शनिवार, 9 सितंबर 2017

व्योमवार्ता/रेशम की डोरी से बंधा अनमोल रिश्ता : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 7अगस्त 2017

व्योमवार्ता/ रेशम की डोरी से बंधा अनमोल रिश्ता :व्योमेश चित्रवंश की डायरी
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                   फेसबुक पर फाइंड फ्रेंड में नाम डाल डाल कर कई बार सर्च किया, लेकिन संजय का कोई पता न चला. ‘पता नहीं फेसबुक पर उस का अकाउंट है भी कि नहीं,’ यह सोच कर मैं ने लौगआउट किया ही था कि स्मार्टफोन पर व्हाट्सऐप की मैसेज ट्यून सुनाई दी. फोन की स्क्रीन पर देखा तो जानापहचाना चेहरा लगा. डबल क्लिक कर फोटो को बड़ा किया तो चेहरा देख दंग रह गई. फिर मेरी खुशी का ठिकाना न रहा. ‘बिलकुल वैसा ही लगता है संजय जैसा पहले था.’
मैं अपने मातापिता की एकलौती संतान थी और 12वीं में पढ़ती थी. पिताजी रेलवे में टीटीई के पद पर कार्यरत थे. इस कारण अकसर बाहर ही रहते. घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण हम ने डिसाइड किया कि घर का एक कमरा किराए पर दे दिया जाए. बहुत सोचविचार कर पापा ने 2 स्टूडैंट्स जो ग्रैजुएशन करने के बाद आईएएस की तैयारी करने केरल से दिल्ली आए हुए थे, को कमरा किराए पर दे दिया. जब वे हमारे यहां रहने आए तो आपसी परिचय के बाद उन्होंने मुझे कहा, ‘पढ़ाई के सिलसिले में कभी जरूरत हो तो कहिएगा.’
उन में से एक, जिस का नाम संजय था अकसर मुझ से बातचीत करने को उत्सुक रहता. कभी 10वीं की एनसीईआरटी की किताब मांगता तो कभी मेरे कोर्स की. मुझे उस का इस तरह किताबें मांगना बात करने का बहाना लगता. एक दिन जब वह किताब मांगने आया तो मैं ने उसे बुरी तरह डांट दिया, ‘क्या करोगे 10वीं की किताब का. मुझे सब पता है, यह सब बहाने हैं लड़कियों से बात करने के. मुझ से मेलजोल बढ़ाने की कोशिश न करो. आगे से मत आना किताब मांगने.’ उस ने अपने पक्ष में बहुत दलीलें दीं लेकिन मैं ने नकारते हुए सब खारिज कर दीं. उस दिन मुझे स्कूल से ही अपनी फ्रैंड के घर जाना था. मैं मम्मी को बता भी गई थी, लेकिन जब घर आई तो जैसे सभी मुझे शक की निगाह से देखने लगे.
बस्ता रखा ही था कि मम्मी पूछने लगीं, ‘आज तुम रमेश के साथ क्या कर रही थीं?’
‘रमेश,’ मैं समझ गई कि यह आग संजय की लगाई हुई है. मैं ने जैसेतैसे मम्मी को समझाया, लेकिन संजय से बदला लेने उसी के रूम में चली गई. ‘तुम होते कौन हो मेरे मामले में टांग अड़ाने वाले. मैं चाहे किसी के साथ जाऊं, घूमूंफिरूं तुम्हें क्या. तुम किराएदार हो, किराया दो और चुपचाप रहो. आइंदा मेरे बारे में मां से बात करने की कोई जरूरत नहीं, समझे,’ मैं संजय को कह कर बाहर निकल गई. दरअसल, रमेश मेरी कक्षा में पढ़ता था. अच्छी पर्सनैलिटी होने के कारण सभी लड़कियां उस से दोस्ती करना चाहती थीं. मेरे दिल में भी उस के लिए प्यार था और मैं उसे चाहती थी. सो फ्रैंड के घर जाते समय उसी ने मुझे ड्रौप किया था, लेकिन संजय ने मुझे उस के साथ जाते हुए देख लिया था.
थोड़ी देर बाहर घूम कर आई तो संजय मम्मी के पास बैठा दिखा. मुझे उसे देखते ही गुस्सा आ गया, लेकिन मेरे आते ही वह उठ कर चला गया. बाद में मम्मी ने मुझे समझाया,  ‘संजय ने मुझे उस लड़के के बारे में बताया है. वह लड़कियों से फ्लर्ट करता है. उस का तुम्हारे स्कूल की 11वीं में पढ़ने वाली रंजना से भी संबंध है. तुम उस से ज्यादा दोस्ती न ही बढ़ाओ तो ठीक है.’ ‘ठीक है मां,’ मैं ने उन्हें कह दिया, लेकिन संजय पर बिफर पड़ी, ‘अब तुम मेरी जासूसी भी करने लगे. मैं किस से मिलती हूं, कहां जाती हूं इस से तुम्हें क्या?’
