शनिवार, 12 अगस्त 2017

व्योमवार्ता / भारत वंदना : व्योमेश चित्रवंश की पुरानी डायरी के पन्ने

भारत वंदना : व्योमेश चित्रवंश की पुरानी डायरी के पन्ने , 12 अगस्त 2017,शनिवार

हे भारत तुझे प्रणाम, माँ भारत तुझे प्रणाम
तेरे चरणों का वंदन करते हम तेरे संतान ।
वो तुम ही हो भारत भूमि,जहाँ संस्कृति का निर्माण हुआ
गीता का उपदेश हुआ, भारत का संग्राम हुआ
रामायण युग धर्म हुआ ,सभ्यता का संचार हुआ
जब जब तुझ पे संकटआया , अवतार लिए भगवान।
तुम ही वो जननी हो माँ जो वीरो को जनती है
तेरी संताने तुझ पे माँ सर्वस्व निछावर करती है
राणा, शिवा, आजाद, भगत जैसे कितने वीर हुए
गाँधी, नेहरू, शास्त्री, सुभाष ने किया स्वयं बलिदान।
तेरी शांत प्रकृति के बेटे ,माँ हम शान्ति दूत कहलाते है
पर उठे कोई ऊँगली तुझ पर ,हम कालदूत बन जाते है
रंगभेद मिटला कर हम , विश्वबंधु कहलाये है
तेरी धरती पे जन्म लिए ,हमको है अभिमान।
कश्मीर से कन्याकुमारी, तुम एक अखंड मूर्ति हो माँ
भारत के हर जन जन के मन में बसी छवि हो माँ
तुझ पे गर कोई हाथ उठा, वो हाथ वहीं कट जाएगा
तेरी खातिर दे देंगे हम कोटि कोटि जन प्राण.
(गणतंत्र दिवस विशेषांक, दैनिक आज , २६ जनवरी १९८८, वाराणसी के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित मेरी पहली कविता)
http://chitravansh.blogspot.com

मंगलवार, 8 अगस्त 2017

व्योमवार्ता / संवेदनहीन समाज के लिये शर्मिंदा हूँ मै : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 08अगस्त 2017, मंगलवार

संवेदनहीन समाज के लिये शर्मिंदा हूँ मै : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 08अगस्त 2017, मंगलवार

