बनारस मे त्योहारों का शुरूआती महापर्व, नाग पंंचैया : व्योमेश चित्रवंश की डायरी, 28जुलाई 2017, शुक्रवार (2)
हमारा बनारस मौज-मस्ती का शहर है, हम बनारसी अपनी जरूरत के हिसाब से मौज करने के लिये वजह जगह और समय का चौचक इंतजाम कर ही लेते है, इंतजाम भी एकदम चकाचक, दिव्य निपटान से लेकर खाने पीने की मुकम्मल व्यवस्था तक. चाहे वह गंगा जी का पेटा हो या गंगा ओप्पार, सारनाथ का बगैचा हो या रामनगर का पोखरा, मूड पानी जमा नही कि परोगराम टाईट, फिर चाहे वह भगवान भोलेनाथ का मंदिर हो चाहे भूतनाथ का महाश्मशान, हमारे लिये सब आनंदकानन काशी बन जाता है.
उसके बाद भी तीज त्यौहार के लिये कोई बहाना चाहिये तो हमने हर दिन को ही त्यौहार बवा डाला, कहते है तीन वार तेरह त्यौहार की काशी, यानि हमारे बनारस का हर वार रविवार लगायत शनिवार तक त्यौहार है बस मन चंगा, मिजाज मस्त, और खलीते मे रोकड़ा होना चाहिए. बावजूद कुछ त्यौहार ऐसे है जो सर्वकालिक व सर्वसम्मति से मनाये जाते है, जिन्हे मनाने के लिये किसी बहाने की या किसी कारण की जरूरत नही पड़ती, इन्ही त्यौहारों मे एक त्यौहार नागपंचमी भी है जिसे बनारस मे पंचैय्या के नाम से ज्यादा जाना जाता है. कहते है पंचैया का त्यौहार साल भर के त्यौहारों का गेट वे आफ इंडिया है. इसी से साल भर के बड़े त्यौहारो का स्टेटस व डाइरेक्शन पता चलता है. पुरनियो ने कहा है कि" जेहि दिन रहै पंचैया नाग, वही दिन पड़ै दीवाली फाग, " कमाल है कि आज तक यह व्यवहारिक सिद्धांत कभी गलत नही हुआ.
पंचैय्या का त्यौहार बनारस मे अखाड़े और दंगल का त्यौहार है, पहलवान हो या विद्वान, कलाकार हो या जादूगर सभी एक दूसरे की औकात नापने के लिये भिड़ते है. लब्बोलुआब ये कि आज का भिड़ना साल भर के लिये जरूरी है और आज से शुरू हो जाती है कजरी, जो पड़ोसी जिले मिर्जापुर की आयातित माल है. अब तो कम पहले कजरी के दंगल भी होते है, हलकी बौछारों के बीच किसी नीम के तले बने चौघट्टे पर गोल गोल चक्कर मे घूमते हुये कजरी के बोल, सुबह शाम पेंग पड़ते हुये झूले तो अब देखने को नही मिलते पर अखाड़ो मे पहलवानों ने और नागकूप तथा अन्य गुरू स्थानों पर विद्वानो ने भिड़न्त वाली परंपरा कायम रखा है.
बनारस मे नाग पंचमी के त्यौहार मे बड़े गुरू व छोटे गुरू के नाम से नागपूजन होता है. इसके पीछे की पौराणिक कहानी व मिथक को हमारे छोटे भाई राजीव श्रीवास्तव एडवोकेट जी ने अपने वाल पर निम्न पोस्ट किया है
काशी में नागपंचमी और बड़े –गुरु, छोटे-गुरु के नाग –
काशी का जैतपुरा स्थित नागकूप एक ऐसा स्थल है जिसका महर्षि पतंजलि और महर्षि पाणिनि से गहरा सम्बन्ध रहा है | यह महर्षि पतंजलि की तपोस्थली है |उन्हें शेषावतार भी माना जाता है | स्कन्द पुराण के अनुसार यह वह स्थान है जहाँ से पाताल लोक जाने का रास्ता है | यहाँ नागकूपेश्वर महादेव स्थापित हैं | ऐसी मान्यता है कि पतंजलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर महाभाष्य की रचना की थी | पतंजलि को शेषावतार माना जाता है | कथा है कि एक बार श्रावण शुक्ल पंचमी (जिसे बाद में नाग पंचमी कहा गया )के दिन काशी के जैतपुरा स्थित इसी कूप पर पाणिनि कुछ विद्वान ब्राह्मणों के साथ शास्त्र चर्चा कर रहे थे तभी पतंजलि एक विशाल सर्प के रूप में वहां प्रकट हुए | इतने बड़े सर्प को देख कर पाणिनि घबरा गए और उन्होंने “को भवान्” (अर्थात आप कौन )के स्थान पर “कोर्भवान्” कहा | जिसके उत्तर में सर्प रूपधारी पतंजलि ने उत्तर दिया- “सपोऽहम्”| इसपर पाणिनि मुनि ने पूछा- “ रेफः कुतो गतः”? सर्प ने उत्तर दिया- “ तव मुखे “ | इसपर पाणिनि और वहां बैठे ब्राह्मण विद्वानों को सर्प की विद्वता पर घोर आश्चर्य हुआ और वे एक साथ प्रश्न करने लगे | इसपर सर्प रूपी पतंजलि ने सबके उत्तर एक साथ देने के लिए शर्त लगाई की वे चादर की आड़ के पीछे रहकर एक साथ सभी के प्रश्नों का समाधान करेंगे | इस चादर की आड़ के पीछे से शेषनाग पतंजलि अपने सहस्रों मुखों द्वारा एक साथ सभी प्रश्नकर्ताओं के उत्तर देने लगे | पतंजलि द्वारा दिए गए सभी उत्तरों को विद्वानों ने लिख लिया और महाभाष्य तैयार हो गया लेकिन एक ब्राह्मण से रहा नहीं गया और उन्होंने चादर की आड़ हटा कर देखना चाहा कि इसकी ओट से कौन उत्तर दे रहा है , लेकिन इससे शर्त का उल्लंघन हो गया और विद्वानों द्वारा लिखा गया पूरा भाष्य जल गया और शेषनाग रूपी पतंजलि अदृश्य हो गए | इसपर सभी बड़े दुखी हुए | जिस समय ये शास्त्रार्थ चल रहा था , उसी समय समीप के एक वृक्ष पर एक यक्ष भी बैठा था और उसने ये पूरा भाष्य वृक्ष के पत्तों पर लिख लिया था | विद्वानों के दुखी होने पर उसने वृक्ष से ही लिखे हुए सारे पत्तों को उनकी और फेंका लेकिन इकठ्ठा करते -करते कुछ पत्तों को बकरियां खा गईं | इसलिए महाभाष्य में विसंगतियां आ गईं | इस शास्त्रार्थ के बाद पतंजलि बड़े -गुरु और पाणिनि छोटे -गुरु कहलाये और उनके अनुयायी सर्पों को बड़े- गुरु और छोटे –गुरु का नाग कहा गया | इस प्राचीन समय से पतंजलि और पाणिनि के स्मरण में श्रावण शुक्ल पंचमी (नागपंचमी) पर शास्त्रार्थ की परंपरा रही है जो बीच में विलुप्त हो गई थी लेकिन कुछ विद्वानो के अथक प्रयास से ये परंपरा पुनर्जीवित है.
(बनारस, 28जुलाई 2017, शुक्रवार)
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