गुरुवार, 3 नवंबर 2016

जीवन का यथार्थ भीड़ मे अकेलापन : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 02 नवंबर 2016 बुधवार

जीवन का यथार्थ भीड़ मे अकेलापन : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 02 नवंबर 2016 बुधवार

                    हजारों की भीड़ में चलता मानव, आज एक अकेला सा ही चला जा रहा है, इसका अनुभव कभी भी किया जा सकता है। कहने को कह सकते है, आप अपने आप को अकेला, न समझे, हम आपके साथ है। पर, हकीकत में क्या ऐसा होता है ? आइये आज इसी दृष्टिकोण पर कुछ चिंतन करते है। सर्व प्रथम हम भारत की संस्कृति पर जरा गौर करते है, जिसमे हमारे पूर्वजों ने इस अकेलेपन के दर्द को बड़ी सहजता से समझा, और कई तरह के उपाय से इसे कम करने की चेष्टा की, दोस्ती, सम्बन्ध, परिवार और समाज में कोई भी इससे ज्यादा प्रभावित नहीं हो, इसका ख्याल रखा गया। उस समय के चिंतक भी सभी को यही हिदायत देते, “सर्व सुखाय, सर्व हिताय” यानी सबका हित ही सबका सुख हो सकता है। एक का हित और दूसरे का दुःख कम ही स्वीकार्य होता, और इस विचारधारा को नगण्य समर्थन मिलता। आज कि स्थिति के सन्दर्भ में इतना ही कहा जा सकता है, यह चिंतन भारतीय संस्कृति की अब सिर्फ विरासत ही है। आखिर ऐसा क्यों हुआ, अचानक हमारी सामाजिक चेतना से यह चिंतन क्यों विलुप्त हो रहा ? ऊपरी सतह से देखे, तो समय कि कमी और अर्थ की बढ़ती जरूरत ने आदमी की आत्मिक चेतना को निष्क्रिय कर दिया है, परन्तु इसे पूर्ण सत्यता का दर्जा हम नहीं दे सकते। अर्थ का महत्व कब नहीं था ?, रही समय की कमी, वो भी कैसे मानले, पहले भी जितने घण्टे के दिन रात थे, आज भी उतने के ही है। फिर आखिर क्या हुआ, आदमी अकेलेपन का अहसास क्यों कर रहा है, आजकल ? क्यों वो प्रेम की इतनी बाते करते हुए भी किसीका दर्द बांटने में असफल है ? सवाल संजीदगी से ओतप्रोत है, निश्चय ही उत्तर इतने आसानी से कैसे मिल सकता है ?
         ज्यादातर विचारक इसका उत्तर शायद यही देना चाहेंगे कि “मनुष्य का अति भोगवादी संस्कृति के प्रति हर दिन झुकाव बढ़ रहा है, वो इस जीवन के आगे सोचने की बात से कतरा रहा है, हकीकत में अपनी कमजोरियों को ही वो शक्ति समझ रहा है। भूल रहा है, कि समय का जो गलत प्रयोग वो कर रहा है, उसके कारण वो अपनों से भी निरस्त किया जा रहा है”। शायद उनके विचारों से हम कम ही सहमत हो, परन्तु उनकी इस बात में तो दम नजर आ रहा कि आदमी खुद से ही निरस्त हो रहा है, इसका ताजा उदाहरण आज के बिखरते परिवारों में बुजर्गो की दशा पर गौर करने से हमे मिल सकता है। शारीरक