रविवार, 16 अगस्त 2020

यह सड़क मेरे गॉव को नही जाती........(लेखक की बात)

 

कहने को तो बहुत कुछ है........................ 

 

                परम्परा तो लेखक के दो शब्द लिखने की है पर मेरे लिए आज बहुत कुछ कहने को है। आज भी मैं अपने अन्दर खुद के गांव को खोजता हॅू उसे याद करता हॅू और मेरा गांव मुझे बुलाता है। जब गांव की बात हो तो गांव की पंगडंडियों की याद आ जाती है। एक दूसरे से जुड़ी हुई पंगडंडियां, कभी न खत्म होनेवाली पंगडंडियाॅ इस सड़क से उस सड़क से जुड़ती और जोड़ती पंगडंडियां। गाॅव की बात भी बस वैसे ही है कभी न खत्म होने वाली। बिना किसी सूत्र के जहाॅ से उठा लो वही एक कहानी और यादों का हिस्सा निकल जाता है। हमारे देश के गांवों का स्वभाव बाजारवादी व्यवस्था 1991 में एल पी जी आने के पहले कमोवेस एक जैसा था। एलपीजी यानि लिबरलाइजेशन, प्राइवेटाईजेशन, ग्लोबलाइजेशन (उदारीकरण, नीजीकरण और वैश्वीकरण) के पहले गांव आर्थिक रूप से गरीब होकर भी आत्म निर्भर थे। अस्पताल, अंग्रेजी, प्राइवेट पब्लिक स्कूल, कम्प्यूटर, टी.वी. बिजली, पाईप वाले पानी से महरूम, कच्ची सड़क पर शहर से दूर, शहर के चालबाजियों से दूर अपने चैपाल में, अपनी पंचायत में, खेतीबारी की बातों में व्यस्त रहने वाले गाॅव, जिसे अपने टाटी पर चढ़ते नेनुयें, सरपुतियों की फिक्र थी जिसे ट्रांसफार्मर जलने पर शाम के धुंधलेपन में घिरते बादलों को देख अपने फसल के घर के कोठरी में धरने की चिन्ता थी। आद्रा से अश्लेषा नखत तक आसमान से पानी न चूने पर उसके पेशानी से पानी चूने लगता था। वह गांव रेडियों पर सात बीस के प्रादेशिक समाचार में मौसम की खबर सुनने को परेशान रहता था पर इन चिन्ता परेशानी और तनाव में भी वह खुश रहता था। सन्तोष करता था। गांव की शादी बारात मिलजुलकर हो जाते थे। किसी की खटिया, किसी का गद्दा, तकिया माॅग कर बारातियों को सुला देते तो अपने-अपने घर से चैका बेलना ले जाकर अड़ोस-पड़ोस की चाची, बुआ, दादी मिलकर पूरे बारात और घरातियों के लिए पूड़िया बेल देती। ऐसे में लड़के कहाॅ पीछे रहने वाले थे। सुबह-सुबह दरवाजे पर आकर वे शादी के दिन खाने के लिए कोहड़ा, कटहल, आलू, बैगन, साग काट लेते तो सलाद में उनके काटे मूली, प्याज, मिर्चा काटने की कलाकारी से लेकर पत्तल परोसने से लेकर खाने के बाद हाथ धुलाने तक में उनकी तत्परता देखते ही बनती थी। वहीं लड़के जिन्हें पूरा गांव दिन भर गांव के उबड़-खाबड़ मैदान में खड़ी दुपहरिया में बैट बल्ला खेलने के लिए कोसते रहता। तब गांव के ख्वाब छोटे से थे इसलिए ज्यादातर पूरे हो जाते थे। जो पूरे नही होते थे उसे किस्मत मानकर सन्तोष कर लिया जाता था। साइकिल की दो पहिया की सवारी के बाद गांव का बन्दा रेल के सैकड़ों पहिये वाली सवारी में ही अपना सुख पाता था। छोटे सपने को अपनी नींद में देखने वाला गांव खुद में एक व्यवहारिक वास्तविकता थी जो परदेश में रहकर कमाने वालों को भी अपने गांव के सपने को जीते हुए गांव खींच लाती थी।

