शनिवार, 5 जून 2021

पर्यावरण रक्षा के लिये सुंदर लाल बहुगुणा जी का मंत्र

व्योमवार्ता/पर्यावरण रक्षा के लिये सुंदर लाल बहुगुणा जी का मंत्र.....
(व्योमेश चित्रवंश की डायरी,5जून2021) 

   वह शायद बीसवीं सदी के आखिरी दशक का तीसरा या चौथा वर्ष रहा होगा। हम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र थे तब तक मेरे लिखे स्तंभ और समसामयिक लेख देश के कई समाचारपत्रों मे छपने लगे थे। मन मे आरक्षण आंदोलन की विफलता को ले कर एक निराशा थी तो दूसरी ओर समाज देश के लिये कुछ अलग करने की सुलगती चिन्गारी जैसी ईच्छा। बड़े भाई राजीव कुमार सिंह के स्नेहसंबंधों के चलते उनके बाबूजी के स्मृति मे बने स्वैच्छिक संगठन डाॅ० शंभुनाथ सिंह रिसर्च फाऊण्डेशन से जुड़ाव हो चुका था वहीं उस समय के हमउम्र के साथी और  सामाजिक कार्यकर्ता डाँ०लेनिन जैसे मित्रों से सामाजिक सरोकारों पर चर्चायें होती रहती थी। उसी समय देश के जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता और हिमालय बचाओ आंदोलन के प्रमुख बाबा सुंदर लाल बहुगुणा जी का काशी आना हुआ। डा० लेनिन से वे पूर्व परिचित थे।सो डा० लेनिन के साथ ही हम भी उनसे मिलने गये संयोगवश काशी के सांस्कृतिकविद् और इन्टैक के नवनीत रमण भी बहुगुणा जी से मिलने आये थे।आठ दस लोग और थे जिनमे ज्यादातर हम लोगों के ही समवयस्क थे। चर्चा चल रही थी टिहरी बांध से लेकर उसके दुष्प्रभाव की, अविरल गंगाजल को बांधे जाने से गंगा जल के औषधीय गुणों के समाप्ति और प्रदूषण की। जो आज दिखने भी लगा है। बाबा के पास बताने के लिये बहुत कुछ था उनका विशाल अनुभव, संघर्ष, पीड़ा, पर्यावरणीय भविष्य को ले कर आशंकाये और सत्ता से संघर्ष मे असहाय होने की बेबसी। उनके मन की पीड़ा उनके वाणी के थरथराहट और आँखों मे बार बार छलकते आँसूओं मे रह रह बाहर आ जा रही थी। हम लोग समझ नही पा रहे थे कि हम जैसे लोग बाबा की पीड़ा को कैसे बाँट सकते है। तब नवनीत रमण ने बहुगुणा बाबा से पूछ ही लिया कि "बाबा हम लोग बनारस मे रह कर अपनी पढ़ाई लिखाई करते हुये आप का साथ कैसे दे सकते हैं?" और बहुगुणा बाबा ने जो आगे कहा वो मुझे आज तक रोमांचित कर जाता है। बहुगुणा जी ने हम लोगों से अपने आंदोलन मे शामिल होने को नही कहा। हमसे धरना प्रदर्शन जूलूस निकालने की अपेक्षा नही की बल्कि बहुगुणा जी ने बड़ी ही गंभीरता से कहा था कि
"बेटा,यहां किसी को साथ देने वाली बात ही नही है। खुद के लिये करने वाली बात है। आप जब किसी से कुछ मांगते हो तो उसे वापस करते हो न। ठीक उसी तरह हम प्रकृति देवता से जो लेते हैं उसे वापस करना हमारा धर्म है नही तो वह ऋण हम पर बना रहेगा।"
"परंतु कैसे बाबा? हम तो न उतने सक्षम है न ही हमारे पास जमीन जगह है कि कुछ कर सके?" हममें से किसी ने वास्तविक उत्सुकता जगाई थी।तब उन्होने बड़े शांत चित्त से एक सुझाव (मंत्र) दिया। हां, मै उनके उस सुझाव को मंत्र ही मानता हूं जो हम सब कर सकते है और समाज देश पर्यावरण को अपने स्तर से लाभ दे सकते हैं।
