संस्थापन समारोह का अखिल भारतीय कविसम्मेलन
व्योमवार्ता/ यादें यू पी कालेज की (५) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, १७ जुलाई २०२०
तीन दिन बाद समापन समारोह मे २५ नवंबर की रात मे अखिल भारतीय कवि सम्मेलन होना था। तब इस तरह के समारोहों के लिये कालेज गेस्ट हाऊस , द्वितीय छात्रावास और पुराने लाईब्रेरी भवन के बीच बड़े मैदान मे विशाल पाण्डाल लगाया जाता था। आज भी कार्यक्रम निम्मित बना पक्का चबूतरा वहॉ मौजूद है। पूरा पण्डाल खचाखच भर जाता था न सिर्फ छात्रों से बल्कि कालेज के अगल बगल १-२ किलो मीटर मे रहने वाले परिवारों से, महिला बच्चों के साथ लोग कालेज के कार्यक्रमों को देखने को आते थे और कवि सम्मेलन के दिन तो पूछो मत, लगता था पूरे बनारस की भीड़ इकट्ठी हो गई हो। मेरे ख्याल से वरूणा पार का यह तब का सबसे बड़ा साहित्यिक समारोह होता था। उसी पाण्डाल मे बने मंच से हमें पहली बार डॉ० गोपाल दास नीरज, डॉ० शंभुनाथ सिंह, भूषण त्यागी, सूड़ फैजाबादी, कैलाश गौतम, श्री कृष्ण तिवारी के साथ चकाचक बनारसी को सुनने का मौका मिला। गीतकार पं० श्रीकृष्ण तिवारी जी मंच संचालन कर रहे थे। जिन कवियों का हमने अब तक मात्र नाम सुना था वे हम लोगों के सामने मंच पर साक्षात विराजमान थे।इसी मंच पर हमने डॉ०शंभुनाथ सिंह के गांभीर्यपूर्ण स्वरों मे
"देश है हम मगर राजधानी नही
हम बदलते हुए भी न बदले कभी
लड़खड़ाए कभी और सँभले कभी
हम हज़ारों बरस से जिसे जी रहे
ज़िन्दगी वह नई या पुरानी नहीं ।
हम न जड़-बन्धनों को सहन कर सके,
दास बनकर नहीं अनुकरण कर सके,
बह रहा जो हमारी रगों में अभी
वह ग़रम ख़ून है लाल पानी नहीं ।
और
"समय की शिला पर मधुर चित्र कितने,
किसी ने बनाये किसी ने मिटाये ,
किसी ने लिखी ऑसूओं की कहानी,
किसी ने पढा सिर्फ़ दो बूं पानी।
इसी मे गये बीत दिन जिंदगी के,
गयी धुल जवानी, गयी मिट निशानी
.....शलभ ने शिखा को सदा ध्येय माना,
किसी को लगा यह मरण का बहाना
शलभ जल न पाया, शलभ मिट न पाया
तिमिर में उसे पर मिला क्या ठिकाना?
प्रणय-पंथ पर प्राण के दीप कितने
मिलन ने जलाए, विरह ने बुझाए।
तथा डॉ० गोपाल दास नीरज की थरथराती आवाज में
"स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,
लुट गये सिंगार सभी बाग़ के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे।
कारवाँ गुज़र गया गुबार देखते रहे।"
और
दीप को अपना बनाने को पतंगा जल रहा है,
बूंद बनने को समुन्दर का हिमालय गल रहा है,
प्यार पाने को धरा का मेघ है व्याकुल गगन में,
चूमने को मृत्यु निशि-दिन श्वास-पंथी चल रहा है,
है न कोई भी अकेला राह पर गतिमय इसी से
मैं तुम्हारी आग में तन मन जलाना चाहता हूं।
मैं तुम्हें अपना बनाना चाहता हूं॥
सुना। हमारे कला संकाय के डीन डॉ० विश्वनाथ प्रसाद ने भी अपनी कविता पढ़ी थी, "जीभ पर ताले दिये, चुप थे नही अच्छा किया, चीखते तुम भी सड़क पर आ गये अच्छा किया"। भूषण त्यागी, हलचल मिर्जापुरी, सूंड़ फैजाबादी, राजशेखर, कमल नयन मधुकर , सावित्री गौड़ की कवितायें तो मुझे अब याद नही है पर पं० हरिराम द्विवेदी के भोजपूरी गीत "
कविता के रस होला सँझिया बिहनवाँ
गउवाँ के गितियन में बसैला परनवाँ
गीतन से करैलें सिंगार हो ,
बाबा मोर आवैं बखरिया॥"
और कैलाश गौतम की "गॉव गया था गॉव से भागा" के बाद "अमवसा क मेला" की कुछ पंक्तियॉ आज भी याद आते ही मन मुस्करा उठता है,
"एही में चम्पा-चमेली भेंटइली.
बचपन के दुनो सहेली भेंटइली.