इस पर वह चुप ही रहा. शाम को मुझे मैथ्स का एक सवाल समझ नहीं आ रहा था तो मैं ने संजय से ही पूछा. उस ने भी बिना हिचक मुझे समझा दिया, लेकिन ज्यों ही वह सुबह की बात छेड़ने लगा मैं ने फिर डांट दिया, ‘मेरी जासूसी करने की जरूरत नहीं. रमेश को मैं जानती हूं वह अच्छा लड़का है और बड़ी बात है कि मैं उसे चाहती हूं. तुम अपने काम से काम रखो.’ कुछ दिन बाद मैं स्कूल पहुंची तो हैरान रह गई. स्कूल में पुलिस आई हुई थी. पता चला कि रमेश और रंजना घर से भाग गए हैं. अभी तक उन का कुछ पता नहीं चला. पुलिस ने पूछताछ वाले लोगोें में मेरा नाम भी लिख लिया व मुझे थाने आने को कहा. पापा दौरे पर गए हुए थे सो मम्मी ने और कोई सहारा न देख संजय से बात की. फिर न चाहते हुए भी मैं संजय के साथ थाने गई. वहां इंस्पैक्टर ने जो पूछा बता दिया. संजय ने इंस्पैक्टर से मेरी तारीफ की. रमेश से सिर्फ क्लासफैलो होने का नाता बताया और ऐसे बात की जैसे मेरा बड़ा भाई मुझे बचा रहा हो. उस की बातचीत से इंप्रैस हो इंस्पैक्टर ने उस केस से मेरा नाम भी हटा दिया. घर आए तो संजय ने मुझे समझाया, ‘ऐसे लड़कों से दूर ही रहो तो अच्छा है. वैसे भी अभी तुम्हारी उम्र पढ़ने की है. पढ़लिख कर कुछ बन जाओ तब बनाना ऐसे रिश्ते. तब तुम्हें इन की समझ भी होगी,’ साथ ही उस ने मुझे दलील भी दी, ‘‘मैं तुम्हारे भाई जैसा हूं तुम्हारे भले के लिए ही कहूंगा.’’
दरअसल, गुस्सा तो मुझे खुद पर था कि मैं रमेश को समझ न पाई और मुझे प्यार में धोखा हुआ, लेकिन खीज संजय पर निकल गई. मेरी इस बात का संजय पर गहरा असर हुआ. राखी का त्योहार नजदीक था सो शाम को आते समय संजय राखी ले आया और मम्मी के सामने मुझ से रमेश के बारे में बताने व समझाने के लिए क्षमा मांगता हुआ राखी बांध कर भाई बनाने की पेशकश कर खुद को सही साबित करने लगा. मैं कहां मानने वाली थी. मैं पैर पटकती हुई बाहर निकल गई. उस ने राखी वहीं टेबल पर रख दी. पापा अगले दिन जम्मू से लौटने वाले थे. मैं और मम्मी घर में अकेली थीं. रात के लगभग 12 बजे थे कि अचानक मुझे आवाज मारती हुई मम्मी उठ बैठीं.
मैं भी हड़बड़ा कर उठी और देखा कि मम्मी की नाक से खून बह रहा था. मैं कुछ समझ न पाई, बस जल्दी से दराज से रूई निकाल कर नाक में ठूंस दी और खून बंद करने की कोशिश करने लगी. इधरउधर देखा, कुछ समझ न आया कि क्या करूं. लेकिन अचानक संजय के कमरे की बत्ती जलती देखी. कल उन का ऐग्जाम होने के कारण वे दोनों काफी देर तक पढ़ रहे थे. तभी मम्मी बेसुध हो कर गिर पड़ीं. मैं ने उन्हें गिरते देखा तो मेरी चीख निकल गई, ‘मम्मी...’ मेरी चीख सुनते ही संजय के कमरे का दरवाजा खुला. सारी स्थिति भांपते हुए संजय बोला, ‘आप घबराइए नहीं, हम देखते हैं,’ फिर अपने दोस्त कार्तिक से बोला कि औटो ले कर आए. इन्हें अस्पताल ले जाना होगा.
