बुधवार, 19 जून 2024

व्योमवार्ता/ समाज जिसमे हम रहते हैं...../जरूरत परिवार संस्था को बचाने की...

जरूरत 'परिवार' संस्था को बचाने की-

            क्या आपको आशा साहनी, विजयपति सिंघानिया और सुरेन्द्र दास याद हैं? नाम कुछ सुना हुआ लग रहा है पर सही-सही याद नहीं आ रहा है। आज कुछ ऐसी ही स्थिति परिवार नामक संस्था की है। परिवार की प्रवधारणा हमारे मन मस्तिष्क में है पर हम उसके वास्तविक महत्व को नहीं समझ पा रहे हैं। चलिए, पहले आपकी उत्सुकता भरी उलझन दूर करते हुए इन तीनों के बारे में बताते हैं। वर्ष 2018 में इन तीनों व्यक्तियों के साथ घटित घटनाओं ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया था। शायद आप भी विचलित होते हुए हो, पर जीवन की रोजमर्रा की आपधापी में दो-चार दिन के बाद ये तीनों घटनायें विस्मृत हो गयी। आशा साहनी उम्र 63 वर्ष, मुम्बई के अभिजात्य इलाके के एक हाउसिंग सोसाइटी के फ्लैट में रहती थी, उसी सोसाइटी में उनका एक और फ्लैट भी था। दोनों फ्लैटों की कीमत आज की तारीख में लगभग 8 करोड़ रूपये से अधिक होगी। वर्ष 2013 में पति की मृत्यु के बाद वह अकेले ही रहती थी क्योंकि एकमात्र पुत्र रितूराज साहनी अमेरिका में बहुराष्ट्रीय कम्पनी में डालर की मोटी गड्डी वाली नौकरी करता था। अप्रैल 2016 में आशा ने अपने पुत्र रितूराज को फोन पर बताया था कि उसे अकेलापन सताता है, अकेले रहने में डर लगता है इसलिए वह उसे ले चले क्योंकि वह अकेली नही रहना चाहती। बेटे ने माँ की बात सुनकर फिर फोन पर बात करने का आश्वासन दिया। अप्रैल 2016 के पश्चात माँ के बारे में सोचने की फुरसत बेटे रितूराज को अगस्त 2018 में 6 तारीख को मिली, जब वह कम्पनी में काम से मुम्बई आया। फ्लैट अन्दर से बन्द था। पड़ोसियों ने बताया कि उन्होंने पिछले सात-आठ महीनों से फ्लैट को कभी खुलते नहीं देखा। बार-बार घण्टी बजाने पर जब दरवाजा नहीं खुला और बेटे रितूराज ने फ्लैट का दरवाजा तोड़वाया तो माँ आशा साहनी बेड पर बैठी मिली। कपड़ों के भीतर सिर्फ हड्डियों के ढाँचे में, उसके मॉस व चमड़े गलकर अलग हो गये थे जिन्हें चींटियों ने खा डाला था। कंकाल रूपी मॉ के बैठने की स्थिति देखकर लग रहा था कि उसकी आँखे दरवाजे पर ही टिकी थी बेटे के इंतजार में। पर क्या बेटा समय पर आकर अपने कर्तव्य का निर्वहन कर पाया?
                    दूसरी घटना रेमण्ड ग्रुप ऑफ इण्डस्ट्रिज के मालिक 80 वर्षीय विजयपति सिंघानिया की है। देश के नामी उद्योगपतियों में शामिल विजयपति सिंघानिया बारह हजार करोड़ के औद्योगिक साम्राज्य के स्वामी होने के साथ-साथ बेहद जिन्दादिल और अपने शौक को पूरा करने वाले खुशनसीब इंसानों में शुमार हुआ करते थे। एक अच्छे पायलट होने के साथ सामाजिक क्रिया कलापों एवं साहसिक कारनामों में दखल जैसे कार्यों के चलते वे पद्मविभूषण सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। एक जमानें में मुंबई की सबसे ऊँची 36 मंजिली ईमारत में जे.के. हाउस में रहने वाले विजयपति आज किराये के कमरे में रहने के साथ-साथ पैसे पैसे को मोहताज हैं। उन्होंने अपने इकलौते पुत्र गौतम सिंघानिया पर व्यापार, सम्पत्ति, घर सब कुछ हड़पने का आरोप लगाया है।