शक्ति का क्षय उम्र के अनुसार कम होना लाजमी है, परन्तु उनका मानसिक रुप से कमजोर होना, हर मानव के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि बुढ़ापा तो एक दिन सबके दरवाजे पर दस्तक देगा ही। समय की परख को झुठलाना आसान नहीं हो सकता, चाहे हम आज इसकी परवाह करे या नहीं। आज की नई पीढ़ी कितनी ही सफलता अपने खाते में जमा कर ले, परन्तु एक दिन तो उसे उस सहारे की तलाश जरुर होगी, जिसकी सेवा में प्रेम का अहसास हो। समझने की बात है, अर्थ और साधन जीवन को कुछ लम्बा कर सकते है, परन्तु उस सुख की अनुभूति तो अपनत्व में ही मिलेगा, जो दर्द का अहसास कम कर देता है। कुछ लोगों का चिंतन है, जीवन में सफलता पाने के लिए अकेलापन जरुरी है। कुछ क्षेत्र, कुछ विषयों को छोड़ कर यह भी सच नहीं है, तपस्या एक ऐसा क्षेत्र है, जहां नितांत अकेलापन आवश्यक बताया गया। तपस्या के नियम और विधान एक मनुष्य के लिए होते है, यह ठीक भी है, परन्तु उससे पानेवाला ज्ञान मानव को ही अर्पित किया जाता है। इस बात का पुष्टिकरण करने के लिए भगवान महावीर, बुद्ध, गुरु नानक, ईशा मसीह जैसे तपस्वियों की जीवनी पढ़ कर सकते है।
        हम भारतीय सन्दर्भ में ही अकेलेपन की चर्चा कर रहे है, उसी के अनुरुप हमारा आज से कुछ सालों पहले का जीवन और अभी के जीवन से तुलना करे तो शायद यह बात हमारी समझ में आ जानी चाहिए कि पिछले पाँच दसक का जीवन ज्यादातर गांव की गलियों के प्रेममय और संस्कारों से ओतप्रोत परम्परागत परिवारों में पलता था। फर्क इतना ही रहा, उस समय अर्थ और साधनों की कमी नजर आती, परन्तु संस्कारों की नहीं। बच्चों को पड़ोसी तक खिला सकता था, परन्तु आज हाथ लगाने में भी संकोच होता है। ज्यादातर बच्चे आया की गोद में ही खेलते है, माँ बाप तो इतनी ही देख रेख करते है, आया ठीक काम कर रही है, ना। सही भी है, आनेवाले एकाकी युग की ट्रेंनिग अभी से मिल जाए, तो अकेलापन समस्या नहीं रहेगा।
            पहले के जीवन और अभी हम जो जी रहे, उसकी तुलना करना सही नहीं है, पर जीवन है, तो हर दृष्टिकोण को नापना भी जरुरी है। आज योग की कितनी जरुरत हो गयी, जो की एक पुरानी पद्धति है। आखिर मानना तो पड़ेगा ही सोने की चमक कभी खत्म नहीं हो सकती। तब यह भी मानना होगा की मानव को आपसी सहयोग और अपनत्व की भी फिर जरुरत होगी। हंसने के लिए इंसानो में ही रहना होगा, हाँ रोने के लिए अकेलापन अच्छा है। चिंतन करे, सफलता सुंदर होती है, पर जब सत्य के साथ साथ चलती है। आँखों पर पट्टी बाँध स्वर्ग की कल्पना तो की जा सकती है, पर देखना मुश्किल ही होता है।

