मेरा शहर इस समय गर्मी के ताप से लरज रहा है। सूरज से बरसते अंगारे और धरती से निकलती तपिश के साथ पारे ने ऊपर और ऊपर चढ़ने की होड़ लगा रखी है। कितना अजीब है नदियों के नाम पर बसा गंगा के खूबसूरत घाटों वाला यह शहर आज खुद में हैरान व परेशान है। परेशान भी क्यों न हो? शहर को नाम देने वाली नदियों या तो विलुप्त हो चुकी या विलुप्त होने के कगार पर है और गंगा के घाट? आह ! जब कल गंगा ही नही रहेगी तो ये घाट क्या करेगे? मुझे याद नहीं कहाँ लेकिन कहीं सुना था कि एक बार माँ पार्वती ने भगवान शंकर से पूछा था कि बनारस की उम्र क्या और कितनी होगी तो अवधूत भगवान शंकर ने कहा था कि "यह आदि काल से भी पहले अनादि काल से बसी है यानि मानव सभ्यता के आदिम इतिहास काशी से जुड़ते है और जब तक सुरसर गामिनी भगीरथ नन्दिनी गंगा बनारस के घाट पर रहेगी तब तक काशी अक्षुण्ण रहेगी।" तो क्या गंगा के घाटों को छोड़ने के साथ ही मेरा शहर......? और कहीं अन्दर तक मन को हिला देती है यह भयानक कल्पना याद आता है, चना चबेना गंगा जल ज्यों पुरवै करतार, काशी कबहुँ न छोड़िये विश्वनाथ दरबार। अब तो न गंगा में 'गंगा जल' रह गया, न ही सबके लिये मुअस्सर 'विश्वनाथ दरबार। अब तो दोनों ही सरकारी निगहवानी में दिल्ली और लखनऊ के इशारों पर मिलते हैं। माँ गंगा और भगवान विश्वनाथ के सरकारीकरण से अपने शहर की स्थिति उतनी नहीं खराब हुई जितनी हम बनारसियों के नव भौतिकवादी सोच और तोर से बढ़कर मोर वाली अपसंस्कृति ने अपने शहर का नुकसान किया। शहर बढ़ता गया और हमारी सोच का दायरा सिकुड़ता गया। कभी लंगड़े आम व बरगद के पेड़ों और लकड़ी के खिलौने के लिए मशहूर बनारस में पेड़ों की छाँव अब गिने चुने उदाहरण बनकर रह गयी। 'मेरे घर की नींव पड़ोस के घर से नीची न रहे क्योंकि ऊँचे नाक का सवाल है।' इस 'नाँक' के सवाल ने बरसाती पानी के रास्तों को सीवर जाम, नाली जाम के भुलभुलैया में उलझा दिया तो पड़ोसी के दो हाथ के बदले हमारी चार हाथ सड़क की जमीन की सोच ने इस शहर को एक नई समस्या अतिक्रमण के नाम से दी। तालाब पोखरों का तो पता ही नहीं, कुयें क्या हम इन आलीशान मकानों के बेसमेन्ट में मोमबत्ती जलाकर ढूंढ़ेगें? ऊपर से तुर्रा यह कि तालाब, पोखरों, नदियों के सेहत का ख्याल रखने वाला वाराणसी विकास (उचित लगे तो विनाश भी पढ़ सकते है) प्राधिकरण खुद ही मानसिक रूप से बीमार होने की दशा में है। कितने तालाब, पोखरे पाट डाले गये यह कार्य उसके लिए "आरूषि हत्या काण्ड" की तरह किसी मर्डर मिस्ट्री, फाइनल रिपोर्ट, क्लोजर रिपोर्ट, रिइनवेस्टिगेशन से कम नही है और तो और दो तीन को तो वी०डी०ए० ने खुद ही पाट कर अपने फ्लैट खड़े कर दिये। शहर के जमींन मकान और योजनाओं का लेखा-जोखा रखने वाले तहसील, नगर निगम और वी०डी०ए० के पास अपना कोई प्रामाणिक आधार ही नहीं है जिस पर वे अतिक्रमणकारियों के खिलाफ ताल ठोंक सके। कम से कम वरूणा नदी और सिकरौल पोखरे के बारे में तो मेरा व्यक्तिगत अनुभव यही सिद्ध करता है।
कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन लब्बोलुआब यह है कि शहर की सेहत ठीक नही है। इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक अगर कहीं मानसून आ गया तो आम शहरी की चिन्ता यही है कि गर्मी की तपिश तो कम हो जायेगी लेकिन नाले बने गडढ़ेदार सड़कों से घर कैसे पहुँचेगें? इसी से तो बरसात चाहते हुए मन में एक दबी सी चाहत है कि दो चार दिन और मानसून टल जाये तो शायद..
अपनी ही नहीं सारे शहर की बात कहें तो एक शेर याद आता है-
सीने में जलन, आँखों में तूफान सा क्यूँ है।
इस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यूँ है।