औटो ला कर उन दोनों ने मिल कर मम्मी को उठाया और मुझे चिंता न करने की हिदायत दे कर मम्मी को औल इंडिया मैडिकल हौस्पिटल की इमरजैंसी में ले गए. वहां उन्हें डाक्टर ने बताया कि हाइपरटैंशन के कारण इन के नाक से खून बह रहा है. आप सही वक्त पर ले आए ज्यादा देर होने पर कुछ भी हो सकता था. फिर उन्हें 2 इंजैक्शन दिए गए और अधिक खून बहने के कारण खून चढ़वाने को कहा गया. संजय ने ब्लड बैंक जा कर रक्तदान किया तब जा कर मम्मी के लिए उन के ग्रुप का खून मिला. कार्तिक ने ब्लड बैंक से खून ला कर मम्मी को चढ़वाया. सुबह करीब 6 बजे वे दोनों मम्मी को वापस ले कर आए तो मेरी भी जान में जान आई. अब मम्मी ठीक लग रही थीं. संजय ने बताया कि घबराने की बात नहीं है आप आराम से सो जाएं. हम हफ्ते की दवाएं भी ले आए हैं. आज हमारा पेपर है लेकिन रातभर जगे हैं अत: हम भी थोड़ा आराम कर लेते हैं. मम्मी को सलामत पा मैं बहुत खुश थी. मेरे इतना भलाबुरा कहने के बावजूद संजय ने मुझ पर जो उपकार किया उस ने मुझे अपनी ही नजरों में गिरा दिया था. मैं इन्हीं विचारों में खोई बिस्तर पर लेटी थी कि कब सुबह के 8 बज गए पता ही न चला. मैं ने देखा संजय के कमरे का दरवाजा खुला था और वे दोनों घोड़े बेच कर सोए थे.
अचानक मुझे याद आया कि आज तो इन का पेपर है. अत: मैं तेजी से उन के कमरे में गई और उन्हें उठा कर कहा, ‘पेपर देने नहीं जाना क्या?’ हड़बड़ा कर उठते हुए संजय ने घड़ी देखी तो उन की नींद काफूर हो गई. दोनों फटाफट तैयार हो कर बिना खाएपीए ही पेपर देने चल दिए. मैं ने पीछे से आवाज दे कर उन्हें रोका, ‘भैया रुको,’ भैया शब्द सुन कर संजय अजीब नजरों से मुझे देखने लगा. लेकिन मैं ने बिना समय गंवाए उस की कलाई पर वही राखी बांध दी जो वह सुबह लाया था. फिर मैं ने कहा, ‘जल्दी जाओ, कहीं पेपर में देर न हो जाए.’ शाम को जब पापा आए और उन्हें सारी बात पता चली तो उन्होंने जा कर उन्हें धन्यवाद दिया. मैं ने भी पूछा, ‘पेपर कैसा हुआ?’ तो संजय ने हंस कर कहा, ‘‘अच्छा कैसे नहीं होता. बहन की शुभकामनाएं जो साथ थीं.’
अब मैं और संजय अनमोल रिश्ते में बंध गए थे. जहां बिगर दुरावछिपाव के एकदूसरे के लिए कुछ करने की तमन्ना थी. मेरा अपना तो कोई भाई नहीं था सो मैं संजय को ही भाई मानती. स्कूल से आती तो सीधा उस के पास जाती और बेझिझक उस से कठिन विषयों के बारे में पूछती. कुछ ही दिन में संजय के तरीके से पढ़ने पर मुझे वे विषय भी आसान लगने लगे जो अब तक कठिन लगते थे. घर का कोई सामान लाना हो या अपनी जरूरत का मैं संजय को ही कहती. कभी किसी काम से बाहर जाती तो संजय को साथ ले लेती. वह जैसे मेरा सुरक्षा कवच भी बन गया था. कभीकभी लोग बातें बनाते तो संजय उन को भी बड़े तरीके से हैंडिल करता.
एक बार एक अंकल ने कुछ कह दिया तो संजय बेझिझक उन के पास गया और बताया, ‘यह मेरी मुंहबोली बहन है, गलत न समझें. अगर आप की लड़की अपने भाई के साथ जाती दिखे और लोग गलत समझें तो आप क्या करेंगे.’ उन की बोलती बंद हो गई लेकिन फायदा हमें हुआ, अब गली के लोग हमें सही नजरों से देखने लगे. कुछ दिन बाद मेरा जन्मदिन था. मैं काफी समय से पापा से मोबाइल लेने की जिद कर रही थी, लेकिन हाथ तंग होने के कारण वे नहीं खरीद पा रहे थे. मेरे केक काटते ही संजय ने मुझे केक खिलाया और मेरे हाथ में मेरा मनपसंद तोहफा यानी मोबाइल रख दिया तो मैं इसे पा कर फूली नहीं समाई. उस समय नएनए मोबाइल चले थे. मैं खुश थी कि मैं कालेज जाऊंगी तो मोबाइल के साथ. कुछ दिन बाद उन की प्रतियोगी परीक्षा समाप्त हुई तो पता चला कि वे वापस जाने वाले हैं, यह जान कर मुझे दुख हुआ लेकिन मेरी भी मति मारी गई थी कि मैं ने उन का पता, फोन नंबर कुछ न पूछा. बस यही कहा, ‘भूलना मत इस अनमोल रिश्ते को.’
