शनिवार, 1 जुलाई 2017

हमारी वरूणा के सफर की यादें, जीना इसी का नाम है के बहाने : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 01जुलाई 2017, शनिवार

जीना इसी का नाम है,  मेरे फेसबुकिया मित्र जी आर वशिष्ठ  द्वारा पोस्ट की गयी बेहद मर्मस्पर्शी  कहानी
 
आभाषी दुनिया अकसर बेहद प्यारे और उम्दा लोगों को  अपने बेहद करीब ले आती है, जिनके सोच , लगन और कार्यो से दिल खुश हो जाता है और रश्क होता है खुद की किस्मत से, कि हमारे जानिब भी ऐसे बेहतरीन  शख्सियत है. इसी तरह की शख्सियतों मे एक है जी आर वशिष्ठ जी,  यूँ तो चेहरापुस्तिका पर हमारी इनसे मित्रता महज चंद दिनों की है पर समान धरातल पर मिलती जुलती सोच ने हमारे दिलों को बेहद करीब कर दिया है. बहरहाल बात आज की, आज सुबह सुबह चेहरापुस्तिका पर श्री जी आर वशिष्ठ  जी की कहानी #जीना इसी का नाम है# पढ़ा,  बेहद मर्मस्पर्शी,  सकारात्मक और जिन्दादिल कहानी.  देर तक सोचता रहा कि मन मे विश्वास  हो तो हम अकेले क्या नही कर सकते,  समाज के लिये अकेले दम पर सही सोच पर काम करते हुये हम मिसाल तो बन ही सकते है,
            सच मानिये, ये कोई मुश्किल भी नही, हमने खुद पर इसे आजमाया हुआ है,  आज से लगभग 14 वर्ष  पूर्व अपने मित्र सूर्य भान सिंह के साथ मिल कर  मात्र हम दो लोगो ने वाराणसी को पहचान देने वाली मृतप्राय हो चुकी प्रागैतिहासिक  नदी वरूणा के पुनर्जीवित  व पुनरूद्धार करने हेतु एक सपना देखा था तो यह कल्पना भी नही किया था कि समाज मे अच्छे लोगों की भरमार है बस उन्हे आह्वान करने की जरूरत है, फिर तो वे आपके साथ पग पग पर मिलने व चलने को तैयार है,  याद आते है हमारे शुरूआती कदमों के साथी डॉ0 अरविन्द  कुमार सिंह,  डॉ0 कुलदीप सिंह,  अशोक पाण्डेय, अजय यादव,  मनोज श्रीवास्तव त्रयी (मनोज प्रिन्स, मनोज सीआईएमएस,  मनोज चंदू), दिनेश कुमार सिंह,  छोटे भाई के के श्रीवास्तव  कृष्णा, अंकुर व अंकित विश्वकर्मा, राजीव गोंड, जितेन्द्र,  दिलीप,  प्रमोद मौर्य जैसे वे ढेरो साथी, जिनका नाम अभी याद नहीजो बिना नागा आकर वरूणा की सफाई के लिये श्रमदान किये,  बाहर से हमारे संकल्प को सहयोग करने वाले विजय चौबे (नई दिल्ली), 100यूपी बटालियन एनसीसी के मेजर रामसुधार सिंह,  कैप्टन ओपी सिंह, कैप्टन प्रवीण श्रीवास्तव एवं उनके कैडेट्स, भाई शिराज केसर( वाटरकीपर,  नईदिल्ली), विधि क्षेत्र मे हर कदम पर सहयोगी बनारस के स्वनामधन्य वरिष्ठ अधिवक्ता  स्व0 जे0पी0 मेहता साहब ,नेरे नेक कामों मे हमेसा साथ देने वाले राजीव भैय्या (शरिफा) जैसे लोगों के सहयोग व समर्पण हमेशा हमारी पूँजी रही है,  आज वरूणा के पुनरुद्धार व पुनर्जीवन के लिये हम लोगों द्वारा प्रारंभ  किया गया हमारा प्रयास सफल हुआ, उत्तर प्रदेश सरकार  ने हमारे जागरूकता  के प्रयासों  को संग्यान मे लेते हुये वरूणा कारीडोर प्रोजेक्ट  शुरू किया,  आज वरूणा मात्र पुनर्जीवित  ही नही हुई वरन वाराणसी के विकास की एक मानक बन गई है,  आज ढेरो लोग श्रेय लेने के लिये वरूणा के उद्धारकर्ता बनने को तैयार है  पर हम स्वयं द्वारा किये गये स्वान्त: सुखाय के प्रयासों  से संतुष्ट  है,  ठीक # जीना इसी के नाम है# के किसन की तरह.
आज वशिष्ठ  की कहानी पढ़ कर वरूणा के लिये जनजागरूकता के संघर्ष के एक एक पल स्मृति के चलचित्र  पर आ जा रहे हैं, वशिष्ठ भाई की साधिकार अनुमति से कहानी को शेयर करने के बावजूद  उस पर पुन: लिखने का लोभ संवरण नही कर पा रहा हूँ,  अस्तु उनकी कहानी को पुन: कापी कर रहा हूँ,