" एक मुट्ठी किसी भी वृक्ष के बीज ले लो और जहां कहीं तुम्हे खाली जगह दिखे उसमे बिखेर दो। प्रकृति देवता उन्हे अपने जरूरत से सहेज लेगें।अगर तुम्हारे एक मुट्ठी बीज से एक पौधा भी पनप कर वृक्ष बन गया तो तुम्हारा प्रयास सार्थक होगा।"
उसी वर्ष से हमने वृक्षारोपण प्रारंभ किया। आज अपने गांव से लेकर शहर तक अपने लगाये हुये लगभग तीन सौ से अधिक पेड़ो को देख कर सूकून मिलता है कि प्रकृति देवता के समस्त ऋणों मे थोड़ा सा ही हमने चुकाने का प्रयास तो किया है। गांव से लेकर आयर,पिण्ड्रा, लमही, सिगरा, लालपुर कालोनी, यू पी कालेज, कचहरी, मिंटहाऊस के पीछे कटिंग मेमोरियल प्राईमरी स्कूल, डगमगपुर कृषि फार्म, पाण्डेयपुर तालाब व पंचकोसी मार्ग पर लहलहाते पेड़ो को देख खुद को मिलने वाली खुशी को वास्तविक रूप से वही समझ सकता है जिसने कभी अपने लगाये हुये पेड़ के नीचे खड़े होकर उसकी छाया व हवा का सूकून महसूस किया हो। ऐसे मे साथ के मित्रों सहयोगियों अग्रजों का आभार आजीवन स्मरणीय रहेगा जिनमे राजीव भैया, सुधीर भाई, प्रेमचंद मार्गदर्शन केन्द्र के राजीव गोड़, ग्रीन सोसाईटी के जावेद, यू पी कालेज के डा० अरविन्द कुमार सिंह भैया, डा० कुलदीप सिंह, हमारी वरूणा अभियान के सूर्यभान सिंह पृथ्वीमित्र, जलप्रहरी फाउण्डेशन के सजल श्रीवास्तव जलप्रहरी और ढेर सारे नाम न याद रहे मित्रों के योगदान से ही यह संभव हो सका।
      बहुगुणा बाबा के मंत्र के अनुसार उसी साल से हर बरस बरसात के बाद जामुन और नीम के बीजों को इकट्ठा कर हाईवे किनारे पुलों पर रेलवे लाईन के किनारे खाली मैदानों और गंगा वरूणा के किनारों पर बिखेरने का संकल्प निर्वहन कर रहे हैं जिसमे गंगा वरूणा के किनारों पर सफलता नही दिखती पर अन्य स्थानों पर बढ़ रहे दो चार नीम व जामुन को देख लगता है कि वृक्षारोपण की मंत्र साधना पूर्णत: तो नही पर अत्यंत अल्प रूप मे ही सफल हो रही है।
       इस वर्ष सुंदर लाल बहुगुणा जी भी अपनी स्मृतियां छोड़ प्रकृति देवता के शरण मे चले गये उनके न रहने पर यह पहला पर्यावरण दिवस है। आज जामुन के बीजो को ईकट्ठा कर रिंगरोड पर बिखरने के लिये थैले मे भरते समय बार बार उनका यह मंत्र याद आ रहा है। अपने से एक मुट्ठी बीज बिखेर दो प्रकृति देवता उन्हे अपने हिसाब से सहेज लेगें। आज कोरोना के इस आपदा काल मे जब हम सब असहाय हो कर प्रकृति देवता पर सब कुछ छोड़ बैठे हैं तब प्राणवायु के सतत प्रवाह के लिये इस मंत्र का औचित्य और भी समझ मे आ रहा है। प्रकृति रक्षति रक्षित:।
(काशी,पर्यावरण दिवस 5जून 2021, शनिवार)
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सोमवार, 31 मई 2021

व्योमवार्ता / कोरोना के आगे......



#कोरोना के आगे........