ई आपन सुनावें, ऊ आपन सुनावें,
दुनो आपन गहना-गजेला गिनावें.
असो का बनवलू, असो का गढ़वलू
तू जीजा क फोटो ना अबतक पठवलू.
ना ई उन्हें रोकैं ना ऊ इन्हैं टोकैं,
दुनो अपना दुलहा के तारीफ झोंकैं.
हमैं अपना सासु के पुतरी तूं जानऽ
हमैं ससुरजी के पगड़ी तूं जानऽ.
शहरियो में पक्की देहतियो में पक्की
चलत हउवे टेम्पू, चलत हउवे चक्की.
मने मन जरै आ गड़ै लगली दुन्नो
भया तू तू मैं मैं, लड़ै लगली दुन्नो.
साधु छुड़ावैं सिपाही छुड़ावैं
हलवाई जइसे कड़ाही छुड़ावै."
शायद उसी साल डॉ० बुधिनाथ मिश्र भी आये थे, यह तो पक्का याद नही, पर उनकी कविता
"एक बार और जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!
सपनों की ओस गूँथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अँधेर में कैसे नेह का निबाह हो।
वाली कविता पंक्ति मुझे आज भी याद है। इन कविताओं ने मेरे साहित्यिक रूचि की नींव रखी जो मुझे बरबस ही हिन्दी साहित्य की ओर खींचती गई और भविष्य मे मेरे जीवन मे साहित्य से कोई सरोकार न होते हुये भी बड़ी काम की साबित हुई। कवि गोष्ठी की मनभावन लहरों मे जब श्रोतागण पूरे तरह डूब उतरा रहे थे तो इन श्रोताओं मे पीछे बैठे छात्र श्रोताओं का अपना अलग अंदाज था जो मेरे लिये अप्रत्याशित, नवीन और मजेदार था। जब किसी कवि की सराहना करती होती तो पीछे के छात्र श्रोताओं से एक स्वर मे काशी की पहचान वाला बाबा भोलेनाथ का स्वर उठता " हर हर महाााा देव " और इस लपेटें मे कभी कभार नये, छोटे, कम चर्चित मझोले कवि आ जाते तो पीछे से बनारस की पहचान शंख घोष मे कोरस होता " भाग भाग ......के" थोड़ी देर की देखा देखी के बाद हम नये छात्र श्रोता भी इस कोरस मे अपना योगदान देने लगे। जब कई छोटे मंझोले कविगण बनारसी शंखघोष के बहाव मे नही चल पाये तो संचालक पं० श्रीकृष्ण तिवारी जी द्वारा काशिका के मशहूर हास्यकवि चकाचक बनारसी को इस शोर को शांत कराने के लिये बुलाया गया। चकाचक जी ने आते ही पहले काशिका बोली मे छात्रों से संवादसंबंध स्थापित किया और फिर अपनी हँस हँस कर लोटपोट करा देने वाली रचना सुनाई,
बदरी के बदरा पिछयउलेस,
सावन आयल काऽ।
खटिया चौथी टांग उठेउलस,
सावन आयल काऽ।
मेहराये के डर से माई लगल छिपावै अमहर,
भईया के बहका फुसला के भउजी भागल नइहर,
सांझै छनी सोहारी दादा तोड़ लियइलन कटहर,
बाऊ छनलन ललका दारू बनके बड़का खेतिहर,
बुढ़िया दादी कजरी गईलेस,
सावन आयल काऽ।
गुद्दड़ क चौउथी मेहररूआ मेंहदी सुरूक लियाईल,
सास क ओकरे कानी अंगुरी सड़-सड़ के बस्साइल,
झिंगुरी के घर भुअरी बिल्ली तिसरे बार बियाइल,
रामभजन क नई पतोहिया झूलै के ललचाईल,
धनुई फिर गोदना गोदवउलेस,
सावन आयल काऽ।
चमरउटी कऽ उलटल पोखरी मचल हौऽ छूआछूत,
खेलत हौऽ धरमू पंडित कऽ बेवा धईलेस भूत,
ननकू के ननका के मुंह पर मकरी देहलस मूत,
छींकत हौ जमिदार क बिटिया गईल खुले में सूत,
पटवारी के दमा सतउलेस,
सावन आयल काऽ।
सांझ के अहिराने में गड़गड़ गड़गड़ बजल नगाड़ा,
कलुआ गनगनायके नचलेस लगल किजइसे जाड़ा,
ओकरे साथे अन्हऊ पंडित नचलन तिरछा आड़ा,
लोटा लेके दउड़त हंउवन उखड़ल ओनकर नाड़ा,
उन्हें गांव भर दवा बतउलेस,
सावन आयल काऽ।
मुखिया के बखरी पर भर-भर चीलम उड़ल खमीरा,
उनके पिछवारे मेघा के लपक के धईलेस कीरा,
एक कोठरी में मुखियाइन के उठल कमर में पीरा,
