उसने टोपी नहीं पहनी मुस्लिमों को नाराज किया....
उसने 1% टैक्स लगा कर स्वर्णकारों को नाराज किया....
उसने होटल वालों के सर्व्हीस चार्जपर हथौड़ा चला के ग्राहकों के हित के लिए होटलवालों से पंगा लिया...
उसने 500 और 1000 के नोट बन्द कर के अपने ही परम्परागत वोट बैंक को नाराज किया....
बैंकवालों पे नकैल कसना शुरू कर के उन से भी पंगा लिया....
कैश लेस को बढ़ावा दे कर वो टैक्स चोरों के रास्तों का रोड़ा बन गया है....
रेडा जैसा क़ानून कर के बिल्डरों को नाराज़ किया...
बेनामी का क़ानून पारित कर के ज़मीन के काला बाजारियों को बेनक़ाब कर रहा है...
स्पेक्ट्रम, कोयला आदि का भ्रष्टाचार दूर कर के देश को लाखों करोड़ों का फ़ायदा देने के लिए बड़े उद्योगपतियों से पंगा लिया....
गैस सब्सिडी, मनरेगा आदि का पैसा सीधे बैंक खाते में जमा करने के कारण सभी बिचौलियों की दुकानें बंद कर दी....
युरिया को नीम कोटिंग करने से केमिकल फ़ैक्टरियों का गोरख धंदा चौपट कर दिया...
लगभग हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार कम करने के नये नये तरीक़ों का आग़ाज़ कर रहा है....
सभी सरकारी कामों में टेक्नॉलजी के कारण गति लाने के प्रयास के कारण दलालों का 'स्पीड-मनी' बंद कर रहा है...
और न जाने कितनों को वो रोज़ नाराज़ कर रहा है....
हो सकता है आप भी उस के किसी क़दम से नाराज़ चल रहे हो, आप का भी कुछ नुक़सान हुआ हो....
वो सही में पागल बन गया है क्या? वो चाहता तो आराम से किसी का दिल दुखाये बिना राज कर सकता है...
वह हर रोज़ नये नये क़दम उठा कर देश के हर क्षेत्र की बुराइयाँ दूर करने की रात दिन मेहनत कर रहा है...
क्यों कि...
उसे कुर्सी से प्रेम नहीं है । उसे सिर्फ अपने देश और सवा सौ करोड देशवासियों से प्रेम है...वो अपने देश को दुनियाँ में सबसे समृद्ध बनाना चाहता है...हर बुराई को ख़त्म करना चाहता है...वो भी इसी जनरेशन में...
अब भले ही आप उसे वोट न दें....
हो सकता है उस की कुर्सी २०१९ में चली जाएँ...उसे उस की चिंता नहीं है....
आज जो उसका या उस के समर्थकों का मजाक उडा रहा है वो वास्तव में खुद का और खुद की भावी पीढी का मजाक उडा रहा है...।
देश बेचकर अपना जेब भरनेवाले चंद दोगले नेताओं, टीव्ही चैनलों और ब्युरोक्रेट्स की बातों में आकर उसका साथ छोडा तो खुद को मजाक बनने से तुम्हें कोई नहीं रोक सकता। सरकार की कुछ कमियों को, कुछ अब तक न हुए कामों को बढ़ा चढ़ा कर बोल कर ये लोग आप को गुमराह कर रहे है...
इस स्थिति में सभी खुनी भेडिये उसके खिलाफ लामबंद हो रहे हैं...देश के लिए उसे हमारे साथ की जरुरत है...
इस से भी जादा हमें उस की ज़रूरत है। आप ने उसे हटा दिया तो उस का कुछ नहीं बिगड़नेवाला...वो तो हिमालय में चला जाएगा...
लेकिन हमारी अगली नस्लें हमें सैकड़ों सालों तक कोसेगी.....
भाइयों, हमें अपने प्रधानमंत्री का साथ हर हाल में देना ही होगा..हमें उसकी आवाज बननी है...अपने और अपने बच्चों के भविष्य के लिए....
(बनारस, 06 जनवरी 2017, शुक्रवार)
http://chitravansh.blogspot.com
अवढरदानी महादेव शंकर की राजधानी काशी मे पला बढ़ा और जीवन यापन कर रहा हूँ. कबीर का फक्कडपन और बनारस की मस्ती जीवन का हिस्सा है, पता नही उसके बिना मैं हूँ भी या नही. राजर्षि उदय प्रताप के बगीचे यू पी कालेज से निकल कर महामना के कर्मस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे खेलते कूदते कुछ डिग्रीयॉ पा गये, नौकरी के लिये रियाज किया पर नौकरी नही मयस्सर थी. बनारस छोड़ नही सकते थे तो अपनी मर्जी के मालिक वकील बन बैठे.