  
( कोरोना 2 लाकडाऊन मे प्रेमचंद पथ पत्रिका द्वारा आयोजित राष्ट्रीय आनलाईन संगोष्ठी "विश्वास रखें सब अच्छा होगा" मे व्यक्त विचार,03मई 2021सोमवार)
                         वर्तमान समय बड़े मुश्किलों का है। इस तरह की आपदा के बारे मे संभवतः हम मे से किसी ने कल्पना भी नही की थी। फिल्मों व उपन्यासों की बात छोड़ दिया जाए तो यह चीन जनित मानव आपदा कोरोना हमारे देश ही नही मानव जाति की सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में सामने आई है जिसके समक्ष वर्तमान मे हम असहाय है। विज्ञान के नए आविष्कारों पर चढ़ कर मंगल और चंद्रमा तक यात्रा करने की क्षमता रखते हुए भी हम एक अति सूक्ष्म अदृश्य विषाणु के प्रकोप के आगे स्वयं को किंकर्तव्यविमूढ़ वाली स्थिति में मान नतमस्तक हो चुके हैं। कोरोना वाईरस ने जहां राष्ट्र व समाज को आर्थिक क्षति पहुंचाई उससे कहीं अधिक सामाजिक सांस्कृतिक  व पारिवारिक क्षति किया है। इस बीमारी ने मानवीय संवेदनाओं व संबंधों को तार-तार कर दिया। ऐसा नहीं कि मानवीय संवेदनाएं हमसे हमारे अंतस से समाप्त हो गई वरन स्वयं के प्राणरक्षा के भय ने इन संवेदनाओं की भ्रूणहत्या कर दी। संबंधों के तराजू पर स्वयं के प्राणों के आगे दूसरे पलड़े पर  संवेदना का कोई वजन कोई मूल्य चाह कर भी नहीं रहने दिया।       
                   जब वर्ष भर पहले कोरोना की पहली लहर आई थी तब यह मानवीय संवेदनाएं बेबसी में खुद को कसमसाते हुए इस आशा और उम्मीद से जी रही थी कि यह बुरा वक्त है चला जाएगा देश की जनता सरकार के प्रत्येक कदम में सहयोग की भावना के साथ कभी ताली बजाने से लेकर शंख घड़ियाल बजाती रही, कभी कोरोना से जूझ रहे फ्रण्टलाईन वारियर्स डाक्टर्स,पैरामेडिकल्स,पुलिस वालो का हौसला बढ़ाने के लिये दीपक जला कर उनका हौसला बढ़ाती रही। मनोवैज्ञानिक व सामरिक दृष्टि से देखें तो इसका लाभ भी हमें मिला। एक डेढ़ माह के कंप्लीट लॉकडाउन ने हमारे देश को कोरोना से लड़ने की प्राथमिक तैयारी का मौका दिया। मास्क से लेकर सैनिटाइजर, वेंटीलेटर जैसी जरूरी चीजों को तैयार कर हम कोरोना से लड़ने मैदान में आ गए तो सरकार ने आम गरीब जनता के राशन पानी तक की व्यवस्था की। पुलिस का संवेदनशील व सहयोगात्मक व्यवहार आम जन ने पहली बार महसूस किया। कोरोना वाईरस से इस पहली लड़ाई में पूरी तैयारी के साथ उतरने का लाभ यह रहा कि हम कोरोना के पहले युद्ध में विजई हुए। हमारे लड़ने के ढंग से लेकर मनोवैज्ञानिक सामरिकी तक की तारीफ पूरी दुनिया ने किया। इस मुश्किल वक्त मे एक दूसरे से हाथ में हाथ मिला कर जहां हमने एक दूसरे के बिखरे बिछड़े साथियों को ढूंढ़ना शुरू किया जहां हमने जमीन पर करोना को हराया वही अपने अंशदान से पीएम केयर्स फंड को समृद्ध किया। कोरोना के आपदा काल में शारीरिक और भौतिक दूरियां काफी होने के बावजूद हमने एक दूसरे के बिखरे बिछुड़े साथियों को ढूंढ़ ढूंढ कर एक माला में पिरोने का काम बड़े करीने से किया। स्कूली जमाने के दोस्तों से लेकर विश्वविद्यालय और संघर्ष के दिनों के बिखरे हुये साथी एक एक कर प्लेटफार्म पर इकट्ठे हुए और फेसबुक व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया पर कई कई ग्रुप बन गए। इन सोशल मीडिया ग्रुप ने केवल आभासी स्तर पर नहीं बल्कि वास्तविक धरातल पर भी आपस में एक समझदारी व साझेदारी कायम किया। आपसी संबंध भौतिक रूप से दूर रहने के बावजूद मन से जुड़ते गये, जिंदगी फिर वैसे ही चलने लगी जैसे कोरोना के पहले चलती थी। सरकार लगायत वैश्विक संगठन हमें बार-बार चेतावनी देते रहे पर हम फिर अपने रंग में रंग गए 'हम न मरब  मरिहै संसारा' के तर्ज पर ।
