बनारस जहॉ मेरा मन बसता है, साल भर पुरानी पोस्ट : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 25 जुलाई 2017, मंगलवार
कल से बनारस मे एकदम झैंयम झैंयम बरसात हो रही है, पूरा शहर कहीं बारिस से तो कहीं बारिस के प्रभाव से जलायमान हो गया है, प्रधानमंत्री व बनारस के यशस्वी सांसद द्वारा बनारस को विकसित करने के सपने और स्थानीय अधिकारियों व ठीकेदारों के मनी अर्निंग गेम के चलते कहीं आईडीपीएस तो कहीं सड़क, पुल व सीवर के चलते सड़कें गलियॉ खुदी पड़ी है, कीचड़, पानी गड्ढा तो हमारे बनारस की पहचान बन गये हैं. पर अपना बनारस तो अड़बंगों का अड़बंगी शहर है जो सारी कमियों के बावजूद हमारे मन मे बसता है. हमारा बनारस हमारा अपना बनारस है जिसके बिना हम रह पायेगें, यह सोचना भी कल्पना से परे है. सुबह सुबह ही ऱेसबुक ने अपने आदत के अनुसार पुरानी पोस्ट दिखाया तो याद आया कि साल भर पहले यह पोस्ट इसी कल्पना को भुलाने के लिये लिखा था हमने. आज फिर से शेयर कर रहा हूँ.
एक वक़्त था जब हम बचपन में अपने घर से निकलते थे और फ़िक्र इस बात की होती थी की कचौड़ी जलेबी भर के पैसे जेब में हैं या नहीं. गोलगप्पे के पैसों के लिए घर पे लात जूते खाने से भी गुरेज़ नहीं किया. घाट ही हमारा गोवा और बैंकॉक था. नाटी इमली का भरत मिलाप ही हमारे लिए ऑस्कर था. ज़िन्दगी का सबसे बड़ा सपना पेट भर मलइय्यो खाना था. ख्वाहिशें छोटी थी, और बनारस से उम्मीदे कम. शायद इसीलिए हम सुखी थे और बनारस ने भी हमे कभी निराश नहीं किया. जितना हमने चाहा, बनारस ने हमेशा उससे बढ़ कर दिया. बनारस ने घाट पे बैठ के चीलम फूकने वाले को भी स्वीकारा और सड़क पे शान से भांग पीने वाले को भी. घाट पे नग्न बैठे अघोरी साधू को भी सम्मान दिया और मंदिरों में बैठे पंडितों की आस्था को भी पाला पोसा. बनारस ने डोम को भी राजा की उपाधि दे कर साम्राज्यवादियों के मुह पर तमाचा भी मारा. ये कमाल भी सिर्फ बनारस के बस की बात थी.
लेकिन अब चीजे बदल रही हैं. हमेशा मस्त हो कर भी शांत रहने वाला बनारस, अल्हड होते हुए भी संभ्रांत बनारस अब भागा भागा फिर रहा है. परेशां भी है और विचलित भी. इसका दिल अब गलियों से ऊब रहा है. इसे अब आसमानी इमारतों में रहना है. धड़ाधड़ बन रही इमारते यही बयान करती हैं. कोई फ्लैट बनाने में परेशां है, कोई बेचने में और कोई खरीदने में. बनानेवाले भी बनारसी, बेचने वाले भी और खरीदने वाला भी. हर रोज़ एक पुरानी इमारत गिरा दी जाती है एक नयी इमारत की तामीर के लिए. और उसी के साथ गिर जाता है हम पर बनारस का भरोसा. चाट दलित सी हो रही है जिसकी तारीफ़ हर कोई करता है लेकिन साथ खाने की मेज़ पर कोई नहीं बिठाना चाहता. आज का नया बनारसी पान नहीं खाता बल्कि पान की दूकान के पीछे मुंह छुपा के सिगरेट पीता है. मॉल की चमक और होटल की मदहोशी देखने और सुनने की सकत को ख़त्म कर रही है. जो बनारस अपने आप में पूर्ण था वो अब किसी और की तरह बनना चाहता है. भौतिकता और सांसारिक इच्छाओ का अंतिम पड़ाव समझा जाने वाला बनारस अब उसी में लिप्त होने को तड़प रहा है. सारनाथ, गोदौलिया, विश्वनाथ गली और हथुआ मार्किट तो चीप लोगो का बाजार हो गया. अब तो शादी के कपडे भी तभी जचते हैंजब दिल्ली या मुम्बई से आये हों. अब औरते माई से मम्मी और मम्मी से मॉम हो गयी हैं. सब्ज़ी अब वही स्वादिष्ट बना पाती हैं जोबिग बाजार से आयी हो. किटी पार्टियां इतनी होती हैं जितने बाप दादा ने रामायण नहीं कराये होंगे.
इन सब के बीच में हौले हौले सांस लेता बनारस आज भी शांत है, और सब कुछ देख रहा है. शायद हमसे ये कहने की कोशिश कर रहा की "अपनी तहज़ीब को मस्ख करने पे तहज़ीब का कुछ नहीं जाएगा, लेकिन एक दिन वो तुम्हे मस्ख कर देगी".......
इसे वही समझ सकता है जो असली बनारसी हो, जिसके मन मे बनारस बसता हो, जो भले बनारस का पुरनिया न हो पर अपने नयेपन के बावजूद बनारस के मर्म को जान व पहचान गया हो. आप लोग नये बनारसी है या पुराने...?
(बनारस, 25जुलाई 2017, मंगलवार)
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