बुधवार, 15 सितंबर 2021

व्योमवार्ता/ श्रीमद्भागवदगीता का व्यवहारिक पक्ष

शास्त्र कहते हैं कि अठारह दिनों के महाभारत युद्ध में उस समय की पुरुष जनसंख्या का 80% सफाया हो गया था। युद्ध के अंत में, संजय कुरुक्षेत्र के उस स्थान पर गए जहां संसार का सबसे महानतम युद्ध हुआ था।

उसने इधर-उधर देखा और सोचने लगा कि क्या वास्तव में यहीं युद्ध हुआ था? यदि यहां युद्ध हुआ था तो जहां वो खड़ा है, वहां की जमीन रक्त से सराबोर होनी चाहिए। क्या वो आज उसी जगह पर खड़ा है जहां महान पांडव और कृष्ण खड़े थे?

तभी एक वृद्ध व्यक्ति ने वहां आकर धीमे और शांत स्वर में कहा, "आप उस बारे में सच्चाई कभी नहीं जान पाएंगे!"

संजय ने धूल के बड़े से गुबार के बीच दिखाई देने वाले भगवा वस्त्रधारी एक वृद्ध व्यक्ति को देखने के लिए उस ओर सिर को घुमाया।

"मुझे पता है कि आप कुरुक्षेत्र युद्ध के बारे में पता लगाने के लिए यहां हैं, लेकिन आप उस युद्ध के बारे में तब तक नहीं जान सकते, जब तक आप ये नहीं जान लेते हैं कि असली युद्ध है क्या?" बूढ़े आदमी ने रहस्यमय ढंग से कहा।

"तुम महाभारत का क्या अर्थ जानते हो?" तब संजय ने उस रहस्यमय व्यक्ति से पूछा।

वह कहने लगा, "महाभारत एक महाकाव्य है, एक गाथा है, एक वास्तविकता भी है, लेकिन निश्चित रूप से एक दर्शन भी है।"

वृद्ध व्यक्ति संजय को और अधिक सवालों के चक्कर में फसा कर मुस्कुरा रहा था।

"क्या आप मुझे बता सकते हैं कि दर्शन क्या है?" संजय ने निवेदन किया।

अवश्य जानता हूं, बूढ़े आदमी ने कहना शुरू किया। पांडव कुछ और नहीं, बल्कि आपकी पाँच इंद्रियाँ हैं - दृष्टि, गंध, स्वाद, स्पर्श और श्रवण - और क्या आप जानते हैं कि कौरव क्या हैं? उसने अपनी आँखें संकीर्ण करते हुए पूछा।

कौरव ऐसे सौ तरह के विकार हैं, जो आपकी इंद्रियों पर प्रतिदिन हमला करते हैं लेकिन आप उनसे लड़ सकते हैं और जीत भी सकते है।* पर क्या आप जानते हैं कैसे?

संजय ने फिर से न में सर हिला दिया।

"जब कृष्ण आपके रथ की सवारी करते हैं!" यह कह वह वृद्ध व्यक्ति बड़े प्यार से मुस्कुराया और संजय अंतर्दृष्टि खुलने पर जो नवीन रत्न प्राप्त हुआ उस पर विचार करने लगा..

"कृष्ण आपकी आंतरिक आवाज, आपकी आत्मा, आपका मार्गदर्शक प्रकाश हैं और यदि आप अपने जीवन को उनके हाथों में सौप देते हैं तो आपको फिर चिंता करने की कोई आवश्कता नहीं है।" वृद्ध आदमी ने कहा।

संजय अब तक लगभग चेतन अवस्था में पहुंच गया था, लेकिन जल्दी से एक और सवाल लेकर आया।

फिर कौरवों के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म क्यों लड़ रहे हैं?

