व्योमवार्ता/पर्यावरण रक्षा के लिये सुंदर लाल बहुगुणा जी का मंत्र.....
(व्योमेश चित्रवंश की डायरी,5जून2021)
वह शायद बीसवीं सदी के आखिरी दशक का तीसरा या चौथा वर्ष रहा होगा। हम काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र थे तब तक मेरे लिखे स्तंभ और समसामयिक लेख देश के कई समाचारपत्रों मे छपने लगे थे। मन मे आरक्षण आंदोलन की विफलता को ले कर एक निराशा थी तो दूसरी ओर समाज देश के लिये कुछ अलग करने की सुलगती चिन्गारी जैसी ईच्छा। बड़े भाई राजीव कुमार सिंह के स्नेहसंबंधों के चलते उनके बाबूजी के स्मृति मे बने स्वैच्छिक संगठन डाॅ० शंभुनाथ सिंह रिसर्च फाऊण्डेशन से जुड़ाव हो चुका था वहीं उस समय के हमउम्र के साथी और सामाजिक कार्यकर्ता डाँ०लेनिन जैसे मित्रों से सामाजिक सरोकारों पर चर्चायें होती रहती थी। उसी समय देश के जाने माने पर्यावरण कार्यकर्ता और हिमालय बचाओ आंदोलन के प्रमुख बाबा सुंदर लाल बहुगुणा जी का काशी आना हुआ। डा० लेनिन से वे पूर्व परिचित थे।सो डा० लेनिन के साथ ही हम भी उनसे मिलने गये संयोगवश काशी के सांस्कृतिकविद् और इन्टैक के नवनीत रमण भी बहुगुणा जी से मिलने आये थे।आठ दस लोग और थे जिनमे ज्यादातर हम लोगों के ही समवयस्क थे। चर्चा चल रही थी टिहरी बांध से लेकर उसके दुष्प्रभाव की, अविरल गंगाजल को बांधे जाने से गंगा जल के औषधीय गुणों के समाप्ति और प्रदूषण की। जो आज दिखने भी लगा है। बाबा के पास बताने के लिये बहुत कुछ था उनका विशाल अनुभव, संघर्ष, पीड़ा, पर्यावरणीय भविष्य को ले कर आशंकाये और सत्ता से संघर्ष मे असहाय होने की बेबसी। उनके मन की पीड़ा उनके वाणी के थरथराहट और आँखों मे बार बार छलकते आँसूओं मे रह रह बाहर आ जा रही थी। हम लोग समझ नही पा रहे थे कि हम जैसे लोग बाबा की पीड़ा को कैसे बाँट सकते है। तब नवनीत रमण ने बहुगुणा बाबा से पूछ ही लिया कि "बाबा हम लोग बनारस मे रह कर अपनी पढ़ाई लिखाई करते हुये आप का साथ कैसे दे सकते हैं?" और बहुगुणा बाबा ने जो आगे कहा वो मुझे आज तक रोमांचित कर जाता है। बहुगुणा जी ने हम लोगों से अपने आंदोलन मे शामिल होने को नही कहा। हमसे धरना प्रदर्शन जूलूस निकालने की अपेक्षा नही की बल्कि बहुगुणा जी ने बड़ी ही गंभीरता से कहा था कि
"बेटा,यहां किसी को साथ देने वाली बात ही नही है। खुद के लिये करने वाली बात है। आप जब किसी से कुछ मांगते हो तो उसे वापस करते हो न। ठीक उसी तरह हम प्रकृति देवता से जो लेते हैं उसे वापस करना हमारा धर्म है नही तो वह ऋण हम पर बना रहेगा।"
"परंतु कैसे बाबा? हम तो न उतने सक्षम है न ही हमारे पास जमीन जगह है कि कुछ कर सके?" हममें से किसी ने वास्तविक उत्सुकता जगाई थी।तब उन्होने बड़े शांत चित्त से एक सुझाव (मंत्र) दिया। हां, मै उनके उस सुझाव को मंत्र ही मानता हूं जो हम सब कर सकते है और समाज देश पर्यावरण को अपने स्तर से लाभ दे सकते हैं।
