व्योमवार्ता/ यादें यूपी कालेज की.....(३)
एडमिशन के बाद लगभग बारह दिन बीतने के बाद पॉच अगस्त भी आ गया । मंगलवार का दिन। हमने आशा जताई कि पहला दिन शुभ ही रहेगा। मंगलामुखी सदा सुखी। गॉव से विदा ले दही गुड़ खा डीह बाबा को प्रणाम कर हम चल पड़े जीवन मे उच्च शिक्षा के मुकाम पर यू पी कालेज। संतोष और मेरी राहें आज से अलग होनी थी। एक ही कालेज मे एक ही कक्षा मे पढ़ते हुये हम दोनों के विषय अलग अलग थे। तो बस एक साथ बैठने उठने पढ़ने के बजाय आगे से बस मिलना ही रह जाना था। हम दोनो पहली बार अपने मॉ के ऑचल के छाँव से अलग हो रहे थे , इसके पहले गोल गोल रोटी कौन कहे, हमने कभी चाय तक नही बनाया था। तो पढ़ने के लिये मै अपने चाचा जो गिलट बाजार मे रहते थे ,के यहॉ और संतोष ने सरसौली मे राजा मामा लाज मे अपना नया बसेरा बनाया। चाचा के यहॉ कपड़े वाली अटैची रख नहा धो नाश्ता कर भगवान जी का नाम ले चल पड़ा यू पी कालेज मे पढ़ने। आज पहली बार अकेले पढ़ने जा रहा था इसलिये कुछ अजीब भी लग रहा था। कालेज गेट पर आ कर उदय प्रताप कालेज लिखे दो पतले रजिस्टर वाली कापियॉ खरीदते समय पहली बार ध्यान से कालेज के सिंहद्वार को देखा अब यहीं से जीवन के भविष्य का निर्माण होना था। विशाल सिंह द्वार केसरिया मिश्रित पीले रंग मे रंगा हुआ साफ सुथरा । गेट के ठीक ऊपर कालचक्र के दो पहियों के मध्यअर्द्ध चंद्राकार संगमरमर पट्टी पर लिखा 'उदय प्रताप कालेज' और ठीक उसके नीचे वृत्त मे लिखा कालेज का ध्येयवाक्य "दृढ़ राष्ट्रभक्ति पराक्रमश्च" खुद को गौरव बोध करा गया। सन १९०९ मे यह कालेज काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के स्थापना के सात वर्ष पूर्व स्थापित हो चुका था आवासीय विद्यालय के रूप मे। आज भी इण्टर कालेज का मुख्य भवन , संध्याहाल और इण्टर कालेज के सभी छात्रावास उसी जमाने के है जो स्वयं मे सुदृढ़ है। कापी ले कर कला संकाय मे पहुंचा तो यह पता चला कि मेरा प्रवेश अर्थशास्त्र के बी सेक्शन मे हुआ है, मेरे विषयों के समायोजन के आधार पर । समय सारिणी के हिसाब से १२.१५ से १ बजे वाली अर्थशास्त्र की कक्षा का समय थोड़ी देर मे होने ही वाला था। कला संकाय के प्रथम तल पर बरामदे साईड वाला कक्ष। लगभग ४० छात्र और १२-१३ छात्रायें। यू पी कालेज मे पहला पीरियेड पढ़ने का सौभाग्य मिला डॉ० विनोद कुमार सर से। सौभाग्य से सर आज भी हमारे लिये मार्गदर्शक के रूप मे सदैव पूज्य है और दूसरे तीसरे उनसे आज भी आशीर्वाद प्राप्त हो ही जाता है। डॉ० विनोद कुमार जी ने प्रथमत: अपना परिचय देते हुये इस कालेज की परंपरा और इतिहास के बारे मे बताया ।सन १९०९ के हिवैट क्षत्रिया स्कूल से लेकर उदय प्रताप स्नातकोत्तर महाविद्यालय बनने तक का सफर और उसमे राजर्षि से लेकर बाबू प्रशिद्ध नारायण सिंह, इण्टर के अद्भुत प्राचार्य जे पी सिंह , डिग्री कालेज के पुनरूद्धारक राजनाथ सिंह लेकर अब तक का एक लेखाजोखा । साथ ही विद्यालय का ध्येयवाक्य दृढ़ राष्ट्रभक्ति के लिये पराक्रम होना जरूरी है। यह पराक्रम हमे अपने अध्ययन और अनुशासन से प्राप्त करना है तभी हम इस राष्ट्र को मजबूत बना सकेगें। स्वागत और शुभकामना के साथ उन्होने इस शैक्षिक सत्र का