सोमवार, 3 अगस्त 2020

व्योमवार्ता/ यादें यूपी कालेज की...(७)

यादें यूपी कालेज की...(७) : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, ३अगस्त २०२०

 छात्रसंघ चुनाव हो चुका था, हम लोग गोरखपुर विश्वविद्यालय के नियमानुसार दोसाला से तीन साला बीए के पार्ट 1 मे तकनीकी रूप से डाल दिये गये थे पर व्यवहारिक रूप से ढेर सारी परेशानियॉ, उहापोह, सिलेबस की दिक्कतें चल रही थी। लगभग सात आठ महीना पुराने सिलेबस को पढ़ने के बाद दो ढाई महीने मे नये सिलेबस को पढ कर परीक्षा देना खड़े पहाड़ पर चढ़ने जैसा था। हम लोगों के साथ कक्षा कर रहे ओल्ड स्टूडेंट के लिये और भी मुश्किल था, उनका बीए दो साल के बजाय अब चार साल मे पूरा होने वाला था। इसमे कई ऐसे भी थे जिनका नया नया विवाह हुआ था और उनकी पत्नी विद्यापीठ या कानपुर, फैजाबाद जैसे विश्वविद्यालय से बीए पढ़ रही थी, उन बेचारों को लग रहा था कि जब तक वे बीए करेगें तब उनकी पत्नी बीए पास कर एमए भी कर लेगी। पति बीए पत्नी एमए भारतीय पुरूष प्रधान सामाजिक व्यवस्था विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार मे तब यह डूब मरने की बात थी। ओल्ड स्टूडेंट्स वे होते थे जिन्हे परीक्षा मे असफल होने पर कालेज के नियमानुसार निकाल दिया जाता। वे अगले साल पुन: वही परीक्षा व्यक्तिगत परीक्षार्थी के  रूप मे देते और पास होने पर अगले साल फिर से प्रवेश ले नियमित छात्र बन जाते। ऐसे छात्रो को गुरूजन उनके आग्रह पर नियमित छात्रो के साथ कक्षाएँ करने की अनुमति दे देते थे। बीए तीनसाला कोर्स को न लागू करने के लिये आपस मे विचार कर हम लोगों ने एक प्रार्थना पत्र अपने प्रिंसपल डॉ०ओ पी एस सेंगर को देने का निश्चय किया। सेंगर साहब द्वारा लाईब्रेरी वाले प्रकरण मे निर्णय से मेरा आत्मविश्वास काफी बढ़ा हुआ था। जब हम अपना एप्लीकेशन ले कर प्रिंसपल साहेब के पास गये तो नियम कानून के पक्के सेंगर साहब ने  इसे यूनिवर्सिटी का विशेषाधिकार बताते हुये हम लोगों की बातें सुनने से ही स्पष्ट इंकार कर दिया। नीचे आने पर  ओल्ड स्टूडेंट्स ने राय दिया कि हम लोगों को डीएम को पत्रक देना चाहिये वहॉ से वह मुख्यमंत्री राज्यपाल तक चला जायेगा और सत्र पुन: दोसाला हो जायेगा। उन लोगों ने कई जगहों का नाम लेकर उदाहरण दिया कि ऐसा फलॉ ढेकॉ जगहो पर हो चुका है। उनके अनुभव व उदाहरण से प्रभावित हो कर हमने तुरंत प्रिंसपल का नाम काट कर उस पर जिलाधिकारी वाराणसी लिखा और कचहरी चल पड़े। शुरूआत मे कालेज गेट से निकलते समय हम लोग लगभग १५०-६० रहे होगें पर कचहरी पहुंचते पहुंचते १५-१६ रह गये थे। डीएम आफिस के सामने नीम के चबूतरे पर बैठे हम लोग डीएम साहब की प्रतीक्षा कर रहे थे तभी एक वकील साहब आ कर हम लोगों से हमारे जुटने का कारण व समस्या पूछने लगे। उन्होने हम लोगों का पूरा सहयोग देने की बात कहते हुये बड़े गर्व से बताया कि वे भी यू पी कालेज के छात्र रहे हैं। पर वकील साहब का सपोर्ट हम लोगो के लिये कुछ ज्यादा ही भारी पड़ा। हुआ यूं कि उन्होने रोज कचहरी मे अड़ी जमाने वाले संकठा सर और गणेश सर को जा कर हम लोगों की तारीफ करते हुये सारी बात बताई तो वे दोनो लोग वास्तविकता जानने वहीं डीएम साहब के आफिस के सामने नीम वाले चबूतरे पर ही चले आये। तब तक मेरे साथ वालो की संख्या १५-१६ से ५-६ हो गई थी। जब संकठा सर हमारे पास आये और सारी बात समझा तो   बस एक ही वाक्य मे उन्होने हमे  वापस जाने का निर्णय सुना दिया। हम लोग कुछ कहने को सोचे पर उनके गंभीर चेहरे पर बड़ी बड़ी ऑखों मे दिख रहे नाराजगी से हमे लग गया कि हम लोगों से कुछ गलती हो गई है। दूसरे दिन सुबह संकठा सर की प्रिंसिपल्स आफ इकोनामिक्स की  पूरी क्लास नैतिकता,सिद्धान्त, सदाचार, शिकषकों के मान सम्मान,विद्यालय के गौरव और यूनिवर्सिटी के नियम कानून पर ही चलती रही और हम सिर झुका कर सुनते रहे। मजा यह कि इस पूरे प्रकरण के रायदेहिन्दान ओल्ड स्टूडेंट्स मौका और वारदात दोनो से गायब रहे।