भीष्म हमारे अहंकार का प्रतीक हैं, अश्वत्थामा हमारी वासनाएं, इच्छाएं हैं, जो कि जल्दी नहीं मरतीं। दुर्योधन हमारी सांसारिक वासनाओं, इच्छाओं का प्रतीक है। द्रोणाचार्य हमारे संस्कार हैं। जयद्रथ हमारे शरीर के प्रति राग का प्रतीक है कि 'मैं ये देह हूं' का भाव। द्रुपद वैराग्य का प्रतीक हैं। अर्जुन मेरी आत्मा हैं, मैं ही अर्जुन हूं और  स्वनियंत्रित भी हूं। कृष्ण हमारे परमात्मा हैं। पांच पांडव पांच नीचे वाले चक्र भी हैं, मूलाधार से विशुद्ध चक्र तक। द्रोपदी कुंडलिनी शक्ति है, वह जागृत शक्ति है, जिसके ५ पति ५ चक्र हैं। ओम शब्द ही कृष्ण का पांचजन्य शंखनाद है, जो मुझ और आप आत्मा को ढ़ाढ़स बंधाता है कि चिंता मत कर मैं तेरे साथ हूं, अपनी बुराइयों पर विजय पा, अपने निम्न विचारों, निम्न इच्छाओं, सांसारिक इच्छाओं, अपने आंतरिक शत्रुओं यानि कौरवों से लड़ाई कर अर्थात अपनी मेटेरियलिस्टिक वासनाओं को त्याग कर और चैतन्य  पाठ पर आरूढ़ हो जा, विकार रूपी कौरव अधर्मी एवं दुष्ट प्रकृति के हैं।

श्री कृष्ण का साथ होते ही ७२००० नाड़ियों में भगवान की चैतन्य शक्ति भर जाती है, और हमें पता चल जाता है कि मैं चैतन्यता, आत्मा, जागृति हूं, मैं अन्न से बना शरीर नहीं हूं, इसलिए उठो जागो और अपने आपको, अपनी आत्मा को, अपने स्वयं सच को जानो, भगवान को पाओ, यही भगवद प्राप्ति या आत्म साक्षात्कार है, यही इस मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है।

ये शरीर ही धर्म क्षेत्र, कुरुक्षेत्र है। धृतराष्ट्र अज्ञान से अंधा हुआ मन है। अर्जुन आप हो, संजय आपके आध्यात्मिक गुरु हैं।

वृद्ध आदमी ने दुःखी भाव के साथ सिर हिलाया और कहा, "जैसे-जैसे आप बड़े होते हैं, अपने बड़ों के प्रति आपकी धारणा बदल जाती है। जिन बुजुर्गों के बारे में आपने सोचा था कि आपके बढ़ते वर्षों में वे संपूर्ण थे, अब आपको लगता है वे सभी परिपूर्ण नहीं हैं। उनमें दोष हैं। और एक दिन आपको यह तय करना होगा कि उनका व्यवहार आपके लिए अच्छा या बुरा है। तब आपको यह भी अहसास हो सकता है कि आपको अपनी भलाई के लिए उनका विरोध करना या लड़ना भी पड़ सकता है। यह बड़ा होने का सबसे कठिन हिस्सा है और यही वजह है कि गीता महत्वपूर्ण है।"

संजय धरती पर बैठ गया, इसलिए नहीं कि वह थका हुआ था, तक गया था, बल्कि इसलिए कि वह जो समझ लेकर यहां आया था, वो एक-एक कर धराशाई हो रही थी। लेकिन फिर भी उसने लगभग फुसफुसाते हुए एक और प्रश्न पूछा, तब कर्ण के बारे में आपका क्या कहना है?

