रविवार, 30 अक्तूबर 2016

दीवाली की बातें :व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 29 अक्टूबर 2016)

अपना ऑगन कुछ कहता है : दीवाली की बातें (व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 29 अक्टूबर 2016)

जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं,
एक दिया वहाँ भी जलाना;
जाना, फिर जाना,
एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है,
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंधभरा पानी फैला है,
एक दिया उस घर में -
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं,
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती हैं
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है,
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है,
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है,
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दिया इस चौखट,
एक दिया उस ताखे,
एक दिया उस बरगद के तले जलाना,
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना!
                                - केदारनाथ सिंह

            आज छोटी दीवाली है। सॉझ जब टहल कर यूपी कालेज से आ रहा था, तो घूरे पर यम का दीया जल चुका था। वैसे तो अब घूर दिखते ही नही, तो लोगों ने अपने घर के दरवाजे पर ही यम का दीया निकाल दिया है। कहीं-कहीं नगरनिगम के कृपा या लापरवाही जो भी कह लें कूड़ा दिख जाता है पर उनके बजबजाते बदबू मे अपने घर के पिछवाड़े वाले घूरे की बात नही. हवा में एक बारूदी महक फैली है, और सड़कों पर हल्की से लेकर तेज आवाज वाले बम पटाखे चलाते बच्चे। घर पहुँच कर टीवी खोलते ही अपने एक जवान के शहीद होने की खबर , मन कहीं विचलित हो जाता है और दूर पीछे कहीं गॉव मे जा कर भटकने लगता है। पिछले रविवार को गॉव गया था। खुद से घर का ताला खोल कर अंदर जाने पर एक उदासी भरा सन्नाटा। ऑगन मे फैली हुई सूखी उड़ कर आई नीम की पीली सुनहली पत्तियॉ, चारो कोने मे उग आये खर पतवार और अंदर कमरों मे सिंकसिकाये से सीढ़न लगे बिस्तर। मॉ की तबियत खराब होने से पिछले पॉच छह महीनों से गॉव वाले घर में ताला बंद है। बाड़े मे सूरन बोया गया था , सोचा थोड़ा खोद लूँ तो दीवाली पर काम आयेगा। बाड़ा भी झाड़ झंखाड़ खर पतवार से भरा था। थोड़ी साफ सफाई कर फरसा चलाना शुरू किया तो अगल बगल के कुछेक बच्चे व चाहने वाले आ गये। बात चीत शुरू हुई। तभी बगल के बच्चे लौटन ने बताया कि कहीं से तीन सेंहुआर गॉव मे आ गये है और वे सब मेरे बाड़े मे खूब धमाल मचाते है, सोचा कि जब लोग बाग नही रहेगें तो सेन्हुआर ही धमाल मचायेगें। खाली हो के गॉव मे निकला तो लगभग पूरे गॉव मे अपने घर जैसे ही स्थिति देखने को मिली। ज्यादातर लोग रोटी रोजगार, पढ़ाई दवाई के जरूरतो के कारण बनारस, दिल्ली, लखनऊ, मुंबई मे बस गये है। दिल्ली, मुंबई व दूर वाले तो साल छमाही गॉव आ जाते है पर बनारस वाले जिन्होने अपना मकान बनवा लिया है वे बनारस के ही हो कर रह गये है। हर घर का कमोबेस यही हालत है। घर के आगे दुआर, व दुआरे पर बंधी हुई गाय बस फिल्मो मे देखने मे आती है। पगडण्डियॉ अब खडंजा व इंटरलाक में तब्दील हो गयी है। अब वे कुहॉसे मे नही डूबती बल्कि बिजली के खंभों पर जल रहे लट्टूओं से प्रकाशवान रहती है. गॉव अब बाहर वाले रोड पर खुले मधुशाला के नये ठीके के चलते देर रात तक गाली गलौज से गुलजार रहता है। गगरी बस माता मैय्या के पूजे पर शुभ के लिये रखी जाती है। लोहे व अल्यूमुनियम के साथ प्लास्टिक के बाल्टी व ड्रम ने गगरी के रखने के निसान वाले गड्ढों को ढक लिया है। कुँओ पर अब रस्सी के बजाय वाटर पंपो के पाईप व तार नजर आते है। अब आपस मे मिलने पर जयरम्मी व बंदगी के मीठे प्यारे बोलों के बजाय हाथ मे दबे मोबाईल के हैलो ने ले लिया है। मैदान मे कबड्डी व सुटुरिया पटर के पहाड़े नही सुनाई पड़ते न ही मैदान मे अब बच्चो की तूतू मैमै सुनने को मिलती है। हॉ इसके बजाय वे बच्चे शाम को टीवी डिस के पास बैठे मिलते है।
गॉव का चौबारा कहीं खो गया है , बरगद भी सूखने लगा है। मै बार बार अपना गॉव ढूढ़ना चाहता हूँ पर वो लगता है कि शहरों के चकाचौंध से प्रभावित हो के कहीं खो गया है।
मै फिर से एक दीया जलाना चाहता हूँ पर घर के ऑगन का तुलसी का बिरवा, पियरी की चन्नी, झबरा का दरबा ,गॉव का शिवाला, चौरा माई का देवथान,सब तीतर बीतर हो गये है। गॉव का चौघट्टा, सीवान, मैदान ,चौबारा सब हम लोगो  के साथ साथ अपना स्वरूप व स्वभाव बदल चुके है। कैसे दीया जले और कैसे मन का कलुष मिटे?
      बारूदी गंध, टीवी की बोझिल खबरों व बम पटाखों के शोर शराबे मे मेरे ही समान यूपीकालेज के ही पुराने छात्र रहे डॉ० केदार नाथ सिंह की शायद इसी मनस्थिति मे लिखी कविता बार बार याद आ रही है। मन कहीं न कहीं गॉव की शांत ज्योतिमय दीवाली को खोज रहा है ऐसे मे एक नये मित्र का फोन आया कि रात मे आईये पत्तों के साथ बढ़ियॉ प्रोग्राम है। मैने क्षमा याचना किया कि भाई हमे तो पत्ते खेलने ही नही आते। इस पर उन्होने उपहास उड़ाते हुये कहा" क्या वकील साहब, आप भी किस युग मे जीते है। पत्ते नही खेलने पर अगला जनम छछुंदर का होगा।" मै क्या जबाब देता पर अब यह सोच रहा हूँ कि अगर दीवाली पर मन का कलुष न मिटा पाये , किसी गरीब जरूरतमंद के होठों पर मुस्कान नही ला पाये और अपने गॉव के उस अपनापन भरे त्यौहार के बजाय शहर के इस दिखावटीपन के चकाचौंध मे अपने ऑगन मे उजियाला न फैला सके तो हमे छंछुदर का जनम ही सहज रूप से स्वीकार है।
http://chitravansh.blogspot.in

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