#जीना_इसी_का_नाम_है
पिताजी की मृत्यु सरकारी नौकरी से रिटायरमेंट के पहले हुई थी तो नियम के अनुसार उनके बेटे को नौकरी मिलनी थी। लेकिन सिद्धार्थ ने अपनी मेहनत से ही एक सरकारी अध्यापक की नौकरी हासिल की थी। पिताजी अक्सर कहा करते कि 'बेटा अपना केवल उसे समझना जो अपनी मेहनत से कमाया हो।'
शहर से 25 किमी दूर एक गाँव के स्कूल में सिद्धार्थ की ज्वॉइनिंग हुई थी।
दूरी ज़्यादा नही थी सो सिद्धार्थ बाइक से ही स्कूल पहुँचा।
शहर की भाग-दौड़ से दूर एक शांत गाँव। साफ-सफाई इतनी कि जैसे प्रधानमंत्री ने ख़ुद स्वच्छता अभियान की शुरुआत यहीँ से की हो।
गाँव में घुसते ही स्कूल पड़ता। बिल्डिंग के नाम पर एक कतार में चार कमरे। पेड़ इतने कि पेड़ों पर ही छत डाली जा सकती थी।
ज़्यादा सर्दी और बारिश के अलावा के दिनों में क्लास इन्हीं पेड़ो के नीचे लगा करती।
आसमानी शर्ट और खाकी पेन्ट में कुछ लड़के एक ही जगह दिखाई दिए तो सिद्धार्थ उनकी ओर जाकर देखने लगा कि दो-तीन लड़के एक कुत्ते को पकड़कर बैठे हैं।
सिद्धार्थ ने देखा तो उनसे कहा, "क्या कर रहे हो?, ये काट लेगा।"
"इस पूरे गाँव में बिना किसी ग़लत बात के कुत्ते भौंकते तक नही...और इंसान भी।" उनमें से एक लड़के ने कुत्ते की गर्दन पर हुए ज़ख़्म पर दवाई लगाते हुए कहा।
सिद्धार्थ को थोड़ा अजीब लगा तो उनसे फिर पूछा, "इस वक़्त कोई क्लास नही है क्या तुम्हारी?"
"जी है ना।" एक ने जवाब दिया।
"किस सब्जेक्ट की?"
"इंसानियत का पीरियड चल रहा है सर।" उस लड़के ने फिर से जवाब दिया।
"इंसानियत का पीरियड?" सिद्धार्थ ने जिज्ञासावश पूछा।
"जी सर। इस पीरियड में हम कोई ऐसा काम करते हैं जो हमें इंसान होने का एहसास कराये। जैसे किसी की तकलीफ़ में मदद करना।" लड़के ने मुस्कुराकर बताया।
"और अगर आपके इस इंसानियत के पीरियड के वक़्त किसी को कोई तकलीफ़ ही न हो या किसी को मदद की ज़रूरत न हो तब?" सिद्धार्थ ने मुस्कुराते हुए पूछा।
"तब?...तब हम सब एक साथ बैठकर एक साथ खाना खाते हैं। " इस बार लड़के की मुस्कुराहट ज़्यादा थी।
"तो फिर लंच ब्रेक में?..." सिद्धार्थ पूछना चाह रहा था तभी पीछे से प्रिंसिपल ने सिद्धार्थ के कंधे पर हाथ रखा।
"अरे तुम आ गए सिद्धार्थ। आओ स्वागत है।"
सिद्धार्थ प्रिंसीपल के साथ ऑफिस की तरफ चलने लगा।
"सिद्धार्थ ये स्कूल बाकी स्कूलों से अलग है। बहुत अलग। धीरे-धीरे जान जाओगे।"
प्रिंसिपल बात करते हुए सिद्धार्थ को ऑफिस में ले गए।
दीवार पर लगी एक तस्वीर पर सिद्धार्थ की नज़रें ठहर गयी और वो मुस्कुराने लगा।
"ये किशन जी। इस स्कूल को अलग बनाने वाले महान इंसान।" प्रिंसिपल ने तस्वीर की तरफ देखते हुए कहा।
"सर कुछ और भी बताइये ना इनके बारे में।" सिद्धार्थ ने कहा।
"एक सनकी इंसान थे साहब। सनक अच्छाई की। सनक ये कि कोई कोशिश करे तो अकेला भी बहुत कुछ बदल सकता है। इस स्कूल को, इस गाँव को जितना इन्होंने दिया उतना अब तक इस गाँव के लिए नेता भी नही कर पाये। बीस साल इस स्कूल में प्रिंसिपल रहे ये। बहुत बार यहाँ से बाहर तबादला हुआ लेकिन इधर उधर से बात करके अपना तबादला फिर यहीँ करवा लेते। पिछले बीस साल से कोई भी बच्चा अनपढ़ नही इस गाँव का।
और पता है सिद्धार्थ.. अपनी तनख़्वाह का तीस प्रतिशत हिस्सा इस स्कूल के विकास के लिए रखते थे। अपने परिवार को हमेशा इसी ग़लतफ़हमी में रखा कि जो सत्तर प्रतिशत था उनको उतनी ही तनख़्वाह मिलती है।
पूरे गाँव की हवाओं में इंसानियत घोल के रख दी इस अकेले इंसान ने।
कुछ नियम बनाये थे उन्होंने जो इस स्कूल में आज भी चलते हैं। जैसे इस स्कूल में दाखिले के बाद किसी भी बच्चे को केवल उसके नाम से याद रखा जाता है। किसी भी बच्चे को दूसरे का सरनेम नही मालूम। यहाँ का इंसानियत वाला पीरियड उन्हीं की देन है। और एक अलग चीज़ और है वो है यहाँ प्रातःकालीन होने वाली प्रार्थना। वो तुम कल सुबह जल्दी आओगे तब ख़ुद देखना। और हाँ एक बात हमेशा याद रखना यहाँ टीचर्स को स्कूल शुरू होने के वक़्त से पहले आना होता है।"
प्रिंसिपल सब कुछ बताते रहे और सिद्धार्थ बड़े ग़ौर से सब सुनता रहा।
घर आने के बाद सारी रात सिद्धार्थ के ज़हन में वो गाँव वो स्कूल घूमती रही।
अगले दिन वक़्त से पहले सिद्धार्थ स्कूल पहुँचा। पूरा स्टाफ आ चुका था। सिद्धार्थ आज फिर किशन जी की तस्वीर की तरफ देखकर मुस्कुराने लगा।