जिस दिन उन्होंने जाना था उसी दिन मेरी सहेली का बर्थडे था. मैं उस के घर गई हुई थी और पीछे से संजय ने कमरा खाली किया और दोनों केरल रवाना हो गए. वापस आने पर मैं ने पापा से पूछा तो पता चला कि उन्होंने भी उस का पताठिकाना नहीं पूछा था. इस पर मैं पापा से नाराज भी हुई. मैं संजय द्वारा बताए गए परीक्षा के टिप्स अपना कर 12वीं में अव्वल दर्जे से पास हुई और कालेज मोबाइल के साथ गई, जिस में हमारे अनमोल रिश्ते के क्षण छिपे थे. फिर कालेज के साथसाथ जब प्रतियोगी परीक्षाएं देने लगी तो मुझे ज्ञात हुआ कि एनसीईआरटी की किताबें इन में कितनी सहायक होती हैं. तब मुझे अपनी नादानी भरी भूल का भी एहसास हुआ. अब मैं हर साल राखी के सीजन में संजय को मिस करती. जब बाजार में राखियां सजने लगतीं तो मुझे अनबोला भाई याद आ जाता. समय के साथ मोबाइल तकनीक में भी तेजी से बदलाव आया और फोन के टचस्क्रीन और स्मार्टफोन तक के सफर में न जाने कितने ऐप्स भी जुड़े, लेकिन मैं ने अपना नंबर वही रखा जो संजय ने ला कर दिया था, भले मोबाइल बदल लिए. मैं हर बार फेसबुक पर फ्रैंड सर्च में संजय का नाम डालती, लेकिन नतीजा सिफर रहता. कुछ पता चलता तो राखी जरूर भेजती. इस बीच संजय ने भी कोई फोन नहीं किया था. लेकिन अचानक व्हाट्सऐप पर मैसेज देख दंग रह गई. तभी व्हाट्सऐप के मैसेज की टोन बजी और मेरी तंद्रा भंग हुई. संजय ने चैट करते हुए लिखा था, ‘‘नया स्मार्टफोन खरीदा तो पुरानी डायरी में नंबर देख सेव करते हुए जब तुम्हारा नंबर भी सेव किया तो व्हाट्सऐप में तुम्हारा फोटो सहित नंबर सेव हुआ देख मन खुश हो गया.
‘‘फिर फटाफट व्हाट्सऐप पर अपना परिचय दिया. तुम्हें मैं याद हूं न या भूल गई.’’ संजय के शब्दों से मेरी आंखें भर आईं. तुम्हें कैसे भूल सकती हूं निस्वार्थ रिश्ता. अगर तुम न होते तो शायद उस दिन पता नहीं मम्मी के साथ क्या होता. मेरे किशोरावस्था में भटके पांव कौन रोकता. मैं ने फट से मैसेज टाइप किया, ‘‘राखी भेजनी है भैया, फटाफट अपना पता व्हाट्सऐप करो.’’ मिनटों में व्हाट्सऐप पर ही पता भी आ गया और साथ ही  पेटीएम के जरिए राखी का शगुन भी, साथ ही लिखा था, ‘‘इस अनमोल रिश्ते को जिंदगी भर बनाए रखना.’’ मैं ने पढ़ा और अश्रुपूरित नेत्रों से बाजार में राखी पसंद करने चल दी अपने मुंहबोले भाई के लिए.
(बनारस 6अगस्त 2017, रविवार)
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रविवार, 3 सितंबर 2017

व्योमवार्ता / सावन के बरसात मे स्नेह के रिश्ते का विसर्जन : व्योमेश चित्रवंश की डायरी,29 अगस्त 2017

सावन के बरसात मे स्नेह के रिश्ते का विसर्जन : व्योमेश चित्रवंश की डायरी,29 अगस्त 2017

          सावनका महीना था. दोपहर के 3 बजे थे. रिमझिम शुरू होने से मौसम सुहावना पर बाजार सुनसान हो गया था. साइबर कैफे में काम करने वाले तीनों युवक चाय की चुसकियां लेते हुए इधरउधर की बातों में वक्त गुजार रहे थे. अंदर 1-2 कैबिनों में बच्चे वीडियो गेम खेलने में व्यस्त थे. 1-2 किशोर दोपहर की वीरानगी का लाभ उठा कर मनपसंद साइट खोल कर बैठे थे.  मै भी कैफे के एक क्यूबिक मे बैठा अपना मेल चेक करते हुये बरसात बंद होने का इंतजार कर रहाहूँ. तभी वहां एक महिला ने प्रवेश किया. युवक महिला को देख कर चौंके, क्योंकि शायद बहुत दिनों बाद एक महिला और वह भी दोपहर के समय, उन के कैफे पर आई थी. वे व्यस्त होने का नाटक करने लगे और तितरबितर हो गए.