"आह!" वृद्ध ने कहा। आपने अंत के लिए सबसे अच्छा प्रश्न बचाकर रखा हुआ है।

"कर्ण आपकी इंद्रियों का भाई है। वह इच्छा है। वह सांसारिक सुख के प्रति आपके राग का प्रतीक है। वह आप का ही एक हिस्सा है, लेकिन वह अपने प्रति अन्याय महसूस करता है और आपके विरोधी विकारों के साथ खड़ा दिखता है। और हर समय विकारों के विचारों के साथ खड़े रहने के कोई न कोई कारण और बहाना बनाता रहता है।"

"क्या आपकी इच्छा; आपको विकारों के वशीभूत होकर उनमें बह जाने या अपनाने के लिए प्रेरित नहीं करती रहती है?" वृद्ध ने संजय से पूछा।

संजय ने स्वीकारोक्ति में सिर हिलाया और भूमि की तरफ सिर करके सारी विचार श्रंखलाओं को क्रमबद्ध कर मस्तिष्क में बैठाने का प्रयास करने लगा। और जब उसने अपने सिर को ऊपर उठाया, वह वृद्ध व्यक्ति धूल के गुबारों के मध्य कहीं विलीन हो चुका था। लेकिन जाने से पहले वह जीवन की वो दिशा एवं दर्शन दे गया था, जिसे आत्मसात करने के अतिरिक्त संजय के सामने अब कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था।


सोमवार, 13 सितंबर 2021

व्योमवार्ता/धरती के भगवान (भाग-8)

व्योमवार्ता/धरती के भगवान (भाग-8) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 13सितंबर2021