मंगलवार, 1 नवंबर 2016

केवल शपथ लेने से शहर स्मार्ट नही बनेगा : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 01नवंबर 2015 रविवार

केवल शपथ लेने से शहर स्मार्ट नही बनेगा क्योंकि शपथ लेना इस देश मे सबसे आसान है।
   हमारी बात बुरी लग सकती है पर बात वैसे ही है जैसे हम गंगा की सफाई की बात बिसलेरी पी के करते हैं। एसी होटलो व हाल मे बैठ कर स्मार्ट सिटी के प्रारूप को नही समझा जा सकता। हमे बनारस की अतिक्रमण, गंदगी, चरमराती यातायात व्यवस्था और एक दूसरे पर लदे, चीखते चिल्लाते, दोषी बताते परेशीन हाल लोगो की समस्याओं को लेकर व्यापक नजरिये से स्मार्ट बनारस के संभावनाओं को देखना होगा।
     स्मार्ट सिटी बनने पर भोजूबीर, चंदुआ, चेतगंज , विसेसरगंज, दशासमेध, पक्कीबाजार, सरैया की सट्टीयॉ कहॉ जायेगी? ऐसा नही है कि उन्हे पूर्व मे स्थानान्तरित करने के प्रयास नही हुये। हुये पर उनमे ईमानदारी नही थी। लिहाजा सट्टी के जगह अ धिकारी स्थानान्तरित तो हो गये पर सट्टीयॉ ज्यो की त्यों बरकरार है।
     वही हाल अतिक्रमण का हुआ । कुछेक दृढ़ ईच्छा शक्ति वाले आये उनका प्रयास सार्थक भी हुआ पर उनके जाते ही वही ढाक के तीन पात।
          बनारस नगरनिगम से ये सवाल पूछा जाना चाहिये कि पिछले दो सालो मे कितनी बार उनकी हल्लागाड़ी कहॉ कहॉ कब कब चली और कितने अतिक्रमणकारियो के विरूद्ध का्यवाही की गयी?
     हर नये पुलिस कप्तान चार्ज लेते ही घोषणा करते है कि अतिक्रमण पाये जाने पर थानाप्रभारी जिम्मेदार होगें उन्हे पैदल कर के पुलिसलाईन भेज दिया जायेगा। हमे तो याद नही कि पिछले दस सालों मे अतिक्रमण कराने व अतिक्रमण न हटाने के आरोप मे किसी पुलिसवाले को बुला के पूछा भी गया हो।
        एसपी ट्रैफिक साब आज तक परेशान है कि जब परमिट सात हजार आटो की है तो शहर मे बीस हजार आटो कैसे चल रहे हैं। सर जी ये तो आपको शहर के इन्ट्री लाईन पर खड़ा होमगार्ड व उसका चेलवा भी बता देगा। आप ईमानदारी से  पूछ के तो देखिये।
   रोडवेज तो आज तक यह ही नही समझ पाया कि जेएनएनयूआर एम की बसें उसे शहर मे चलानी है कि शहर के बाहर?
       बिजली विभाग के अधिकारी कहते है कि यहॉ हर ट्रॉसफार्मर पर ओवरलोड है क्योकि बिजलीचोरी होती है। अब आपके आला अफसरान चोरी पकड़ने को  छापा नही डालेगें तो साहब हम तो आपके यहॉ आकर ये कहने से रहे कि हूजूर हम बिजलीचोरी करते हैहमे सम्मानित कर दो।
      आजकल बड़े बड़े अखबारों मे विग्यापनो सेजो जगह बच रही है उस पर स्मार्ट सिटी के शपथ कार्यक्रम की खूब चर्चा हो रही है पर इस बात पर कभी चर्चा नही हुई कि
शहर के कितने नर्सिगहोमो के पास पार्किग है? उनका मेडिकल वेस्टेज कहॉ निस्तारित होता है? उनके द्वारा कुछ विशेष पैथालाजी लैबो को ही क्यों तवज्जो दी जाती है? लगभग हर नर्सिग होम मे खुले हुये कितने दवा के दुकानो के पास लाईसेंस है और उन पर कितने फार्मेसिस्ट कब कब बैठते है?
