लखनऊ के कैसरबाग की रहनेवाली 80 वर्षीया सुशीला त्रिपाठी जी को उनके तीन साल से पाले हुए खतरनाक नस्ल के पिटबुल कुत्ते ने अचानक हमला कर चीरफाड़ कर जीवित ही खा डाला। सुबह छैः बजे जब सुशीला जी का बेटा अंदर से दरवाजा बंद करवाकर जिम गया हुआ था और वे अपने दोनों कुत्तों पिटबुल व लैब्राडोर को छत पर टहला रहीं थीं उसी समय अचानक पिटबुल प्रजाति के कुख्यात कुत्ते ने उन पर प्राणघातक हमला कर दिया। इस परिवार में माँ बेटा सिर्फ यही दोनों लोग रहते थे एवं अंदर से दरवाजा बंद होने के कारण पड़ोसी उन्हें बचाने के लिए कुत्ते को पत्थर मारने के सिवा और कुछ नहीं कर सके और करीब डेढ़ घंटे तक यानि सुबह छैः बजे से साढ़े सात बजे तक कुत्ता जीवित महिला को नोच नोचकर खाता रहा। पड़ोसियों के बार बार कॉल करने पर भी जब बेटे ने कॉल रिसीव नहीं की तो पड़ोसियों ने स्वयं उसके जिम जाकर उसे सूचना दी। बेटे के आने पर उसका लाड़ला कुत्ता अपनी शरारत पर शरमाकर एक कमरे में छुप गया और काफी देर तक नहीं निकला । अस्पताल ले जाए जाने पर महिला को मृत घोषित कर दिया गया।
इस घटना में मुझे सबसे अजीब बात यह लगी कि बेटे द्वारा लाया गया यह कुत्ता इससे पहले भी सुशीला जी पर हमला कर चुका था पर फिर भी उन्होंने इसे घर में रखना जारी रखा। कुत्ता पाला भले ही बेटे ने था पर उसकी देखभाल माताजी ही करतीं थीं व भोजन आदि भी स्वयं खिलाती थीं। तब भी इस राक्षसी प्रवृत्ति के प्राणी ने उनका यह हाल किया। शिक्षा- वहशी से मोह ममता की आशा करना व्यर्थ है।
एक और चौंकानेवाली बात। बेटे ने इस पूरी घटना में कुत्ते को निर्दोष ठहराया है । यानि जिस कुत्ते ने जन्म देनेवाली माँ को ऐसी भयावह मौत दी उससे उनके सपूत को कोई शिकायत नहीं है। बल्कि माँ की मौत पर अफसोस करने की बजाय वह कुत्ते को ही दुलारता पुचकारता रहा । ये देखकर लोग हैरान रह गए। अपने दोषी से प्रेम करने की इसी बीमारी को 'स्टॉकहोम सिंड्रोम' कहते हैं। हमारे समाज के ज्यादातर लोग अपने रिश्तों में आजकल इसी बीमारी के शिकार हैं। खुद को तकलीफ देनेवाले,धोखा देनेवाले से प्रेम करना,उन पर विश्वास करना लोगों को एक अलग तरह की सैडिस्टिक किक देती है। "यह घटना उन सभी लोगों के लिए एक सबक है जो ऐसे खतरनाक लोगों पर निरंतर विश्वास कर अपनी और अपने लोगों की जिंदगी खतरे में डाल रहे हैं जिनकी गद्दारी और नृशंसता की घटनाओं से संपूर्ण सभ्यता का इतिहास रक्तरंजित हुआ पड़ा है।"
वृद्धा माताजी की इस निर्मम हत्या का बहुत दुख है पर एक बात समझ नहीं आती। गाय के गोबर से घर लीपने पर घिन माननेवाले लोगों को दोनों टाइम कुत्ते को मल विसर्जित कराने के लिए कुत्ते की जंजीर पकड़कर स्वयं कुत्ते की तरह यहाँ वहाँ टहलने पर घिन क्यों नहीं आती? गाय को एक रोटी प्रतिदिन खिलाने से महँगे आशीर्वाद आटा वाले जिन घरों का बजट वेंटिलेटर पर चला जाता है वे इन राक्षसी कुत्तों को प्रतिदिन आधा किलो माँस कैसे उपलब्ध कराते हैं? जिम में पसीना बहाकर कमाया हुआ पैसा इस हैवान को रोजाना माँस खिलाने में लगा रहे थे पर गौसेवा की हरी घास के लिए अगर महीने में एक बार भी पाँच सौ रुपए माँग लिए जाते तो यही सुपुत्र पूरी लेजर खुलवा लेते। और इतना सब होने पर भी कुत्ते को निर्दोष ही ठहरा रहे हैं। शायद लखनऊ नगर निगम इन्हें लाइसेंस जारी कर दे तो ये अब भी इसी राक्षस को साथ ही रखना चाहेंगे। धन्य हैं ऐसी कलयुग की संतानें।
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