            आज चर्चा उन चिकित्सकों की जो आज भी चिकित्सा धर्म के प्रति अपने समर्पण से वास्तव मे धरती के भगवान कहे जा सकते  हैं। ये नव दधिचि बिना प्रचार प्रसार के अपने मरीजों की सेवा करते हुये हिप्पोक्रित्ज के शपथ को आज भी अपने जीवनर्या  मे शामिल किये हैं। ऐसे ही एक युवा और समर्पित चिकित्सक है काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चिकित्सा विज्ञान संस्थान मे मेडिसिन के प्रोफेसर डा० दीपक गौतम। डा० दीपक मेडिसिन विभाग के लगभग सभी ओपीडी मे अपनी सेवा दे चुके है चाहे वह किशोर चिकित्सा हो या जरायु चिकित्सा या माडर्न जनरल मेडिसिन, पर हर विभाग से दूसरे विभाग मे जाने के बाद भी उनके पुराने मरीजों की फेहरिस्त उनसे जुड़ी ही रहती है। डा० गौतम के बार बार विभाग बदलने के पीछे संस्थान की अंदरूनी राजनीति भी हो सकती है पर इससे उनके चिकित्सा धर्म पर कोई साईड इफेक्ट नही पड़ता। अपने चैम्बर मे भीड़ भरे पर  तनाव मुक्त माहौल मे  सबसे मुस्करा कर सबकी समस्यायें सुनते सबको सामान्य भाव से सबको समझाते रहते है। कोई तनाव नही कोई उलझन नही चेहरे पर एक आत्मसंतोष व मन मे सेवा भाव ही सामने बैठे मरीज के मन मे आत्मविश्वास भर देता है।
                 डॉ०दीपक गौतम के सेवा भाव का कायल मै पांच साल पहले हुआ। मेरी माँ के पाटस्पाईन के सर्जरी के बाद उन्हे मेडिसिन वार्ड मे भरती करना पड़ा था। डा० दीपक गौतम जी के देखरेख मे उन्हे प्राईवेट वार्ड मे भरती कराया गया। जो लोग बीएचयू हास्पीटल से परिचित होगें उन्हे मालूम होगा कि सर सुन्दर लाल अस्पताल का प्राईवेट वार्ड अस्पताल के बिलकुल किनारे है ठीक आईएमएस के सामने। मेडिसिन वार्ड से प्राईवेट वार्ड की अच्छी खासी दूरी। मिलने वाले और परिचितजन पूछते थे कि यहां प्राईवेट वार्ड मे क्यों भरती करा दिये यहां तो डाक्टर आते ही नही है।वार्ड से ही चले जाते है। यह सुन कर हम भी पहले दिन काफी परेशान हुये पर यह परेशानी मेरे लिये मात्र इसलिये नही खड़ी हुई क्योंकि मेरी माँ की चिकित्सा डॉ०दीपक गौतम कर रहे थे। दिन भर मे कम से कम चार बार स्वयं आने और हर दो घंटे पर अपने रेजिडेंट डाक्टरों को भेजने मे उनसे किसी दिन कोताही या लापरवाही हुई हो याद नही। ऐसा नही ये सिर्फ मेरी माँ के साथ हुआ हो बल्कि अपने हर मरीज के बारे मे उनकी जिम्मेदारी और फीडबैक लेना डा० दीपक गौतम का स्वभाव है।
       मॉ के डिस्चार्ज होने के दो महीने के बाद एक बार उनकी रिपोर्ट लेकर डा० दीपक गौतम जी को दिखाना था। मै कचहरी से होकर अपने मित्र सूर्यभान जी के साथ समय से निकलने के बावजूद  शहर के जाम मे उलझ कर जब तक उनके ओपीडी पहुंचा। ओपीडी बंद हो चुके काफी देर चुकी थी और वे निकल चुके थे। मैने उनके मोबाइल नंबर पर  एक बार संपर्क करने का प्रयास यह सोच कर किया कि संभवतः संस्थान मे मिल जायें तो मुझे फिर से पूरे शहर का चक्कर काट कर आना नही पड़ेगा। मोबाइल मिलते ही उन्होने बताया कि वे तो आवास पर पहुँच चुके है। मैने कोई बात नही कहते हुये फोन काट दिया। तभी पुन: उनका कालबैक आया "आप कहां पर है और कहां जाना है? " मेरे बताने पर कि अब हास्पीटल से निकल रहा हूँ, उन्होने पूछा कि "किधर से आप जायेगें।आप बृजइंक्लेव मेरे आवास पर आ सकते है तो आपको दूबारा नही आना होगा।" आश्चर्य यह कि तब तक मै उनके लिये एक अननोन नंबर ही था, जिसे वे शायद पहचानते भी नही थे। जब मै उनके बताये लेन मे बृजइंक्लेव पहुंचा तो वे लेन मे खड़े मेरा इंतजार कर रहे थे।उन्होने न सिर्फ रिपोर्ट देख कर दवाओं मे परिवर्तन किया बल्कि घर मे अकेले रहने होने के बावजूद स्वयं चाय बना कर भी हम लोगों को पिलाये।मेरे धन्यवाद देने पर वे और विनम्र हो गये, "अरे ये तो मेरा काम ही है। आपको केवल इसके लिये दूबारा इतनी दूर से आना पड़ता। "
     रास्ते मे लौटते समय हम और सूर्यभान जी यही बात कर रहे थे कि आज के चिकित्सा स्वार्थ के धंधे मे यह चिकित्सा धर्म बिरले ही देखने को मिलता है।ऐसा अनुभव मात्र हमारे साथ ही नही औरों के साथ भी हुआ है। जो भी डा० दीपक गौतम के यहां गया उनका कायल बन कर ही लौटा। यहीं कारण है कि उनके मरीजों की संख्या बढ़ती जा रही है और अपने मरीजों की सेवा  मे ही अपना सुख पाने वाले डॉ०दीपक गौतम के प्रशंसको का सूकून भी।
       आज भी ऐसे ही डाक्टरों से चिकित्सा धर्म की प्रतिष्ठा बनी हुई है जो आधुनिक दधिचि, चरक और सुश्रुत के रूप मे सेवा भाव मे लगे हुये है। धन्यवाद #डॉ०दीपक_गौतम।
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काशी, 13सितंबर 2021,सोमवार


रविवार, 12 सितंबर 2021

व्योमवार्ता/धरती के भगवान (भाग-7) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 12 सितंबर 2021

