रविवार, 27 अक्तूबर 2024

व्योमवार्ता/ मन का आंगन कुछ कहता है......

आस्था अनास्था, जय-पराजय, विश्वास-अविश्वास और अंधेरे-उजाले के द्वन्द्व के बीच एक दीप है जो जलाना है गहन विश्वास को समेटे। चौतरफा अविश्वास भय आतंक और अभाव के अंधेरे ने आज समूचे विश्व के चौखट को घेरे रखा है। चाहे व्यक्ति हो या राष्ट्र सभी अपने अपने समस्याओं और अन्तर्विरोधों से जूझ रहे है। अफगानिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश, यूक्रेन ,रूस ,ईरान इजराईल, चीन ,ताईवान से लेकर अमेरिका,इंग्लैण्ड और अपने भारत तक सबकी समस्याओं का कारण भले ही अलग हो पर मानव समाज के लिये त्रासदीपूर्ण ही है। मन और मानवता जब विवेक और विजय की भाँति साफ सुथरा आँगन और संजीदा माहौल चाहती हो तो ऐसे अंधेरे में आस्था और विश्वास का दीप कैसे जलाया जाय? यह प्रश्न हमारे समक्ष महती बन खड़ा है। हम दीपावली पर दीपदान कर दीपक जला प्रकाशोत्सव मना लेते हैं और आतिशबाजी के कानफाडू शोर और झूठी शुभकामनाओं के आड़ में सालभर के दुख-दर्द को एक छुट्टी के दिन में तब्दील कर सो जाते हैं पर क्या यह प्रकाश हमारे मानस में फैले अन्धकार को दूर कर सकेगा? पूरे प्रकाश वर्ष को यदि अपने सामाजिक और सांस्कृतिक संस्कारों के आइने में देखें तो दीपोत्सव हमारे लिये आशा और विश्वास की किरण लेकर नैराश्य और जीवन के मद, मोह, से ग्रसित अन्धकार को दूर करने के लिये आता है। परन्तु होता यह है कि हममें से बहुतेरे लोग प्रकाश वर्ष के आड़ में वे समस्त कार्य करना चाहते हैं जिनकों दूर करने के लिये प्रकाश पर्व की कल्पना की गयी थी।
वास्तविकता यह है कि दीवाली का प्रकाश आज हमारे समाज के उन अंधेरों को दूर करने में निश्चित ही असफल रहा है जिन उद्देश्यों की पूर्ति के लिये दीपावली जैसे प्रकाश पर्व की कल्पना की गयी थी। भारत के अधिकांशतः पर्व एवं त्यौहारों को देखा जाय तो वे सिर्फ एक 'मिथक ही नहीं वरन वैज्ञानिक और सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति भी करते हैं। चाहे ये होली हो या दीवाली, मकर संक्रान्ति हो या लोहरी, ओणम् हो या वीहू हर त्यौहारों के पीछे सामाजिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक परिवेश दृष्टिगत होते हैं परन्तु आज की वास्तविकता यह है कि ये सभी त्यौहार महज औपचारिकताएं बन गये हैं।
सृष्टि जब कभी बनी थी, अन्धेरा ही अन्धेरा था, फिर प्रकाश आया अन्धकार के पीछे। प्रकाश का साक्षात्कार करने वाली सृष्टि खुली। उजाला ही अंधरे का अगला कदम है। हमें उजाले के सुखद आशा हेतु अंधियारे के अस्तित्व को स्वीकार करना ही होगा बल्कि होना तो यह चाहिये कि हम स्वयं प्रकाश के वाहक बने। पर आज स्थिति दूसरी है हम प्रकाश चाहते तो हैं पर अंधेरे से नहीं लड़ना चाहते। अपने को उजाले का वाहक और उपासक समझना, जताना हम सब को अच्छा लगता है। यह स्वाभाविक है और सही भी है। किसी हद तक उजाला है ही ऐसी प्यारी वस्तु और अनमोल चीज जिसे हम सभी चाहते हैं और पूजते हैं। उजाला हमारे जगने का, चैतन्य और जागरण का स्त्रोत है। पूर्व दिशा में उजाला फूटने के साथ या उससे तनिक आगे पीछे हम जागते है और अपनी चहचहाहट शुरू करते हैं। रात की बोझिल नींद से जगी हमारी आँखों को सुबह के सुनहरे उजालें में धुली दुनिया अजब सुन्दर लगती है। हर पुरानी ठहरी हुई चीज भी नयी लगती है क्योंकि नव प्रकाश के चलते हमारी सोच, हमारी दृष्टि नयी लगती है। फिर हम अपनें कार्यक्रम में व्यस्त हो जाते हैं और उजाले के रथ को अस्ताचल होने के साथ ही हम पुनः निद्रा की शरण में खो जाते हैं क्योंकि हमारा विश्वास बना है कि रात बीतने के साथ ही अंधेरे का साम्राज्य पुनः ध्वस्तहो जायेगा और आने वाला नव प्रभात नयी आशा का संचार करने आयेगा।