               आज सुबह अखबार  मे एक खबर पढ़ी,  तब से खींझ आ रही है कभी खुद पर, कभी समाज पर,  कभी आज के इस भौतिकवादी वातावरण पर. दु:ख इस बात का है कि मै इस पूरे प्रकरण पर दुखी हो कर खीझने के अलावा कुछ कर भी नही सकता हूँ सिवाय इसके कि मै भी अखबार  पढ़ना छोड़  दूँ,  मेरे पड़ोसी इंजीनियर चाचाजी प्राय: मुझसे कहते है " वकील साहब,  सुबह सुबह अखबार  पढ़ने के बजाय मेरे साथ ब्रह्मकुमारी आश्रम  चल कर पुरूषार्थ  किया किजीये,  अखबार  पढ़ने से नकारात्मकता आती है", पर मै सोचता हूँ कि यह तो तूफान आने पर शुतुरमुर्ग  की तरह रेत मे सिर गाड़ कर तूफान के अस्तित्व  को भूलाने की बातें होगी,  क्योंकि हम इस समाज का हिस्सा है और समाज के अच्छे बुरे के लिये हमारी भी जिम्मेदारियॉ है, पर  एलपीजी लिबराईजेशन, प्राईवेटाईजेशन, ग्लोबनाईजेशन (उदारीकरण, निजीकरण व वैश्विकरण) के सरकारी नीति के चलते जल्दी से जल्दी पैसा कमाने और सारे सुखसुविधाओ को भोगने के प्रवृत्ति ने पिछले ढाई  दशक से  हमारे भारतीय जीवन पद्धति का ताना बाना ही छिन्न भिन्न कर दिया है, पैसों व सुखसुविधाओं से बने इस नव प्रगाढ़  रिश्ते ने खून के रिश्तों को बहुत पीछे छोड़ दिया है. मै सोचता हूँ कि रिश्तो को सौदे के तराजू पर नफा नुकसान देख कर तौलने वाली इस भौतिकवादी  पीढ़ी के आने वाले समय व आने वाली पीढ़ी के बारे मे सोचते ही अंधकूप सा घना तिमिर दिखता है जहॉ दूर दूर तक सूरज के किरणों की कोई ऊम्मीद नही.
                 आज की खबर मुझे अभी तक  विचलित कर रही है, क्योंकि मेरे लिये यह सिर्फ  एक  बुज़ुर्ग की नहीं, पूरे समाज की मौत है! मुम्बई से जुड़ी एक ख़बर आज शायद आप ने भी पढ़ा होगा,  टीवी चैनल्स पर भी उससे जुड़ी एक-आध रिपोर्ट भी देखा होगा.  एक युवा डेढ़ साल बाद जब अमेरिका से घर लौटा तो देखा कि उसका फ्लैट अंदर से बंद है। उसकी मां उस घर में अकेली रह रहीं थी। जब बार-बार घंटी बजाने पर भी दरवाज़ा नहीं खोला, तो दरवाज़ा तोड़कर वो अंदर घुसा। उसने देखा कि फ्लैट के अंदर उसकी मां की जगह उसका कंकाल पड़ा है। पिता की मौत चार साल पहले ही हो चुकी थी।
           आख़िरी बार डेढ़ साल पहले उसने मां से बात की तो उन्होंने कहा था कि वो अकेले नहीं रह सकतीं। वो बहुत डिप्रेशन में है। वो वृद्धाश्रम चली जाएगी। बावजूद इसके बेटे पर इसका कोई असर नहीं हुआ। अप्रेल 2016 में फोन पर हुई उस आख़िरी बातचीत के बाद लड़के की कभी मां से बात नहीं हुई। तकरीबन डेढ़ साल बाद जब आज वो घर आया तो उसे मां की जगह उसका कंकाल मिला। पुलिस पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतज़ार कर रही है और तभी वो बता पाएगी कि महिला ने आत्महत्या की या उसकी हत्या हुई। मैंने इस ख़बर को एक नहीं, कई बार पढ़ा और बहुत सी ऐसी बातें हैं जो मेरे दिमाग में कौंध रही हैं।
              महिला ने जब डेढ़ साल पहले अपने बेटे को फोन पर कहा होगा कि बेटे मैं बहुत अकेली हूं। ये अकेलापन मुझे खाए जा रहा है। मेरा दम घुट रहा है और बेटे ने यहां-वहां की कुछ बात कर फोन रख दिया उसके बाद क्या हुआ होगा?
          बेटे ने अगली बार मां को कॉल किया होगा। मां ने फोन नहीं उठाया, तो क्या बेटे को फिक्र नहीं हुई? क्या उसके मन में ये ख़्याल नहीं आया कि मां आख़िरी बात इतनी दुखी लग रही थी। अकेली भी है, उसे कुछ हो तो नहीं गया?