लगत हौऽ राजा कजरी होई बाजल ढोल मजीरा,
पुरुवा भक दे गैस बुझउलेस,
सावन आयल काऽ।
अभी हम लोग हँसते और हर हर महादेव का हुंकारा भरते कुर्सी पर सीधे भी नही हुये थे कि चकाचक चचा ने माहौल का रूख पहचान प्रासंगिक कविता सुनाया
जवन पटाका मारब सरऊ मुंह से फेकबा प्रान
तब तू होश मे अईबा बच्चू जगजीत सिंह चौहान।
बाद मे श्रोताओं के मॉग पर उनकी ई राजा काशी हौ वाली कविता का पाठ तो होना ही था।
मचर मचर पुरवटवा बोले,सरर सरर फगुनहटी |
चरर चरर चमरौधा बोले,झलके लाल लंगोटी |
- ई राजा काशी हौ
ठहर ठहर के पान घुलाव,बगली दाब बंसौटी |
लहर लहर के राग अलाप,छान छान के बूटी |
-ई राजा काशी हौ
लहर लहर केशरिया छानब,ई तन अइसे छूटी |
लाख सुरहतिंन घेरैं बाकी ,बँधले रहब लंगोटी |
-ई राजा काशी हौ
चना चबेना गंगाजल हौ,गमछा अउर लंगोटी |
संतोषी जिउ मिलिहें तोके खा खा नून और रोटी |
-ई राजा काशी हौ
चकाचक जी के हर छंद के बाद 'ई राजा' बोलते ही श्रोताओं की भीड़ साथ देती "काशी हौ"। किसी स्थानीय कवि के लिये श्रोताओं का यह उन्माद अद्भुत था। चकाचक जी जब बैठने को हुये तो भीड़ उन्हे बैठाने को तैयार नही थी और उन्हे अपनी एक और कविता का पाठ करना ही पड़ा,
"का रे तेजुवा खोल केवाड़ी,आयल हौ जजमान चकाचक //
तीरथ बरत करै वाला हौ,चौचक में रूपया वाला हौ
तनी दाब के खींच रे सरवा,सुच्चामाल गले वाला हौ
सौ पचास क आपन गोटी,सच्चे में बैठे वाला हौ
और देख भड़के न पावे,हफ्तन से ठाले ठाला हौ
आज लगत हौ की खुश हउवन,अपनन पर भगवान चकाचक //
एहरओहर मतदेख होजजमान,भनाभन बढ़ते आव
बाबा क दरबार इहाँ हौ,बत्तीस गंडा इहाँ चढ़ाव
माई क भण्डार इहाँ हौ,सोरह गंडा इहाँ चढ़ाव
छोट मोट देवी देवतन पर,पंचपंच गंडा रक्खत आव
अब त बस हमही रह गइली ,दस क पत्ती एहर बढ़ाव
,बाबा के छाया में अइला,होई हो कल्याण चकाचक //
देख रे ऊ यात्री भटकल हौ,बढ़के तनी बोलाव
मेहररुआ टौटेक हौ,अपने कोठरी में ठहराव
यात्री के तू रगड़ के बूटी,विधी से आज छनाव
रगड़ के बीया चार धतूरा क ओम्मन घोरवाव
छनते सरवा गिर जाई तब,मेहररुआ हथियाव
काशी में त होत रहेला,तन मन धन क दान चकाचक //
का रे तेजुवा खोल केवाड़ी,आयल हौ जजमान चकाचक //...
बाद के वर्षों मे चकाचक बनारसी मेरे रिश्तेदार निकले और उनसे रम्मन चाचा वाला संबंध जीवन पर्यन्त बना रहा।इसी तरह पं० हरिराम द्विवेदी से आकाशवाणी मे बना चचा भतीजा वाला संबंध और डॉ० शंभुनाथ सिंह जी से स्नेहिल दुलार पाने का सौभाग्य भी मिला। ऊपर से कठोर व सख्त दिखने वाले और अंदर से स्नेह और आशीष उड़ेलने वाले नारियल सदृश व्यक्तित्व के धनी डॉ० शंभुनाथ सिंह जी कब राजू भैया @rajeev के बाबूजी के साथ मेरे लिये भी बाबूजी बन गये पता ही नही चला। बाद के वर्षों मे राजीव भैया ने उनकी स्मृति में साहित्य, समाज और पुरातत्व के लिये समर्पित वाराणसी के प्रतिष्ठित डॉ०शंभुनाथ सिंह रिसर्च फाउण्डेशन से हमें जोड़ा जो आज तक बरकरार है और राजीव भैया आज भी मेरे बड़े भाई की भूमिका मे सदैव मेरे लिये उपलब्ध रहते है।
यह सारी उपलब्धियॉ यूपी कालेज की ही देन है जो मुझ अकिंचन को संभवतः कहीं और प्राप्त होना संभव नही थी।
http://chitravansh@blogspot.com
क्रमश: ......
अगले अंक मे : छ: माह पढ़ने के बाद बीए का त्रिवर्षीय हो जाना और छात्र संघ चुनाव
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