अंधेरे को हम उजाले में बदलने को हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं क्योंकि उजाला अभयता का परिचायक है। अन्धेरा यह आंशका जगाता है कि कहीं कोई शत्रु अंधेरे का प्रश्रय लेकर हम, पर आक्रमण न कर बैठें। इसीलिए अधेरा ढलते ही हम प्रकाश के कृत्रिम स्त्रोतों का सहारा लेते हैं। जीवन में जो कुछ भी शुभ है. सुखद है. रपूणीग है। उन सब का सम्मिलित रूप है, उजाला, प्रकाश। इसीलिए शुभ कार्यों में सूर्य या अग्नि को साक्षी मानने का रिवाज कई धर्मों में है। हम मांगलिक अवसरों पर दीया और स भोमबत्ती जलाते हैं। और आनन्दोत्सव में रोशनी और है आतिशबाजी करते हैं। यह सच है कि उजाला जीवन के के मौलिकता का स्वरूप देता है पर जब यही उजाला दुराग्रही और आक्रामक हो उठता है तब क्या वह कम अनर्थ करता है? धर्म हो या राजनीति, जब कोई समुदाय वर्ग या दल जिद ठान लेता है कि हमारा उजाला ही एक मात्र उजाला है, सिर्फ वही मुक्तिवान है कबाकी सभी उजालें बेकार हैं, तुम चाहो या न चाहो, हम तुम्हें अपने उजाले के जरिये मुक्ति दिलवा कर ही मानेगें, ऐसी स्थिति में यह उजाला मृत्यु का दूत ही बनकर आता है, जीवन का नहीं। मृत्यु से भी अधिक मारक इस उजाले का तांडव मानव इतिहास ने बार-बार देखा है। इस तरह अगर उजाले के उपकार अनगिनत है तो अंधेरे का उपहार भी कम नहीं है। ऐसा नहीं है कि अंधेरा हलाहल विष है तो प्रकाश स्वर्ण मंजूषा में रखा अमृत है। बल्कि यह दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। उजाले का नमन करने हेतु हमें अंधेरे को भी नमन करना ही होगा। आज का महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि दीपावली का शुभ प्रकाश किसके लिये है? कौन है जो इस प्रकाश से अपने देश के और समाज में व्याप्त अन्धकार को दूर करना चाहता है? सब अपने-अपने मोहजाल में भटक गये हैं। सबने अपने-अपने स्वार्थ के अंधेरे का वरण कर लिया है। विदेशों की भौतिक जिन्दगी का आकर्षण हमने बटोर लिया है लेकिन वहाँ की कार्य करने की लगन हमनें नहीं सीखी। सुविधाओं के लिये लालायित रहते हैं पर काम करना नहीं चाहते। दरअसल हमारे सामाज में यह अहसास ही नहीं रहा है कि हमनें आजादी किस कीमत पर पायी? इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि भारत युद्ध की घनी छाया में कभी नहीं रहा। इसलिये आजादी और संघर्ष का मूल्य वह नहीं जान पा रहा है। आज की मानसिकता को देखकर लगता है कि आजादी के लिये किसी ने बलिदान नहीं किया बल्कि वह अपने आप मिल गयी। यह मानसिकता राष्ट्र और लोकतन्त्र दोनों के लिये ठीक नहीं हैं। लोकतन्त्र में लोग अपना भविष्य तय करते हैं पर अब ऐसा लगने लगा है कि लोग अपने भविष्य को मेहनत से नहीं बल्कि खैरात में पाना चाहते हैं। इस तरह देखा जाय तो आज की स्पर्धा से सामान्य लोग पिछड़ जायेगें। अन्धेरा घना होता जा रहा है। ऐसे में हमें स्वयं मनसा वाचा कर्मणा उजाले का वाहक बनना होगा। तभी हम दीपोत्सव की कल्पना को साकार कर सकेगें और उजाले को नमन भी....

व्योमेश चित्रवंश