धरती के भगवान (भाग-7) 
       धरती के भगवान की श्रेणी मे शामिल अधिकांश #चिकित्सक मानवगिद्ध ही हो ऐसी बात नही है जैसा मैने इस श्रृंखला के पहले ही भाग मे लिखा था कि आज भी हमारे समाज मे ऐसे चिकित्सक है जिनके कर्तव्य परायणता एवं #चिकित्सा_धर्म के प्रति निष्ठा को देख कर हम सब का सिर #श्रद्धावनत हो जाता है। आज भी हमारे ही बनारस मे आधुनिक दधिचि परम श्रद्धेय पद्मश्री #डा०टी०के०लहड़ी सर, किंग जार्ज चिकित्सा विश्वविद्यालय लखनऊ की पूर्व कुलपति पद्मश्री #डा०_सरोज_चूड़ामणि_गोपाल, राजस्थानआयुर्वेद विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति #डा०रामहर्ष_सिंह, #डा०रवि_टण्डन,#डा०यू०पी०शाही, कोरोना महामारी में अपने अंतिम समय तक चिकित्सा सेवा करते हुये उत्साह भरने वाले स्व० पद्मश्री# डा०के०के०अग्रवाल, भारत रत्न #डा०बी०सी०राय जैसो ढेरों नाम हमारे लिये उदाहरण है। पर दुखद यह है कि आज स्थितियां बिलकुल बदल गई है अब चिकित्सा धर्म के बजाय पेशा बनता जा रहा है जिसमे चिकित्सा ज्ञान और अभ्यास को मात्र पैसे कमाने वाली मसीन समझा जा रहा है। शोचनीय स्थिति यह है कि चिकित्सक समाज में यह प्रवृत्ति धीरे धीरे बढ़ती ही जा रही है। हमे तो नही लगता है कि आज कल के किसी चिकित्सक को #हिप्पोक्रित्ज की #शपथ याद होगी जो उन्हे अपने चिकित्सा धर्म के गौरव पवित्रता और सत्यनिष्ठा की सदैव याद दिलाती थी। 
  यूनानी चिकित्सक हिप्पोक्रित्ज (460-320ईसा पूर्व) ने चिकित्सा छात्रों के लिये एक शपथ बनाया था जो #चिकित्सक बनने से पूर्व उन्हे लेना होता था। तब से लेकर आज तक उस शपथ मे भाषा, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार कुछ परिवर्तन भी किये गये पर शपथ के अंतर्वस्तु और उसमे समाहित पवित्रता पर कोई अंतर नही आया। हिप्पोक्रित्ज कीशपथ निम्न प्रकार थी -
              "मैं अपोलो वैद्य, अस्क्लीपिअस, ईयईआ, पानाकीआ और सारे देवी-देवताओं की कसम खाता हूँ और उन्हें हाज़िर-नाज़िर मानकर कहता हूँ कि मैं अपनी योग्यता और परख-शक्ति के अनुसार इस शपथ को पूरा करूँगा।
जिस इंसान ने मुझे यह पेशा सिखाया है, मैं उसका उतना ही गहरा सम्मान करूँगा जितना अपने माता-पिता का करता हूँ। मैं जीवन-भर उसके साथ मिलकर काम करूँगा और उसे अगर कभी पैसों की ज़रूरत पड़ी, तो उसकी मदद करूँगा। उसके बेटों को अपना भाई समझूँगा और अगर वे चाहें, तो बगैर किसी फीस या शर्त के उन्हें सिखाऊँगा। मैं सिर्फ अपने बेटों, अपने गुरू के बेटों और उन सभी विद्यार्थियों को शिक्षा दूँगा जिन्होंने चिकित्सा के नियम के मुताबिक शपथ खायी और समझौते पर दस्तखत किए हैं। मैं उन्हें चिकित्सा के सिद्धान्त सिखाऊँगा, ज़बानी तौर पर हिदायतें दूँगा और जितनी बाकी बातें मैंने सीखी हैं, वे सब सिखाऊँगा।
रोगी की सेहत के लिये यदि मुझे खान-पान में परहेज़ करना पड़े, तो मैं अपनी योग्यता और परख-शक्ति के मुताबिक ऐसा अवश्य करूँगा; किसी भी नुकसान या अन्याय से उनकी रक्षा करूँगा।
मैं किसी के माँगने पर भी उसे विषैली दवा नहीं दूँगा और ना ही ऐसी दवा लेने की सलाह दूँगा। उसी तरह मैं किसी भी स्त्री को गर्भ गिराने की दवा नहीं दूँगा। मैं पूरी शुद्धता और पवित्रता के साथ अपनी ज़िंदगी और अपनी कला की रक्षा करूँगा।
मैं किसी की सर्जरी नहीं करूँगा, उसकी भी नहीं जिसके किसी अंग में पथरी हो गयी हो, बल्कि यह काम उनके लिए छोड़ दूँगा जिनका यह पेशा है।
मैं जिस किसी रोगी के घर जाऊँगा, उसके लाभ के लिए ही काम करूँगा, किसी के साथ जानबूझकर अन्याय नहीं करूँगा, हर तरह के बुरे काम से, खासकर स्त्रियों और पुरुषों के साथ लैंगिक संबंध रखने से दूर रहूँगा, फिर चाहे वे गुलाम हों या नहीं।
चिकित्सा के समय या दूसरे समय, अगर मैंने रोगी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कोई ऐसी बात देखी या सुनी जिसे दूसरों को बताना बिलकुल गलत होगा, तो मैं उस बात को अपने तक ही रखूँगा, ताकि रोगी की बदनामी न हो।
अगर मैं इस शपथ को पूरा करूँ और कभी इसके विरुद्ध न जाऊँ, तो मेरी दुआ है कि मैं अपने जीवन और कला का आनंद उठाता रहूँ और लोगों में सदा के लिए मेरा नाम ऊँचा रहे; लेकिन अगर मैंने कभी यह शपथ तोड़ी और झूठा साबित हुआ, तो इस दुआ का बिलकुल उल्टा असर मुझ पर हो।"

