका 'क्षत्रिय मित्र तथा अपने अग्रज एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ० स्वामीनाथ  सिंह द्वारा प्रकाशित 'नया हिन्दुस्तान' का सम्पादन करते रहे। स्वतंत्रता के पश्चात आपने अपने को पूर्णतः साहित्य एवं अध्यापन - कार्य से सम्बद्ध कर लिया एवं आचार्य नरेन्द्रदेव के निर्देश पर काशी विद्यापीठ में अध्यापन कार्य करने लगे।
             इस प्रकार देखा जाय तो डॉ० शम्भुनाथ सिंह स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय योगदान देकर भी कभी स्वतंत्रता पश्चात स्वतंत्रता संनानी के रूप में स्वयं के परिचय के आग्रही नहीं रहे। न ही उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में किसी सुविधा का उपभोग करना पसन्द किया। काशी के सांस्कृतिक परिवेश को देखते हुए स्वतंत्रता आन्दोलन में डॉ० शम्भुनाथ सिंह जैसे साहित्यकार के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। स्वतंत्रता के इस स्वर्ण जयन्ती वर्ष में इस महान साहित्यकार एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके द्वारा अपनी आजन्म हिन्दी सेवा के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से प्राप्त पुरस्कार राशि द्वारा स्थापित आचार्य नरेन्द्रदेव संग्रहालय एवं तिलक पुस्तकालय, जो वर्तमान में डॉ० शम्भुनाथ सिंह रिसर्च फाउण्डेशन के अन्तर्गत कार्यरत है, को राज्य एवं केन्द्र सरकारें उचित संरक्षण एवं सहयोग प्रदान करें, जिससे हम अपने राष्ट्र की महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों तथा विरासत की रक्षा कर सकें।
वाराणसी,16 जून 2024