          सुरेन्द्र दास बलिया के एक मध्यमवर्गीय परिवार से निकले आईआईटी खड्गपुर से इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग में बीटेक थे। उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा को उत्तीर्ण कर अपने गाँव का प्रथम आईपीएस बनने का गौरव प्राप्त किया। आईपीएस बनने के बाद उन्होंने पेशे से चिकित्सक डॉ० रवीना से मैट्रिमोनियल साईट पर परिचित होकर अन्तर्जातीय विवाह किया। विवाह के एक वर्ष बाद ही पारिवारिक उलझनों के चलते साथ-सुथरी छवि वाले मात्र तीस वर्ष के ईमानदार आईपीएस सुरेन्द्र दास ने जहर खाकर सितम्बर 2018 में आत्महत्या कर लिया। ये तीनों घटनायें तीन विभिन्न परिस्थिति, परिवेश और अलग-अलग स्थानों की हैं जिनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं है। आर्थिक व सामाजिक ताने-बाने में भी ये तीनों घटनाएं उच्च, मध्यम व टप्रवर मध्य वर्ग से हैं परन्तु ध्यानपूर्वक देखा जाये तो तीनों ही घटनाओं के पीछे व्यक्ति की हताश मनोवृत्ति है जो उसे स्वयं से अन्दर ही अन्दर जूझते हुए कमजोर करती है। मुझे व्यक्तिगत तौर पर यह महसूस होता है कि इस कमजोरी का मुख्य कारण आत्मबल का अभाव या कमी है जिसकी भरपाई परिवार संस्था से की जाती है। हमारे समाज में दिनोदिन परिवार के ताने-बाने के कमजोर होने या नष्ट होने से इस तरह की घटनायें हो रही हैं और होती रहेंगी। बात आशा साहनी के बेटे के जीवन शैली से करें तो कारण ज्यादा स्पष्ट होंगे। वर्ष 2013 में अपने पिता के मृत्यु के पश्चात क्या रितूराज यह जानता नहीं था कि मुंबई जैसे महानगर में उसकी बूढ़ी माँ अकेले रह रही है। क्या वर्ष अप्रैल, 2016 में माँ के डर व अकेलेपन की बात फोन पर सुनने के बाद भी वह अपनी 60 वर्षीय मॉ के दर्द को नहीं समझ पाया? और तो और, अन्तिम बार अप्रैल, 2016 में बूढ़ी माँ का फोन मिलने के बाद उसे अपनी माँ को फोन करने और हाल-चाल जानने में उसे दो साल से भी ज्यादा वक्त में समय ही नही मिल सका? क्या मुंबई जैसे शहर में अपना बचपन और जवानी के आठ-दस वर्ष बिताने वाले रितूराज का पूरे शहर में कोई रिश्तेदार, दोस्त, परिजन ऐसा नहीं था जिससे वह उन सवा दो वर्षों के अन्तराल में माँ का हाल पता कर सके? बात विजयपति सिंघानिया की करें तब भी ऐसे ही ढेरों सवाल उठते हैं। क्या कारण थे कि बाप विजयपति की बनाई हुई सारी सम्पत्ति से इकलौते बेटे गौतम ने उन्हें बेदखल करते हुए कौड़ी-कौड़ी का मोहताज बना दिया? क्या गौतम को समझाने, बताने वाला उसके परिवार, रिश्तेदार, नातेदार में ऐसा कोई नहीं जो उसे पिता के महत्व को बता सके? क्या विजयपति का कोई परिचित, दोस्त, परिजन और रिश्तेदार नहीं जो उन्हें सूकून की छाया और दोनों वक्त दो रोटी दे सके? सुरेन्द्र दास का प्रकरण तो हासिये से और परे हो जाता है। स्व० सुरेन्द्र के ससुर जो चिकित्सा विभाग में निदेशक स्तर के अधिकारी हैं, उनका आरोप है कि सुरेन्द्र के परिवार वाले उसे पैसा कमाने की मशीन समझते थे और पैसे के लिए हमेशा परेशान करते थे। जबकि सुरेन्द्र केम माँ और भाई का कहना है कि सुरेन्द्र की पत्नी सुरेन्द्र को अपने घेरे में लेकर उसे सुरेन्द्र के मौलिक परिवार से अलग-थलग कर दी थी और पिछले महीनों से उसे मॉ से बात भी नहीं करने देती थी जिससे वह काफी परेशान होकर आत्महत्या करने को मजबूर हो गया। 
सच क्या है? 