               एक बार ऐसा नहीं लगा, मगर दो दिन बाद फिर फोन किया, तब भी उन्होंने नहीं उठाया या फोन नहीं लगा, उसके बाद भी वो इत्मीनान से कैसे रहा?  क्या मुम्बई शहर में जिसका कि वो रहने वाला था, उसका एक भी ऐसा रिश्तेदार-दोस्त नहीं था जिसे वो कह सके कि पता करो क्या हुआ...मां से बात नहीं हो रही।
            इस महानगरीय रिहाईस मे उस सोसाइटी में जहां वो महिला इतने सालों से रह रही थी, वहां भी किसी ने डेढ़ साल तक उसके गायब होने को नोट नहीं किया। बेटे और सोसाइटी के अलावा पूरे शहर मे, पूरी रिश्तेदारी में एक भी ऐसा इंसान नहीं था जिसने उस महिला से सम्पर्क करने की कोशिश की हो और बात न होने पर वो घबराया हो।
                मैंने सुना है कि उत्तराखंड में कुछ साल पहले चारधाम यात्रा के दौरान आई बाढ़ में मारे गए लोगों के परिजन आज भी उन पहाड़ियों में अपने परिजनों के अवशेष ढूंढते हैं। उन्हें पता है कि वो ज़िंदा नहीं है। बस इस उम्मीद में वहां भटकते हैं कि शायद उनसे जुड़ी कोई निशानी मिल जाए। उनका कोई अवेशष मिल जाए और वो कायदे से उनका संस्कार कर पाएं। सिर्फ इसलिए ताकि वो अवशेष भी यूं ही कहीं लावारिस न पड़े रहें। इतने सालों बाद भी बहुत से ऐसे लोग सिर्फ इस उम्मीद में वहां भटक रहे हैं।
           मगर यहां एक बुज़ुर्ग औरत अपने घर में डेढ़ साल पहले मर गई। उसे किसी को ढूंढना भी नहीं था। वो उसी पते पर थी जहां उसे होना थी मगर फिर भी डेढ़ साल तक उसके मरने का किसी को पता नहीं लगा। उसे किसी ने ढूंढा नहीं। बगल में रहने वाले पड़ोसियों तक ने नहीं। जिन्हें वो दिन में एक-आध बार दिख भी जाती होंगी। दरवाज़ा बंद देखकर किसी ने सोचा भी नहीं कि क्या हुआ...वो महिला कहां गईं!
          यह वही मुंबई है जहॉ आज से ठीक 75 साल पहले अगस्तक्रॉति का जयघोष  हुआ था जब देश की आजादी के लिये बिना एक दूसरे को जाने हजारो हजार लोग देश के आजादी व ऐका के नाम पर एक दूसरे को बचाने के लिये हाथों मे हाथ थामे खड़े थे,  उसी मुंबई  मे एक आलीशान  सोसाईटी के एक फ्लैट  मे डेढ़ साल से एक बूढ़ी मरी पड़ कर कंकाल बन गई और पड़ोसी तक को खबर नही, या पड़ोसी ने खबर लेने की जरूरत ही नही समझी. महज 75 सालों मे आदमियत के रिश्ते मे कितना फर्क पैदा कर दिया है हमने?
              ये अहसास कि दुनिया में मेरा कोई नहीं है। किसी को मेरी ज़रूरत नहीं है। मैं कुछ भी होने की वजह नहीं हूं। इससे बड़ी बदनसीबी किसी भी इंसान के लिए और कुछ भी नहीं। और यहां तो बात एक मां की थी। वो मां जिसे गर्भावस्था में अगर डॉक्टर ये भी बता दे कि आप उस पॉजिशन में मत सोइएगा, वरना बच्चे को तकलीफ होगी, तो वो सारी रात करवट नहीं बदलती। मां बन जाने पर जिसके लिए बच्चे का अच्छे से रोटी खाना दुनिया की सबसे बड़ी खुशी होता है।
          अब्बास ताबिश एक मशहूर शेर है, एक मुद्दत से मेरी माँ नहीं सोई 'ताबिश' मैनें इक बार कहा था मुझे डर लगता है और एक मां ने जब कहा कि उसे डर लग रहा है, वो अकेले नहीं रह सकती, तो वो बेटा डेढ़ साल तक इतनी रातें सो कैसे गया। वो समाज, वो रिश्तेदार, वो सोसाइटी वाले...वो सब कैसे अपनी-अपनी ज़िंदगियों में इतने व्यस्त थे कि साल तक एक महिला का गायब होना ही नहीं जान पाए। फ्लैट में कंकाल ज़रूर बुज़ुर्ग औरत का मिला है मगर मौत शायद पूरे समाज की हुई है। और इसी समाज का हिस्सा होने पर मैं भी शर्मिंदा हूं।
(बनारस, 08अगस्त 2017,मंगलवार)
http://chitravansh.blogspot.com 