महिला किसी संभ्रांत घराने की लग रही थी. चालढाल व वेशभूषा से पढ़ीलिखी भी दिख रही थी. छाता एक तरफ रख कर उस ने अपने बालों को जो वर्षा की बूंदों व तेज हवा से बिखर गए थे, कुछ ठीक किए. फिर काउंटर पर बैठे लड़के से बोली, ‘‘मुझे एक संदेश टाइप करवाना है. मैं खुद कर लेती पर हिंदी टाइपिंग नहीं आती है.’’
‘‘आप मुझे लिखवाएंगी या...’’
‘‘हां, मैं बोलती जाती हूं और तुम टाइप करते जाओ. कर पाओगे? शुद्ध वर्तनी का ज्ञान  है तुम्हें?’’
लड़का थोड़ा सकपका गया पर हिम्मत कर के बोला, ‘‘अवश्य कर लूंगा,’’ मना करने से उस के आत्मविश्वास को ठेस पहुंचने की आशंका थी.  महिला ने बोलना शुरू किया, ‘‘लिखो-
मेरे भैया,
शायद यह मेरी ओर से तुम्हारे लिए अंतिम राखी होगी, क्योंकि अब मुझ में इतना सब्र नहीं बचा है कि मैं भविष्य में भी ऐसा करती रहूंगी. नहीं तुम गलत समझ रहे हो. मुझे तुम से कोई शिकायत नहीं है, क्योंकि शिकायत करने का हक तुम वर्षों पहले ही खत्म कर चुके हो.’’  इतना बोल कर महिला थोड़ी रुक गई. भावावेश से उस का चेहरा तमतमाने लगा था. उस ने कहा, ‘‘थोड़ा पानी मिलेगा?’’
लड़के ने कहा, ‘‘जरूर,’’ और फिर एक बोतल ला कर उस महिला को थमा दी. लड़के को बड़ी उत्सुकता थी कि महिला आगे क्या बोलेगी. उसे यह पत्र बड़ा रहस्यमयी लगने लगा था.  महिला ने थोड़ा पानी पीया, पसीना पोंछा और फिर लिखवाना शुरू किया, ‘‘कितना खुशहाल परिवार था हमारा. हम 5 भाईबहनों में तुम सब से बड़े थे और मां के लाड़ले तो शुरू से ही थे. तभी तो पापा की साधारण कमाई के बावजूद तुम्हें उच्च शिक्षा के लिए शहर भेज दिया था. पापा की इच्छा के विरुद्ध जा कर मां ने तुम्हारी इच्छा पूरी की थी. तुम भी वह बात भूले नहीं होंगे कि मां ने अपनी बात मनवाने के लिए
2 दिन खाना नहीं खाया था. जब तुम्हारा दाखिला मैडिकल कालेज में हुआ था तो मैं ने अपनी सारी सखियों को चिल्ला कर इस के बारे में बताया था और मुझे उन की ईर्ष्या का शिकार भी होना पड़ा था. एक ने तो चिढ़ कर यह भी कह दिया था कि तुम तो ऐसे खुश हो रही हो जैसे तुम्हारा ही दाखिला हुआ हो, जिस का उत्तर मैं ने दिया था कि मेरा हो या मेरे भैया का, क्या फर्क पड़ता है. है तो दोनों में एक ही खून. भैया क्या मैं ने गलत कहा था?  ‘‘फिर तुम होस्टल चले गए थे और जबजब आते थे, मैं और मां सपनों के सुनहरे संसार में खो जाती थीं. सपनों में मां देखती थीं कि तुम एक क्लीनिक में बैठे हो और तुम्हारे सामने मरीजों की लंबी लाइन लगी है. तुम 1-1 कर के सब को परामर्श देते और बदले में वे एक अच्छीखासी राशि तुम्हें देते. शाम तक रुपयों से दराज भर जाती. तुम सारे रुपए ले कर मां की झोली भर देते. तुम बातें ही ऐसी करते थे, मां सपने न देखतीं तो क्या करतीं?
‘‘और मैं देखती कि मैं सजीधजी बैठी हूं. एक बहुत ही उच्च घराने से सुंदर, सुशिक्षित वर मुझे ब्याहने आया है. तुम अपने हाथों से मेरी डोली सजा रहे हो और विदाई के वक्त फूटफूट कर रो रहे हो.
‘‘पिताजी हमें अकसर सपनों से जगाने की कोशिश करते रहते थे पर हम मांबेटी नींद से उठ कर आंखें खोलना ही नहीं चाहती थीं, क्योंकि तुम अपनी मीठीमीठी बातों से ठंडी हवा के झोंके जो देते रहते थे.
