मंगलवार, 18 जून 2024

नवगीत के प्रणेता डाॅ०शंभुनाथ सिंह की जयन्ती पर विशेष

स्वतंत्रता संग्राम और डॉ०शंभुनाथ सिंह

स्वतंत्रता संग्राम में काशी का अप्रतिम योगदान रहा है। राजा चेतसिंह और वारेन हेस्टिंग्स घटना से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक वाराणसी कान्तिकारी गतिविधियों का गढ़ रहा है। न केवल कान्तिकारी विचार धारा के लोग बल्कि उदारवादी और गांवीवादियों ने भी वाराणसी को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया। 'आज, 'संसार, 'अग्रगामी', 'रणमेरी' से लेकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी विद्यापीठ, अभिमन्यु पुस्तकालय, सरस्वती सदन पुस्तकालय इन गतिविधियों के केन्द्र थे। जहां एक ओर आजाद, सान्याल जैसे कान्तिकारी पुलिस की आंखो में धूल झोंक कर अपनी गतिविधियों को अन्जाम दे रहे थे, वहीं काशी विद्यापीठ के छात्र एवं अध्यापक गांधीजी के रास्तों पर चल कर तिरंगे की लडाई लड रहे थे, ठीक उसी समय काशी की सांस्कृतिक एवं साहित्यिक परम्परा के अनेक साहित्यकारों, संस्कृति एवं शिक्षाविदों ने भी स्वतंत्रता संग्राम में अपना अमूल्य योगदान दिया। आज स्वतंत्रता की स्वर्ण जयन्ती वर्ष में जब स्वाधीनता सेनानियों के रूप में केवल राजनैतिक कार्यकर्ताओं को ही सम्मानित किया जा रहा है, वहीं यह अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है कि राष्ट्र वाराणसी के उन अमर स्वतंत्रता सेनानियों को स्मरण करें जिन्होंने अपने कार्यों से स्वतंत्रता हेतु सतत् प्रयास किए। किन्तु ऐसे लोगों ने कभी भी स्वयं को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी होने का दावा प्रस्तुत नहीं किया और न ही इस अवसर को भुनाने की कोशिश की, बल्कि निस्वार्थ भाव से अपनी साधना में रत रहे। शायद यही कारण है कि आज आजादी की 50 वी साल गिरह पर हम उनके योगदान को भूल चुके है।
ऐसे ही स्वतंत्रता आन्दोलन कारियों में 'समय की शिला -जैसे अमर गीत के रचनाकार डा० शम्भुनाथ सिंह पर जी भी थे। बहुत से लोग शायद ही इस तथ्य पर विश्वास करें कि हिन्दी साहित्य के नवगीत विवा के उन्नायक और मधुर गीतों के रचनाकार ने आजादी आन्दोलन में सड़क मी काटा एवं रेलवे लाइन उखाड़ने की योजना बनाई। मृदुभाषी, व्यवहार के धनी और कोमल हृदय डा० शम्भुनाथ सिंह जी में देशभक्ति की भावना कितनी बलवती थी. उसका अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां वे श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल जैसे कान्तिकारी के सहायक थे, वहीं गांधी जी को अपनी कविता भेंट करने के लिए सरदार बल्लभभाई पटेल से उलझ पड़े थे। घटनाओं को बताते हुए स्मृतियों 1 के पुंलिके में खो जाते है समाजवादी चिन्तक, वरिष्ठ अधिवक्ता और कवि श्री सागर सिंह जी जो डा० शम्भुनाथ सिंह के अनन्यतम मित्रों में रहे है।
हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, संस्कृतिविद् एवं समाजसेवी डा०शम्भुनाथ सिंह का जन्म 17 जून 1916 को देवरिया जनपद के ग्राम रावतपार अमेठिया में हुआ था। अपनी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा बिहार के सिवान जिले के अन्तर्गत ग्राम रामगढ़ तथा माध्यमिक शिक्षा देवरिया जनपद के मझौली राज में सम्पन्न हुयी। मिडिल स्कूल में अध्ययन करते समय ही बालक शम्भुनाथ के मन में राष्ट्रीयता एवं - देशभक्ति की प्रवृत्ति का जन्म हुआ। सन् 1930 में गांधी जी उत्तर  प्रदेश दौरे के सिलसिले में देवरिया जिले का दौरा करते समय भाटपार रानी नामक स्थान पर आये। वहां पर गांधी