सोमवार, 7 अगस्त 2017

व्योमवार्ता / बनारस, अजब मिजाज का गजब शहर, बाबा कालभैरो : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 07 अगस्त 2017, सोमवार

बनारस, अजब मिजाज का गजब शहर ,बाबा कालभैरो : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 07 अगस्त 2017, सोमवार
          हमारा बनारस भी गजब का शहर है, मार्क ट्वेन ने कहा था कि बनारस इतिहास से प्राचीन,  परम्पर से परे और काल के सीमा परिधि से बाहर है, "Benaras is older than history, older than tradition, older even than legend and looks twice as old as all of them put together."अभी तक बनारस की स्थापना  के  बारे मे इतिहासकार कोई समय नही निश्चित  बता पाये हैं. बनारस अड़बंगी महादेव भोले नाथ की नगरी है, तो यहॉ के मिथक व इतिहास  भी अजब गजब है,  इन मिथक कहानियों  के पीछे छिपे ऐतहासिक रहस्य  व प्रमाणिकता क्या है किसी को नही मालूम पर हम बनारस वाले अपने पूर्वजों द्वारा सहेजी गई परम्पराओं  का पालन पूरे आस्था व विश्वास  के साथ करते हैं.  कमाल तो यह है कि हमारे साथ हमारे देवी देवता भी इसी मे प्रसन्नता अनुभव करते हैं. ये परम्पराये औरों के लिये कहानियों  होगी परहमारे लिये हमारी आस्था हैं हमारा विश्वास  है हमारी श्रद्धा  है. हम इन परम्पराओं मे कोई छेड़छाड़  नही रकरते न ही करना ही चाहते हैं न करने देते है क्योंकि यही हमारे बनारसीपन के रग रग मे समाया है और यही हमारा मिजाज भी है. इसी मे हमारी मस्ती है, दुनिया जहॉ चूल्हे भाड़ मे जाये हमारे ठेगे (बनारसी पाठक अपने लिहाज से सही शब्द का प्रयोग करने के लिये स्वतंत्र  है) से. हमारी तो अपनी वाली चलेगी, इसी को बनारसी मे अड़ना कहते हैं,  और अपनी बातें पर अड़ने से ही बनारसी अड़ी शब्द प्रचलन मे आया. तो साहब आपको इन अड़ीयों पर बनारसी अड़ीबाज मिल जायेगें, मुँह मे पान घुलाये आसमान की ओर मुँह उठा कर बिना एक बूँद पान चुआये मोहल्ले की राजनीति से लेकर ट्रम्प, पुतिन, शिंजो व गिलपिंग के इण्टरनेशनल राजनीति की मॉ बहन एक कर अपने सांसद प्रधानमन्त्री  के पालिसी का पोलिटिकल पोस्टमार्टम  करते हुये. दम तोड़ती ट्रैफिक व्यवस्था, चिद्दी चिद्दी ऊधरा रह सड़के,   साल छ महीना पहले बनी हुई पर आज धरती मे समाती हुई सड़के, सीवर के पुनरूद्धार के नाम पर दसकों से शहर को तालतलैया बनायी गई जल निगम की अराजक व्यवस्था और नगर को नरक बनाता नरक निगम को गरियाते कोसते हुये, पर इन सब के बावजूद बनारसी होने पर गौरवान्वित. इनकी लाईफस्टाईल बस एक " चना चबैना गंगाजल जो पुरवै करतार,  काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दरबार "
               इसी बनारस में एक पुलिस स्टेशन ऐसा है, जहां ऑफिसर की कुर्सी पर बाबा काल भैरव विराजते हैं। अफसर बगल में कुर्सी लगाकर बैठते हैं। सालों से इस स्टेशन के निरीक्षण के लिए कोई IAS, IPS नहीं आया. क्योंकि मान्यता यह है कि इस थाने के कोतवाल साक्षात  बाबा कालभैरव है. वे स्वयं थाना क्षेत्र  की कानून व्यवस्था  देखते है तो इसलिए अपनी कुर्सी पर नहीं बैठते थानेदार.
