शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

व्योमवार्ता / रोहिग्यॉ मुस्लिम समस्या की जटिलता से परिचित कराती सरल कोशिस : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 15 सितंबर 2017

जव्योमवार्ता : रोहिंग्या मुस्लिम समस्या की जटिलता से परिचित कराती सरल कोशिस : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 15 सितंबर 2017, शुक्रवार

आजकल रोहिंग्या मुस्लिमों की समस्यायें रोज सुनने मे आ रही है, कुछ मानवाधिकार वादी जहॉ अपने कथित तर्को के आधार पर कलुषित करूणा से विकारग होकर रोहिंग्यायों को तुरंत शरण देने व बसाने की मॉग कर रहे है ध्यानदेने वाली बात यह है कि ये कथित मानवाधिकारवादी आज तक कश्मीर मे अपने घर से बेघर किये गये काश्मीरी पंडितो के पक्ष मे खड़े होना तो दूर बोलना भी उचित नही समझे जब कि उन्हे अपने परिवार से दूर ड्यूटी कर रहे सुरक्षाबसो पर कायरता पूर्ण ढंग से गोली चलाने वाले नक्सली के मरने पर अपरंपार कष्ट होता है ,वहीं दूसरी तरफ व्यवहारिक सोच वाले लोगों (जिन्हे आजकल की भाषा मे राष्ट्रवादी कहा जाने लगा है ) का मानना है कि किसी भी सूरत मे इन शरणार्थियों को शरण देने पर विचार भी किया जाना भारत के लिये आत्मघाती कदम होगा. ऐसे मे ही क मुझे जोया मंसूरी की एक पोस्ट मिली, जिसमे जोया ने रोहिंग्या मुस्लिमो की समस्या, स्वभाव व संस्कार का हवाला देते हुये एक मुस्लिम व उससे भी ऊपर एक भारतीय की नजर से पूरी समस्या का विवेचन किया है. धन्यवाद जोया ,इस कठिन सी लगने वाली समस्या को इतने सरल तरीके से समझाने के लिये.