शनिवार, 7 जनवरी 2017
मेरा मानना है : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 06 जनवरी 2017, शुक्रवार
गुरुवार, 5 जनवरी 2017
बनारस, रवीश के नजरों से : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 07 जनवरी 2017, शनिवार
रवीश तिवारी एक जमाने मे मेरे पसंदीदा टीवी एन्करो मे से एक थे बाद मे उनके प्रो सेक्यूलरिज्म व विचार विशेष की पैरवी व जबर्दस्ती के विचार थोपने वाली पत्रकारिता के च ते हमने उन्हे व उनके चैनल को देखना ही लगभग बंद कर दिया. अभी हाल मे हमारे एक मित्र ने हमारे शहल बनारस पर लिखा रवीश का यह ब्लॉग भैजा, पढ़ने पर अच्छा लगा. बनारस शहर पर रवीश के नजरिये के हम बनारसी लोगों को पढ़ना चाहिए
बनारस:रोज़ देखा जाने वाला, कहा जाने वाला, सुना जाने वाला लिखा जाने वाला और इन सबसे ऊपर जीया जाने वाला शहर है। इसकी इतनी परिभाषाएं और व्यंजनाएं हैं कि यह शहर हर लफ़्ज़ के साथ कुछ और हो जाता है। लिखनेवाले की गिरफ़्त से निकल जाता है। मैं बनारस के ख़िलाफ़ किसी बनारस को खोजने निकला था मगर हर जगह मिला उसी बनारस से जिसे मीडिया ने एक टूरिस्ट गाइड की तरह एकरेखीय वृतांत में बदल दिया था। वृतांतों का रस है बनारस।
दरअसल, बनारस कोई शहर ही नहीं है। यह कभी था न कभी है और कभी रहेगा। शहर होता तो किसी पेरिस जैसा होता, किसी लुधियाना-सा होता या किसी दिल्ली-सा। सड़कों दीवारों से बनारस नहीं है। बनारस है बनारस के मानस से। आचरण, विचरण और धारण से। जो भी मिला बनारस को धारण किए मिला। बनारसीपन। इसके बिना तो कोई बाबा विश्वनाथ को देख सकता है न बनारस को। यह बनारस का होकर बनारस को जीने का शहर है। यह न मेरा है न तेरा है न उसका है, जो बनारस का है।
बहुत कम हुआ जब लौट आने के बाद किसी शहर की याद आई। किसी शहर में जागने-सा अहसास हुआ। सोचता रहा कि क्या लिखूं बनारस पर। क्या नहीं लिखा जा चुका है। इस शहर के लोग किसी दास्तान की तरह मिलते हैं। क़िस्सों से इतने भरे हैं कि सुनाते-सुनाते ख़ुद किसी किस्से में बदल जाते हैं। मिलने और बोलने का ऐसा रोमांच कहीं और महसूस नहीं हुआ। जो भी मिला उसे जितना मिलना चाहिए उससे ज़्यादा मिला। कम तो कोई मिला ही नहीं। कम तो हम दिल्ली वाले मिले। सोचते रह गए कि कितना मिले और सामने वाला पूरा मिलकर चला गया। बनारस को खोजना नहीं पड़ता है। कहीं भी मिल जाता है।
हम बाबा ठंडई की दुकान पर थे। उनकी शान में क़सीदे पढ़ते रहे कि हर साल आपकी ठंडई एक मित्र से बुज़ुर्ग के हवाले से दिल्ली पहुंच जाती है। पिछले कई सालों से आपकी ठंडई पी रहा हूं। कोई चालीस-पचास साल से ठंडई बना रहे जनाब ने ऊपर देखा तक नहीं कि कौन है क्या बोल रहा है। बस किसी साधना की तरह ठंडई बनाने में लगे रहे। साधना ज़रूरी है। चाहे आप देश चलाएं या ठंडई बनाए। मगर वहीं खड़े किसी शख़्स ने किसी को भेजकर पान मंगवा दिया। लस्सी की दुकान का पता बता दिया। कार से गुज़रते वक्त पान और चाय की दुकानों पर लोगों को जमा देखा। रुककर खाकर बतियाते देखा ।
लगा कि इस शहर में लोग दफ़्तर दुकान जाने के अलावा भी घर से निकलते हैं। सुबह-सुबह चाय पीने गया था। बस किसी ने किसी को कह दिया कि बाइक से इन्हें पार्क तक छोड़ आओ। बिना देखे बिना जाने उसने चाय छोड़ी और पार्क तक छोड़ आया। जिन्हें भी जीवन में बात करने की समस्या है। लगता है कि वो तर्क नहीं कर पाते। वो बनारस चले जाएं। बोलने लग जाएंगे। ख़ासकर टीवी के ये बौराये और झुंझलाये एंकरों को हर साल बनारस जाना चाहिए।