           वाराणसी के विश्वेश्वरगंज स्थित कोतवाली पुलिस स्टेशन के प्रभारी राजेश सिंह ने बताया, ''ये परंपरा सालों से चली आ रही है। यहां कोई भी थानेदार जब पोस्टिंग होकर आया, तो वो अपनी कुर्सी पर नहीं बैठा। कोतवाल की कुर्सी पर हमेशा काशी के कोतवाल बाबा काल भैरव विराजते हैं।''
- ''क्राइम कंट्रोल के साथ-साथ सामाजिक मेल-मिलाप, आने-जाने वालों पर बाबा खुद नजर बनाए रखते हैं। वो शहर के रक्षक हैं। इसीलिए इन्हें काशी का कोतवाल भी कहा जाता है। बाबा की पूजा के बाद ही यहां तैनात पुलिसकर्मी काम शुरू करता है।''
- ''ऐसा माना जाता है कि बाबा विश्वनाथ ने पूरी काशी नगरी का लेखा-जोखा का जिम्मा काल भैरव बाबा को सौंप रखा है। शहर में बिना काल भैरव की इजाजत के कोई भी प्रवेश नहीं कर सकता। शहर की सुरक्षा के लिए थानेदार की कुर्सी पर बाबा काल भैरव को विराजा गया है।''
- कांस्टेबल सूर्यनाथ चंदेल ने बताया, ''मैं 18 साल से खुद इस थाने में तैनात हूं। मैंने अभी तक किसी भी थानेदार को अपनी कुर्सी पर बैठते नहीं देखा। बगल में चेयर लगाकर ही प्रभारी निरीक्षक बैठता है। हालांकि, इस परंपरा की शुरुआत कब और किसने की, ये कोई नहीं जानता। लेकिन माना जाता है कि अंग्रेजों के समय से ही ये परंपरा चली आ रही है।''
ऐसा है बाबा काल भैरव का महत्व
- साल 1715 में बाजीराव पेशवा ने काल भैरव मंदिर का जीर्णोद्वार करवाया था। वास्तुशास्त्र के अनुसार बना यह मंदिर आज तक वैसा ही है। बाबा काल भैरव मंदिर के महंत-पंडित नवीन गिरी ने बताया, हमेशा से एक खास परंपरा रही है। यहां आने वाला हर बड़ा प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी सबसे पहले बाबा के दर्शन कर उनका आशीर्वाद लेता है।
काल भैरव मंदिर में रोजाना 4 बार आरती होती है। रात की शयन आरती सबसे प्रमुख है। आरती से पहले बाबा को स्नान कराकर उनका श्रृंगार किया जाता है। मगर उस दौरान पुजारी के अलावा मंदिर के अंदर किसी को जाने की इजाजत नहीं होती। बाबा को सरसों का तेल चढ़ता है। एक अखंड दीप हमेशा जलता रहता है।
   मान्यत है कि ''ब्रह्मा ने पंचमुखी के एक मुख से शिव निंदा की थी। इससे नाराज कालभैरव ने ब्रह्मा का मुख ही अपने नाखून से काट दिया था। कालभैरव के नाखून में ब्रह्मा का मुख अंश चिपका रह गया, जो हट नहीं रही था।''
- ''भैरव ने परेशान होकर सारे लोको की यात्रा कर ली, लेकिन ब्रह्म हत्या से मुक्ति नहीं मिल सकी। तब भगवान विष्णु ने कालभैरव को काशी भेजा। काशी पहुंच कर उन्हें ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्ति मिली और उसके बाद वे यहीं स्थापित हो गए।''
(बनारस,07 अगस्त 2017, सोमवार)
http:http://chitravansh.blogspot.com