         रोहिंग्या दरअसल सुन्नी मुसलमान है जो म्यांमार के पश्चिमी रखाइन प्रांत में लगभग दस से ग्यारह लाख की आबादी में रहते है ।  इनका कोई देश नही है ।  संयुक्त राष्ट्र इन्हें दुनियाँ का सबसे प्रताड़ित जातीय समूह मानता है ।  स्थानीय बौद्ध इन्हें बंगाली कहते है क्योंकि ये लोग जो भाषा बोलते है वैसी दक्षिण पूर्व बांग्लादेश के चटगांव में बोली जाती है ।  इस पूरे मामले में रोहिंग्या शब्द भी एक अहम रोल अदा करता है ।  कुछ रोहिंग्या इतिहासकारों का मानना है कि रोहिंग्या शब्द अरबी के शब्द रहमा अर्थात दया से लिया गया है इसलिए ये लोग पीढ़ियों पहले अरब से आकर बसने वाले मुस्लिम है वहीँ कुछ दूसरे रोहिंग्या इतिहासकारों का मानना है कि इस शब्द का स्रोत अफ़ग़ानिस्तान का रूहा स्थान है और रोहिग्या अफ़ग़ानिस्तान के रूहा क्षेत्र से आने वाली मुसलमान जाति है जो चौदहवीं सदी में म्यामांर में आकर बसी ।  जबकि इसके विपरीत बर्मी इतिहासकारों का दावा है कि रोहिग्या शब्द बीसवीं सदी से पहले कभी प्रयोग ही नहीं हुआ और रोहिंग्या उन बंगाली मुसलमानों का नया नामकरण हैं जो अपना घर बार छोड़कर बंगाल से अराकान में आबाद हुए थे ।  रोहिंग्या मुसलमानों के 14वीं शताब्दी के आस पास म्यांमार में बसने के दावे किए जाते है ।  ऐसा कहा जाता है कि रोहिंग्या मुस्लिम 1430 में रखाइन प्रान्त के बौद्ध राजा नीरा मीखला के दरबार मे गुलामों ,सैनिकों और नौकरों का काम करते थे ।  1785 में बौद्धों ने रखाइन प्रान्त से राजतन्त्र को उखाड़ फेंका और राजा के वफादार रोहिंग्या मुस्लिमो को रखाइन प्रान्त से मार भगाया ।सन 1826 में म्यांमार पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया ।
अंग्रेज़ों ने फिर से बंगाल से रोहिंग्या मुसलमानों को बुला कर म्यांमार में बसाया ।  द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब म्यांमार पर जापान का कब्ज़ा हो गया तो बौद्धों और रोहिंग्या मुसलमानों के बीच जमकर खूनी लड़ाइयां हुई ।  दरअसल अंग्रेज़ों ने रोहिंग्या मुसलमानों को सुरक्षा और अलग इस्लामी राष्ट्र देने का गुपचुप वादा किया था जबकि स्थानीय बौद्ध किसी भी सूरत में अंग्रेज़ों से छुटकारा चाहते थे इसलिए बौद्ध जहां जापानियों की सहायता कर रहे थे वहीं रोहिंग्या मुसलमान अंग्रेज़ों के समर्थक थे और बौद्धों तथा जापान के खिलाफ जासूसी करते थे । 
जनवरी 1948 में जब म्यांमार स्वतंत्र हो गया तो रोहिंग्या मुसलमानों ने अराकान को एक मुस्लिम देश बनाने के लिए हिंसक और सशस्त्र आंदोलन आरंभ कर दिया ।  अलग इस्लामी राष्ट्र के लिए रोहिंग्या मुसलमानों का ये सशस्त्र आंदोलन सन 1962 तक चला ।  1962 में जनरल नी विंग की सैन्य क्रांति के बाद जनरल नी विंग की सरकार ने अलग इस्लामी राष्ट्र की मांग कर रहे रोहिंग्या मुसलमानों के विरुद्ध व्यापक स्तर पर सैन्य कार्यवाही की जिसके कारण कई लाख रोहिंग्या मुसलमान भाग कर बांग्लादेश, पाकिस्तान और मलेशिया चले गए ।  तत्कालीन भारतीय सरकारों ने भी रोहिंग्या मुस्लिमो को जम्मू, कश्मीर, पश्चिम बंगाल , मुम्बई और हैदराबाद में बसाया ।
ज्यादातर ने इन देशों की नागरिकता लेकर उसे ही अपना देश मान लिया ।  जो इस सब के बावजूद म्यांमार में रह गए उन्हें नागरिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया ।  म्यांमार के लोगों ने लंबे संघर्ष के बाद तानाशाह नी विंग से मुक्ति प्राप्त कर ली ।  वर्ष 2012 में म्यांमार में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत चुनाव हुए और लोकतंत्र की सबसे बड़ी समर्थक आन सांग सू की की पार्टी ने सरकार बनाई ।  सत्ताधारी पार्टी की मुखिया आँग सान सू ची मानवाधिकारों की बहुत बड़ी समर्थक और कार्यकर्ता है बावजूद इसके रोहिंग्या मुद्दे पर वो खामोश है । 
दरअसल बौद्ध बहुलता वाले लोकतांत्रिक देश म्यांमार में सत्ता के दो केंद्र काम करते है ।  देश की आंतरिक और बाह्य सुरक्षा सेना के हाथ मे है जिसमें सरकार का कोई दखल नही होता ।  सरकार द्वारा रोहिंग्या मुस्लिमों के लिए आवाज़ उठाने का मतलब है सेना के साथ सीधा टकराव क्योंकि 2012 में सेना की चौकियों पर अरब समर्थित रोहिंग्या मुस्लिमों के एक गुट द्वारा हमले के बाद से सेना हर हाल में रोहिंग्या मुस्लिमो को देश से निकालने पर अड़ी है । 
म्यांमार दुनियाँ भर के दानी देशों की लिस्ट में सबसे पहले स्थान पर है ।  वहाँ की 92 फीसदी आबादी गरीबों की मदद करने में आगे है और 55 फीसदी आबादी सामाजिक कार्यों में बिना की सरकारी आदेश या मुहिम के स्वेक्षा से बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते है, जबकि म्यांमार की गिनती अमीर राष्ट्रों में नही की जाती ।  नागरिकता को लेकर म्यांमार में 1982 में बना एक कानून है जिसके अनुसार म्यांमार की नागरिकता पाने के लिए किसी भी जातीय समूह को ये साबित करना होगा कि वो 1823 के पहले से इस देश मे रह रहे है, रोहिंग्या मुस्लिम ये साबित करने में अक्षम रहे है क्योंकि उन्हें गुलामों, नौकरों और सैनिकों के रूप में म्यांमार में बसाया गया था ।  धर्मिक शिक्षा के अलावा उन्हें बाकी हर तरह की शिक्षा और अधिकारों से वंचित रखा गया ।      
            इसके अलावा इस विवाद में मुझे जो सबसे बड़ी वजह समझ मे आती है वो ये कि किसी भी देश के नागरिक नहीं चाहेंगे कि उनके देश के संसाधनों पर किसी और देश के शरणार्थी आकर राज करें और स्थानीय निवासी ही उनसे वंचित रह जाएं ।  कोई भी देश अगर शरणार्थियों को अपने यहाँ रहने की मंजूरी देता है तो उस देश के निवासी ये उम्मीद करते है कि शरणार्थी अहिंसक हों, देश और कानून के नियम मानने वाले हों, जिस देश का नमक खाएं उसकी देशभक्ति करने वाले हों ।  जो लोग जीवनपर्यंत किसी देश मे रहना चाहते हों उनसे अपेक्षा की जाती है कि उन्हें वहाँ के मूल निवासियों और अन्य धार्मिको की सभ्यता और संस्कृति से कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए । 
              सन 1948 में इज़राइल और अरब देशों बीच हुए युद्ध में सात लाख से ज्यादा फिलिस्तीनी मुसलमान बेघर होकर सीरिया और पाकिस्तान जैसे देशों की ओर पलायन कर गए थे।
ये दुनिया की सबसे बड़ी शरणार्थी समस्या थी जो आज भी उतनी ही बड़ी है । इस युध्द के दौरान फिलीस्तीनियो पर जितना जुल्म इज़राइल ने किया उससे कहीँ ज्यादा जॉर्डन और इजिप्ट जैसे मुस्लिम देशों ने किया ।  इस युध्द में गाज़ा पर इजिप्ट और वेस्ट बैंक पर जॉर्डन ने कब्जा किया लेकिन इसके बावजूद भी इन मुस्लिम देशों द्वारा फिलिस्तीनी शरणार्थियों को वापस लाने का कोई प्रयास नही किया गया ।  उल्टे एक मुस्लिम राष्ट्र पाकिस्तान के जनरल जियाउल हक ने जॉर्डन के शाह के कहने पर 1970 में  एक हफ्ते में 25000 से ज्यादा फिलिस्तीनियों को मार डाला था  (ब्लॅक सेप्टेम्बर) लेकिन आपने कभी कहीं इस पर उतना तेज करुण क्रंदन नही सुना होगा जितना रोहिंग्या मुसलमानों को लेकर किया जाता है । 
पोस्ट के अंत मे अब ये सही वक्त है कि आप मुझे इस्लामोफोबिया का मरीज कह सकें पर ये बात किसी से छिपी नही है कि मुस्लिम किसी दूसरे धर्म को सम्मान नहीं देते , दूसरे धर्म के अनुयायियों की अपेक्षा ज्यादा कट्टर होते है, देश से बढ़कर मजहब को मानते हैं और बहुसंख्यक होते ही धर्म के नाम पर अलग देश की मांग करते है ।  मुसलमानों का ये इतिहास ही शायद सबसे बड़ी वजह है कि दुनिया का कोई देश रोहिंग्या को अपने देश मे शरण नही देना चाहता । 
रोहिंग्या मुसलमानों की इस दुर्दशा के ज़िम्मेदार सिर्फ और सिर्फ उनकी कौम के ही लोग है ।  रोहिंग्या मुस्लिमों को शरण न देने की ये सारी वजहें भारत के पास भी है ।  यकीनन आज के हालात में रोहिंग्या मुस्लिम रहम के काबिल है, इंसानियत के नाते इनकी मदद होनी चाहिए, यही इंसानियत का तकाजा भी है ।  बांग्लादेश या म्यांमार पर दबाव डाल कर इन्हें किसी भी एक देश की नागरिकता उपलब्ध कराई जाए ।  हम दिन भर में कई मज़लूम और जरूरतमन्द लोगों की मदद करते है, रक्तदान करते है, धन से मदद करते है, मुफ्त भोजन कराते है, निराश्रितों के लिए अनाथालय, वृद्धाश्रम, विधवाआश्रम आदि बनवाते है लेकिन हम उन्हें अपनी बहन, बेटियों, पुरुषों के साथ रहने के लिए अपने घर का कमरा नही दे देते । 
हो सकता है शरण देने पर आज रोहिंग्या मुस्लिमो की ये पीढ़ी जीवन पर्यंत प्रशांत भूषण का, भारत और भारतवासियों का एहसान मानें लेकिन इसकी गारंटी कौन लेगा कि इनकी आने वाली पीढ़ियाँ अलग देश की मांग नही करेगी । 
कौन ये दावा कर सकता है कि इनके बच्चे बड़े होकर हमारी आंखों में आंखे डालकर हमसे ये नही कहेंगे कि
" किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़े है.. "
जोया मंसूरी की कलम से
(बनारस, 15 सितंबर 2017, शुक्रवार)
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रविवार, 10 सितंबर 2017

व्योमवार्ता :अफशोस है कि सेकूलर मीडिया में तुम खबर होने लायक नहीं हो मयूरग्राम :व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 09 सितंबर 2017, शनिवार

व्योमवार्ता : मयूरग्राम,अफशोस है कि सेकूलर मीडिया में तुम खबर होने लायक नहीं हो
व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 09 सितंबर 2017, शनिवार

          मयूरग्राम का नाम सुना है, नही न? क्योंकि मीडिया में मयूरग्राम के लिये न तो जगह है न चर्चा के लिये जरूरत. क्योंकि मयूरग्राम सेकूलर है या यूँ कहिये कि सेकूलर मीडिया ने उसे अपने लिहाज से उसे सेकूलरों के रहमो करम पर छेड़ दिया है.
       पश्चिम बंगाल की राजधानी कोलकाता से 240 किलोमीटर उत्तर बीरभूम जिले में  मुर्शिदाबाद से सटे नलहाटी के पास मयूरग्राम नाम का एक गांव होता था हाल-फिलहाल तक। 1990 के दशक में यहां 280 हिंदू परिवार और सिर्फ 15 मुस्लिम परिवार थे। सारे मुस्लिम परिवार भूमिहीन थे और बंटाई पर खेती करते थे। इसके बाद इन्होंने अपने बांग्लादेशी रिश्तेदारों को बुलाया और पंचायती व ग्रामसमाज की जमीन पर उनकी झोपड़ियां डलवा दी। 1998 तक गांव में 50 मुस्लिम परिवार हो गए और हालात बदलने लगे। अगले दो-चार साल में संख्या और बढ़ी और उससे ज्यादा तेजी से हिंदू महिलाओं का उत्पीड़न। घर से निकलते ही छेड़छाड़ शुरू हो जाती। कुछेक के साथ बलात्कार की कोशिश भी हुई। थाने में शिकायत करने का कोई नतीजा नहीं निकलता कभी। इसके बाद मुसलमानों ने पूजा पाठ और धार्मिक अनुष्ठानों का भी विरोध शुरू कर दिया। गांव के काली मंदिर के सामने मस्जिद बन गई। मुसलमानों के आपत्ति जताने पर पुलिस ने मंदिर में शंख और ढोल बजाने पर पाबंदी भी लगा दी। उनकी अजान तो खैर चलती ही रही। इसके बाद उन्होंने हिंदुओं के साथ रोजाना गालीगलौज व उन्हें धमकाना शुरू कर दिया। महिलाओं का घर से बाहर कदम रखना दुश्वार हो गया। फिर दुर्गा पूजा बंद करा दी गई और ईद-बकरीद के दिन काली मंदिर के ऐन सामने मस्जिद में गायें कटने लगीं।

1990 के शुरू में जिस गांव में 280 हिंदू परिवार होते थे, 2016 आते-आते सिर्फ 10 शेष बचे। फिर मयूरग्राम थोड़ा सा हिंदू नाम लगा तो उसे भी बदल दिया गया। सरकार ने तेजी से कार्रवाई करते हुए मुसलमानों की मांग पर इसे मोरग्राम कर दिया। गांव के रेलवे स्टेशन का भी नाम अब मोरग्राम है। यह कहानी अकेले मयूरग्राम की नहीं बल्कि बांग्लादेश की सीमा से सटे बहुत से गांवों की है। असम की बराक वैली के सिलचर और करीमगंज जिलों में स्थिति और बदतर है।

यह दिखाता है कि बिना मारकाट किए लो-लेवल की संगठित और सतत हिंसा के क्या फायदे हो सकते हैं। यह तोप-तलवार से ज्यादा प्रभावी है, पीड़ित यह सोचकर ही थाने नहीं जाता कि ये तो रोज ही होना है। और वहां सुनवाई न होने पर एक असहाय शहरी के सामने समर्पण या फिर पलायन के अलावा कोई रास्ता शेष नहीं रहता। ज्यादातर पलायन का विकल्प चुनते हैं।

बंगाल-असम में जो हिंदुओं के साथ हो रहा है, ठीक वहीं यूरोप में यहूदियों के साथ हो रहा है। स्थिति इतनी विकट है कि प्रतिष्ठित पत्रिका "द अटलांटिक" ने अप्रैल 2015 के अंक में कवर स्टोरी छापी , " Is it time for jews to leave Europe"। इस पत्रिका के मुताबिक फ्रांस में सिर्फ एक प्रतिशत यहूदी हैं पर मजहबी/नस्ली हिंसा के 51 प्रतिशत मामलों में शिकार वही होते हैं। स्वीडन में स्थिति और भयावह है। वहां अगर आप यहूदी पहचान के साथ सड़क पर निकले तो मार खाना तय है। ज्यादातर यहूदी अब इजराइल भाग रहे हैं।

यह अलग मामला है कि यहूदियों के खिलाफ हिंसा के ज्यादातर मामले अनरिपोर्टेड ही रह जाते हैं। मीडिया में ये खबर नहीं बनते। इसकी वजह है? एक तो यह कि अल्पसंख्यकों में भी अल्पसंख्यक होने के बावजूद साक्षर व समृद्ध यहूदी समाज की मुख्य धारा में हैं। यह उनका अपराध है। मुस्लिम अप्रवासी, अश्वेत और एलजीबीटी जैसे कुछ तबके सौभाग्यशाली हैं जो लिबरल-लेफ्ट लिबरल समुदाय की ओर से सत्यापित व सूचीबद्ध उत्पीड़ित तबकों में आते हैं। ये सरकार व मीड़िया की ओर से पीड़ित व संरक्षित घोषित किए जा चुके हैं। इनका बाल भी बांका हुआ तो तत्काल संज्ञान लिया जाएगा। मीडिया क्या करे? हमें तो पहले दिन ही सिखाया गया कि कुत्ता आदमी को काटे तो खबर नहीं होती पर आदमी कुत्ते को काट ले तो खबर है। जिसने भी यह थ्योरी दी वह पक्का लिबटार्ड रहा होगा। अब इसका नतीजा देख लें। कुत्ते आपके घर व मुहल्ले में कितनों को भी काट लें, पर आपकी खबर, खबर होने के लायक नहीं। पलायन चाहे मयूरग्राम से हो चाहे मालमो से, सामान्य घटना है। लेकिन अगर आपका नाम अखलाक या जुनेद है तो निश्चिंत रहें। आप सर्टिफाइड विक्टिम हैं, राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय मीडिया भी आपके साथ होगी।
(बनारस, 9 सितंबर 2017, शनिवार)
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