‘‘मां ने साथसाथ तुम्हारी शादी के सपने देखने भी शुरू कर दिए थे. उन्हें एक सुंदरसजीली दुलहन, आंखों में लाज लिए, घर के आंगन में प्रवेश करते हुए नजर आती थी. मां का पद ऊंचा उठ कर सास का हो जाता था और घर उपहारों से उफनता सा नजर आता था.
‘होस्टल से आतेजाते मां तुम्हें तरहतरह के पकवान बना कर खिलाती भी थीं और बांध कर भी देती थीं. पता नहीं ये सब करते समय मां में कहां से ताकत व हिम्मत आ जाती थी वरना तो सिरदर्द की शिकायत से पूरे घर को वश में किए रखती थीं.
‘‘सपने पूरे होने का समय आ गया था. तुम ने अपनी डिगरी हासिल कर ली थी और होस्टल छोड़ कर घर आने की तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक तुम्हें एक प्रस्ताव मिला. प्रस्ताव एक सहपाठिन के पिता की ओर से था- विवाह का. तुम ने मां को बताया. मां को अपने सपने दूनी गति से पूरे होते नजर आने लगे. मां ने सहर्ष हामी भर दी. मैं आज तक नहीं समझ पाई कि मां ने स्वयं को इतनी खुशहाल कैसे समझ लिया था. इठलातीइतराती घरघर समाचार देने लगीं कि डाक्टर बहू आएगी हमारे घर.
‘‘तुम्हारा विवाह हो गया. अब सब को मेरे विवाह की चिंता सताने लगी थी. मां बहुत खुश थीं. उन्होंने जो थोड़ाबहुत गहने मेरे लिए बनवाए थे उन्हें दिखाते हुए तुम से कहा था कि बेटा इतना तो है मेरे पास, कुछ नकद भी है, तू कोई अच्छा वर तलाश कर बाकी इंतजाम भी हो जाएगा. अब तू यहां रहेगा तो क्या चिंता है. समाज में मानप्रतिष्ठा भी बढ़ेगी और आर्थिक समृद्धि भी आएगी.
‘‘सब कुछ ठीक चल रहा था कि एक दिन भाभी ने घोषणा कर दी कि अभी यहां क्लीनिक खोलने से लाभ नहीं है. इतना पैसा तो है नहीं आप लोगों के पास कि सारी मशीनें ला सकें. नौकरी करना ही ठीक रहेगा. मेरे पिताजी ने हम दोनों के लिए सरकारी नौकरी देख ली है, हमें वहीं जाना होगा.
‘‘और तुम चले गए थे. उस के बाद तुम जब भी आते तुम्हारे साथ भाभी की फरमाइशों व शिकायतों का पुलिंदा रहता था पर पापा की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि वे अब तुम्हारी सभी इच्छाएं पूरी कर पाते. उन्हें अन्य भाईबहनों की भी चिंता थी. भैया उन दिनों मैं ने तुम्हारे चेहरे पर परेशानी व विवशता दोनों का संगम देखा था. तुम्हारी मुसकराहट न जाने कहां गायब हो गई थी. हर वक्त तनाव व चिड़चिड़ाहट ने तुम्हारे चारों ओर घेरा बना लिया था. भाभी को मां गंवार, मैं बोझ और पापा तानाशाह नजर आने लगे थे. तुम ने बहुत कोशिश की कि मां कुछ ऐसा करती रहें कि भाभी संतुष्ट रहे, परंतु न मां में इतनी सामर्थ्य थी, न ही भाभी में सहनशक्ति. धीरेधीरे तुम भी हमें भाभी की निगाहों से देखने लगे थे. कुछ तुम्हारी मजबूरी थी, कुछ तुम्हारा स्वार्थ. एक दिन तुम ने मां से कहा कि मां, मुझे दोनों में से एक को चुनना होगा, आप सब या मेरा निजी जीवन.
‘‘मां ने इस में भी अपना ममत्व दिखाया और तुम्हें अपने बंधन से मुक्त कर के भाभी  के सुपुर्द कर दिया ताकि तुम्हारा वैवाहिक जीवन सुखमय बन सके.
‘‘उस दिन के बाद तुम यदाकदा घर तो आते थे पर एक मेहमान की तरह और अपनी खातिरदारी करवा कर लौट जाते थे. पापा ने मेरा रिश्ता तय कर दिया और शादी भी. इसे मेरा विश्वास कहो या नादानी अभी भी मुझे यही लगता था कि यदि तुम मेरे लिए वर ढूंढ़ते तो पापा से बेहतर होता और मैं कई दिनों तक तुम्हारा इंतजार करती भी रही थी. पर तुम नहीं आए. शादी के वक्त तुम थे परंतु सिर्फ विदा करने के लिए. सीधेसादे पापा ने अपने ही बलबूते पर सभी भाईबहनों का विवाह कर दिया. करते भी क्या. घर का बड़ा बेटा ही जब धोखा दे जाए, हिम्मत तो करनी ही पड़ती है.