         भूल तो यही हो गई जो हमने काशी के गूढ़वादी फक्कड़ अलमस्त कबीर के 'हम न मरब मरिहै संसारा' का अर्थ न समझ खुद को ही  स्वयं संप्रभु मान बैठे। हमने यह नहीं सोचा, एक क्षण के लिए भी नहीं कि हम अपने अंदर के 'अहं' का प्रतीक है और यदि हमने अपने 'हम' अर्थात 'अहंकार' को नहीं मारा तो हम अपने 'जियावनहारा' अर्थात परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकते। यह परमात्मा ही कल्याणकारी हमारा सुख है हमारी शांति है हमारी संतुष्टि है।  परंतु हमने करोना के बाद अपने अहंकार को बस में नहीं किया , दिशानिर्देश नही माने, संकल्पबद्ध नही किये। मास्क सावधानी भीड़ सब को अनदेखा कर दिया हमने तो हमारे अहंकार को मारने प्रकृत को आना ही था। परिणाम सामने है आज करोना कि दूसरी लहर के आगे हम असहाय हैं। जिस भारत की पूरे विश्व में कोरोनावायरस के लिए प्रशंसा हो रही थी आज वही अपनी गलतियों से संपूर्ण विश्व का दयापात्र बना हुआ है। गलती कहां हुई? यह आत्मआलोचना व आत्मनिरीक्षण का विषय है पर कड़ुआ सच यह है कि हम में से कोई भी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकता।चाहे वह प्रधानमंत्री हो या प्रधान सचिव ग्राम प्रधान हो या गांव के पटवारी। वास्तविकता यह है कि हम सब ने बेहद गैर जिम्मेदाराना तरीके से अपनी लापरवाही प्रदर्शित किया है।आज बंगाल तमिलनाडु, पुडुचेरी, असम के विधानसभा चुनाव के लिए न्यायपालिका हाई कोर्ट मद्रास चुनाव आयोग को हत्या जैसे अपराध का दोषी बताती है। वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट पंचायत चुनाव पर उत्तर प्रदेश सरकार को अप्रैल के आखिरी तारीख तक अनिवार्य रूप से चुनाव कराने का आदेश देकर स्वयं को साफ पाक कैसे कह सकती है?वही देश के सर्वोच्च जिम्मेदार पदों पर बैठे हुए प्रधानमंत्री और गृह मंत्री, मुख्यमंत्री सहित बड़े-बड़े राजनेताओं द्वारा की जाने वाली चुनाव रैलियों में 'दो गज की दूरी मास्क है जरूरी' का सिद्धांत चुनावी प्रचार पार्टियों मे चुनावी पम्फलेट की तरह उड़ता नजर आया। देश के सबसे बड़े प्रदेश के मुख्यमंत्री और सरकार कोरोना की सुनामी को झेलने के बावजूद उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए पाँच सर्वाधिक प्रभावित जिलों में लॉकडाउन लगाने के निर्देशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाकर स्टे ले आए और हमारा सर्वोच्च न्यायालय दूसरे प्रदेशों में हो रही घोर लापरवाही प्राणवायु और अस्पतालों में पेड़ों और श्मशान में अंतिम संस्कार के लिए तीन-तीन दिनों से लाइन में लगे लोगों के सहूलियत के लिए कड़ी टिप्पणी जारी करने के बावजूद उच्च न्यायालय के निर्देश को स्थगित कर दें तो आमजन अपने अपनों की सेवा चिकित्सा और प्राण रक्षा के लिए कहां जाएं ? जनता की दृष्टि मे इस कागजी कवायद ने न्यायपालिका पर भी मूकप्रश्न उठाया है। बार-बार चिकित्सा सेवा और सुविधाओं के विस्तारीकरण की आवश्यकता और आवश्यक धनराशि होने के बावजूद हमारे सर्वशक्तिमान सत्तानियंता व अधिकारीगण पूरे साल में 1000 वेंटिलेटर और हर जनपद में ऑक्सीजन प्लांट भी नहीं लगा पाए तो दूसरों को सामाजिक दूरी बनाए रखने के निर्देश देने वाले न्यायालयों में सोशल डिस्टेंसिंग का कितना अनुपालन हुआ यह किसी से छिपा नहीं है फिर आम जनता तो नियम कानून ना मानने को अपना जन्मसिद्ध मूल अधिकार ही मानती है उसके लिए '2 गज की दूरी मास्क है जरूरी' सैनिटाइजेशन सोशल डिस्टेंसिंग जैसी बातें ही बेमानी थी। कुल मिला जुला कर अगर हम पूरे कोरोना सुनामी के दूसरे लहर के लिए किसी पर उंगली उठाने की स्थिति में है तो वह शीश महल में पत्थर फेंक कर उसके किरिचों मे खुद का बिगड़ता चेहरा देखने वाली बात होगी।
