आजकल हम राबर्ट एच शूलर की बेस्टसेलर पुस्तक tough times never last but tough people do को लगभग १५-१६ साल बाद दूबारा पढ़ रहे है। १९८८ मे प्रकाशित इस मोटिवेसनल किताब ने हमे बहुत प्रभावित किया है क्योकि इसके सिद्धान्त बेहद व्यवहारिक व सुगम है जिन्होने हमे कठिन समय मे भी बड़ा बल दिया है।
पर व्यवहारिक जीवन का एक दूसरा पहलू भी है निरासाजनक व नकारात्मक पहलू। इस अवधारणा को मानने वाले लोग संसार के हर तथ्य, प्रकृति के हर भेंट, व हर मानवीय संबंधो को एक शव विच्छेदनात्मक दृष्टि ( पोस्टमार्टम एनालसिस) से देखते है। उनका 'क्यो' विश्लेषण इतना मजबूत होता है कि वे किसी भी तथ्य के सकारात्मक पहलू पर नकारात्मक सवाल उठा देते है और निश्चयात्मक रूप से अंतिम निर्णय सुना देते है कि किसी भी कार्य का को सकारात्मक रूप से परिणति किया ही नही जा सकता। मुश्किल यह है कि ऐसे लोग स्वयं को विश्व के सबसे बुद्धिमान व विश्लेषक मानते है। अगर ऐसे व्यक्ति आप के सुख दु:ख मे शामिल हो गये तो क्या कहना? आप की थोड़ी सी खुशी व संतोष तो पलीता लगा कर कपूर जैसे यूँ उड़ जायेगा कि क्या कहने।
हमारा वास्ता ऐसे लोगो से प्राय: पड़ता रहता है, पेशेगत मजबूरियो व आपसी सम्बंधो को ख्याल मे रखते हुये हम इन्हे मना भी नही कर पाते पर बचते बचाते व मजबूत ईच्छाशक्ति के बावजूद भी हम जैसे लोग भी जानने समझने के बावजूद भी ऐसे लोगो व उनके विचारो के हल्के फुल्के प्रभावक्षेत्र मे आ ही जाते हैं।
भगवान बचाये ऐसे लोगो से। हमने ऐसे लोगों का नाम मि० होपलेश व श्रीमान निराश जी रखा है।
ताजी घटना, मेरे एक परिचित वकील साहब है , जानकार है पर दृष्टि वही निराशावादी। दोतीन साल पहले वे बीमार पड़े, अच्छे डाक्टरों को दिखाया गया , लाभ होना भी प्रारंभ हुआ। पर वकील साहब ठहरे विश्लेषणात्मक व्यक्तित्व के धनी। उन्होने कुछ इधर उधर का अध्ययन किया। इस तरह के कुछ बिगड़े घटनाओं पर विचार कर के यह अवधारणा स्थापित कर लिया कि ऐसे सभी लक्षण कैंसर बीमारी के है। और चिकित्सक लोग उन्हे बता नही रहे है पर है उन्हे कैंसर ही। फिर क्या था मि० होपलेस के साथ साथ पूरा परिवार परेसान। भगवान का शुक्र है कि वे ठीक हो गये। फिर उन्हे लगा कि वे मधुमेह से भयंकर रूप से ग्रसित है और उनका मधुमेह स्तर से पार का है। अब उन्होने जो अधिकतम परहेज हो सकता है शुरू कर दिया। नतीजा वही ढाक के तीन पात। इनकी सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे किसी को अपने से अच्छा व ज्यादा मानने को तैयार भी नही चाहे वह रोग हो या जानकारी। संपर्क हो या सामाजिकता। इसलिये खुद को खुद की वास्तविकता से परे दिखाने की कोशिस मे वह स्वयं के साथ औरो के निसाने पर भी आते है पर इस बात को मानने को तैयार नही। इसी तरह पिछले साल उनके पुत्र का १०+२ के बाद आगे की पढ़ाई थी। मि० होपलेस ने यह मान लिया कि इस देश के सभी शिक्षण पाठ्यक्रम बीएससी बीए बीकाम आदि अब बेमतलब रह गये है। +२ के बाद पढ़ाई का मतलब केवल कुछ विशेष संस्थानो से इंजीनियरिंग की पढ़ाई है बाकी सब बेकार। उन्होने यह भी निश्चय किया कि वे बच्चे को बिना कोचिंग के ही टेस्ट दिलायेगे क्योकि १ तो उनका लड़का पढ़ने मे काफी तेज है , २ कि कोचिंग वाले पढ़ाते तम है और