        क्या कभी इस बात पर चर्चा हुई कि शहर मे प्रेस लिखी गाड़ी धारकों मे से कितने के पास प्रेस कार्ड है? प्रेस कार्ड पाने के लिये क्या अर्हता जरूरी है? प्रेस के नाम का दुरूपयोग करने वाले कितने लोगों के विरूद्ध पिछले पॉच सालो मे क्या कार्यवाही की गयी? और उस कार्यवाही मे प्रेस की क्या भूमिका रही?
        क्या कभी इस बात पर चर्चा की गयी कि सुबहसुबह देश व शहर के मिजाज को लेकर उत्सुक शहरी पाठक को अखबारों मे समातारो से ज्यादा विग्यापनो को परोसने के पीछे क्या वजह है? क्या ये आम पाठक के साथ छल नही है?
        क्या कभी इस बात पर चर्चा हुई कि कचहरी मे अधिवक्ताओ के लिये पार्किग बनाये जाने के बावजूद उसे खाली छोड़ कर पूरे कचहरी परिसर व आसपास के जगह को गाड़ियों से जाम क्यो करदिया जाता है और प्रशासन के नाक के नीचेचल रहे अवैध पार्किग चलाने वालो के खिलाफ किसके शह पर कार्यवाही नही की जाती?
        कचहरी पर दाना भूजा पंचर की दुकानो को जमीदोज करने के बाद भी न्यायालय परिसर की जमीन पर बड़ा रेस्टोरेंट आज भी चल रहा है?
     क्या इस बात पर चर्चा नही होनी चाहिये कि यातायात नियमो के उलंघन पर  गाड़ियो के चालान मे अब तक कुल कितने पुलिस लिखी गाड़ियो का, बिना कागज के गाड़ियॉ चला रहे , बिना हेलमेट पहने  व ट्रिपलिंग कर रहे पुलिस वालो का इस शहर मे कितनी बार चालान हुआ?
     क्या इस बात पर चर्चा नही होनी चाहिये कि न्यायालयो के आदेश के बावजूद वाराणसी विकास प्राधिकरण ने शहर के घनी बस्तियों, स्कूलों व अस्पतालो पर से विकरण फैला रहे कुल कितने  मोबाईल कंपनी के टावरों को आज तक हटवाया?
       क्या इस बात पर चर्चा नही होनी चाहिये कि कुण्ड पोखरो मे मुर्तियो को विसर्जित करने के बाद वहॉ मर रही मछलियो को देखने बचाने नगरनिगम व जिला प्रशासन के जिम्मेदार अधिकारी वहॉ जाकर समस्या के समाधान का प्रयास किये?
      गंगा, रेलवे, हवाईजहाज कूड़ा निस्तारण, फोरलेन, सीवर ट्रीटमेण्ट पर बड़ो को ही चर्चा करने दिया जाय तो भी इस शहर की मौलिक समस्यायें है जिन पर चर्चा होना  जरूरी है बिना इन को ध्यान दिये शहर स्मार्ट नही बन सकता।
       इस शहर की जो सबसे बड़ी खासियत है वह हर नयेपन को खुले मन से स्वीकार करने की है। बस जरूरत है ईमानदारी के प्रयास की। हम बनारसियो ने भूरेलाल का भय खाया तो हरदेव सिंह को बाबा कहा। अजय मिश्र को सलाम किया तो प्रॉजल को दिल से सराहा।
हूजूर हम आपके साथ है बस आप ईमानदारी व साहस भरा दो कदम हमारी ओर चल के तो देखें। हम आपके साथ साथ चलेगें और स्मार्ट बनारस बना के दम लेगें।
         जहॉ तक शपथ व चर्चा की बात है वह अखबारों मे ही अच्छी लगती है। असली व ईमानदारी का काम कागजों पर नही जमीन पर होता है।