जी के दर्शन और उनके भाषण सुनने के लिए ये अपने स्कूल से ही गये। अपार भीड़ में एक ऊंचे मंच पर गांधी जी बाबा राघव दास जी के साथ आये। बालक शम्भुनाथ ने सर्वप्रथम गांधी जी का भाषण वहीं सुना, उनके भाषण का आप पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि उन्होने उसीसमय से खद्दर पहनने का व्रत ले लिया, जिसका पालन वे जीवन पर्यन्त करते रहे। गांधी जी के सत्याग्रह के अन्तर्गत समी जगह नमक कानून तोड़ा जा रहा था, इन्होने भी अपनी कक्षा के भागीरथी नामक छात्र के साथ नमक बनाने का प्रयोग किया। एक दिन दोनों पढ़ाई छोड़ कर देवरिया भाग गये और सत्याग्रही शिविर में प्रविष्ट होना चाहा, किन्तु कम उम्र होने के कारण इन्हें शिविर में प्रवेश नहीं मिला। उसी वर्ष 1930 में के जवाहर लाल नेहरू, श्रीमती कमला नेहरू तवा डा० राजेन्द्र प्रसाद का बिहार के मैरवा नामक स्थान पर आगमन हुआ। इन राष्ट्रीय नेताओं के भाषण से आपकी राष्ट्रीयता की भावना और बलवती हुयी। हालांकि उनके परिवार के लोग आमिष भोजी थे, पर गांधी जी के अहिंसा प्रेरणा से उन्होंने उसी समय मांस खाना छोड़ दिया।

सन् 1930-31 में सत्याग्रह आन्दोलन के शिथिल होने पर महात्मा गांधी ने हरिजनोद्वार पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इस सम्बन्ध में वे पूरे देश का भ्रमण करते हुए सन् 1934 में वाराणसी आये और तीन दिनों तक काशी विद्यापीठ में ठहरे। इस अवसर पर गांधी जी को मेंट करने के लिए शम्भुनाथ जी ने हरिजन' शीर्षक नामक एक कविता लिखी और उसे छपवाकर शीशे में मढ़वाया। काशी विद्यापीठ में नित्य संध्या समय गांधीजी की प्रथर्याना समा होती थी, जिसमें वे हरिजनोद्धार के लिए चंदा मांगते थे। लोग पैसों के अलावा अपने आभूषण, घड़ी आदि वस्तुएं उन्हें दान करते थे जिसे वे सभा में ही नीलाम कर देते थे। एक दिन प्रार्थना सभा में गांधी जी एक चौकी पर बैठे हुए थे और उनके पीछे तथा बगल में अन्य कई नेता विराजमान थे। शम्भूनाथ जी अपनी भेंट लेकर मंच के पास तक पहुंचे किन्तु गांधीजी तक पहुंचना बहुत कठिन था। गांधी जी के बगल में सरदार बल्लभ भाई पटेल बैठे थे और यदि कोई कुछ दान देना चाहता था तो उसे वहीं ले लेते थे। फेम में मढ़ी हुई कविता को भी सरदार पटेल ने लेना चाहा, किन्तु शम्भुनाथ जी ने कहा मैं इस कविता को स्वयं अपने हाथ से गांधी जी को भेंट करूंगा। सरदार पटेल ने उन्हे ऐसा करने से रोका किन्तु तब तक शम्भुनाथ जी उन्हे फटकारते हुए मंच पर पहुंचकर महात्मा जी के चरणों में समर्पित कर दिया। थोड़ी देर बाद जब गांधी जी ने भेंट की गई -वस्तुओं की नीलामी प्रारम्भ की तो सबसे अधिक बोली 50/ रू० लगाकर श्री शिवप्रसाद गुप्त जी ने उस कविता को अपने पास सहेज लिया।
जब शम्भूनाथ जी उदय प्रताप कालेज की दसवी कक्षा में पढ़ रहे थे उसी समय ब्रिटिश आर्मी के रिटायर्ड कैप्टन ए.डब्ल्यू. लांग वहा प्रिंसिपल होकर आये। प्रिसिपल कैप्टन लांग का छात्रों के साथ व्यवहार अत्यन्त बर्बर था. जिससे छात्र बहुत असन्तुष्ट थे। प्रिसिंपल महोदय ये छात्रों की परीक्षाओं से एक माह पूर्व होने वाले अभ्यासावकाश को समाप्त कर देने की घोषणा की। इस पर सभी छात्रों ने शम्भूनाथ जी के नेतृत्व मे यह निर्णय लिया कि इस तानाशाही निर्णय के विरूद्ध हड़ताल की जाय। अन्ततोगत्वा हडताल हुयी, जिससे अंग्रेज प्रिंसिपल को अपने निर्णय से डिगना पड़ा और छात्रों को अवकाश मिला। जब हाईस्कूल परीक्षा समाप्त हुयी तो विदाई समारोह में प्रिसिंपल एवं उनके पिट्दू अध्यापकों के भाषण में छात्रों ने "शर्म-शर्म" की