इस बारे में सिर्फ कयास लगाया जा सकता है परन्तु इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि आदमियत के रिश्तों में फर्क पड़ता जा रहा है। परिवार की अवधारणा सिमट कर न्यूक्लियस फैमिली हम दो हमारे दो से और संकीर्ण हो हम दो हमारे एक से होते हुए अब एकाकी पर केन्द्रित होकर रह गया है। ये अहसास कि दुनिया में मेरा कोई नहीं है, किसी को मेरी जरूरत नहीं है। मैं कुछ भी होने की वजह नहीं हूँ। इससे बड़ी बदनसीबी किसी भी इन्सान और इंसानी समाज के लिए कुछ भी नहीं। एक शायर की पंक्तियों याद आ रही है-
'इक जमाना था कि 
सब एक जगह रहते थे 
और अब कोई कहीं, 
कोई कहीं रहता है 
पहले तो हर बात पर 
रूसवाई का डर लगता था 
अब कोई भी टोकने वाला नहीं, 
मेरे परिवार में। 
यह टोकना ही परिवार का अपनापन था जो पूरे परिवार को सामूहिक बन्धन व जिम्मेदारियों में जकड़ा रहता था। तब हर सदस्य घर के बाकी लोगों के साथ अपनी खुशियों ही नहीं, दुःख और परेशानियाँ भी बॉटता था। सबकी लाठी एक का बोझ बनकर थे, परेशानी कब हवा में कपूर बन खत्म हो जाती थी, एहसास भी नहीं होता था। भारतीय परिवेश से दूर आगस्त कांटे ने परिवार के लिए कहा है कि परिवार समाज की आधारभूत इकाई है. जहाँ अच्छा परिवार समाज के लिए वरदान है, वहीं बुरा परिवार एक अभिशाप से कम नहीं है। प्लेटों ने भी परिवार को जीवन की बुनियादी पहलू की प्रथम पाठशाला कहा है। भारतीय परिवेश में तो परिवार के कई मायने हुआ करते थे। एक जन्मना परिवार जहाँ बच्चा जन्म लेकर नाम पाने के साथ-साथ मॉ, पिता, चाचा, बुआ, ताई, दादा-दादी, भैया-बहना के रिश्ते पाता था, वहीं गुरूकुल में जाने पर उसका एक समवयस्क परिवार मिलता था जिसे गोत्र के नाम से जाना जाता था। गुरू और आश्रम के द्वारा दिये हुए गोत्र परिवार से एक अलग सामाजिक संरचना बनती थी। इन दोनों से ऊपर गाँव के रिश्ते जिसमें ढेर सारे मुँहबोले रिश्तों का परिवार होता था। 
उस जमाने में परिवार में कितने ही लोग रहते थे, परिवार हँसता, खेलता था और एक दूसरे से एकदम जुड़ा रहता था, पैसे कम होते थे पर उसमें भी बड़ी बरक्कत होती थी। घर में कोई खुशी की बात होती थी तो बाहर वालों को बुलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी, पर आज परिवार कितने छोटे हो गये हैं और टूटते जा रह हैं, हमारे रिश्ते बिखरते जा रहे हैं। रिश्तों में वो मिठास नहीं रह गयी है। एलपीजी (लिबरलाईजेशन, प्राइवेटाईजेशन, ग्लोबनाईजेशन) के अवधारणा के बाद सदी के आखिरी दशक से भौतिकता के प्रति अंधी दौड़, शहरों में पलायन और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा ने संयुक्त परिवार को समाप्त कर रिश्तों में दरारें डाल एकल परिवार की भूमिका को समाज में सबसे अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर दिया। समाज की व्यक्तिवादी सोच ने दादी-दादा, चाचा-चाची, बुआ, मौसी और मामा के रिश्ते ही खत्म कर दिये। घर के दरवाजे छोटे होते थे पर घर बड़े और घर की दहलीज के अंदर रहने वाले बड़े मन व सोच के होते थे उनके मन मे एक दूसरे के प्रति अपनापन और अपार स्नेह था। आज घर छोटे हो गये बस दरवाजे बड़़े हो गये परन्तु  उनके भीतर रहने वालों की सोच संकीर्ण और छोटी हो गई। आज परिवार के टूटन के साथ गांव हटते गये और हमने गांव की सरहद पर ही संस्कार भी छोड़ दिया। खरीदी गयी शिक्षा व्यवस्था ने नारी पुरूष समानता के नाम पर संस्कार विहीन व्यक्तिवादी अधिकार के ऐसे बीज रोप दिये कि उनकी जड़ व भविष्य विहीन लहलहाती फसल परिवार न्यायालयों में विवाह विच्छेद से लेकर गुजारे भत्ते की मुकदमों में दिख रही है। एक दरवाजे की हवेली से निकले परिवारों ने शहरी अपार्टमेण्ट के कई दरवाजे वाले फ्लैट में रिहाईस तो बना लिया पर पूरे गाँव को जानने व पहचान वाले व्यक्ति के समक्ष आज अपने पड़ोसी से पहचान का प्रश्न ही उठा रहा। आज के दिखावा भरे जीवन में सहजता नही हैं। फेसबुक पर पाँच हजार फ्रेण्ड्स लिस्ट वाले बन्दे के पास वास्तविक जीवन में पाँच सही मित्र हो, यह सम्भावना भी सवाल खड़ी करती है। आज का एकल परिवार