" एक मुट्ठी किसी भी वृक्ष के बीज ले लो और जहां कहीं तुम्हे खाली जगह दिखे उसमे बिखेर दो। प्रकृति देवता उन्हे अपने जरूरत से सहेज लेगें।अगर तुम्हारे एक मुट्ठी बीज से एक पौधा भी पनप कर वृक्ष बन गया तो तुम्हारा प्रयास सार्थक होगा।"
उसी वर्ष से हमने वृक्षारोपण प्रारंभ किया। आज अपने गांव से लेकर शहर तक अपने लगाये हुये लगभग तीन सौ से अधिक पेड़ो को देख कर सूकून मिलता है कि प्रकृति देवता के समस्त ऋणों मे थोड़ा सा ही हमने चुकाने का प्रयास तो किया है। गांव से लेकर आयर,पिण्ड्रा, लमही, सिगरा, लालपुर कालोनी, यू पी कालेज, कचहरी, मिंटहाऊस के पीछे कटिंग मेमोरियल प्राईमरी स्कूल, डगमगपुर कृषि फार्म, पाण्डेयपुर तालाब व पंचकोसी मार्ग पर लहलहाते पेड़ो को देख खुद को मिलने वाली खुशी को वास्तविक रूप से वही समझ सकता है जिसने कभी अपने लगाये हुये पेड़ के नीचे खड़े होकर उसकी छाया व हवा का सूकून महसूस किया हो। ऐसे मे साथ के मित्रों सहयोगियों अग्रजों का आभार आजीवन स्मरणीय रहेगा जिनमे राजीव भैया, सुधीर भाई, प्रेमचंद मार्गदर्शन केन्द्र के राजीव गोड़, ग्रीन सोसाईटी के जावेद, यू पी कालेज के डा० अरविन्द कुमार सिंह भैया, डा० कुलदीप सिंह, हमारी वरूणा अभियान के सूर्यभान सिंह पृथ्वीमित्र, जलप्रहरी फाउण्डेशन के सजल श्रीवास्तव जलप्रहरी और ढेर सारे नाम न याद रहे मित्रों के योगदान से ही यह संभव हो सका।
बहुगुणा बाबा के मंत्र के अनुसार उसी साल से हर बरस बरसात के बाद जामुन और नीम के बीजों को इकट्ठा कर हाईवे किनारे पुलों पर रेलवे लाईन के किनारे खाली मैदानों और गंगा वरूणा के किनारों पर बिखेरने का संकल्प निर्वहन कर रहे हैं जिसमे गंगा वरूणा के किनारों पर सफलता नही दिखती पर अन्य स्थानों पर बढ़ रहे दो चार नीम व जामुन को देख लगता है कि वृक्षारोपण की मंत्र साधना पूर्णत: तो नही पर अत्यंत अल्प रूप मे ही सफल हो रही है।
इस वर्ष सुंदर लाल बहुगुणा जी भी अपनी स्मृतियां छोड़ प्रकृति देवता के शरण मे चले गये उनके न रहने पर यह पहला पर्यावरण दिवस है। आज जामुन के बीजो को ईकट्ठा कर रिंगरोड पर बिखरने के लिये थैले मे भरते समय बार बार उनका यह मंत्र याद आ रहा है। अपने से एक मुट्ठी बीज बिखेर दो प्रकृति देवता उन्हे अपने हिसाब से सहेज लेगें। आज कोरोना के इस आपदा काल मे जब हम सब असहाय हो कर प्रकृति देवता पर सब कुछ छोड़ बैठे हैं तब प्राणवायु के सतत प्रवाह के लिये इस मंत्र का औचित्य और भी समझ मे आ रहा है। प्रकृति रक्षति रक्षित:।
(काशी,पर्यावरण दिवस 5जून 2021, शनिवार)
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