सेटिंग ज्यादा करते है, ३ कि बच्चे को उसके मौलिक ग्यान की परख होनी चाहिये। बच्चे मे भी मि० होपलेस के कुछ मूलभूत गुणसूत्र आना स्वाभाविक ही है। लिहाजा उसने भी उसी लाईन पर सोचना शुरू किया। प्रवेश परीक्षा का रिजल्ट आने पर दूर दूर तक उन विशेष संस्थानो के प्रवेश सूची मे उसका नाम ही नही था। फिर मि० होपलेस ने पूरे प्रकरण का पोस्टमार्टम कर के यह निष्कर्ष निकाला कि सब के बच्चे कोचिंग किये इसलिये वे इंजीनियरिंग मे प्रवेश पा सके। बस उनका ही लड़का रह गया साथ ही उन्होने लोगो की जानकारी मे यह इजाफा किया कि गत वर्ष के पेपर आउट आफ कोर्स थे। इसलिये गत वर्ष इंजीनियरिंग मे प्रवेश पाने वालो को पूरे पढ़ाई आउट आफ कोर्स ही करनी होगी लिहाजा उन सब का इंजीनियरिंग करना बेकार लेकिन यह बात मि० होपलेस भी जानते है कि दूसरो के लिये सिद्धान्त बघारना और बात है और व्यवहारिक प्रक्रिया और। इसलिये बस दो ही महीने के बाद वह किसी कोचिंग को यह कह कर ढूढ़ने लगे कि कल उनका लड़का उन्हे यह ताना न दे कि उन्होने उसे कोचिंग नही कराया। कचहरी की व्यवस्था से भी वे परेशान रहते है और उनकी निगाह मे शायद ही कोई अधिकारी या वकील हो जो ईमानदार हो। चाहे उनके गुरू हो या कोई मित्र हर कोई उनकी दृष्टि मे बेकार साबित हुआ है। बहरहाल बात वर्तमान संदर्भ की। मेरे साथ मि० होपलेस एक बीमार व्यक्ति को देखने गये, उन्होने उसकी मिजाजपुर्शी के बजाय उसके बीमारी का पोस्टमार्टम करना प्रॉरंभ कर दिया। और इस व इस जैसी बिमारी के जितने बिगड़े केस थे उन सब का यूँ विश्लेषण किया कि बेचारा बीमार भी खुद को केसने लगा होगा कि वह अभी तक इस धरती पर यदि है तो वह उसका अभिशाप ही है। और तो और होपलेस साहब ने यहॉ तक कह डाला कि इस तरह बिस्तर पर आराम करने से बेहतर है कि कब्र मे आराम किया जाये।
अब बेचारे बीमार के घर वाले यह निश्चित नही कर पा रहे थे कि मि० होपलेस उनके पिता जी की मिजाजपुर्शी मे आये है या यमराज के वारंट की खबर देने। अंत मे उनके बीमार के पुत्र ने मुझे बुला कर पूछा कि भैया जी पिताजी के रिपोर्ट अच्छे आ रहे है। दिन पर दिन उनके स्वास्थ्य मे सुधार हो रहा फिर भी भाई साहब बड़े निरास है। मुझे टी२० मे बॉग्लादेश से आखिरी बाल पर एक रन से जीतने के बाद धोनी का इंटरव्यू याद आ रहा था। बीमार बाप के पुत्र को शिकायत यह थी कि मि० होपलेस मेरे जैसे सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति के साथ आये है और मेरी हालत
मझे गालिब का वो शेर याद आ रहा था कि
इस दुनिया मे कमी नही साहब
एक ढूढ़ो हजार मिलते हैं।
अवढरदानी महादेव शंकर की राजधानी काशी मे पला बढ़ा और जीवन यापन कर रहा हूँ. कबीर का फक्कडपन और बनारस की मस्ती जीवन का हिस्सा है, पता नही उसके बिना मैं हूँ भी या नही. राजर्षि उदय प्रताप के बगीचे यू पी कालेज से निकल कर महामना के कर्मस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय मे खेलते कूदते कुछ डिग्रीयॉ पा गये, नौकरी के लिये रियाज किया पर नौकरी नही मयस्सर थी. बनारस छोड़ नही सकते थे तो अपनी मर्जी के मालिक वकील बन बैठे.
बुधवार, 30 मार्च 2016
व्योमेश चित्रवंश की डायरी : मि० होपलेस, 30 मार्च 2016
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