शुभारंभ किया तो मै उनके सहज और सरल वक्तव्य की तुलना प्रवेश के दिन वाले कटु अनुभव से कर रहा है। फिर मन को यह कह कर संतोष दिया कि भले बुरे दोनो लोग हर कहीं होते हैं कौन सा मुझे अपना अहंकार पोषण करने यहॉ रहना है,हमें तो अपना अध्ययन और अनुशासनरूपी पराक्रम दिखा कर अपने भविष्यनिर्माण के पथ पर आगे बढ़ना है। जाहिर था कि अभी अभी कक्षा मे पाये व्याख्यान को मै गहनता से समझने का प्रयास कर रहाथा। कक्षा समाप्ति के पश्चात छात्र छात्राये बिखर कर अलग अलग हो गये। जब हम पढ़ कर नीचे आये तो भीड़ लगभग नही के ही बराबर थी। विज्ञान व वाणिज्य की कक्षायें अभी प्रारंभ नही हुई थी। कृषि वालो का समय सुबह ही होता था।
हम जब नीचे आ रहे थे तभी डीन साहब डॉ० विश्वनाथ प्रसाद नीचे खड़े कुछ छात्रों को नीचे के क्लासरूम मे बैठने का निर्देश रहे थे । सीढ़ी से उतरते मुझे देख उन्होने मुझसे भी कहा कि कमरें मे चलों। भूतल वाले बॉये पहले कमरे मे ही काफी छात्र छात्रायें बैठे थे और अध्यापन मंच पर डॉ० विश्वनाथ प्रसाद, डॉ० राम सुधार सिंह(जो बाद के वर्षों मे मेरे अध्यापक संरक्षक भी रहे) के साथ दो अन्य लोग। कुछ गुरूजन और गुरूजन समान लोग छात्रों के साथ सामने ही बैठे थे। हमे यह बैठने पर पता चला कि यहॉ हिन्दी साहित्य कार्यक्रम चल रहा था जिसमें बाहर के शोरगुल से व्यवधान होने के कारण डीन साहेब ने बाहर टहल घूम रहे सभी बच्चों को बुला कर अंदर बैठा लिया। मै पीछे की सीट पर अनजान अपरिचित नये चेहरों के बीच बैठे इस फिजूल के बेकारबाजीके लिये कूढ़ना शुरू ही किया था कि मेरे जीवन मे वह क्षण आया जिसने मेरे भविष्य के शौक को एक नई दिशा दी। मंच पर बैठे कुर्ता पाजामा और सदरी पहने मध्यम कद के गौरवर्णीय आकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी सज्जन के स्वरों मे जैसे मॉ सरस्वती विराजमान हो अपनी मधुर रागिनी बजा रही हो -
" गीत जिस दिन मोहब्बत के मर जायेगें,
टूट कर हम उसी दिन बिखर जायेगें।
सामने बैठिये आईने की तरह,
आपको देख के हम सँवर जायेगे।
आदमी के ज़हर का असर देखने ,
साँप भी गाँव से अब शहर जायेंगे ! "
वह सज्जन थे हिन्दी के प्रख्यात गीतकार पं० श्री कृष्ण तिवारी और यह हिन्दी विभाग मे उनके अकस्मात आगमन पर परास्नातक हिन्दी के छात्रों के अनुरोध पर यह आशुकविगोष्ठी आयोजित थी । मेरे लिये टीवी के अलावा किसी कविगोष्ठी मे कवि से रूबरू होने का यह पहला अवसर था। सधे हुये स्वरों मे डूबते उतराते गीत के बोलों मे मुझे तालियों की आवाजों से वर्तमान का अहसास हुआ। छात्र श्रोताओं के मॉग पर पंडित जी ने आपातकाल मे लिखा हुआ अपना मशहूर गीत सुनाया -
भीलों ने बाँट लिए वन
राजा को खबर तक नहीं
पाप ने लिया नया जनम
दूध की नदी हुई जहर
गाँव, नगर धूप की तरह
फैल गई यह नई ख़बर
रानी हो गई बदचलन
राजा को खबर तक नहीं
कच्चा मन राजकुंवर का
बेलगाम इस कदर हुआ
आवारे छोरे के संग
रोज खेलने लगा जुआ
हार गया दांव पर बहन
राजा को खबर तक नहीं
उलटे मुंह हवा हो गई
मरा हुआ सांप जी गया
सूख गए ताल -पोखरे
बादल को सूर्य पी गया
पानी बिन मर गए हिरन
राजा को खबर तक नहीं
एक रात काल देवता
परजा को स्वप्न दे गए
राजमहल खंडहर हुआ
छत्र -मुकुट चोर ले गए