आवाज लगाई, परिणामतः उन अध्यापकों ने चिढ़े हुऐ प्रिसिंपल से यह शिकायत की कि यह बेइज्जती शम्भूनाथ के उकसावे पर हुयी है, बस क्या था? प्रिसिंपल ने छात्रावास में जाकर चिल्लाकर पूछा कि 'शम्भुनाथ कौन है?" उस समय छात्रावास के विद्यार्थी मेंस में भोजन कर रहे थे। हाथ धोकर शम्भुनाथ जी ने कहा की "मैं हूं।" इस पर प्रिसिंपल ने उन्हे बिना कारण बताये मारना शुरू कर दिया। प्रिंसिपल के इस कूर व्यवहार को इन्होने भी उसी भाषा में उत्तर दिया। इतने में छात्र इकट्ठे हो गये और अंग्रेजों के खिलाफ उनके जोश ने जोर मारा और फिर प्रिंसिपल की खूब पिटाई हुयी। प्रिसिंपल की पिटाई की घटना दूसरे दिन अखबारों में छपी और लोगों ने इस घटना की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोध छात्र श्री रामप्रवेश शुक्ल अपने शोध कार्य 'हिन्दी साहित्य के इतिहास में 'डॉ० शम्भुनाथ सिंह का योगदान' में लिखते हैं कि जब शम्भुनाथ जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बी०ए० के छात्र थे, उसी समय दैनिक पत्र 'भारत' में मुशी ईश्वर चन्द्र ने यह विज्ञापन निकलवाया कि एक सवर्ण छात्र की आवश्यकता हो जो गंगा तट पर स्थित 'हरिजन आश्रम में हरिजन छात्रों के साथ रहे और उनके साथ मिल कर आश्रम का कार्य करे, उसके निवास और भोजन की व्यवस्था आश्रम की ओर से होगी। विज्ञापन पढ़कर शम्भूनाथ जी मुंशी जी से मिलकर आश्रम में रहने लगे, जहां इन्हें चमार, पासी, ६ कि गोबी, मुसहर आदि हरिजन छात्रों के साथ रहना और उनके साथ मिलकर भोजन बनाना, बर्तन साफ करना, झाडू लगाना आदि कार्य करना पड़ता था। सबको अपनी जूठी का थाली स्वयं साफ करनी पड़ती थी। यह आप पर गांधी जी के हरिजन सेवा का प्रभाव था।
बी०ए० करने के पश्चात् जब आप बनारस आये तो इनके कर्तव्य मार्ग के समक्ष दो प्रश्न थे, जहां एक ओर शम्भुनाथ जी एम०ए० करना चाहते थे वहीं देश के स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय हाथ बंटाना चाहते थे। इनके अभिन्न मित्र श्री सागर सिंह ने उसी समय इनका परिचय प्रसिद्ध कान्तिकारी वि नेता श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल से कराया, जो उस समय अपने कान्तिकारी जीवन के अनुभव लिख रहे थे और उन्हे एक हिन्दी लेखक की आवश्यकता थी। श्री सान्याल ने शम्भूनाथ जी को उसकार्य पर नियुक्त कर लिया। कुछ समय बाद सान्याल जी के संपादकत्व में 'अग्रगामी' नामक दैनिक पत्र निकला और सान्याल जी ने इन्हें 'अग्रगामी' का सहायक सम्पादक नियुक्त कर लिया। सान्याल जी इन्हे अपना प्रधान सम्पादक बनाना चाहते थे। अतः उन्होंने आपको 'आज' कार्यालय में जाकर सम्पादन कार्य सीखने की सलाह दी। शम्भुनाथ जी ने मुंशी कालिका प्रसाद के साथ बैठ कर अंग्रेजी समाचारों का हिन्दी में अनुवाद करने, शीर्षक लगाने और प्रूफ देखने का काम सीखा। इसके एक मास बाद वे 'अग्रगामी' के समाचार सम्पादक बना दिया गये।
जुलाई सन् 1942 में जब उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में एम०ए० द्वितीय वर्ष में दाखिला लिया तोउसके अगले ही महीने में 9 अगस्त को देश में 'अंग्रेजो! भारत छोड़ो' आन्दोलन प्रारम्भ हो गया। गांधी जी ने यह घोषणा की कि इस बार आन्दोलन समाप्त नहीं होगा, कार्यकर्ताओं को करो या मरो का संकल्प लेकर जो करना चाहें वह करें। यह अनुमति पाकर देश भर में रेल पटरियां उखाड़ी जाने लगीं, सड़कें काटी जाने लगी, पुल तोड़े जाने लगे, कचहरियों, थानों और जेलों पर कांग्रेस का झण्डा फहराने लगा। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में भी कान्ति की चिन्गारी फैल गयी। समाजवादी छात्र नेता श्री राजनारायण के नेतृत्व में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्रों का बहुत बड़ा जुलूस कचहरी की ओर बढ़ा। शम्भुनाथ सिंह जी भी अपने मित्र साहित्यकार श्री गंगारत्न पाण्डेय तथा प्रसिद्ध गीतकार श्री मोती बी०ए० के साथ जुलूस में शमिल थे। कचहरी में छात्रों ने कांग्रेस का झण्डा फहरा दिया। पुलिस बौखला उठी, लाठी चार्ज हुआ और छात्र तितर-बितर हो गये। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अनिश्चित काल के लिए बन्द कर दिया गया और बके सेना ने वहां घेरा खाल दिया। शम्भुनाथ जी अपने मित्र सागर सिंह बडू के साथ बबुरी स्थित उनके गांव खरहुआ चले गये। लेकिन मित्रों ठी की गतिविधियां वहां भी बन्द नहीं हुयी। 10 अगस्त को उन्होंने बबुरी जी बाजार में जनसमा में भाषण दिया कि 'हमें आज से यह मान लेना चाहिए कि भारत में अंग्रेजी राज्य समाप्त हो गया अब यहां हमारे देश जो की जनता का राज होगा। इसके लिए आवश्यक है कि सड़कों को और काट दिया जाय, ताकि ब्रितानी सरकार की पुलिस एवं सेना की ना गाडियां न आने पावे। उन्होने सागर सिंह के साथ मुगलसराय से त्र बबुरी जाने वाली सड़क को गांव के लोगों के साथ मिलकर काट री दिया। इन लोगों का लक्ष्य यह था कि चन्दौली थाने को फूंक दिया ने जाय और रेलवे लाइन उखाड़ दिया जाय। परन्तु उसी समय अपनी कोमाता की मृत्यु के कारण इन्हे अपनी यह योजना छोड़कर अपने गाव जाना पड़ा। गाव से लौटने के बाद आपने यह महसूस किया कि एक पत्रकार के रूप में वे स्वाधीनता आन्दोलन में अधिक सक्रिय ढंग से भागीदारी कर सकेंगे। इसी उद्देश्य को लेकर उन्होंने पं० - कमलापति त्रिपाठी के सम्पादकत्व में 'आज' के सम्पादकीय विभाग में साप्ताहिक सम्पादक के रूप में कार्य प्रारम्भ किया। बाद में वे स्वतंत्रता प्राप्ति तक 'आज, उदयप्रताप कालेज की पत्रिका 'क्षत्रिय मित्र तथा अपने अग्रज एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी डॉ० स्वामीनाथ  सिंह द्वारा प्रकाशित 'नया हिन्दुस्तान' का सम्पादन करते रहे। स्वतंत्रता के पश्चात आपने अपने को पूर्णतः साहित्य एवं अध्यापन - कार्य से सम्बद्ध कर लिया एवं आचार्य नरेन्द्रदेव के निर्देश पर काशी विद्यापीठ में अध्यापन कार्य करने लगे।
             इस प्रकार देखा जाय तो डॉ० शम्भुनाथ सिंह स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय योगदान देकर भी कभी स्वतंत्रता पश्चात स्वतंत्रता संनानी के रूप में स्वयं के परिचय के आग्रही नहीं रहे। न ही उन्होंने स्वतंत्रता सेनानी के रूप में किसी सुविधा का उपभोग करना पसन्द किया। काशी के सांस्कृतिक परिवेश को देखते हुए स्वतंत्रता आन्दोलन में डॉ० शम्भुनाथ सिंह जैसे साहित्यकार के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। स्वतंत्रता के इस स्वर्ण जयन्ती वर्ष में इस महान साहित्यकार एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि उनके द्वारा अपनी आजन्म हिन्दी सेवा के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से प्राप्त पुरस्कार राशि द्वारा स्थापित आचार्य नरेन्द्रदेव संग्रहालय एवं तिलक पुस्तकालय, जो वर्तमान में डॉ० शम्भुनाथ सिंह रिसर्च फाउण्डेशन के अन्तर्गत कार्यरत है, को राज्य एवं केन्द्र सरकारें उचित संरक्षण एवं सहयोग प्रदान करें, जिससे हम अपने राष्ट्र की महान प्राचीन सांस्कृतिक धरोहरों तथा विरासत की रक्षा कर सकें।
वाराणसी,16 जून 2024

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