                            पर एलपीजी आने के बाद गांव के सपनों को पंख बन गये। धूलभरी सड़कें काली बनने लगी तो शहर की सुविधाएं भागते हुए गांव आने लगी और गांव के मुस्तकबिल माने जाने वाली वे सपनें भरी आँखें उन्हीं सड़कों को नापती हुई शहर की ओर भागने लगी। गांव में पेट्रोल पम्प, बिजली पावरहाउस, शराब के ठीके, सैलून, कोचिंग, ब्यूटीपारलर, जिम, फार्म हाउस, जनरल स्टोर, कम्प्यूटर सेन्टर खुल गये। टेण्ट हाउस से लेकर ट्रवेल एजेन्सी, मिनरल वाटर डिलीवरी आन होम तक की सुख सुविधाएं अब बस मोबाईल काल भर की दूरी पर रह गयी। रूपये के बदले सेवा देने वाली इस बाजारू व्यवस्था ने गांव वालों को सब कुछ तो व्यक्तिगत रूप से उपलब्ध करा दिया पर वह सुकून और सामूहिक निर्भरता छीन लिया, जिन पर पूरे गांव का सामाजिक ताना बाना था। इन तानों बानों में रिश्ते थे और उनमें अपनापन था। उलाहना, डाॅट डपट, अधिकार और स्नेह था। मनरेगा, प्रधानमन्त्री आवास, हैण्ड पम्प, सोलर लाईट जैसी योजनाओं ने गांव का आर्थिक विकास भले न किया हो पर भ्रष्टाचार, राजनीतिक, वैमनस्यता, ईष्र्या और सम्बन्धों में पूर्वाग्रह और दुराग्रह खूब विकसित किया। आज के गांव में मुख्य परिवर्तन बीसवीं सदी के अन्तिम दशकों से लेकर अब तक होते जा रहे है।

      सच तो ये है कि बीसवीं सदी के आखिरी तीन दशकों में गांव में जन्मी, पली, पढ़ी, बढ़ी वह पीढ़ी परिवर्तन की उस दौर की साक्षी है जिसने लकड़ी की पटरी पर चाक वाली दुधिया (खड़िया) घोलकर अपना सुलेख लिखना सीखा था। वह पीढ़ी जिसने फाउन्डेनपेन ने स्याही की बोतल से स्याही भरने में कईबार अपने हाथ स्याही से नीले काले किया था। लंगड़ी फिर कैची और पैडल के धूरी पर एक पैर रखकर सीट पर उचक-उचक कर साइकिल चलाना सीखने से लेकर घिर्र-घिर्र गोल डायल पर घूमने वाले टेलीफोन से उॅगलियों के छूने और मुॅह से बोलने पर चलने वाले मोबाइल के प्रयोग करने वाली छत पर चढ़ टेलीविजन के एन्टीना को दूरदर्शन के सही सिग्नल पकड़वाने वाली वह पीढ़ी जो अब वेडरूम के विस्तर पर बैठे-बैठे रिमोट के दो तीन बटनों को दबाकर दुनिया के जहाॅ के न्यूज, इण्टरटेनमेन्ट, मूवी, म्यूजिक, आध्यात्म, धर्म, फैशन, विज्ञान और खेल की दुनिया को क्षणांश में अपने आँॅखों के सामने लगे बेड से दूर स्मार्ट टीवी सेट के स्क्रीन को नचाती है। आगे पीछे ऊपर-नीचे घूमा-घूमाकर ब्लैक एण्ड व्हाईट डुप्लीकेट कापी निकालने वाली बड़ी सी फोटोस्टेट मशीन पर कापी के लिए घण्टों इन्तजार करने वाली वह पीढ़ी जो अब नाखुन साईज के मेमोरी कार्ड में सैकड़ों मोटी-मोटी किताबों को लेकर आती है और इलेक्ट्रोस्टेट कलर कापी लेकर चली जाती है। सावन भादों में बरसाती पानी से भरे ताल तलैया पोखरे में नहाकर अपने भाई व पूरे परिवार से कजरी गाकर कुशल क्षेम माॅगने वाली वह पीढ़ी जो अब यू ट्यूब पर लोकगीतों को सुनती तो बच्चों के आ जाने पर ओल्ड फैशन और अनहाइजेनिक कहकर उसे बन्द कर दी है। खाली खेत के खलिहान में बास पर टंगे सफेद कपड़े पर घूमती रील से सिनेमा देखने वाली वह पीढ़ी जो अब मोबाईलों के छोटे से स्कीन पर वेवसीरिज देखने के लिए मुश्किल से समय निकाल लेती है। स्टेशन पर रिजर्वेशन के लिए लम्बी लाईन में खड़ी बड़े चैड़े रजिस्टरों में खुद के लिए सीट बुक कराने वाली वह पीढ़ी जो अब मोबाईल में अंगुलियों से फटाफट सीट रिजर्ब करके आनलाईन ई-टिकट ले लेती है। सांझ ढलते ही चूल्हे में आग सुलगाती कोयले के भट्ठियों का हवा हौकती और उनसे निकलने वाले धुएं से अपना आँख और नाक से बहते यानी को सुड़कती और धोती या चुन्नी के पल्लू से बार-बार पोछती झटपट खाना बनाने वाली वह पीढ़ी जो अब गैस, इंडक्शन, कुकटाप और माइक्रोवेव ओवन में भी खाना बनाते समय जो मैटो और स्वैगी के डिलीवर का इन्तजार करती है। टाईपराईटर के खट-खट में उॅगलियों को तेजी से चलाकर स्पीड बनाती हुई स्टेनोग्राफर बनने के सपने देखने वाली युवा पीढ़ी जो अब फोर्थ, फिफ्थ जेनरेशन के लैपी और नोटपैड पर मुॅह से बोलकर टाइप करने की आदी हो रही है। वह पीढ़ी गाॅव की आखिरी पीढ़ी थी जिसने अपने सपनों को पंख लगते उड़ते ही नही अपनी कल्पनाओं को हकीकत में बदलते देखा। हाॅ यह वही पीढ़ी थी जिसने पेट्रोमेक्स की रोशनी में पाती में बैठकर और टाट बिछाकर पेड़ के पत्तों से बने पत्तल दोनों में खाने-खिलाने का सुख पाया था।