स्वयं में एक बिडम्बना है। यहाँ बच्चों को तो छोड़िये, बड़ों पर अंकुश लगाने वाला कोई नहीं है। परिवार में यदि अनुशासन नहीं तो परिवार को बिखरते देर नहीं लगती। बढ़ते पारिवारिक झगडे, तलाक, बच्चों को उद्दण्डतापूर्ण व्यवहार, इसका ज्वलन्त उदाहरण है। 
अब बच्चों में दादा-दादी का दुलार भरा संरक्षण, स्नेहसिक्त उलाहना और परियों की कहानियों में रूचि नहीं होने के साथ-साथ दिली लगाव भी उत्पन्न नहीं हो पाता क्योंकि एकल परिवार के संचालक उनके आधुनिक माता-पिता अपने बूढ़े माँ-बाप (बच्चों के दादा-दादी) को अपने साथ रखने में असमर्थ हैं, जो साथ हैं वे भी तिरस्कृत हैं। बच्चा वही सीखेगा जो देखेगा। दूसरों पर दोषारोपण करना ठीक नहीं, न ही यह समस्या का समाधान है। मोबाईल, सोशल मीडिया, ओटीटी पर परोसे जाने वाले फूहड़ मनोरंजन और डीटीएच चैनल्स ने आज की सामाजिक सामंजस्यता को समाप्त कर दिया है। मोबाईल पर रोज बात करने वालों को आपस में मिले सालोंसाल बीत जाते हैं। दिन भर कानों में लगे मोबाईल और खाली वक्त मोबाईल पर घूमती उंगलियों ने हमें खुद से ही कितना दूर कर दिया है इसका अहसास हमें होने लगा है। मोबाईल के निजी जीवन में अत्यधिक हस्तक्षेप से परिवार की आपसी बातचीत बन्द कर दिया है। सच कहें तो 
एक अरसा हुआ 
अहसासों को बातों में भींगा देखे, 
कम्बख्त इस मोबाईल ने 
अल्फाजों का वजूद खत्म कर डाला।'
         एक वाक्य में कहें तो परिवार वट वृक्ष की तरह है जो समस्याओं व तनाव के तपती झुलसती धूप से हमें समाधान रूपी राहत देता है। एकल परिवार क्षणिक वर्तमान के लिए सुखद तो हो सकता है, पर लम्बी यात्रा के लिए हमें सहयोग व संबल लेने परिवार को ही अपनाना होगा। हमें परिवार की महत्ता स्वीकार करना ही होगा और एकाकी जीवन व अकेलेपन के प्रश्नों के उत्तर हमें खुद तलाशना होगा। झाँकना होगा अपने अन्तर्मन में टटोलना होगा स्वयं को, क्योंकि समाज एवं स्वयं की इस स्थिति के लिए हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। प्रतिस्पर्धा एवं दिखावे की अंधी दौड़ में पड़कर हम सिर्फ अपना स्वार्थ हल कर रहे हैं। भूला बैठे है अपनी प्राथमिकताओं को। नकार रहे हैं उन मूलभूत दायित्वों को जो एक संस्कारिक परिवार एवं समाज की आवश्यकता ही नही आधारशिला है।
सम्बन्धों में जुड़ाव विश्वास आपसी समझ बनाये रखने के लिए कुछ त्याग करने पड़ेंगे। इस बदलते परिदृश्य में नई पीढ़ी को गर्त में जाने से बचाने के लिए उनमें चारित्रिक सृदृढ़ता लाने के लिए माता-पिता को अपने एकाकी सोच में बदलाव लाना होगा। उन्हें अपने पिछली पीढ़ी और परिवार को समय, प्यार एवं भावनात्मक सुरक्षा प्रदान करनी होगी। उनके समक्ष दम तोड़ रहे रिश्तों को, सम्बन्धों को मान, सम्मान, आदर देना होगा और सबसे बढ़कर 'मैं' की भावना से हटकर 'हम' की भावना का विकास करना होगा। तभी शायद हम आने वाले दिनों में 'परिवार' संस्था को बचाने व स्वयं को सुदृढ़ करने में सफल होंगे। क्योंकि हमारे जीवन का यह बड़ा सच है कि परिवार और मिट्टी का मटका दोनों एक जैसे होते हैं। इसकी कीमत बस बनाने वालों को पता होती है, तोड़ने वालों को नही।
#समाज_जिसमें_हम_रहते_हैं....

(अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस (15मई) समारोह मे उद्बोधित विचार)
नोट: यह उदबोधन वाराणसी के हिन्दी मासिक पत्रिका कर्मपथ के परिवार विशेषांक मे प्रकाशित हो चुका है।
http://chitravansh.blogspot.in

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