             परन्तु कोरोना का जो सर्वाधिक दुखद पहलू है आपसी संवेदनाओं और संबंधों की तिलांजलि। कोरोनावायरस आज के समय में अश्पृश्य जैसे हो गए जहां पुत्र पिता की, व्यक्ति अपने निकटतम परिजनों की अंत्येष्टि भी नहीं कर पाया। छोटी-छोटी घटनाओं पर एक दूसरे से कंधा मिलाने वाले लोग आज मृत्यु जैसे संस्कारों पर भी साथ नहीं दे पा रहे हैं। आपदा मे अवसर के नाम पर मानव गिद्धों ने दो रूपये की दवायें बीस रूपये और 899/- का रेमडेसिवर ७५ हजार एक लाख मे बेंचने से बाज नही आये।  अस्पतालों ने कोरोना के नाम पर बिना किसी सुविधा के १५००/- वाले  बेड पर डेढ़ लाख रूपये तक वसूला तो लाशों को कंधा देने के नाम पर दस कदम तक लाश पहुंचाने के आठ से सोलह हजार , एंबुलेंस के किराये  दो दो लाख रूपये तक वसूले गये। नकली दवा इंजेक्सन डाक्टर ड्राईवर एंबुलेंस की तो बात ही छोड़ दिजिये। किस मानसिक आर्थिक आध्यात्मिक विकास की ओर बढ़ रहा है हमारा भारतीय समाज? कैसे बचा जाय इन मानव गिद्धों से यह प्रश्न तो सदैव खड़ा रहेगा।
                      हम निराशाजनक और नकारात्मक पहलू को छोड़ दें तो हर व्यक्ति मन से एक दूसरे के पीड़ा में शरीक हैं यदि वह भौतिक रूप से अपनों के लिए उपस्थित नहीं हो पा रहा है तो यह उसकी मर्जी या मनोदशा नहीं है वरन आज की दुर्गम परिस्थितियां हैं। मैं फेसबुक व्हाट्सएप और अखबारों में श्रद्धांजलि कार्यक्रम देखता हूं कि इस आपदा काल में अपनी आवास से ही मृत आत्मा को श्रद्धांजलि दें तो सोचता हूं यह विनम्र निवेदन है या सूचना की औपचारिकता?कभी हमने ऐसे परिवेश और परिस्थिति की कल्पना भी नहीं की थी पर जो सच हमारे सामने हैं हम उसे अस्वीकार नही कर सकते । आज हमें उसमें ही स्वयं को समायोजित करने के अतिरिक्त कोई पर्याय भी नहीं है । आवश्यकता परिस्थितियों को सकारात्मक रूप से लेने की है। माल्थस ने कहा था प्रकृति अपने आवश्यकतानुसार जनसंख्या को नियंत्रित करती है संभवत यह प्रकृति का ही स्व नियंत्रण हो, पर प्रकृति ने हमें बहुत कुछ दिया भी है उसका भी हमें धन्यवाद देना चाहिए कभी-कभी किसी पेड़ के नीचे बैठकर उस पर चहचहाती चिड़ियों की आवाज सुनिए और पेड़ के पत्तों से बहते हुए सनसनाहट को महसूस करिए तब आपको पता चलेगा की प्रकृति ने हमें कितनी प्यारी चीजें दी है। कभी किसी तालाब के किनारे चुपचाप बैठ उसमें भागती उछलती मछलियों को देखिए और उन पर ध्यान लगाए बगूले की एकाग्रता को महसूस कीजिए तब पता चलेगा कि संसार में कोरोनावायरस केअतिरिक्त भी बहुत कुछ है जोअच्छा है बस उसे देखने की जरूरत है। जीवन की आपाधापी में हमने उसके लिए दो पल का वक्त ही नहीं निकाला । कुछ नहीं तो घर के बाहर एक छोटे खुले डिब्बे में चिड़ियों के लिए पानी रखकर गमले में खुद के लगाए पौधे को ध्यान से देखिए तब लगेगा कि जीवन बहुत खुशनुमा है और कोरोनावायरस कुछ भी नही बल्कि इससे हट के जिन्दगी बहुत कुछ है जिसे जीना है महसूस करना है आनंद लेना है।

-व्योमेश चित्रवंश
संपर्क सूत्रः 9450960851
(लेखक विधि व्यवसायी व पर्यावरण सामाजिक कार्यकर्ता है।)
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