सोमवार, 26 जून 2017

एक रफ़ काॅपी का होना : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 26 जून 2017, सोमवार

एक रफ़ काॅपी का होना : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 26 जून 2017, सोमवार

              आज गॉव गया था, महीनों से बंद घर की साफ सफाई कराते हुये छत पर कबाड़ वाले कमरे मे फेंकी मेरी ऱफ कापी मिल गई, शायद कक्षा दस की, उस पर कहीं करीने से, कहीं घसीट कर, लिखी गई टेढ़ी मेढ़ी सतरें, और बीच बीच मे बने फूल पत्ती, कुत्ता बिल्ली ,  रविवार को खेले जाने वाले क्रिकेट मैच की टीम संरचना से लेकर स्कोरबोर्ड तक ,और नामालूम कौन कौन सी डिजाईन स्कूली दिनों की याद दिला गये, जब हम कभी जानकर कभी अनजाने मे, कभी मन से कभी बेमन से रफ कापी का सहारा लेते थे, वह रफ कापी न महत्वपूर्ण न होते हुये भी सबसे महत्वपूर्ण होती थी जिनमे हम पढ़ाई के अलावा बहुत यारी हाचों का ब्यौरा दर्ज करते थे. आज दिन भर वही रफ कापी दिलो दिमाग पर छायी रही, आप सबने भी रफ कापी बनायी होगी. याद है अपनी ऱप कापी?
हर सब्जेक्ट की काॅपी अलग अलग बनती थी,
परंतु एक काॅपी ऐसी थी जो हर सब्जेक्ट को सम्भालती थी।
उसे हम रफ़ काॅपी कहते थे।
यूं तो रफ़ काॅपी  का मतलब खुरदुरा होता है।
परंतु वो रफ़ काॅपी हमारे लिए बहुत कोमल होती थी।

कोमल इस सन्दर्भ में कि उसके पहले पेज पर हमें कोई इंडेक्स नहीं बनाना होता था, न ही शपथ लेनी होती थी कि, इस काॅपी का एक भी पेज नहीं फाडे़ंगे या इसे साफ रखेंगे।
                उस काॅपी पर हमारे किसी न किसी पसंदीदा व्यक्तित्व का  ज्यादातर क्रिकेट प्लेयर, टेनिस की महिला खिलाड़ी या किसी फिल्मी हीरो हिरोईन का चित्र होता था।
उस काॅपी के पहले पन्ने पर सिर्फ हमारा नाम होता था और आखिरी पन्नों पर अजीब सी कला कृतियां, राजा मंत्री चोर सिपाही या फिर पर्ची वाले क्रिकेट का स्कोर कार्ड।
उस रफ़ काॅपी में बहुत सी यादें होती थी।
जैसे अनकहा प्रेम,
अनजाना सा गुस्सा,
कुछ उदासी,
कुछ दर्द,
कुछ टेढ़ी मेढ़ी, बनती बिगड़ती कवितायें,
कुछ बनते बिगड़ते रेखाचित्र
हमारी _रफ काॅपी_में ये सब कोड वर्ड में लिखा होता था
जिसे कोई आई एस आई
या
सी आई ए डिकोड नहीं कर सकती थी।
उस पर अंकित कुछ शब्द, कुछ नाम कुछ चीजें ऐसी थीं, जिन्हें मिटाया जाना हमारे लिए असंभव था।
हमारे बैग में कुछ हो या न हो वो रफ़ काॅपी जरूर होती थी। आप हमारे बैग से कुछ भी ले सकते थे पर वो रफ़ काॅपी नहीं।
          हर पेज पर हमने बहुत कुछ ऐसा लिखा होता था जिसे हम किसी को नहीं पढ़ा सकते थे।
             कभी कभी ये भी होता था कि उन पन्नों से हमने वो चीज फाड़ कर दांतों तले चबा कर थूक दिया था क्योंकि हमें वो चीज पसंद न आई होगी।
समय इतना बीत गया कि, अब काॅपी ही नहीं रखते हैं।
रफ़ काॅपी जीवन से बहुत दूर चली गई है,
हालांकि अब बैग भी नहीं रखते हैं कि रफ़ काॅपी रखी जाए।
              वो खुरदुरे पन्नों वाली रफ़ काॅपी अब मिलती ही नहीं।
हिसाब भी नहीं हुआ है बहुत दिनों से, न ही प्रेम का न ही गुस्से का, यादों की गुणा भाग का समय नहीं बचता।
अगर कभी वो रफ़ काॅपी  मिलेगी उसे लेकर बैठेंगे,
फिर से पुरानी चीजों को खगांलेगें,
हिसाब करेंगे और
आखिरी के पन्नों पर राजा, मंत्री, चोर, सिपाही खेलेंगे।
वो 'नटराज' की पेन्सिल, वो 'चेलपार्क' की स्याही, वो महंगा 'पायलेट' का पेन और जैल पेन की लिखाई।
वो सारी ड्राइंग, वो पहाड़, वो नदियां, वो झरने, वो फूल, लिखते लिखते ना जाने कब ख़त्म हुआ स्कूल।
अब तो बस साइन करने के लिए उठती है कलम, पर आज न जाने क्यों वो नोटबुक का वो आखिरी पन्ना याद आ गया जैसे उस काट - पीट में छिपा कोई राज ही टकरा गया।
        जीवन में शायद कहीं कुछ कम सा हो गया। पलके भीगी सी है, कुछ नम सा हो गया। आज फिर वक्त शायद कुछ थम सा गया।

क्या आपको याद है आपकी वो रफ़ काॅपी
(बनारस,26 जून 2017, सोमवार)
http://chitravansh.blogspot.in

कोई टिप्पणी नहीं: