कल सुबह आनलाईन कूरियर से मंगवाई किताबों का बंडल आया, बंडल मे कनू के लिये मंगाई गई किताबो मे मैने सत्य व्यास की बहुप्रतिक्षित हालिया प्नकाशित नई पुस्तक दिल्ली दरबार भी मंगाया था, पिछले बार की तरह किताब देखनी शुरू किया तो पूरी निपटा के ही फुरसत किये. जैसा मैने बनारस टाकीज की चर्चा करते हुये लिखा था कि सत्य व्यास हिन्दू विश्वविद्यालय मे मेरे जूनियर हुआ करते थे, यूनिवर्सिटी मे पढने के दौरान तो हम एक दूसरे से कोई खास रूबरू नही हो पाये पर बनारस टाकीज पढ़ते समय अपने इस छोटे भाई से अनजानी सी आभाषी आत्मीयता हो गई और सत्य का लिखा कहीं अपने आस पास अपनों पर बीता गुजरा लगने लगा, कभी हँसाते तो कभी गुदगुदाते सत्य अपनी कहानी के प्लाट मे पाठक को ऐसा बॉध लेते है कि वह खुद को पढ़ते हुये कहानी का हिस्सा महसूस करने लगता है.
बहरहाल बात दिल्ली दरबार की,
जैसा की व्यास बताते है - "कहानी इसी सदी के दूसरे दशक के पहले दो सालों की है। वह वक्त जब तकनीक इंसान से ज्यादा स्मार्ट होकर उसकी हथेलियों में आनी शुरू ही हुई थी। नई तकनीक ने नई तरकीबों को जन्म देना शुरू किया था।" आगे कहानी इन बातों को सही साबित भी करती है। उपन्यास की कहानी दो दोस्तों के बैचलर लाइफ की है। कहानी है एक ऐसे मनमौजी युवा की जो सिर्फ अपनी सुनता है। चतुर, आवारा, पागल, दीवाना कुछ भी कह सकते हैं। लेकिन है बड़ा तेज। तकनीक से खेलता है और उसका पूरा इस्तेमाल करता हैं। प्रेमी है तो इसकी एक प्रेमिका भी है। यही प्रेम उसे आगे चलकर एक अच्छा इंसान बनाता है।
कहानी के मुख्य पात्र हैं - राहुल मिश्रा उर्फ़ पंडित और मोहित सिंह उर्फ झाड़ी। सत्य व्यास की पात्रों से परिचय करने का अंदाज़ बड़ा ही लाज़वाब है। राहुल के बारे लेखक बताते हैं कि "राहुल मिश्रा पैदा ही प्रेम करने के लिए हुए हैं, ऐसा उनका खुद का कहना है। राजीव राय के बाद जो प्यार, इश्क़ और मुहब्बत में ठीक-ठाक अंतर बता सकते हैं।" ठीक इसके विपरीत मोहित एक सीधा-साधा लड़का है और पढ़ाई में राहुल से तेज है लेकिन चतुराई में नहीं। मोहित और राहुल बचपन से पक्के दोस्त हैं और साथ में पढ़े और बढ़े हैं। दोनों अपने शहर टाटानगर(जमशेदपुर) से ग्रेजुएशन करते हैं। मोहित जहाँ अपने कैरियर के बारे में सोचते रहता है वहीं राहुल लड़की के बारे में। लेखक कहते हैं - "दोस्त की सबसे बड़ी कीमत यही होती है कि यह सही गलत से परे होती है"। और कुछ ऐसी ही दोस्ती है इन दोनों के बीच। मोहित राहुल के हर अच्छे-बुरे काम में साथ देता है लेकिन उसे बहुत समझाता भी है। लेकिन राहुल माने तब तो। वह एक बार जो सोच लेता है उसे करता है।
"छोटे शहर के छोटे सपनों को विस्तार देते शहर का उनवान है दिल्ली।" ग्रेजुएशन के बाद दोनों एमबीए करने के लिए और मोहित सीडीएस की भी तैयारी के लिए दिल्ली जाते हैं। किराये के एक मकान में रहने लगते हैं और फिर शुरू होती है दिल्ली दरबार वाली कहानी। कहानी में कुछ और पात्र भी हैं। परिधि - राहुल की प्रेमिका और मकान मालिक की बेटी। परिधि एक सुन्दर, सुशिल और साधारण लड़की है जो राहुल से बहुत प्यार करने लगती है। बटुक शर्मा - मकान मालिक जो हमेशा इंग्लिश की बेज्जती करते रहते हैं और सुनने वाला खुद को हँसे बगैर रोक नहीं पता है। जैसे वो लिंक को लिंग बोलते हैं, बिलो जॉब को ब्लो जॉब और तेलंगाना को तेल लगाना इत्यादि। राहुल इन बातों पर खूब चुटकी लेते हैं और बटुक शर्मा भी राहुल की खिंचाई करने से नहीं चुकते। एक महिका रायजादा भी कहानी में है जो राहुल के कॉलेज की है जो बाद में कुछ दिन गर्लफ्रेंड भी बन जाती है। एक छोटू नाम का लड़का भी है जो राहुल और मोहित के यहां घर का काम करता है। ये बहुत बड़ा क्रिकेट प्रेमी मालूम होता है पर बाद में ये छोटू सबको आउट कर देता है अपनी गुगली से।