सिंहासन का हुआ हरण
राजा को खबर तक नहीं।
यह मेरे जीवन की प्रथम सुनी कविता थी और यूपी कालेज के पढ़ाई के पहले दिन की कापी पर लिखी नोट्स भी , जो मैने सुनते हुये जल्दी जल्दी आखिरी पन्ने पर लिख लिया था। वह पन्ना आज भी मेरी पुरानी डायरी के पन्नों मे कहीं सुरक्षित है। संभवतः यही वह दिन था जिसने मुझ उडण्ड और खिलंदड़े लड़के को साहित्य की ओर आकर्षित किया। कालेज से चाचा के घर पहुंचने तक मै बार बार यही गीत गुनगनाता रहा।चाची ने आज की पढ़ाई के बारे मे पूछा तो बरबस ही होठों पर मुस्कराहट आ गई कि मै पढ़ने अर्थशास्त्र गया था और पढ़ आया हिन्दी की कविता।
पूरे दिन और रात मेरे ऊपर अर्थशास्त्र के बजाय उस कविता का प्रभाव बना रहा। दूसरे दिन से बाकी नियमित कक्षाएँ भी चलने लगी। कल की तरह आज भी कक्षा से निकलते ही सभी छात्र तितर बितर हो कर बिखर गये,पर यह बिखराव हम जैसों पर ज्यादा भारी था। क्योंकि इसके पूूूूर्व के छात्र जीवन मे कभी भी न हम अकेले रहे न ही एकाकी जीवन ही जीया था। इस बिखराव के बाद भी छात्र छात्राओं के दो गुट तो स्पष्टत: दिख रहे थे। पहले गुट मे वे छात्र छात्रायें जो इसी कालेज परिसर के अंग रहे उदय प्रताप इण्टर कालेज और रानी मुरार से पढ़ कर आये थे वे आपस मे पूर्व परिचय के कारण घुले मिले थे। दूसरे गुट मे वे छात्र छात्रायें जो यू पी कालेज मे पहली बार प्रवेश लेने के बावजूद कालेज परिसर, परिवेश और लोगों से परिचित थे , इस गुट मे शहर के छात्र विशेषकर अर्दली बाजार, शिवपुर, पाण्डेपुर, वरूणापुल,पहड़िया और आस पास के थे। इन दोनो गुटों से उपेक्षित हम लोग थे जो यू पी कालेज मे पढ़ने दूर दराज और दूसरे शहरों गॉवों से आये थे। हमारे जैसे लोग दोनो गुटों से अलग थलग छितराये हुये थे और कालेज परिसर और परिवेश को समझने का एकाकी प्रयास कर रहे थे। मेरे लिये यह एक कष्ट मय प्रक्रिया थी क्योंकि मुझे याद नही कि मैने कभी बिना संगी साथी के जीवन का कोई दिन व्यतीत किया हो। बरामदें मे गुटों से अलग थलग खड़े एक पतले दुबले छात्र को मैने अपना परिचय देते हुये उससे उसके विषय पूछ दोस्ती की शुरूआत की। वह अरविन्द था, लखनऊ से केन्द्रीय विद्यालय मे पढ़ने के बाद यहॉ नाम लिखाया था। उसे भी किसी साथी की ही तलाश थी। तभी हम लोगों से राजेश भी आ मिले, वे मेरे बचपन के मित्र होने के साथ रिश्ते मे भाई लगते है और उसने भी यहीं प्रवेश लिया था। फिर तो दोनो गुटों से अलग थलग पड़े हम गुटनिरपेक्ष छात्र छात्राओं का तीसरा गुट धीरे धीरे प्रभावी होता गया और एक स्थिति यह हो गई कि दोनो गुट हम लोगों से जुड़ने लगे। सीनियर्स के क्लासेज भी शुरू हो चुके थे। अब बड़े छोटे का आपसी तालमेल भी दिखने लगा था। कहीं कोई रैगिंग नही। कहीं कोई जाति प्रभुत्व नही। क्लास कर के दोस्तों के संग कैण्टीन मे जा कर समोसा चाय लालपेड़ा खाते किसी सीनियर के आने पर सम्मान के साथ उनके लिये सीट छोड़ देना और उस सम्मान के बदले पैसा न देने की नसीहत पाते हुये अब कालेज लाईफ पूरे रौ मे चलने लगी।
http://chitravansh.blogspot.com
क्रमश: .....
अगले अंक मे वार्षिक संस्थापन समारोह और अखिल भारतीय कवि सम्मेलन.....
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