देखा था एक ख्वाब कल रत नीद में
जीता हु होंगे सच , बस इस उम्मीद में
जो जिंदगी के ख्वाब हकीकत न बन सके
यादो के उस जहर को हम कैसे पी सके
आएगी उनको याद कभियो मेरे साथ की
सोचेंगे कैसे है वो मेरे रकीब में
यूँ जिंदगी में अक्सर तनहा रहा हु मै
बिखरने के ही ख्याल से लड़ता रहा हूँ मै
जीवन की डोर अब रुक जाती है बार बार
तमन्ना है उनको देखे अपने करीब में
हर ओरसे जब टूट मुझे मिला एक आसरा
उनको ही प् के साथ मुझे कुछ सुकून मिला
लेकिन ये जख्म मुझको लगना था अभी व्योम
कोई बंधा है पहले से उनके नसीब में
अवढरदानी महादेव शंकर की राजधानी काशी मे पला बढ़ा और जीवन यापन कर रहा हूँ. कबीर का फक्कडपन और बनारस की मस्ती जीवन का हिस्सा है, पता नही उसके बिना मैं हूँ भी या नही. राजर्षि उदय प्रताप के बगीचे यू पी कालेज से निकल कर महामना के कर्मस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे खेलते कूदते कुछ डिग्रीयॉ पा गये, नौकरी के लिये रियाज किया पर नौकरी नही मयस्सर थी. बनारस छोड़ नही सकते थे तो अपनी मर्जी के मालिक वकील बन बैठे.
शुक्रवार, 19 सितंबर 2008
रविवार, 14 सितंबर 2008
व्योमेश की कविताये :नव सहस्राब्दी 2000
28 दिसम्बर 1999, बनारस
सहस्राब्दी के स्वागत में,
गंगा में तैरते अनगिनत दीप
घाटो परखड़े लोगो के हर्ष पूर्ण कोलाहल
हा-हर महदेओ के उद्घोष के बीच
गूंजते घंटा घड़ियाल और शंख्ध्वानियाँ
आने वाले हजार वर्षों को मंगलमय
सुभ औए शिवमय करने की आकांछा
बीते सदी की कटु अनुभवों और त्रासदी
भुलाने की धरीं इच्छाएं
निश्चित ही सुंदर ल्लागति है बेहद सुंदर
दीपों की सद्य प्रकाशित लड़ियॉ
अन्धकार और घने कोहरे को चीरती हुयी
काश इस मद्धिम प्रकाश से मिटा पते
हम अपने अन्तेर के अंधियारों को
फ़िर नही होती कोई हिंसा , वैमनस्यता
त्रासदी की अमानवीय क्रूर घटनाएँ
फैलता सद्भाव का प्रकाश
नव सहस्राब्दी में.
(बीसवीं सदी मे लिखी गई आखिरी कविता)
घाटो परखड़े लोगो के हर्ष पूर्ण कोलाहल
हा-हर महदेओ के उद्घोष के बीच
गूंजते घंटा घड़ियाल और शंख्ध्वानियाँ
आने वाले हजार वर्षों को मंगलमय
सुभ औए शिवमय करने की आकांछा
बीते सदी की कटु अनुभवों और त्रासदी
भुलाने की धरीं इच्छाएं
निश्चित ही सुंदर ल्लागति है बेहद सुंदर
दीपों की सद्य प्रकाशित लड़ियॉ
अन्धकार और घने कोहरे को चीरती हुयी
काश इस मद्धिम प्रकाश से मिटा पते
हम अपने अन्तेर के अंधियारों को
फ़िर नही होती कोई हिंसा , वैमनस्यता
त्रासदी की अमानवीय क्रूर घटनाएँ
फैलता सद्भाव का प्रकाश
नव सहस्राब्दी में.
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व्योमेश की कविताये : शिवपुर संवासिनी काण्ड
ओ मम्मी
पनपा था एक रिश्ता हम दोनों के बीच ,
नही था वह खून का ,मुंह बोला ही सही ,
पर तुने कर डाला उस रिश्ते का खून ,
कलंकित ऐसा कि सडांध आती है
नाम लेते हुए भी उस रिश्ते की ,
तुने ये भी नही सोचा की यदि तेरी बेटी होती
तो वह भी होती मेरी ही उमर की,
जाने कितनी बार बांटा होता तुमने उससे उसकी बातो को ,
कितनी बार बनी होती तुम उसकी माँ से बढ़ कर सहेली
तूने तो उस के बदले सौदा कर डाला हमारा ,
अपने उन ढेर सारे सफेदपोश दोस्तों के संग
जो साँझ ढले आ जाते थे तुम्हारे आलिशान दफ्तर में,
उनसे भी रखवाया था रिश्ता तुमने चाचा,भाई और ताऊ का ,
हर शाम हो जाती थी तुम्हारी हथेलियाँ गर्म,
कड़े नए नोटों से,
जिन पर बापू की फोटो होती थी,
पर सहना पड़ता था जलालत हमे
तुम्हारे उन्ही दोस्तों के साथ,
जो दिन में होते थे हमारे चाचा, भइया, ताऊ
मम्मी,
तुम जो आज छिपा रही हो अपना चेहरा,
लोगो की निगाहों से,
नही छुपाना पड़ता तुम्हे उसे ,
यदि एक बार भी सोचा होता
हम भी बेटी है किसी माँ के
तुम्हारे जैसे.
( यह कविता वर्ष 2000 मे वाराणसी के चर्चित शिवपुर संवासिनी गृह काण्ड पर लिखी गई थी जो गुड़िया, दैनिक जागऱण, व पहरूआ के साथ अन्य कई पत्र पत्रिकाओं मे प्रकाशित हुई थी।)
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