रविवार, 30 अक्तूबर 2016

दीवाली की बातें :व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 29 अक्टूबर 2016)

अपना ऑगन कुछ कहता है : दीवाली की बातें (व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 29 अक्टूबर 2016)

जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं,
एक दिया वहाँ भी जलाना;
जाना, फिर जाना,
एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है,
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है,
एक दिया उस घर में -
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं,
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है,
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है,
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है,
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दिया इस चौखट,
एक दिया उस ताखे,
एक दिया उस बरगद के तले जलाना,
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना!
                                - केदारनाथ सिंह

            आज छोटी दीवाली है। सॉझ जब टहल कर यूपी कालेज से आ रहा था, तो घूरे पर यम का दीया जल चुका था। वैसे तो अब घूर दिखते ही नही, तो लोगों ने अपने घर के दरवाजे पर ही यम का दीया निकाल दिया है। कहीं-कहीं नगरनिगम के कृपा या लापरवाही जो भी कह लें कूड़ा दिख जाता है पर उनके बजबजाते बदबू मे अपने घर के पिछवाड़े वाले घूरे की बात नही. हवा में एक बारूदी महक फैली है, और सड़कों पर हल्की से लेकर तेज आवाज वाले बम पटाखे चलाते बच्चे। घर पहुँच कर टीवी खोलते ही अपने एक जवान के शहीद होने की खबर , मन कहीं विचलित हो जाता है और दूर पीछे कहीं गॉव मे जा कर भटकने लगता है। पिछले रविवार को गॉव गया था। खुद से घर का ताला खोल कर अंदर जाने पर एक उदासी भरा सन्नाटा। ऑगन मे फैली हुई सूखी उड़ कर आई नीम की पीली सुनहली पत्तियॉ, चारो कोने मे उग आये खर पतवार और अंदर कमरों मे सिंकसिकाये से सीढ़न लगे बिस्तर। मॉ की तबियत खराब होने से पिछले पॉच छह महीनों से गॉव वाले घर में ताला बंद है। बाड़े मे सूरन बोया गया था , सोचा थोड़ा खोद लूँ तो दीवाली पर काम आयेगा। बाड़ा भी झाड़ झंखाड़ खर पतवार से भरा था। थोड़ी साफ सफाई कर फरसा चलाना शुरू किया तो अगल बगल के कुछेक बच्चे व चाहने वाले आ गये। बात चीत शुरू हुई। तभी बगल के बच्चे लौटन ने बताया कि कहीं से तीन सेंहुआर गॉव मे आ गये है और वे सब मेरे बाड़े मे खूब धमाल मचाते है, सोचा कि जब लोग बाग नही रहेगें तो सेन्हुआर ही धमाल मचायेगें। खाली हो के गॉव मे निकला तो लगभग पूरे गॉव मे अपने घर जैसे ही स्थिति देखने को मिली। ज्यादातर लोग रोटी रोजगार, पढ़ाई दवाई के जरूरतो के कारण बनारस, दिल्ली, लखनऊ, मुंबई मे बस गये है। दिल्ली, मुंबई व दूर वाले तो साल छमाही गॉव आ जाते है पर बनारस वाले जिन्होने अपना मकान बनवा लिया है वे बनारस के ही हो कर रह गये है। हर घर का कमोबेस यही हालत है। घर के आगे दुआर, व दुआरे पर बंधी हुई गाय बस फिल्मो मे देखने मे आती है। पगडण्डियॉ अब खडंजा व इंटरलाक में तब्दील हो गयी है। अब वे कुहॉसे मे नही डूबती बल्कि बिजली के खंभों पर जल रहे लट्टूओं से प्रकाशवान रहती है. गॉव अब बाहर वाले रोड पर खुले मधुशाला के नये ठीके के चलते देर रात तक गाली गलौज से गुलजार रहता है। गगरी बस माता मैय्या के पूजे पर शुभ के लिये रखी जाती है। लोहे व अल्यूमुनियम के साथ प्लास्टिक के बाल्टी व ड्रम ने गगरी के रखने के निसान वाले गड्ढों को ढक लिया है। कुँओ पर अब रस्सी के बजाय वाटर पंपो के पाईप व तार नजर आते है। अब आपस मे मिलने पर जयरम्मी व बंदगी के मीठे प्यारे बोलों के बजाय हाथ मे दबे मोबाईल के हैलो ने ले लिया है। मैदान मे कबड्डी व सुटुरिया पटर के पहाड़े नही सुनाई पड़ते न ही मैदान मे अब बच्चो की तूतू मैमै सुनने को मिलती है। हॉ इसके बजाय वे बच्चे शाम को टीवी डिस के पास बैठे मिलते है।
गॉव का चौबारा कहीं खो गया है , बरगद भी सूखने लगा है। मै बार बार अपना गॉव ढूढ़ना चाहता हूँ पर वो लगता है कि शहरों के चकाचौंध से प्रभावित हो के कहीं खो गया है।
मै फिर से एक दीया जलाना चाहता हूँ पर घर के ऑगन का तुलसी का बिरवा, पियरी की चन्नी, झबरा का दरबा ,गॉव का शिवाला, चौरा माई का देवथान,सब तीतर बीतर हो गये है। गॉव का चौघट्टा, सीवान, मैदान ,चौबारा सब हम लोगो  के साथ साथ अपना स्वरूप व स्वभाव बदल चुके है। कैसे दीया जले और कैसे मन का कलुष मिटे?
      बारूदी गंध, टीवी की बोझिल खबरों व बम पटाखों के शोर शराबे मे मेरे ही समान यूपीकालेज के ही पुराने छात्र रहे डॉ० केदार नाथ सिंह की शायद इसी मनस्थिति मे लिखी कविता बार बार याद आ रही है। मन कहीं न कहीं गॉव की शांत ज्योतिमय दीवाली को खोज रहा है ऐसे मे एक नये मित्र का फोन आया कि रात मे आईये पत्तों के साथ बढ़ियॉ प्रोग्राम है। मैने क्षमा याचना किया कि भाई हमे तो पत्ते खेलने ही नही आते। इस पर उन्होने उपहास उड़ाते हुये कहा" क्या वकील साहब, आप भी किस युग मे जीते है। पत्ते नही खेलने पर अगला जनम छछुंदर का होगा।" मै क्या जबाब देता पर अब यह सोच रहा हूँ कि अगर दीवाली पर मन का कलुष न मिटा पाये , किसी गरीब जरूरतमंद के होठों पर मुस्कान नही ला पाये और अपने गॉव के उस अपनापन भरे त्यौहार के बजाय शहर के इस दिखावटीपन के चकाचौंध मे अपने ऑगन मे उजियाला न फैला सके तो हमे छंछुदर का जनम ही सहज रूप से स्वीकार है।
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