कहानी की शुरुआत राहुल मिश्रा के प्रेम-प्रसंगों से होता है और अंत में इन्हीं पर जाकर खत्म होता है। लेकिन कैसे? ये बड़ा ही मजेदार है और इसे और भी मजेदार बनाया है लेखक सत्य व्यास ने। पाठक को कैसे बांध कर रखते है ये चीज ये बखूबी जानते हैं। आप पढ़ते समय एक पेज भी छोड़ना पसंद नहीं करेंगे। हमेशा आपके मन में एक सस्पेंस रहेगा की आगे क्या होगा। बीच-बीच राहुल की कुछ मजेदार बातें आपको हँसाते रहेगी। जैसे- किताब खोलो और थर्मोडायनामिक्स से गरम रहो, थम्स-अप पीने को अंगूठा पिएगा कहना, आज मेरे और तेरे भाभी का इंटीग्रेशन होते-होते डिफरेंशियेशन हो गया इत्यादि। राहुल हमेशा मोहित को शायरी सुनाने कहता है फिर उस शायरी की चिर-हरण कर देता है। जैसे मोहित सुनाता है-
"तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो,
तुमको देखें की तुमसे बात करें।"
राहुल इस पर कहता है "इसलिए कहते हैं झाड़ी की तुम पगलंठ हो। भाग जाएगी, पक्का भाग जाएगी। मतलब या तो देखोगे या फिर बात करोगे। तीसरा काम सिलेबस में है ही नहीं क्या? सत्य ने कुछ लाइन्स ऐसी भी लिखी है जो चुपके से एक सच्चाई कह देती है। जैसे-
" प्रेम के कारण नहीं होते परिणाम होते हैं";
"बांधकर रखना भी तो कोई प्यार नहीं हुआ न",
जिंदगी एयर होस्टेज हो गई है जिसमें बिना चाहे मुस्कुराना पड़ता है",
प्रेम,पानी और प्रयास की अपनी ही जिद होती है और अपना ही रास्ता"
वाकई मजेदार है सत्य का दिल्ली दरबार, जहॉ दरबार के मौज मे हम पढ़ते पढ़ते खुद को भूल जाते है, लगता है सत्य कहीं खड़े बदमासी से मुस्कराते हुये याद दिला रहे हों कि यह है किस्सागोई,
किताब के बैक फ्लैप पर सत्य के बारे मे तफसील भी किसी किस्से से कम नही है, " अस्सी के दशक मे बूढ़े हुये. नब्बे के दशक मे जवान. इक्कीसवीं सदी के पहले दशक मे बचपना गुजराऔर कहते है कि नई सदी के दूसरे दशक मे पैदा हुये है, अब जब पैदा ही हुये हैं तो खूब उत्पात मचा रहे है. चाहते है कि उन्हे कास्मोपालिटन कहा जाय. हालॉकि देश से बाहर बस भूटान गये है. पूछने पर बता नही पाते किकहॉ के है. उत्तर प्रदेश से जड़े जुड़ी है. 20 साल तक जब खुद को बिहारी कहने का सुख लिया तो अचानक ही बताया गया कि अब तुम झारखण्डी हो. उसमे भी खुश है. खुद जियो औरों को भी जीने दो के धर्म मे विश्वास करते है और एक साथ कई कई चीजें लिखते हैं."
सत्य व्यास व उनके लेखन शैली को न जानने वालो के लिये यह परिचय पहेली जैसा लगे पर यह सत्य की अपनी स्टाईल है, अल्हढ़, अलहदा, अजूबी और बेबाक. जो सत्य को सबसे अलग रख कर हमारे दिल के बड़ी करीब से होकर बेहद करीने से निकल जाती है, कभी सावन के फुहारो की तरह, कभी भादों के बौछारो की तरह, कभी बसंत के झोंको की तरह खभी जेठ के लू के थपेड़ो की तरह, लेकिन हर एक का अपना महत्व , खाने मे नमक की तरह जरूरी कथानक का कसा हुआ प्लाट , जिसमे नमक की तरह न तो मात्र घटायी जा सकती है न ही बढ़ाई जा सकती है. सब कुछ बिलकुल परफेक्ट, समय की जरूरत के लिहाज से दिल्ली दरबार के राहुल मिश्रा की तरह, जो लाईन से उतरते उतरते एकदम सही ट्रैक पकड़ लेता है जैसे बेलाईन होना भी जिन्दगी का हिस्सा हो,
अगर न जोहरा- जबीनों के दरमियॉ गुजरे
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी, कहॉ गुजरे
एक लफ्ज मे कहे तो "मार्वलस", सत्य, कीप ईट अप.
(बनारस, 24जून 2017, शनिवार) http://chitravansh.blogspot.in