‘‘मैं पराई हो गई थी. जब भी मैं मां से मिलने जाती मां की सूनी आंखों में तुम्हारे इंतजार के अलावा और कुछ नजर नहीं आता था. मां मुझ से कहतीं कि एक बार भैया को फोन मिला कर पूछ तो सही कैसा है, वह घर क्यों नहीं आता. कहो न उस से एक बार बस एक बार तो मिलने आए. तुम ने घर आना बिलकुल बंद कर दिया था. पापा पुरुष थे, उन्हें रोना शोभा नहीं देता था, परंतु मायूसी उन के चेहरे पर भी झलकती थी. मां के पास सब कुछ होते हुए भी जैसे कुछ नहीं था. तुम मां के लाड़ले जो चले गए थे मां से रूठ कर. पर मां को अपना दोष कभी समझ नहीं आया. वे अकसर मुझ से पूछतीं कि क्या मुझे उसे पढ़ने बाहर नहीं भेजना चाहिए था या मैं ने उस का यह रिश्ता कर के गलती की? अंत में यही परिणाम निकलता कि सारा दोष मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखना ही था. सिर्फ खर्चा और कुछ न मिलने की आस से ही यह हुआ था.
‘‘पापा ने आस छोड़ दी थी पर मां के दिल को कौन समझाता? पापा से छिपछिप कर अपनी टूटीफूटी भाषा में तुम्हें चिट्ठी लिख कर पड़ोसियों के हाथों डलवाती रहती थीं और उन की 5-6 चिट्ठियों का उत्तर भाभी की फटकार के रूप में आता था कि हमें परेशान मत करो, चैन से जीने दो.
‘‘मां का अंतिम समय आ गया था. पर तुम नहीं आए. तुम से मिलने की आस लिए मां दुनिया छोड़ कर चली गईं और किसी ने तुम्हें भी खबर कर दी. तुम आए तो सही पर अंतिम संस्कार के वक्त नहीं, क्योंकि शायद तुम्हें यह एहसास हो गया था कि अब मैं इस का हकदार नहीं हूं.
‘‘जीतेजी मां सदा तुम्हारा इंतजार करती रहीं और मरते वक्त भी तुम्हारा हिस्सा मुझ से बंधवा कर रखवा गई हैं, क्योंकि वे मां थीं और मैं ने भी उन्हें मना नहीं किया, क्योंकि मैं भी आखिर बहन हूं पर तुम न बेटे बन सके न भाई.
‘‘भैया, क्या इनसान स्वार्थवश इतना कमजोर हो जाता है कि हर रिश्ते  को बलि पर चढ़ा देता है? तुम ऐसे कब थे? यह कभी मत कहना ये सब भाभी की वजह से हुआ है, क्या तुम में इतना भी साहस नहीं था कि  अपनी इच्छा से एक कदम चल पाते? यदि  तुम्हारे जीवन में रिश्तों का बिलकुल ही महत्त्व नहीं है, तो मेरी राखी न मिलने पर विचलित क्यों हो जाते हो? और किसी न किसी के हाथों यह खबर भिजवा ही देते हो कि अब की बार राखी नहीं मिली.
‘‘भैया, क्या सिर्फ राखी भेजने या बांधने से ही रक्षाबंधन का पर्व सार्थक सिद्ध हो जाता है? क्या इस के लिए दायित्व निभाने जरूरी नहीं? आज 25 साल हो गए. इस बीच न तो तुम मुझ से मिलने ही आए और न ही मुझे बुलाया. इस बीच मेरे द्वारा भेजी गई राखी एक नाजुक सेतु की तरह थी जोकि अब टूटने की कगार पर है, क्योंकि अब मेरा विश्वास व इच्छाशक्ति दोनों ही खत्म हो गए हैं.
‘‘भैया, बस तुम मुझे एक बात बता दो कि यदि हम बहनें न होतीं तो क्या तुम मम्मीपापा को छोड़ कर नहीं जाते? क्या तुम्हारे पलायन का कारण हम बहनें थीं? हम तुम्हें कैसे विश्वास दिलातीं कि हम तुम से कभी कुछ अपेक्षा नहीं रखेंगी, तुम एक बार अपनी विवशता कहते तो सही. हो सके तो इस राखी को मेरी अंतिम निशानी समझ कर संभाल कर रख लेना, क्योंकि मेरे खयाल से तुम्हारे दिल में न सही, घर में इतनी जगह तो होगी.