प्रिंसिपल की नज़र सिद्धार्थ की मुस्कुराहट पर गयी।
उन्होंने सिद्धार्थ की तरफ देखकर कहा, "इस स्कूल में ज्वॉइनिंग मिलने वाले हर अध्यापक को गर्व महसूस होता है सिद्धार्थ।"
"तो फिर सोचिये सर कि मुझे कितना गर्व महसूस हो रहा होगा।" सिद्धार्थ ने कहा।
"बिलकुल। तुम्हारी तो नौकरी ही इस स्कूल से शुरू हुई है।" प्रिंसिपल ने कहा।
सिद्धार्थ मुस्कुरा दिया। प्रिंसिपल को थोड़ा अजीब लगा तो उन्होंने पूछा, "इसके अलावा भी कोई बात है क्या?"
"सर..ये मेरे पिताजी थे।" कहते हुए सिद्धार्थ की आँखें छलक उठी।
उधर स्कूल की अलग तरह की प्रार्थना शुरू हो गयी थी। बच्चे अपनी अपनी क्लास में थे। और स्कूल में लगे स्पीकर से मद्धम आवाज़ आ रही थी।
किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार
जीना इसी का नाम है .....
                        -जी आर वशिष्ठ

सही लिखा है जी आर भाई आपने ,एक प्रयास की जरूरत है फिर तो सारा जहॉ ही अपना है,  वाकई जीना इसी का नाम है.
(बनारस, 01जुलाई 2017, शनिवार)
http://chitravansh.blogspot.in

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