रेडियो मिर्ची के दफ़्तर गया था। नौजवान जौकियों के संसार में। बात करने की ऐसी शैली कि मेरा बस चले तो हर जौकी बनारस की सड़कों से उठा लाऊं। सबके पास कुछ न कुछ अतिरिक्त था, मुझे देने के लिए। आज के इस दौर में उनके पास बहुत-सी गर्मजोशियां बची हुई हैं। जल्दी समझ गया कि यह टीवी में दिखने के कारण नहीं है। जो प्यार बह रहा है वो बनारस के कारण है। मिर्ची के इन मिठ्ठुओं से मेरा भी दिल लग गया। तोते की तरह बोलता था वो मोटू! तो शांत संभलकर अमान और रह रहकर सोनी। एक से एक किस्सागो। बात-बात में मैं विशाल के साथ लाइव हो गया। उनके कुछ और दोस्तों से मुलाक़ात हुई। हर मुलाक़ात में मैं बस इस शहर के लोगों में मिलने की फ़ितरत देख रहा था। कितना मिलते हैं भाई। भाइयों ने मेरी शान में दफ़्तर के भीतर चाट का एक स्टाल ही लगा दिया। टमाटर की चाट। वाह। दिल्ली वालों को पता चल गया तो हर नुक्कड़ और बारात में बेचकर खटारा बना देंगे।मुझे पता है कि जितना मिल जाता है उतना लायक नहीं हूं। वैसे भी क्या करना है हिसाब कर। टीवी के फ़रेब के नाम पर प्यार ही तो मिल रहा है। मैं माया में यक़ीन करता हूं। सब माया है। माया मिलाती है, माया रुलाती है और माया हंसाती है। घड़ी की दुकान में स्ट्रैप बदलवाने गया था। जनाब ने कोई स्पेशल जूस मंगवा दी। कहा कि पीते जाइये। ज़ोर देकर कहा कि मैं चाहता हूं कि आप पीयें। ये बनारस का असली है। मैंने तो कहा भी नहीं था पर वो यह जूस पिलाकर काफी ख़ुश दिखे। इतने ख़ुश कि लाज के मारे शुक्रिया कहते न बना।
वो पता नहीं कौन लड़का था। लंका चौक पर जहां बीजेपी का धरना चल रहा था। भयानक गर्मी थी। वो पहले जूस लाया फिर पार्कर पेन ख़रीद लाया खुद ही पैकेट से निकाल कर जेब में रख गया। किसी चैनल के फ़्रेम में देखकर वो महिला अपने पति और बेटी के साथ दौड़ी चली आई। हांफ रही थी। वो घर ले जाकर खाना खिलाना चाहती थी। काश मैं चला गया होता। और वो कौन था जो मिर्ची दफ़्तर के बाहर हम सबकी चाय के पैसे देकर चला गया। आठ दस लोगों की चाय के पैसे। मैं सोचता रह गया कि हमने कब किसी अजनबी के लिए ऐसा किया है। उफ्फ!
अजीब शहर है कोई ख़ाली हाथ मिलता ही नहीं है। ऐसा नहीं कि मैं टीवी वाला हूं इसलिए लोग मिल रहे थे। मुझसे मिलने के बाद वहां मौजूद किसी से वैसे ही मिल रहे थे। हम दिल्ली वाले मिलना भूल गए हैं। काम से तो मिलते हैं, मगर मिलने के लिए नहीं मिलते हैं। रोज़ दफ़्तर से लौटते वक्त ख़ाली-सा लगता हूं। अब तो मेरा एकांत ही मेरी भीड़ है। मैं भी तो कहीं नहीं जाता। जाने कब से अकेला रहना अच्छा लग गया। ग़नीमत है कि फेसबुक ट्वीटर है। जो भी अकेले में बड़बड़ाता हूं, लिख देता हूं। अकेले बैठे बैठाए दुनिया से मिल आता हूं। काम और शहर के अनुशासन की क़ीमत पर मुलाक़ात का बंद होना ठीक नहीं। हम मिलते तो यहीं बनारस बना देते। बनारस एक-दूसरे से मिलता है इसलिए बनारस है। दिल्ली के नाम में तो दिल है मगर दिल है कहां। दिल्लगी है कहां और कहां है दीवानगी। बनारस में है। वहां के लोगों में है। आप सबने मुझे बेहतरीन यादें दी हैं। मैं बनारस को याद कर रहा हूं।
@रवीश कुमार की कलम से (NDTV)
(बनारस, 07 जनवरी, 2017, शनिवार)
http://chitravansh.blogspot.com
सोमवार, 2 जनवरी 2017
एक और जिम्मेदारी के लिये धन्यवाद : व्योमेश चित्रवंश की डायरी 02 जनवरी 2017, सोमवार
एक और जिम्मेदारी के लिये धन्यवाद
उपजा वाराणसी इकाई का 2017-18, 2018-19 द्विवार्षिक चुनाव शिवपुर उपजा कार्यालय में सम्पन्न हुआ। उपजा सदस्यों की मौजूदगी में सर्वसम्मत से विनोद बागी को अध्यक्ष, सुबोध त्रिपाठी को महामंत्री चुना गया। उपाध्यक्ष सुशील श्रीवास्तव, अमन सिद्दकी, रामनरेश जी, डॉक्टर रुद्रानंद चुने गए।
मंत्री पद पर रविंद्र गिरी, विजय शंकर चौबे, व्योमेश चित्रवंश और कोषाध्यक्ष अतुलेश उपाध्याय चुने गए। कार्यकारिणी में 11 सदस्य चुने गए।
सभी नवनिर्वाचित पदाधिकारियों को नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।