भैया सच मानो आज इस सावन मे राखी भेजते समय  मै बार बार सोच कर इस निर्णय पर पहुँची हो कि तुम्हारे लिये भले ही ये रिश्ता शायद औपचारिकताओं से लिपटा दो धागे का हो पर मेरे लिये मेरे संस्कारों मे पिलायी गई घूंटी की तरह एक विश्वास का है कि मेरा भाई हर मुसीबत मे मेरी रक्षा करेगा, पर यह मेरा झूठा  विश्वास भी शायद तुम्हारे लिये बोझ न बन जाये इस लिये बहुत सोच समझ कर तुम्हे आज इस बोझ से मुक्त करती हूँ, शायद मै अपने हाथों से ये सारी बात तुम्हे नही लिख पाती पर सफेद कागज पर टाईप होते ये काले अक्षर मेरे मन के बोझ को इस बरसात मे बरसते हुये पानी की तरह अच्छी तरह महसूस करते है,इस बरसात मे मै तुम्हारे व खुद के इस बोझिल रक्षा बंधन के रिश्ते को विसर्जित कर रही हूँ .
तुम्हारी बहन
छोटी ’’
       चिट्ठी लिखवातेलिखवाते वह महिला उत्तेजना व भावनावश कांपने लगी, पर उस की आंखों से आंसू नहीं छलके. शायद वे सूख चुके थे, पर टाइप करने वाले लड़के की आंखें नम हो गई थीं.  काम पूरा हो गया था. उस महिला ने लड़के से कहा, ‘‘तुम इस की एक प्रतिलिपि निकाल कर मुझे दे दो ताकि मैं यह संदेश अपने भैया तक पहुंचा सकूं. मै जानती हूँ मेरा भैया ऐसा नही है बस उसमे आत्मविश्वास व आत्मनिर्णय की कमी है, वह आज भी मुझे बहुत चाहता है पर आज बड़े आदमी से और बड़े आदमी बनने की उसकी ईच्छा ने हम सब के साथ के रिश्तो को छोड़ दिया है.  25 वर्षों बाद मैं यह सब लिखने का साहस कर पाई हूं. मैं सदा छोटी बहन बन कर ही रही. पर आज इस रिश्ते का विसर्जन कर मै अपने भैया को इस झूठे दायित्व से मुक्त कर रही हूँ, साथ ही अपनी मॉ के पीड़ा व दु:ख को महसूस कर पा रही हूँ, रिश्तो का यह विसर्जन मेरी अपनी मां को मेरी अंतिम श्रद्धांजलि है जो दुखी और अपन् डाक्टर बेटे के प्रति अपने अगाध प्यार को अपने सीने में दबाए इस दुनिया से विदा हो गईं, उस से उन्हें कुछ राहत मिल सके.’’
         वह महिला जा चुकी है, बरसात भी बंद हो चुकी है पर साईबर कैफे के उस टाईपिस्ट लड़के की ऑखें लगातार ऑसू बरसा रही है. वह रिश्तो के अपनापन वाली मिठास को भौतिकता व स्वार्थ के खारे समुंदर मे विसर्जित होने इस पूरे घटनाक्रम का हिस्सा बना हुआ रिश्तो के गुणा गणित को समझने मे खुद केो असमर्थ पा रहा है. मोबाईल की घंटी बजते ही वह नाम देख के तुरंत ऑखों के ऑसू पोंछ  काल लेता है, " हॉ छोटी, मै राखी वाले दिन सुबह ही आ जाऊगॉ,....... हॉ रे पूरे दिन तेरे ‘ साथ रहूगॉ, फिल्म देखने चलेगें......हॉ,  तबियत ठीक है, ..... अरे नही आवाज भारी नही है, ....वो तो बस हल्का जुकाम हो गया था. ..... हॉ अभी भींग गया था न बारिस में...........हॉ, सब ठीक है, चल राखी को मिलते है, बाय..."
वो फिर अपने ऑसू पोंछता हुआ मोबाईल रखते हुये इधर उधर देखता है कि कोई उसको देख तो नही रहा.
         मै बगल के क्यूबिक मे बैठा अपना मेल चेक करता हुआ पूरा घटनाक्रम देख सुन के खुद को भी भौतिकवादी सोच, पैसे व रिश्तों के इस गणित को सोचने समझने का प्रयास कर रहा हूँ, मेरी ऊंगलियो गालो पर कुछ नमी का अहसास पा वहॉ तक चली जाती है, तब पता चलता है कि बगल वाले क्यूबिक मे हुये घटनाक्रम से मेरे ऑखों से भी बरसात होने लगी है. पर सच कहूँ दिल को देर तक नम कर देने वाली बरसात मन को कहीं न कहीं बहुत सुकून दे रही है.
(बनारस,29 अगस्त 2017, मंगलवार)
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