                यह पीढ़ी सपनों के पीछे गाॅव से भाग कर शहर तो आ गयी पर अपने पत्नी और बच्चों की आँखों में नये सपने को पूरा करने में गाॅव को भूलती गयी। भौतिक रूप से उसने खुद को शहर में स्थापित कर लिया। ईएमआई, हाउसिंग लोन, पीएफ, जीपीएफ शार्ट टर्म लांग टर्म लोन, माईक्रो-मैक्रोसेविंग्स से की सहूलियतों से शहर के भीड़भाड़ में सौ गज दौ-सौ गज में घर बनवा लिया या फ्लैट में रहने लगी पर आज भी अकेले होने पर उसका मन भाग कर वन-टू-थ्री बी एच के गाॅव चला जाता है। वही गाॅव जिसे वह पीछे छोड़ आया है। साथ में छोड़ आया है अपने बूढ़े माँॅ-बाप के सूनी आॅँखों में उमड़ता दुलार, और दर्द भरा प्यार बड़ा सा घर और दुआर, खेत खलिहान और वे हरे मैदान। वह भागना चाहता है वापस दुआर पर लगे नीम आम जामुन के उन्हीं पेड़ों की छाॅव में, तुलसी के चैरे के पास अपने बेहद अपने लोगों के पास। पर अब उसके थकते कन्धों पर टंगी जिम्मेदारियों का बोझ, पत्नी की डायबिटीज, खुद का ब्लडप्रेशर, बच्चों के कैरियर और कोचिंग, हर महीने तनख्वाह से कटनेवाली ईएमआई सौ गज का मुर्गी के दरबे जैसा फ्लैट और नीचे गैरेज में खड़ी कार उसे जाने के बजाय रोक लेती है।

                यह गाॅव के सड़क से आने वाले किस्से उसी पीढ़ी के है उनके यादों के है जिन्हें वह तन्हा होते ही ढूढ़ता है और उसमें सुकून पाता है। ये किस्से उसके तन्हा मौन मुस्कराहट के वजह है। सच कहे तो यह लिखा भी उन्ही के लिए गया है । किस्सों के किरदार हममें से ही है। हम खुद। हमारे आस-पास रहने वाले चाचा, ताऊ, बाबा, अम्मा, दोस्त। जो आपको हर कहीं मिलते है हर गाॅव में। क्योंकि गाॅव का मूल स्वभाव तो आज भी वैसा ही है। इन किस्सों को पढ़ते समय अगरचे आपके जेहन में कोई अपना परिचित किरदार नजर आये तो बेहद संजीदगी से उसके बारे में सोचियेगा। यकीन मानिये वह आपका अपना किस्सा ही निकलेगा।

                     शहर जाकर बस गया हर शख्स पैसे के लिए,                          ख्वाहिशों ने मेरा पूरा गाॅव खाली कर दिया। 

                                                          -व्योमेश चित्रवंश,                                      बनारस, शारदीय नवरात्रि, संवत २०७७

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