                   पर आज यह शपथ केवल कागजी और पारंपरिक औपचारिकता बन कर रह गई है। हमे तो आज तक #काशी_हिन्दूविश्वविद्याल_विश्वविद्यालय के एक दो वरिष्ठ चिकित्सकों के चैम्बर मे ही हिप्पोक्रित्ज के चित्र और शपथ के दर्शन हुये हैं और किसी अस्पताल या क्लिनिक मे नही। कोई आश्चर्य नही कि आजकल के डाक्टरों से हिप्पोक्रित्ज शपथ के बारे मे पूछने पर वे हिप्पोक्रित्ज या शपथ के अस्तित्व से ही इंकार कर दें। और आजकल चार कमरों के अंदर बैठे ढेरो ताम झाम बनाये 500 से लेकर 5000/- तक की फीस वसूलने के साथ #मेडिकलस्टोर के छद्म मालिक, #पैथालाजी_लैब से लेकर #दवा_दुकादारों से #कमीशन खाने वाले, दवा #कंपनियों के #गिफ्टटूर पर #विदेश_यात्रा करने वाले आधुनिक मानवगिद्धों से यह आशा करना भी बेमानी होगा। प्रश्न यह है कि हम से विशेष श्रेणी का सम्मानित दर्जा चाहने वाले कथित धरती के भगवान के चोले मे छिपे मानवगिद्ध स्वयं को हिप्पोक्रित्ज के शपथ पर स्वयं का #मूल्यांकन कब करेगें? 
आज वह #समय आ गया है कि इस पर विचार हो ताकि धरती के भगवान श्रेणी मे छिपे मानवगिद्धों की #पहचान #सार्वजनिक हो, भले ही अब मानवगिद्धों के जमात मे धरती के भगवान की संख्या गिनी चुनी ही हो। 
(अगले अंक मे आज के वर्तमान मे चिकित्सा धर्म का निर्वहन करने वाले वे डाक्टर जिनके लिये आज भी मन मे सम्मान व श्रद्धा है जिनके वजह से चिकित्सा अभी धर्म है।) 
काशी, 12सितंबर, 2021,रविवार
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