जनवरी के घोर कुहरे भरी ठण्ड मे एक दिन जब हम सुबह ७ बजे  ठिठुरते हुये इकोनामिक्स के क्लास मे पहुंचे तो सारे डेस्कों पर "नगीना" छपे हुये छोटे छोटे पोस्टर लगे हुये थे। तब लहुराबीर के प्रकाश सिनेमा मे रिषी कपूर और श्रीदेवी की ब्लाकब्लस्टर फिल्म नगीना चल रही थी जिसे हमारे क्लास के कुछ सहपाठियों ने सामूहिक रूप से देखा था। यह नगीना काण्ड उस वर्ष काफी चर्चित रहा। संकठा सर के क्लास मे आने से पहले ही हम लोगों ने फटाफट उन छोटे पोस्टरों को उखाड़ कर फेंक दिया कि पुन: एक दिन की कक्षा मे अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों की बलि सदाचार और शिष्टाचार की भेंट न चढ़ जाये।
उसी साल की एक और शरारत,फीस की अगली किस्त जमा करनी थी, तभी शुल्कमु्क्ति के लिये आवेदन निकला। सबकी देखा देखी हमने भी फार्म भर दिया। लालच यह था कि फीस के पैसे बच जायेगें तो वह अपना होगा। साप्ताहिक सिनेमा देखने वाले कार्यक्रम जारी रखने मे उससे आसानी रहेगी। हम लोग हर बुधवार को कालेज के बाद १२से ३ वाला शो देखने जाया करते। एक साईकिल पर दोहरी ताकि स्टैंड का पैसा बचे और अमेरिकन स्टाईल मे टिकट। अमेरिकन स्टाईल मे एक लड़के को सभी अपने अपने हिस्से का पैसा दे देते थे और वह एक साथ सबका टिकट लेता था। लौटते रास्ते मे एक समोसा और लौंगलता का पैसा अलग से।  हालॉकि घर से फीस का पूरा पैसा मिल चुका था पर दोस्तों के सोहबत मे फीसमाफी का फार्म भरने की बात घर पर हमने नही बताया। फीसमाफी के लिये इंटरव्यू होता था जिसमे छात्र से उसके पिछले अंक, पारिवारिक स्थिति, चाल चरित्र आदि पर विचार कर फीस माफ की जाती थी, एक बार फीसमाफी के बाद बाकी के साल भी माफी बनी रहती। इंटरव्यू लेने वाले गुलाब सिंह सर थे। वे हमारे अर्थशास्त्र के शिक्षक होने के नाते अच्छे तरह जानते पहचानते थे। जब उन्होने फार्म मे मेरे गॉव का नाम देखा तो गॉव सहित परिवार और बाबा चाचा के बारे मे पूछने लगे। असलियत पता चली कि वे मेरे क्षेत्र के ही रहने वाले थे और मेरे पूरे परिवार को जानते थे, तो उन्होने सीधे कह दिया कि "तुम्हे फीसमाफी की जरूरत नही है, तुम पूरी फीस दे सकते हो।" अब यह मेरे लिये झटका था क्योंकि मेरे अधिकांश मित्रों की फीसमाफी हो चुकी थी। मैने कोई चारा न देख आखिरी अस्त्र दागा, " सर , फीस तो घर से आ गई थी, पर वह हमने खर्च कर दिया है। ऐसे मे फीस माफी नही हुई तो मुझे आप से उधार लेना पड़ेगा।" गुलाब सर ने मुझे नीचे से ऊपर दो बार देखा फिर मुस्कराते हुये बोले, "ठीक है, इस बार माफ कर दे रहा हूँ पर अगली बार ऐसा नही करूगॉ।"
मै खुशी खुशी इंटरव्यू वाले कमरे से बाहर आया और  इस फीसमाफी की खुशी मे बुधवार  के साप्ताहिक सिनेमा के अतिरिक्त शुक्रवार को  हमने अपने पैसे से नान अमेरिकन स्टाईल मे "मेरा हक" दोस्तों के साथ देखा और समोसा लौंगलता तो सिनेमा के पैकेज मे शामिल था ही।

http://chitravansh.blogspot.in

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