जीवन का यथार्थ भीड़ मे अकेलापन : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 02 नवंबर 2016 बुधवार
हजारों की भीड़ में चलता मानव, आज एक अकेला सा ही चला जा रहा है, इसका अनुभव कभी भी किया जा सकता है। कहने को कह सकते है, आप अपने आप को अकेला, न समझे, हम आपके साथ है। पर, हकीकत में क्या ऐसा होता है ? आइये आज इसी दृष्टिकोण पर कुछ चिंतन करते है। सर्व प्रथम हम भारत की संस्कृति पर जरा गौर करते है, जिसमे हमारे पूर्वजों ने इस अकेलेपन के दर्द को बड़ी सहजता से समझा, और कई तरह के उपाय से इसे कम करने की चेष्टा की, दोस्ती, सम्बन्ध, परिवार और समाज में कोई भी इससे ज्यादा प्रभावित नहीं हो, इसका ख्याल रखा गया। उस समय के चिंतक भी सभी को यही हिदायत देते, “सर्व सुखाय, सर्व हिताय” यानी सबका हित ही सबका सुख हो सकता है। एक का हित और दूसरे का दुःख कम ही स्वीकार्य होता, और इस विचारधारा को नगण्य समर्थन मिलता। आज कि स्थिति के सन्दर्भ में इतना ही कहा जा सकता है, यह चिंतन भारतीय संस्कृति की अब सिर्फ विरासत ही है। आखिर ऐसा क्यों हुआ, अचानक हमारी सामाजिक चेतना से यह चिंतन क्यों विलुप्त हो रहा ? ऊपरी सतह से देखे, तो समय कि कमी और अर्थ की बढ़ती जरूरत ने आदमी की आत्मिक चेतना को निष्क्रिय कर दिया है, परन्तु इसे पूर्ण सत्यता का दर्जा हम नहीं दे सकते। अर्थ का महत्व कब नहीं था ?, रही समय की कमी, वो भी कैसे मानले, पहले भी जितने घण्टे के दिन रात थे, आज भी उतने के ही है। फिर आखिर क्या हुआ, आदमी अकेलेपन का अहसास क्यों कर रहा है, आजकल ? क्यों वो प्रेम की इतनी बाते करते हुए भी किसीका दर्द बांटने में असफल है ? सवाल संजीदगी से ओतप्रोत है, निश्चय ही उत्तर इतने आसानी से कैसे मिल सकता है ?
ज्यादातर विचारक इसका उत्तर शायद यही देना चाहेंगे कि “मनुष्य का अति भोगवादी संस्कृति के प्रति हर दिन झुकाव बढ़ रहा है, वो इस जीवन के आगे सोचने की बात से कतरा रहा है, हकीकत में अपनी कमजोरियों को ही वो शक्ति समझ रहा है। भूल रहा है, कि समय का जो गलत प्रयोग वो कर रहा है, उसके कारण वो अपनों से भी निरस्त किया जा रहा है”। शायद उनके विचारों से हम कम ही सहमत हो, परन्तु उनकी इस बात में तो दम नजर आ रहा कि आदमी खुद से ही निरस्त हो रहा है, इसका ताजा उदाहरण आज के बिखरते परिवारों में बुजर्गो की दशा पर गौर करने से हमे मिल सकता है। शारीरक शक्ति का क्षय उम्र के अनुसार कम होना लाजमी है, परन्तु उनका मानसिक रुप से कमजोर होना, हर मानव के लिए चिंता का विषय होना चाहिए, क्योंकि बुढ़ापा तो एक दिन सबके दरवाजे पर दस्तक देगा ही। समय की परख को झुठलाना आसान नहीं हो सकता, चाहे हम आज इसकी परवाह करे या नहीं। आज की नई पीढ़ी कितनी ही सफलता अपने खाते में जमा कर ले, परन्तु एक दिन तो उसे उस सहारे की तलाश जरुर होगी, जिसकी सेवा में प्रेम का अहसास हो। समझने की बात है, अर्थ और साधन जीवन को कुछ लम्बा कर सकते है, परन्तु उस सुख की अनुभूति तो अपनत्व में ही मिलेगा, जो दर्द का अहसास कम कर देता है। कुछ लोगों का चिंतन है, जीवन में सफलता पाने के लिए अकेलापन जरुरी है। कुछ क्षेत्र, कुछ विषयों को छोड़ कर यह भी सच नहीं है, तपस्या एक ऐसा क्षेत्र है, जहां नितांत अकेलापन आवश्यक बताया गया। तपस्या के नियम और विधान एक मनुष्य के लिए होते है, यह ठीक भी है, परन्तु उससे पानेवाला ज्ञान मानव को ही अर्पित किया जाता है। इस बात का पुष्टिकरण करने के लिए भगवान महावीर, बुद्ध, गुरु नानक, ईशा मसीह जैसे तपस्वियों की जीवनी पढ़ कर सकते है।
हम भारतीय सन्दर्भ में ही अकेलेपन की चर्चा कर रहे है, उसी के अनुरुप हमारा आज से कुछ सालों पहले का जीवन और अभी के जीवन से तुलना करे तो शायद यह बात हमारी समझ में आ जानी चाहिए कि पिछले पाँच दसक का जीवन ज्यादातर गांव की गलियों के प्रेममय और संस्कारों से ओतप्रोत परम्परागत परिवारों में पलता था। फर्क इतना ही रहा, उस समय अर्थ और साधनों की कमी नजर आती, परन्तु संस्कारों की नहीं। बच्चों को पड़ोसी तक खिला सकता था, परन्तु आज हाथ लगाने में भी संकोच होता है। ज्यादातर बच्चे आया की गोद में ही खेलते है, माँ बाप तो इतनी ही देख रेख करते है, आया ठीक काम कर रही है, ना। सही भी है, आनेवाले एकाकी युग की ट्रेंनिग अभी से मिल जाए, तो अकेलापन समस्या नहीं रहेगा।
पहले के जीवन और अभी हम जो जी रहे, उसकी तुलना करना सही नहीं है, पर जीवन है, तो हर दृष्टिकोण को नापना भी जरुरी है। आज योग की कितनी जरुरत हो गयी, जो की एक पुरानी पद्धति है। आखिर मानना तो पड़ेगा ही सोने की चमक कभी खत्म नहीं हो सकती। तब यह भी मानना होगा की मानव को आपसी सहयोग और अपनत्व की भी फिर जरुरत होगी। हंसने के लिए इंसानो में ही रहना होगा, हाँ रोने के लिए अकेलापन अच्छा है। चिंतन करे, सफलता सुंदर होती है, पर जब सत्य के साथ साथ चलती है। आँखों पर पट्टी बाँध स्वर्ग की कल्पना तो की जा सकती है, पर देखना मुश्किल ही होता है।